अपने अपने नामवर
- 1 April, 2019
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अपने अपने नामवर
काल से बड़ा कोई आलोचक नहीं है। यह किसी को नहीं छोड़ता। अगर जीवन एक पुस्तक है तो काल हर पल मौन भाव से इसका आलोचनात्मक पाठ तैयार करता रहता है। हिंदी आलोचक भले ही राग-द्वेष से ग्रसित हो कुछ लेखकों को उठाते-गिराते रहे हों, लेकिन काल कभी किसी को गिराता नहीं, बल्कि गिरे को भी उठा लेता है। 19 फरवरी, 2019 को रात्रि 11:30 बजे ख्यात आलोचक डॉ. नामवर सिंह को भी काल ने उठा लिया। नामवर जी ने 92 वर्ष की लंबी उम्र पाई थी। जब जवानी पर किसी का जोर नहीं चलता तो बुढ़ापे पर क्या चलेगा। फिर भी काल सीधे रास्ते कभी किसी के पास नहीं आता। वह आने का कोई-न-कोई बहाना ढूँढ़ लेता है। अपने जीवन काल में न जाने कितनों को उठाने और गिराने वाले डॉ. नामवर सिंह 15 जनवरी, 2019 को अपने ही बिस्तर से गिर गए और ऐसा गिरे कि फिर उठ नहीं पाए। तब काल के बलवान बाँहों ने उन्हें उठा लिया। हिंदी प्रेमी उनके स्वस्थ होने की कामना करते रहे कि वे जल्दी बिस्तर से उठें। हालाँकि वे उठे जरूर मगर कुछ इस तरह–
‘कल तो कहते थे कि बिस्तर भी उठ सकते नहीं
आज दुनिया से चले जाने की ताकत आई।’
नामवर जी को पसंद करने वालों की संख्या कम नहीं है, मगर नापसंद करने वालों की संख्या भी कुछ कम नहीं है। ऐसे में उनके जाने पर सबने अपने-अपने नामवर को याद किया। हालाँकि कौन किसे कितने दिन याद करेगा यह भी काल ही तय करता है।
21 फरवरी, 2019 को सायं 6 बजे उनकी स्मृति में साहित्य अकादेमी के सभागार में जो स्मृति सभा हुई, उसमें डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, डॉ. नित्यानंद तिवारी, डॉ. चितरंजन मिश्र (गोरखपुर), लीलाधर जगूड़ी, दिविक रमेश आदि ने अपने-अपने तरह से उन्हें याद किया। स्मृति सभा से पूर्व नामवर जी पर बनी एक फिल्म का प्रदर्शन भी किया गया। इस फिल्म में ख़ास बात यह है कि नामवर जी ने अपने संबंध में साहित्य अकादेमी द्वारा दिए गए पुरस्कार के बारे में जो बात कही है उससे पुरस्कार को लेकर कई सवाल भी खड़े होते हैं। उन्होंने कहा कि तत्कालीन डिप्टी सेक्रेटरी भारतभूषण अग्रवाल ने उन्हें किताब लिखने को कहा जिसे उन्होंने एक माह में लिख दी। वह किताब ‘कविता के नए प्रतिमान’ है। इसी किताब पर डॉ. नामवर सिंह को 1971 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया गया। सवाल खड़ा होता है कि क्या अकादेमी पुरस्कार की प्रक्रिया यही है? अगर पुरस्कार देने की प्रक्रिया यही है तब तो जिसे देना हो उससे सशर्त किताब लिखने को कहकर उसे सम्मानित किया जा सकता है। ऐसे भाग्यशाली लेखकों को पुस्तक लिखने से पूर्व ही यह पता चल जाएगा कि जो पुस्तक वह लिख रहा है उसे पुरस्कार मिलना तय है। अगर वरीयता के आधार पर