अमराई

अमराई

ब्रह्म वैवर्तपुराण के अनुसार, दिन में कभी नहीं सोना चाहिए। परंतु ज्येष्ठ मास में दोपहर के समय एक मुहूर्त (48 मिनट) के लिए सोया जा सकता है। इसको चरितार्थ करने के लिए माँ, दादी, चाची और बुआ दुपहर को सो जाया करती थीं। चूँकि, बच्चों पर शास्त्र लागू नहीं होता, हम सब सुबह की स्कूल से वापस आकर, बस्ता फेंककर बगीचे की तरफ भाग लिया करते थे जहाँ हमारा इंतजार कर रहे होते थे–चिनिया, सिंदुरिया, कसैलिया, केड़ा, कोहंडा, केलिया, खटहाँ आम। भैया लोग लेबदा और झटहा (लकड़ी के टुकड़े खासकर आम झाड़ने-तोड़ने के लिए इस्तेमाल होते थे) से आम झाड़ते। या फिर पत्थर और ढेला से भी आम झाड़ लिए जाते। क्या निशाना लगाते, वाह!

फिर चाकू से उन्हें छिलना, कतरना, नमक-मिर्च सानना और खाते हुए चटकारे भरना। मुँह-आँख रतनार, दाँत खट्टे, सिसकारी और बाद में सर्दी और खाँसी। टिकोरों की गुठलियों (कोलासी) को अँगूठे और तर्जनी के बीच दबाकर उछाल दिया जाता और हम एक स्वर में गाते–

‘कोल-कोलासी
सुन मैया-मौसी
फलना का ब्याह
कन्ने होसि?’

हमें बैठे-बिठाये सबके ससुराल का डिरेक्शन-मैप मिल जाता, फिर उस बच्चे को सब चिढ़ाते। कभी धूल के बगुले उठते, जिन्हें हम बरंडोईया (बवंडर) कहते थे। ऐसी मान्यता थी कि हाल-फिलहाल गाँव में मरा हुआ व्यक्ति भूत बनकर उस बरंडोई में आ रहा है। हम सब एक दूसरे से चिपक जाते और चाकू को छू लेने की कोशिश करते। कहा जाता है कि लोहे के नजदीक भूत नहीं आता।

आम का नशा सब डर-भय से ऊपर था। हमें ना भूत डरा सकता था, ना तूफान और ना ही वह रखवाला चौकीदार, हम आम के दीवाने थे और आम के बगीचे भी हमारे आशिक। दुपहर में घर सुनसान और अमराई हमारे अलबेले खेलों से गुलजार हुआ करती थीं। कोना-कोनी, डोल-पत्ता, पिट्ठू कबड्डी, बुढ़िया कबड्डी और सतघरवा।

जब दुपहर ढल रही होती, घर की महिलाओं के जागने का समय होता तो हम कुछ अच्छे आम लेकर घर आते। माँ गुस्सा होती, परंतु हुलस कर आम पन्ना और आम झोर बना डालतीं। बाकी आम को टुकड़े कर आमचूर और खटाई बनाने के लिए डाल देतीं।

अब उन बगीचों में कोई नहीं खेलता, अब सब उन्नत हो गए हैं। बच्चे मोबाइल और पैड से खेलते हैं। अमचूर, खटाई और आम पन्ना के बने-बनाए पैक बाजार में उपलब्ध हैं। फालतू लोग और फालतू बच्चे और फालतू समय अब कहाँ है?

× × ×
‘कौने गाँव जनमय केरा कठहल हे भल गुइयाँ
कौने गाँव महकय चौरहा आम हे भल गुइयाँ?’

(खोरठा लोकगीत में चौरहा आम का जिक्र मिलता है। आज की ये आम-कथा चौरहा आम को समर्पित है।)

आम का मौसम आँधियों का भी मौसम है।

शाम गहराने वाली थी। थोड़ा-बहुत अँधेरा छा रहा था और हवा की सरसराहट बढ़ रही थी, जो आँधी आने का संकेत था। हम सब दादा जी का टॉर्च चुराकर भागने के फेर में थे कि दादी ने हमें देख लिया और बोरिंग आदेश किया कि बरामदा और कुएँ पर जो ढलाई हो रही है, उसमें हम राजमिस्त्री के असिस्टेंट बन जाएँ। हम मन मारकर पानी-ईंट वगैरह ढोने लगे। आँधी तेज होती गई और हमारे मन में भी आँधी चलने लगी। एक घंटे बाद जब राजमिस्त्री ने काम रोका (अँधेरा की वजह से कुछ दिख नहीं पा रहा था, इसलिए), तो हम निकल भागे। रास्ते पर पहुँच कर यह विचार किया कि किस बगीचे में जाएँ? अंत में बहुत वाद-विवाद के बाद यह तय हुआ कि चौरहा आम के पास चलते हैं। चौरहा एक विशालकाय, बहुत बड़ा पेड़ था। उसके आम बहुत मीठे और खूबसूरत पीले रंग के थे।

