भाषाविद्–डॉ. राजेंद्र प्रसाद

भाषाविद्–डॉ. राजेंद्र प्रसाद

देश को रोता-बिलखता छोड़, देशरत्न ‘बाबूजी’ चले गए। वे गुणों की खान थे। उन गुणों में एक, बहुभाषाविद् होना भी है।

उनकी शिक्षा-दीक्षा फ़ारसी से आरंभ हुई थी। लगभग दस वर्ष की आयु तक वे यह शिक्षा, अपने जन्म-ग्राम जीरादेई में घर पर ही प्राप्त करते रहे। उन्होंने लिखा है कि अँग्रेज़ी-अध्ययन के लिए छपरा जाने के पहले करीमा, मामकीमा, खालकबारी खुशहाल-सीमिया, दस्तूरुलसीमिया, गुलिस्ताँ–और बोस्ताँ वे पढ़ चुके थे। आगे यह चर्चा आई है कि एंट्रेंस और एफ.ए. में भी उन्होंने फ़ारसी लेकर परीक्षाएँ दीं। इन दोनों परीक्षाओं में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रथम श्रेणी में प्रथम रहे। लिखा है : ‘फ़ारसी में नंबर भी खूब आता था। अगर फ़ारसी का नंबर न होता तो मैं एंट्रेंस में अव्वल नहीं होता; क्योंकि गणित में मुझे कम नंबर आए थे।’ एफ.ए. में भी अँग्रेज़ी, फ़ारसी और लाजिक में सबसे अधिक नंबर आए थे।

अपने फ़ारसी-ज्ञान की व्याख्या इससे अधिक नहीं की, पर निधन के कुछ समय पहले समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था कि उन्होंने अमुक स्थान में बिना तैयारी के एक धारावाहिक व्याख्यान फ़ारसी में दिया। उन्होंने यह अवश्य लिखा है कि जब वे पंजाब, सीमाप्रांत आदि में दौरा करते थे, तब अपने व्याख्यान फ़ारसी-मिश्रित हिंदी में देते थे।

दस वर्ष की अवस्था में, अँग्रेज़ी आरंभ करने के पहले, वे फ़ारसी के अतिरिक्त ‘कैथी’ लिखना और गिनती करना सीख चुके थे : ‘पर याद नहीं है कि यह कब और कैसे सीखा।’ संभव है, घरेलू हिसाब-किताब देखते-समझते सीख लिया हो। भोजपुरी मातृभाषा थी ही; जिसमें कबीर का बहुत सा साहित्य और बिहारी साधु-संतों की उच्च कोटि की रचनाएँ प्राप्य हैं। मैथिली के बारे में कोई चर्चा नहीं आई है। मैथिली तो हिंदी है। जैसे मध्यप्रदेश में सब लोग बुंदेलखंडी, छत्तीसगढ़ी, निमाड़ी बोल नहीं सकते, तो आपस में समझ तो लेते ही हैं; वैसे ही बिहार में भी हिंदी की भोजपुरी और मैथिली शैलियाँ सब लोग हम से तो ज़्यादा अच्छी ही समझ लेते होंगे। हमारे प्रांत के मैथिलों की वह मातृभाषा तो नहीं रह गई, पर ‘विद्यापति’ वे ग़ैर-मैथिलों से अच्छा समझते और समझाते हैं।

पुराना मध्यप्रदेश (सी. पी. तथा बरार) हिंदी-मराठी मिश्रित था। पढ़ने में कठिनाई ही नहीं; क्योंकि दोनों की लिपि देवनागरी है। बोलने-समझने के लिए एक भाषा के अफ़सरों को दूसरी भाषा की डिपार्टमेंटल परीक्षा पास करनी पड़ती थी। मराठी-क्षेत्र के हिंदी-भाषियों के बच्चे मराठी पढ़ते थे। मेरे साथ जितने मराठी-भाषी छात्र थे, वे हिंदी में हम लोगों से आगे ही रहते थे। जिन मराठी-भाषियों ने हिंदी की सेवा की है, या कर रहे हैं, न उनकी गिनती गिनाई जा सकती है, न उनकी श्रेणी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है, न उनके प्रति पर्याप्त आभार प्रगट किया जा सकता है। वे अपने-आप में ही धन्य हैं। बिहार भी बंगाल का एक सूबा था। वहाँ भी ऐसे ही संबंध रहे होंगे, और होंगे। हम लोगों की धारणा है कि वहाँ सभी को बंगाली आती है। कम-से-कम मेरे जितने बिहार-निवासी आत्मीय और मित्र हैं, सब अच्छी बंगाली जानते हैं। यह अवश्य है कि वे शहरी हैं। संभव है, ग्रामों में इतनी जानकारी न हो। हमारे यहाँ भी नहीं है।