भी ऐसा किया गया होता तो नामवर जी के गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को पहले ही उनसे कोई किताब लिखवाकर उन्हें सम्मानित किया जाना चाहिए था। मगर ऐसा भी नहीं हुआ। बहरहाल पुरस्कारों की अनंत कथा का उल्लेख करना यहाँ उद्देश्य नहीं है। उद्देश्य यह बताना है कि पुरस्कार को लेकर बहुत गंभीर होने की जरूरत नहीं है। यह सब लेन-देन का खेल पहले से ही चलता आ रहा है। फिल्म प्रदर्शन के बाद वक्ताओं ने अपने-अपने तरह से नामवर जी को याद किया। श्रोता दीर्घा में लोगों की संख्या देखकर नामवर जी की लोकप्रियता का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता था। इस अवसर पर जगूड़ी जी ने एक संस्मरण सुनाया। उन्होंने कहा कि नामवर जी के निधन के कुछ दिन पूर्व वे उनके निवास (शिवालिक अपार्टमेंट) पर मिलने गए थे। उनके साथ अरुण कमल और एक अन्य लेखक भी थे। नामवर जी उन लोगों को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। जगूड़ी जी ने नामवर जी से पूछा, ‘अगर कोई एक ही पुस्तक बचानी हो तो आप किसे बचाना चाहेंगे?’
नामवर जी ने कहा, ‘एक नहीं दो। पहली गीता और दूसरी पुस्तक–रामचरितमानस।’
डॉ. नामवर सिंह का डॉ. रामविलास शर्मा से विरोध के अनेक कारणों में एक कारण तुलसीदास भी थे। बेचारे तुलसीदास ने सपने में भी कभी नहीं सोचा होगा कि उनके गुजरने के करीब छह सौ वर्षों बाद हिंदी के दो बड़े आलोचक उनके नाम पर आपस में सिरफुटौवल करेंगे। रामविलास जी के बारे में नामवर जी यही कहा करते थे कि उन्हें तुलसी में कोई कमी ही दिखाई नहीं देती। जीवन भर जिस बात का विरोध करते रहे, जीवन के ढलान पर वही नामवर जी जब गीता और रामचरितमानस को बचाने की बात करते हैं तो इसे क्या कहा जाय! वैचारिक विचलन या उम्र का प्रभाव। राजेन्द्र यादव ने भी एक साक्षात्कार में कहा था कि युवा पीढ़ी को रामचरितमानस नहीं पढ़ना चाहिए। इन पंक्तियों के लेखक ने जब उनसे पूछा, ‘आपने रामचरितमानस कितनी बार पढ़ा है?’ तो राजेन्द्र जी कुढ़ गए। बोले–‘पच्चीस बार।’
‘फिर आप भ्रम क्यों फैला रहे हैं। स्वयं पच्चीस बार पढ़े और नए लोगों को न पढ़ने की राय दे रहे हैं।’ इस पर राजेन्द्र जी बात को टाल गए और कहने लगे कि उनके कहने का आशय कुछ और था। आत्मीयता के कारण उन्होंने एक संस्मरण भी सुनाया कि वे बचपन में अपनी माँ के साथ भजन गाते हुए झाल बजाया करते थे।
कई बार लगता है कि यह भी तुलसी की ताकत ही है कि हिंदी के अनेक प्रगतिशील लेखक तुलसी विरोध से ही अपनी क्रांति की शुरुआत करते हैं। डॉ. नामवर सिंह भी इसके अपवाद नहीं थे। उनके गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भी कबीर के ज्यादा करीब थे। नामवर जी का रामविलास जी से वैचारिक विरोध इस हद तक था कि डॉ. रामविलास शर्मा के निधन के बाद ‘आलोचना’ का उनकी स्मृति में जो अंक आया उसमें रामविलास के प्रति श्रद्धांजलि कम, प्रहार ज्यादा था। हालाँकि नामवर जी उनका आदर कम नहीं करते थे। बहरहाल ये दो बड़े आलोचकों की लड़ाई थी। मगर आखिरी दिनों में नामवर जी की यह तुलसी भक्ति चकित कर देनेवाली थी। उनके बचाव में हालाँकि डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि नामवर जी के कहे पर न जाकर उनके लिखे पर ध्यान देना चाहिए। उनके भाषणों में भले ही विरोधाभाष हो, लेकिन लिखते समय वे बहुत सावधान रहते थे। लेकिन विश्वनाथ जी, नामवर जी की अनेक पुस्तकें तो उनके भाषणों से ही तैयार की गई हैं, इस बारे में आप क्या कहेंगे? विश्वनाथ जी की गुरु भक्ति से उपजी यह भावाभिव्यक्ति थी। इसमें उनका भी क्या दोष। मगर देखिए स्वयं नामवर जी अपने बारे में क्या कहते हैं। उन्हीं के शब्दों में–‘बोलने से जुबान नहीं कटती, लिखने से हाथ कट जाता है। मैं हाथ कटने से बचता रहा। क्यों झमेले में पड़ें। कई बार लिखने बैठा। सोचा, क्या लिखूँ, क्या न लिखूँ, इसी ऊहापोह में लिख न पाया।’ मगर नामवर जी इसका क्या होगा–
‘रघुकुल रीति सदा चली आई
प्राण जाई पर वचन न जाई।’
कबीर की यह परंपरा नहीं है। कबीर को जो बोलना था, बोल देते थे। उनके यहाँ कोई ऊहापोह नहीं है। उन्होंने ‘मसी कागद’ नहीं छुआ। उनके शिष्यों ने बाद में उनकी वाणी को लिपिबद्ध किया होगा। अगर उन्हें लिखना आता तो भी वे वही लिखते जो बोलते थे। अपने यहाँ श्रुति परंपरा बहुत प्राचीन है। पहले श्रुति परंपरा ही थी। इसीलिए वेद का भी एक नाम श्रुति है। नामवर जी मध्यमार्गी थे। वे संवाद में विश्वास करते थे। ‘वाद-विवाद-संवाद’ नामक उनकी पुस्तक को भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। फिराक गोरखपुरी ने कभी अपने बारे में लिखा था–
‘आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हम असरों
जब भी उनको ध्यान आएगा
तुमने फिराक को देखा है।’
डॉ. नामवर सिंह ने अपने बारे में ऐसा कभी कुछ नहीं कहा। फिर भी जिन लोगों ने उन्हें देखा है वे कहेंगे ही कि उन्होंने भी डॉ. नामवर सिंह को देखा है। हालाँकि फिराक साहब की यह आत्ममुग्धता भी हो सकती है और अति आत्मविश्वास भी। क्योंकि आज की नई पीढ़ी अपने अग्रज लेखकों के प्रति न सिर्फ अनुदार है बल्कि कटु भी है। नामवर जी की अनुदारता में भी कटुता नहीं थी। ख़ास कर वे नए लेखकों के प्रति–जो अब वरिष्ठ हो गए हैं, विशेष उदार थे और मददगार भी। जो लोग उनसे जुड़े रहे और उनकी जमात के सदस्य रहे उनकी उन्होंने भरपूर चिंता की। वे यह नहीं सोचते थे कि किस लेखक की क्या लेखकीय औकात है, बल्कि वे उसकी औकात स्वयं तय कर देते थे। हिंदी में ऐसा कद्दावर व्यक्ति कोई और नहीं है।