बाबूजी ने लिखा है कि कलकत्ते के प्रवास से उन्हें एक लाभ यह हुआ कि ‘बिना प्रयास के ही मैंने बँगला बोलना सीख लिया।’ उनके समान मेधावी के लिए ‘बँगला बोलना’ सीखने का अर्थ साधारण ज्ञान प्राप्त कर लेना नहीं है। बंगाल और बंगाली मित्रों के अटूट स्नेह की चर्चा उन्होंने बार-बार की है। तब ‘बोलने’ का संबंध रहा हो, ऐसा संभव नहीं है। कभी यह प्रश्न बंगाली भाषा से केवल उठता है कि क्या कलकत्तावासी होने के कारण मौलाना अबुल कलाम आज़ाद भी बंगाली पढ़ते, बोलते, समझते थे। अँग्रेज़ी वे पढ़ते-समझते थे; बोलते नहीं थे। उनकी आत्मकथा या दूसरों के लिखे जीवन-चरित्रों में बंगाली की कोई चर्चा मेरे पढ़ने में नहीं आई।

बाबूजी ने लिखा है कि दस-ग्यारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने छपरा में ए. बी. सी. और अ, आ, इ, ई प्रारंभ की। अ, आ, इ, ई से तात्पर्य हिंदी-शिक्षा का नहीं है, क्योंकि आगे लिखा है कि प्राथमिक कक्षाओं में उन्होंने संस्कृत पढ़ी। छपरा में ‘घर पर भी कुछ संस्कृत पढ़ना आरंभ किया। लघुकौमुदी के कुछ सूत्र घोख भी लिए, पर इसको जारी नहीं रख सका।’

इसके बाद सन् 1930-31 में, हज़ारीबाग जेल में, संस्कृत के प्रत्यक्ष-परोक्ष अध्ययन की चर्चा आती है : ‘जेल के अंदर चर्खा चलाने और उद्योग-धंधे के अलावा धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन भी हुआ करता था। छपरे के पं. भरत मिश्र भी साथ थे। उनसे श्री वाल्मीकीय रामायण की कथा और पं. विष्णुदत्त शुक्ल से दुर्गा सप्तशती की कथा सुनी। स्वयं, पहले-पहल, मुख्य उपनिषदों को आद्योपांत पढ़ गया।…मेरी घनिष्ठता श्री निवारणचंद्र दास गुप्त से बढ़ गई।…उनके साथ हम लोगों ने पतंजलि के योग-सूत्र का अध्ययन किया।’ स्वामी सहजानंद जी से गीता भी पढ़ना चाहते थे, पर तब समयाभाव के कारण यह नहीं हो सका। वे धर्मप्राण तथा आप्राणांत विद्यार्थी थे। अभी-अभी दक्षिणी भाषाओं का अध्ययन करने के लिए पुस्तकें मँगवाई थीं। अतएव गीता का गंभीर अध्ययन बाद में अवश्य किया होगा। संस्कृत का सीमित ज्ञान लेकर, इतने थोड़े समय में (छ: मास में), उपर्युक्त ग्रंथों का साहित्यिक अध्ययन संभव नहीं। कुछ ज्ञान अध्ययन तथा कुछ प्रवचनों द्वारा प्राप्त किया। इतनी बात निश्चित है कि बाबूजी के समान मेधावी व्यक्ति के लिए यह सीमित पठन-पाठन भी व्यापक दृष्टि और ज्ञान देने में समर्थ हुआ होगा। आगे लिखा है कि वे दक्षिण तथा महाराष्ट्र के दौरे में अपने व्याख्यान संस्कृत-मिश्रित हिंदी में दिया करते थे। पहले और बाद के स्वाध्याय के अतिरिक्त इस अध्ययन-गोष्ठी से भी उन्होंने यह भाषण-सुविधा प्राप्त की होगी।