उन्हें अपने समय के साहित्य का सामंत भी कहा जा सकता है। उनका विरोध करने की हिम्मत कम लेखकों में थी। विरोधी भी उनके मुँह से अपनी सराहना सुनने को लालायित रहते थे। यही कारण है कि कई ऐसे लेखकों को भी उन्होंने अकादेमी पुरस्कार दिलवाया जिनकी तब तक मात्र एक या दो किताबें ही आ पाई थीं और साहित्य में उनकी कोई ख़ास हैसियत नहीं बन पाई थी। वहीं कई ऐसे लेखक भी थे जो दर्जनों पुस्तकें लिखने के बावजूद उदास नजरों से यह सब खेल देखते रहे। निःसंदेह अपने लोगों के लिए वे एक छायादार पेड़ थे, लेकिन कई ऐसे लेखक भी थे जिनकी जड़ों में वे जीवन भर मट्ठा डालते रहे। इसलिए नामवर जी ने जितने दोस्त बनाए उससे कहीं अधिक दुश्मन। लेकिन जिन्हें वे अपना समझते थे उनमें कई अपने मतलब भर ही उनसे संबंध रखते। फिर भी नामवर जी दुश्मनी में भी रस लेते थे। रहीम का एक दोहा है–
‘रहीमन खोजो ऊँख में, जहाँ रसन की खानि
जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यही प्रीति की हानि।’
रहीम को प्रीति बचाने की चिंता थी, इसलिए वे प्रेम रस को बचाने के लिए संबंधों में गाँठ न आए इसके लिए आगाह करते हैं। मगर डॉ. नामवर सिंह उस गाँठ से भी रस पैदा कर देते थे। अगर रहीम आज होते और डॉ. नामवर सिंह से उनकी मुलाकात हुई होती तो शायद वे इस दोहे में कुछ फेर-बदल कर देने की सोचते।
डॉ. नामवर सिंह से मेरा परिचय 1992 में सीपीआई के राष्ट्रीय कार्यालय, अजय भवन, दिल्ली में हुआ था। जहाँ तक मुझे याद है वे जाड़े के दिन थे। कॉमरेड प्रतुल लाहेड़ी के साथ अजय भवन के बाहर परिसर में हमलोग धूप सेंक रहे थे। और भी कई कॉमरेड थे। लंच का समय था। प्रतुल लाहेड़ी को हमलोग दादा कहा करते थे। कॉ. ए.बी. बर्धन, अनिल राजिमवाले, कृष्णा दीदी आदि भी उन्हें दादा शब्द से ही संबोधित करते थे। वे बड़े खुले एवं हँसोड़ स्वभाव के व्यक्ति थे। उस समय दादा कोई चुटकुला सुना रहे थे कि तभी नामवर जी की गाड़ी अजय भवन के गेट पर लगी। वे गाड़ी से उतरे। धोती-कुर्ता और हाफ कोर्ट पहने थे। पाँव में चप्पल था। उन्हें देखते ही दादा ने कहा–‘देखो, हिंदी साहित्य के नामवर आ गए।’
नामवर जी ने भी उन्हें दादा कहकर ही संबोधित किया। नामवर जी को संभवतः कॉ. बर्धन से मिलना था। वे खड़े-खड़े थोड़ी देर बात करते रहे। उसी क्रम में दादा ने उनसे मेरा परिचय करवाया। नामवर जी आत्मीयता से मिले। उन्होंने अपने घर का फोन नंबर भी दिया। इसके बाद अक्सर अजय भवन में उनसे मिलना हो जाता था। बाद में साहित्यिक कार्यक्रमों में भी मैं जाने लगा। ख़ासकर जहाँ नामवर जी का भाषण होता था वहाँ उन्हें सुनने मैं जरूर जाता था। वे जब भी मिलते हाल-चाल जरूर पूछते थे। शुरू में मैं पीपीएच में था। बाद में ‘मुक्ति संघर्ष’ में चला आया था। एक दिन नामवर जी से अजय भवन में मुलाकात हो गई। उनसे मैंने कहा कि अब ‘मुक्ति संघर्ष’ से गुजारा नहीं हो रहा। नामवर जी ने कहा–‘राजकमल प्रकाशन में काम करेंगे?’
मैंने हामी भर ली। कुछ दिन बाद उनके घर के लैंड लाइन पर फोन किया। नामवर जी ने ही उठाया। बोले, ‘शीला संधु से मेरी बात हो गई है। आप जाकर मिल लीजिए।’
दूसरे ही दिन मैं राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली चला गया। शीला जी मिल गईं। बोलीं–‘नामवर जी का फोन आया था। दो दिनों बाद फिर मिल लीजिए।’
नामवर जी ने संभवतः सैलरी की भी बात की थी। वहाँ से लौटा तो मैं खुश था। लेकिन तभी दिल्ली से एक दैनिक पत्र शुरू हुआ था–‘कुबेर टाइम्स।’ संयोग से उसमें मुझे नौकरी मिल गई। मैं संकोच में था कि नामवर जी को क्या कहूँ। जब उन्हें फोन कर यह बात बताई तो नामवर जी खुश हुए। बोले–‘प्रकाशन की दुनिया बंद दुनिया है। अख़बार में खुलापन होता है। आप ‘कुबेर’ ज्वाइन कर लें।’
उसके बाद मैं लगातार उनके संपर्क में रहा। निकटता महसूस होने लगी थी। हफ्ते-दस दिन में जब भी फोन करता तो नौकरी के बारे में जरूर पूछते। मोबाइल युग के बाद उनके मोबाइल में मेरा नंबर फिड था। फोन करने पर तुरंत मेरा नाम लेकर पुकारते। मुझे अच्छा लगता। उनकी आत्मीयता का अहसास मुझे तब भी हुआ था जब प्रकाशन विभाग की पत्रिका ‘आजकल’ के संपादक पंकज विष्ट हुआ करते थे। नागार्जुन पर एक अंक आया था। विष्ट जी से अंक लेने मैं उनके दफ्तर चला गया था। विष्ट जी ने मुझे बताया कि नामवर जी ने उनसे मेरे बारे में कहा है कि वे मुझसे कुछ लिखवाते रहें। उस अंक में नामवर जी का पहला लेख था। मगर लेख का शीर्षक बड़ा अजीब था। शीर्षक था–‘बाबा की ऐसी-तैसी’।
विष्ट जी को मैंने कहा–‘शीर्षक कुछ और कर देते।’
उन्होंने हँसते हुए कहा–‘नामवर जी ने यही दिया था…।’ उस शीर्षक के पीछे एक कथा है। जब उस ओर मैंने विष्ट जी का ध्यान आकृष्ट किया तो वे मंद-मंद मुस्कुराए।
हुआ यह था कि 1996 में (संभवतः जून का महीना था), प्रकाशन विभाग की ओर से बाबा नागार्जुन के जन्मदिन पर एक कार्यक्रम हुआ था। यह बात तबकी है जब केंद्र में देवगौड़ा की सरकार थी। उनके पहले अटल जी की मात्र 13 दिनों की सरकार गिर गई थी। चर्चा थी कि अटल जी के प्रधानमंत्री बनने पर नामवर जी उन्हें बधाई देने गए थे। बाबा अपनी शैली में कुछ बोल रहे थे। उपस्थित लोग उनकी बातों में रस ले रहे थे। नामवर जी के आने का इंतज़ार था। तभी नामवर जी आ गए। बातों-बातों में बाबा ने कहा–‘नामवर सिंह अटल बिहारी वाजपेयी को बधाई दे आए, अब देवगौड़ा को क्या दोगे।’ नामवर जी ने यह बात सुन ली। उनका चेहरा देखने लायक था। बाबा भी नामवर जी को देख हँस पड़े। बहरहाल कार्यक्रम के बाद ‘आजकल’ का बाबा पर केंद्रित जो अंक आया उसमें नामवर जी के लेख का जो शीर्षक था उसमें बाबा के प्रति नामवर जी के दबे हुए गुस्से का ही असर था।