उन्होंने दो-तीन बार, ग्रीष्म-काल में, मध्यप्रदेश में पचमढ़ी-निवास किया। वह छोटी-सी जगह है और जनता बड़ी भोली-भाली है। वहाँ मैंने ऐसी सरल भाषा में उनके व्याख्यान सुने, जो निरक्षर की भी समझ में आ जायँ। इस प्रकार हिंदी में व्याख्यान देने की उन्होंने तीन शैलियाँ निर्मित कर ली थीं, जिनके पीछे उनका सौम्य व्यक्तित्व, मधुर कंठ तथा सुस्पष्ट प्रतिपादन तो रहता ही था।

उनके अँग्रेज़ी-ज्ञान के बारे में कुछ कहना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। वह गरिमा अकथ कहानी के रूप में ही शोभा देती है।

उर्दू हिंदी की ही एक शैली है। फ़ारसीदाँ उर्दू जाने ही, यह आवश्यक नहीं। अनेक भारतीय इतिहासकारों ने अपने विषय की शोध के लिए केवल फ़ारसी पढ़ी है; उर्दू से अनभिज्ञ हैं। बाबूजी ने उर्दू का भी अभ्यास किया था। एंट्रेंस और एफ. ए. में एक परचा किसी भारतीय भाषा से अँग्रेज़ी और अँग्रेज़ी से भारतीय भाषा के अनुवाद का होता था। यह परीक्षा वे उर्दू में देते थे, और प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान तो सुरक्षित था ही।

फारसी, संस्कृत, अँग्रेज़ी, बंगाली, उर्दू और बिहारी भाषाओं की अत्यंत संक्षिप्त चर्चा हो चुकी। अब रह गई बेचारी हिंदी। यह भी विधि का कैसा विधान है कि हमारे चोटी के नेताओं को स्वाध्याय के कठिन मार्ग से हिंदी सीखनी पड़ी है!

महात्मा जी साधारण हिंदी जानते थे। हमेशा से उनके घर में ‘मानस’ का सटीक पाठ होता चला आया था। यह उल्लेख उनकी आत्मकथा में है। उन्हें अपना संदेश जन-जन और मन-मन को देना था। टूटी-फूटी भाषा में ही संदेश देने में उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ। वह तो हृदय का हृदय को संदेश था। उनके मुँह से वे प्रेम लपेटे बैन बड़े मीठे लगते थे; प्रभावशाली तो होते ही थे। बिना बनावट के अशुद्ध भाषा बोली जाए तो बड़ी मीठी लगती है। इस मिठास के लिए अँग्रेज़ ‘रामचंड्रन’ के रिकार्ड अवश्य खरीदते थे; भारतीय अँग्रेज़ी की खिल्ली उड़ाने के लिए नहीं। नागपुर और बंबई के कामगरों ने एक विशेष हिंदी-बोली बनाई है। श्री उदयशंकर जी भट्ट, श्री ‘अश्क’ जी आदि ने उसका उपयोग अपने उपन्यासों में किया है। उसकी मिठास के कारण पात्रों में जान आ गई है। लोकमान्य तथा गुरुदेव ने भी, श्रोताओं के प्रेम के वशीभूत हो, हिंदी में भाषण दिए हैं, जिनकी मिठास मुद्रित रूप में अब तक प्राप्य है। सरदार वल्लभ भाई पटेल हमेशा से हिंदी में धारावाहिक व्याख्यान देते थे। उन्होंने कब अभ्यास कर लिया, इसका पता नहीं। पर महात्माजी ने स्वाध्याय और प्रयोग के कठिन मार्ग से हिंदी पर विजय प्राप्त की।