नामवर जी से जुड़ी कई स्मृतियाँ हैं। यहाँ कुछ का उल्लेख करना चाहूँगा। बात 2008 के आसपास की है। तब दिल्ली आकाशवाणी में डॉ. रवीन्द्र त्रिपाठी कार्यक्रम अधिकारी थे। नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव और इन पंक्तियों के लेखक को भी एक कार्यक्रम में उन्होंने बुलाया था। त्रिपाठी जी ‘आलोचना’ पत्रिका से भी नामवर जी के साथ जुड़े थे। कार्यक्रम के बाद नामवर जी ने मुझसे कहा–‘चलिए, राजेन्द्र यादव की गाड़ी से ही चलते हैं।’
नामवर जी को साहित्य अकादेमी जाना था और मुझे भी। राजेन्द्र जी ड्राइवर की बगल में बैठ गए और पीछे नामवर जी के साथ मैं था। बैठते ही नामवर जी ने ड्राइवर से कहा–‘आईएनएस बिल्डिंग की तरफ से चलो।’
राजेन्द्र जी ने कहा–‘नहीं-नहीं, कनाटप्लेस होकर चलो।’
ड्राइवर संकट में पड़ गया। तब राजेन्द्र यादव ने हँसते हुए कहा–‘चलो यार, नामवर जी जिधर से कह रहे हैं उधर से ही चलो।’
जब गाड़ी आईएनएस बिल्डिंग के पास से गुजर रही थी तो राजेन्द्र जी ने मेरा नाम लेते हुए कहा–‘राधेश्याम, जानते हो, ये जो नामवर सिंह हैं न सबको पथभ्रष्ट करते हैं।’ यह कहकर वे ठठाकर हँसे। नामवर जी भी मंद-मंद मुस्कुराए।
मैंने कहा–‘बीच में आप मुझे क्यों फँसा रहे हैं। ये आप दो बड़े लोगों की बात है।’ नामवर जी मेरी ओर देखकर हँसे। उनकी वह हँसी मैं कभी भूल नहीं पाता हूँ। उनके दाँत पान खाने से लाल हो गए थे। हँसने से उन दाँतों का रंग और चटक हो गया।
दूसरी घटना दिल्ली विश्वविद्यालय की है। एक सेमिनार था। अनेक वक्ता आए थे। वह आयोजन वाणी प्रकाशन की ओर से था। अरुण माहेश्वरी के आग्रह पर मुझे भी जाना पड़ा। जाने का एक कारण यह भी था कि द्वितीय सत्र में नामवर जी का व्याख्यान था। यह घटना भी 2008 के आसपास की है। मगर नामवर जी अपने निश्चित समय से पहले ही आ गए थे। भोजन के बाद एक जगह खड़े हो लगभग आधे घंटे तक हमलोग बात करते रहे। नामवर जी उस दिन कुछ मस्ती में लगे। मस्ती का अर्थ बताने की जरूरत नहीं। देर तक वे दिल्ली के विभिन्न संस्थानों के बारे में बताते रहे। मगर मुझसे बार-बार कहते रहे, कहीं कोई संस्था पकड़कर ही पुरानी नौकरी छोड़िएगा। हालाँकि वे स्वयं कहीं कहने की बजाय ये बताते रहे कि किस संस्था में मुझे किससे-किससे मिलना ठीक रहेगा। आखिर में उन्होंने कहा एक बार बीच में पुनः मुझे याद दिलाइएगा। मैं भी देखता हूँ। बाद में जब याद दिलाया तो बोले–‘याद है राधेश्याम जी।’ हालाँकि उन्हें याद जरूर रहा होगा, लेकिन उसका कोई फायदा मुझे नहीं हुआ।