श्री राजगोपालाचार्य, डॉ. राधाकृष्णन आदि हिंदी जानते हैं। भाषण इसलिए नहीं देते कि वे पंडित-शास्त्री हैं। जिस भाषा पर पूरा अधिकार नहीं, उसमें वे भाषण नहीं देंगे। मेरे सामने एक उदाहरण है, डॉ. पट्टाभि सीतारमैया का। वे हिंदी जानते थे। अँग्रेजी में भाषण देते थे। एक-एक वाक्य बोलते जाते और दुभाषिया हिंदी में अनुवाद करते जाता। जहाँ दुभाषिया गलती करता, वे तुरंत टोक देते और गलती सुधार देते। साहित्य में वे ‘क्लासीसिस्ट’ (उच्चवर्गीय) थे, अतएव बिना पूर्ण अधिकार के किसी भाषा में व्याख्यान देने में उन्हें आपत्ति थी। कुछ लोगों के लिए ऐसा भी संभव है कि अँग्रेजी में ही भाषण देने का अभ्यास हो, अपनी मातृभाषा में नहीं। एक बार महात्मा जी ने क़ायदे-आज़म श्री जिन्ना साहब से कहा था कि हम लोग आपस में गुजराती में पत्र-व्यवहार क्यों न करें? उन्होंने उत्तर दिया था कि वे केवल अँग्रेज़ी ही शुद्ध बोल और लिख सकते हैं। साधारण बोल-चाल की बात और है; भाषण तथा गंभीर लेखन की और।

पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि आरंभ में उन्होंने कुछ संस्कृत पढ़ी थी। कहा जा चुका है कि उर्दू हिंदी की ही एक शैली है। उर्दू पंडित जी की मातृभाषा है। उनके उर्दू-ज्ञान का क्या कहना! अमेरिका में स्व. नवाबजादा लियाकत अली खाँ साहब ने कहा था कि नेहरू जी उतनी ही अच्छी उर्दू बोलते हैं, जितनी कि स्वयं वे। परंतु उस उच्च कोटि की उर्दू द्वारा पंडित जी समस्त भारत को अपना संदेश नहीं दे सकते थे। उन्हें भी ऐसी भाषा का अभ्यास करना पड़ा, जो जनसाधारण की समझ में आ जए। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि कुंभ आदि के मेलों में बहुतेरे ग्रामीण भाई उनके यहाँ भी दर्शन करने जाते थे। उनसे बातचीत करके उनके सम्मुख भाषण दे-दे कर, उन्होंने जनसाधारण की समझ में आनेवाली भाषा का अभ्यास किया। उन्हें यह महात्माजी के समान कष्टसाध्य नहीं हुआ होगा, पर हिंदी का अभ्यास तो उन्हें भी करना ही पड़ा।

अब अपने चरित-नायक के हिंदी-ज्ञान की कुछ चर्चा की जाय। बाबूजी ने हिंदी का प्रथमोल्लेख यों किया है : ‘एक चीज जिसका असर मुझ पर बचपन से ही पड़ा है, रामायण-पाठ है।’ बचपन की इस चर्चा के बाद हिंदी का उल्लेख आता है। उन्होंने दस वर्ष की आयु में, छपरा की पाठशाला में अ, आ, इ, ई आरंभ की, पर शिक्षा हिंदी की नहीं, संस्कृत की प्राप्त की। सन् 1906 में, कलकत्ते में विद्याध्ययन करते हुए, इन्होंने पटना में छात्र-सम्मेलन की स्थापना की। लिखते हैं : ‘उन्हीं दिनों हिंदी के साथ भी प्रेम बढ़ा (अर्थात् लगभग 22 वर्ष की अवस्था में)। स्कूल में, एक या दो बरसों तक, नीचे के वर्ग में, मैंने संस्कृत पढ़ी। उसके बाद फारसी पढ़ने लगा। संस्कृत छोड़ने का मुख्य कारण यह था कि बाबूजी (पिता जी) चाहते थे, मैं वकील बनूँ। उनका खयाल था कि मुकदमे के कागज-पत्र फारसी में लिखे मिलते हैं, इसलिए फारसी पढ़ने से वकालत में मदद मिलेगी। पीछे मैंने घर पर कुछ संस्कृत पढ़ने की कोशिश भी की थी, पर वह बहुत दिन चल न सकी। × × × हिंदी पढ़ने का तो कभी मौका ही नहीं आया। हिंदी के अक्षरमात्र जानता था। घर में माँ आदि रामायण पढ़ा करती थीं। इसलिए मुझे भी रामायण पढ़ने की चाह हो गई थी। बहुत दिनों तक तो सबेरे रामायण-पाठ करके कुछ खाता-पीता। यह नियम कुछ दिनों तक चला था। हिंदी के दूसरे ग्रंथों को देखने का कभी मौका नहीं मिला था।’

एक प्रकार से कुछ न पढ़ करके भी, उन्होंने बहुत-कुछ हिंदी पढ़ ली थी। उनके समान मेधावी विद्यार्थी कुछ दिनों तक श्रद्धापूर्वक ‘मानस’ के समान ग्रंथ पढ़े, तो पढ़ने को बाकी ही क्या रह गया? फिर मित्रों के बीच भी बोल-चाल, वाद-विवाद किसी सीमा तक हिंदी में भी होता ही रहा होगा। जब हिंदी से प्रेम हुआ, तब स्वाध्याय भी तेजी से अग्रसर हुआ होगा। इन सब कारणों से इतना आत्म-विश्वास प्राप्त हो गया कि बी. ए. में अनुवाद की परीक्षा हिंदी में दी और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए; यद्यपि इस समय तक उन्हें परीक्षाओं से कुछ अश्रद्धा हो गई थी।

इसके बाद उन्होंने हिंदी की जो सेवाएँ कीं, वे सर्वविदित हैं। अखिल भारतीय हिंदी-साहित्य-सम्मेलन स्थापित करने में वे एक मुख्य तथा कर्मठ कार्यकर्त्ता थे। प्रथम अधिवेशन में सम्मिलित हुए। तृतीय में स्वागत-समिति के प्रधान मंत्री थे। सन् 1936 के नागपुर-अधिवेशन के वे सभापति थे। वे राष्ट्रभाषा-प्रचार-समिति के भी अध्यक्ष रहे। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने जो सेवाएँ कीं, वे वर्णनातीत हैं। तथापि, सबसे महान् तथा अमर सेवा ‘आत्मकथा’ की रचना है। अन्य गुणों के अतिरिक्त, उसकी भाषा उदाहरणीय तथा शैली अद्वितीय है। जैसे वे देश-रत्न थे, वैसे ही यह रचना ग्रंथ-रत्न है।

मैं बाबूजी के निकट संपर्क में कभी नहीं आया। पास से देखा अवश्य है, त्रिपुरी-काँग्रेस में, जहाँ मैं भी एक कार्यकर्त्ता था; पचमढ़ी में भी, जहाँ वे रोज सबेरे घूमने निकलते थे और सबके प्रणाम-नमस्कार ग्रहण करते थे। साहित्य-संघ, जबलपुर में साथ मंच पर भी बैठा था। हमलोग उन्हें घेरना चाहते थे कि हिंदी राज-भाषा हो इस पक्ष में वे वचनबद्ध हो जायँ; अन्यथा हिंदी-भाषी इतने पत्र और तार भेजेंगे कि उनके कार्यालय में रखने को जगह नहीं बचेगी। उन्होंने हँस कर उत्तर दिया था कि यह अच्छी बात होगी। वे शासनाधिकारी हैं। तार-चिट्ठियों से शासन को आर्थिक लाभ होगा। परंतु विधान-परिषद् के सभापति होने के नाते, वे किसी ऐसे विषय में स्वतंत्र मत देने के अधिकारी नहीं हैं, जो परिषद् के विचाराधीन हो। जो परिषद् का मत होगा, वही उनका मत होगा। हिंदी से लाख प्रेम हो, पर उन्हें कर्त्तव्य से च्युत नहीं किया जा सकता था।

मैं उनके समीप पहुँच तो सकता था। मुख्य मंत्री, स्व. पं. रविशंकर जी शुक्ल की मुझ पर कृपा थी। मेरे समधी, स्व. जस्टिस शुकदेव प्रसादजी वर्मा उनके मित्रों में से थे। बाबूजी ने लिखा है कि स्वभाववश वे बिना काम-धाम के किसी के पास नहीं जाते थे। मेरी समस्या यह थी कि बाबूजी के पास पहुँच तो जाऊँ, पर बोलूँगा क्या?