बाद में जब वे सहाराश्री से जुड़े तो उन्हें फोन किया। उन्होंने कहा कि एक साप्ताहिक पत्र शुरू होनेवाला है। बेहतर होगा, एक बार आप मंगलेश डबराल से मिल लें। उनके कहने के बावजूद मैं मंगलेश जी से मिलने नहीं गया। मंगलेश जी से मेरा परिचय बहुत पहले से था मगर कभी भी उन्होंने ऐसी कोई उत्सुकता नहीं दिखाई कि उनसे मैं मिलता। फिर भी अपने बलबुते मेरा संघर्ष जारी था। बहुत बाद में साहित्य अकादेमी परिसर में नामवर जी मिल गए। वे पार्किंग में गाड़ी से उतर रहे थे। गाड़ी सहारा की ओर से उन्हें मिली थी। देखा तो रुक गए। उस दिन भी करीब आधे घंटे तक खड़े-खड़े बात करते रहे और यह भी बताया कि सहारा की स्थिति अच्छी नहीं है। मन हुआ कह दूँ कि जब अच्छा था तभी आपने क्या कर दिया। बहरहाल हमलोग बात कर ही रहे थे कि कहीं से कवि कैलाश वाजपेयी टपक गए। वे मुझे भगवन कहते थे। बोले, ‘भगवन, नामवर जी से क्या मंत्रणा हो रही है।’ नामवर जी मुस्कुराए। कैलाश जी मुझे कभी जँचे नहीं। बेहद नकली आदमी थे। उनके आने पर मैं समझ गया कि अब वे नामवर जी से बात करेंगे। दोनों को नमस्ते कर चला गया।
एक और घटना याद आती है। घटना संभवतः 2010 के आसपास की है। वाणी प्रकाशन की ओर से ही एक आयोजन इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में था। वाणी प्रकाशन ने यू.पी. कैडर के किसी आईपीएस अधिकारी का कविता संग्रह छापा था। उसी का विमोचन कार्यक्रम था। उस संग्रह में मुझे एक भी कविता नज़र नहीं आई। फिर भी उस संग्रह पर बोलने वाले बहुत आए थे। खाने-पीने की उत्तम व्यवस्था थी। उसकी अध्यक्षता नामवर जी को करनी थी। संग्रह देखकर मुझे लगा भी कि नामवर जी इस पर क्या बोलेंगे। अरुण माहेश्वरी के दबाव में मैं चला गया। कार्यक्रम शुरू होने के बाद अनेक लोगों ने न जाने इस अफसर कवि पर क्या-क्या बोला। कवि देखने में भी बेहद दंभी और अजीब लग रहा था। जब लोग उसकी कविताओं पर बोल रहे थे तो वह बीच-बीच में मंद-मंद मुस्कुरा रहा था। अब बारी आई उसके बोलने और कुछ कविताएँ सुनाने की। जब वह बोलने लगा तो न जाने किसका-किसका नाम लिया मगर एक बार भी उसने नामवर जी का नाम नहीं लिया। सभी सन्न थे। सच तो यह था कि वह नामवर जी के नाम से परिचित भी नहीं था। उसके व्यवहार से नामवर जी अपमानित महसूस कर रहे थे। अरुण माहेश्वरी बार-बार मेरी ओर देख रहे थे। उनकी परेशानी मैं समझ रहा था। नामवर जी अरुण माहेश्वरी के बुलाने पर ही आए थे। अंत में अपने अध्यक्षीय भाषण में नामवर जी ने बड़ी बारीकी से कवि महोदय को धोया। हालाँकि इस बात का भी ख्याल रखा कि वह खालिस कवि ही नहीं, एक पुलिस अफसर भी हैं। फिर भी कवि को लगा कि अध्यक्ष महोदय उसकी कविताओं की तारीफ कर रहे हैं। चाय पर नामवर जी के करीब जाकर उन्हें नमस्ते किया तो वे मुस्कुराए। बोले, ‘अच्छा, आप भी महाकवि को सुनने आए हैं।’
मैंने कहा–‘मैं तो आपको सुनने आया हूँ।’ वे फिर हँसे। तब तक अरुण माहेश्वरी भी आ गए। वे कवि के व्यवहार पर अफसोस ज़ाहिर करने लगे। तब नामवर जी ने अरुण माहेश्वरी को जो कहा उसका भाव यही था कि तुमलोग कहीं भी मुझे बुला लेते हो।