एक घटना अवश्य ऐसी घट गई थी कि उसके उल्लेख का लोभ संवरण नहीं कर सकता। भक्त तो था ही। उनकी आत्मकथा मेरे प्रेस (इंडियन प्रेस) में छपी। प्रूफ देखते-देखते ही पढ़ गया, और अंत में मुग्ध रह गया। लगभग इसी समय, अर्थात् सन् 1946 में वे विधान-परिषद् के प्रथम सभापति निर्वाचित हुए। मैंने सोचा कि विदेश के लोग हमारे प्रथम सभापति के विशेष परिचय-हेतु उत्सुक होंगे। अतएव बाबूजी और आत्मकथा के बारे में अँग्रेजी में एक लेख तैयार किया और ‘इलस्ट्रेटेड वीक्ली ऑफ इंडिया’, बंबई को भेज दिया; यह सोचकर कि उसका विदेश में प्रचलन है। पता नहीं था कि वे लेखादि अपने गुट के लोगों के या बहुत बड़े आदमियों के ही छापते हैं। मैं इन दोनों में ही नहीं। लेख वापस आ गया। ‘लीडर’, प्रयाग की मुझ पर कृपा है। उन्होंने दि. 27-4-1947 के अंक में लेख तथा चित्र सम्मानपूर्वक छापा। काम हो जाने से संतोष हुआ।

‘वीक्ली’ में श्री गैंडर का साप्ताहिक ‘लंदन-पत्र’ छपता था। एक-दो सप्ताह के बाद उन्होंने लिखा कि विदेश के लोग विधान-परिषद् के प्रथम सभापति का विशेष परिचय पाने के लिए व्यग्र हैं। तब ‘वीक्ली’ ने परिचय प्रकाशित किया। मुझे संतोष हुआ कि विदेशियों की जिज्ञासा का मैंने पहले ही अंदाजा लगा लिया था।

बात आई-गई हो गई। साल-पर-साल बीतते गए। सन् 1956 के लगभग, सन् 1955 में प्रकाशित, बाबूजी को समर्पित, ‘अजातशत्रु’ अँग्रेजी अभिनंदन-पुस्तिका देखने में आई। संपादक, श्री वाल्मीकि चौधरी, जिन्हें मैं परोक्ष रूप से जानता था कि बाबूजी के न केवल निजी सचिव, वरन् आत्मीयवत् हैं, तथा आत्मकथा में उनका कई जगह उल्लेख और चित्र है। मुझे कोई शानो-गुमान ही नहीं था कि उस पुस्तक में मेरा लेख ज्यों-का-त्यों उद्धृत है। पढ़ कर बहुत अच्छा लगा, बहुत ही अच्छा। यह कि लेख सात-आठ साल सुरक्षित रखा गया, यह कि बड़े-बड़े दिग्गजों के बीच इस अकिंचन को स्थान मिला यह कि ‘वीक्ली’ का लेख उद्धृत करने योग्य नहीं था; क्योंकि श्री चौधरी जी की नजर से वह भी अवश्य गुजरा होगा। चौधरीजी का कहाँ तक आभार मानूँ? आज आँसू आ रहे हैं, तथापि यह दूर का संबंध भी अच्छा लग रहा है।

देश-रत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद पर क्या-क्या-कुछ नहीं लिखा गया, और नहीं लिखा जायगा; किस-किस ने नहीं लिखा, और नहीं लिखेगा? तथापि, बिना आज्ञा ‘बाबूजी’ कहनेवाला यह दासानुदास, उनके जीवन के एक अंश-मात्र पर, दो अटपटे शब्द लिख कर वैसा ही संतोष प्राप्त कर रहा है जैसे एक भिखारी देवता के चरणों में दो पत्र-पुष्प चढ़ा कर। बाबूजी का यश अमर हो।


Image: Rose Breasted Grosbeak
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Artist: John James Audubon
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