नामवर जी के कुछ गण भी थे। वे अक्सर उनके साथ ही होते थे। नामवर जी के साथ रहने से न सिर्फ वे गर्व की अनुभूति करते थे, बल्कि सामान्य कवियों से अपने को अलग भी समझते। यह कोई छोटी बात थोड़े ही थी कि वे नामवर जी के साथ हरदम पीछे-पीछे होते थे। उनका होना नामवर जी को भी अच्छा ही लगता होगा। उन्हीं गणों में एक पंकज सिंह भी थे। मगर दुर्भाग्य कि वे अचानक ही हमलोगों के बीच से चले गए। लेकिन ये तो उनके अनुयायियों की बात है। जो लोग उनके अनुयायी नहीं थे, वे भी इस बात को लेकर लालायित रहते थे कि डॉ. नामवर सिंह उनकी कविताओं पर कुछ बोल दें। इस संदर्भ में एक घटना याद आती है।
‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ का मंचन हिंदी भवन में होना था। मेरे मित्र शिवनारायण जी पटना से दिल्ली आए थे। शाम को हम दोनों वह नाटक देखने हिंदी भवन चले गए। यह दिल्ली के हिंदी अकादमी का आयोजन था और अकादेमी के उपाध्यक्ष मुख्य अतिथि के आने की प्रतीक्षा में मंच पर व्यवस्था देख रहे थे। हम दोनों ने अगली सीट के पीछे अपनी जगह ले ली। दर्शकों की संख्या काफी थी। पूरा हॉल देखते-ही-देखते भर गया। संभवतः नामवर जी के आने का इंतज़ार था। तभी नामवर जी अपने गणों के साथ आते नज़र आए। वे सीधे मंच की ओर देख रहे हैं, इसी बीच देखा, एक बूढ़ा आदमी उन्हें नमस्ते करने के लिए कइयों को धक्का देते हुए नामवर जी के पास पहुँचने को बेताब थे। जब उन्होंने नामवर जी को नमस्ते किया तो उन्होंने उनके प्रति बहुत उत्सुकता नहीं दिखाई। अजीब दृश्य था। वे बार-बार झुककर नामवर जी को नमस्ते की मुद्रा में दाँत निपोर रहे थे और नामवर जी थे कि उनकी ओर देख भी नहीं रहे थे। वे व्यक्ति थे कवि बलदेव वंशी। उनकी यह दीनता देख हम समझ नहीं पा रहे थे कि कवि आलोचक के प्रति सम्मान प्रदर्शित कर रहे थे या प्रसाद पाने के लिए अपनी भक्ति का दिखावा कर रहे थे।
निःसंदेह नामवर जी का व्यक्तित्व हिंदी आलोचना साहित्य में एक स्टार की तरह था। जहाँ वे होते थे वहाँ वे ही होते थे। नामवर सिंह की नामवरी आलोचना को किस शिखर तक ले गए, अभी इसका मूल्यांकन होना है, लेकिन यह तो कहा ही जाएगा कि नामवर की नामवरी ने अच्छे-अच्छे अखाड़ेबाजों को ध्वस्त करते हुए दशकों हिंदी साहित्य में अपना वर्चस्व बनाए रखा। आखिर में यही कहा जा सकता है कि अक्सर सितारे आसमान से टूटकर ज़मीन पर गिरते हैं मगर नामवर जी के जाने से ऐसा लगा कि कभी-कभार ज़मीन से टूट कर सितारे आसमान में भी जाते हैं। उन्हें हम सभी बहुत ध्यान से सुन रहे थे। मगर अब तो यही कहा जा सकता है कि–
‘बड़े शौक से सुन रहा था ज़माना
तुम्हीं सो गए दास्ताँ कहते-कहते।’