पर, आँधी इतनी तेज कि हमारे पैर उखाड़ दे रही थी। आँखों में धूल मिट्टी और रेत पड़ रहे थे। साथ ही ओले गिरने लगे और भयंकर गर्जना के साथ बारिश होने लगी। हम चारों भाई-बहनों ने रेवा महतो जी के गुहाल में शरण लिया। आज के इस महान सुअवसर पर चौरहा आम ना चुन पाने का भयंकर अफसोस हुआ। छोटे भाई-बहन रोने लगे कि घर पहुँचकर दादी-दादा, माँ और चाची सबसे पिटाई और झाड़ मिलेगी, ऊपर से ‘मैंगो-मिशन’ असफल रहा।

खैर, तभी बड़ा धमाका सा हुआ। कोई पेड़ अररा कर गिरा।

हम सब बर्षा के बावजूद बाहर निकल आए। कुत्ते भौंककर हलकान थे। चिड़ियाँ, खासकर बगुले करकर्रा रहे थे। चीख-पुकार मची हुई थी। सब एक दूसरे को निर्देश दे रहे थे पर कोई किसी की सुन नहीं रहा था। बहुत कन्फ्यूजन था। तभी कुछ लोग मेरे पड़ोसी कालो को पैर-हाथ से टाँगकर लाते हुए दिखे। माथे और बाँह से उसके खून बह रहा था। वह दर्द से कराह रहा था–‘मैया…गे मैया, बप्पा हो बप्पा!’

‘क्या हुआ’–मैंने पूछा। उत्तर देने के बजाय एक भैया ने कटमटा कर मेरी ओर देखा और दाँत पिसते हुए बोला–‘तुमलोग घर जाओ तो। चाची (मेरी माँ) डाँग लेकर बैठी हुई है। तुमको चोट लगना चाहिए था। चौरहा आम तुम पर गिरता तो मजा आता। घर में पाव नहीं टिकते इनके। पैर तोड़कर हाथ में दे दूँगा। चाची भी खुश होंगी। काबिल बनी फिरती है, सब छोटों को भी इसने बरगला रखा है।’

इतनी लानत तो गाँव में सारे बड़ों का अधिकार था। किसी का भी बच्चा अगर बेहिसाब चल रहा है तो उसे सही राह पर लाना सामूहिक जिम्मेदारी (कलेक्टिव रेस्पॉन्सिबिलिटी) थी। बच्चों के माँ-बाप भी बुरा नहीं मानते, बल्कि डाँटने वाले का अहसान ही मानते थे। शोषण (हरैस्मेंट) का केस लेकर एन.जी.ओ. या थाना-पुलिस नहीं करते थे। कहने का मतलब छोटों के शोषण के लिए सभी बड़ों में एकता थी, भाईचारा था।

मेरे तो प्राण उड़ गए।

हाय, चौरहा आम गिर गया!

पथरिया (मेरा गाँव) की पहचान चली गई। हमारे खेलने की एक प्रिय जगह छूट गई। ओह, सहेलियों के मिलने की जगह, सुबह-शाम फारिग होने के पहले और बाद में एक दूसरे को सूचित (अपडेट) करते रहने की जगह, अधूरे झगड़ों का निपटान और नए विवादों का जन्म-स्थल, साइबेरियन क्रेन यानी बगुलों का अस्थाई शरण-स्थल चौरहा आम गिर गया! हमारे कई अधूरे प्रेम-प्रसंगों का मूक गवाह, हमारे खेल-खिलौनों, कंचे और गुड़ियों के छिपाने का शरणगाह चौरहा आम नहीं रहा! उससे भी ज्यादा अफसोस था कि अब चौधरी के लड़कों का क्या होगा? चौरहा आम के कारण उनकी काफी पूछ थी। वे दिन-रात आम को अगोरते रहते। सुबह का नाश्ता आम, दुपहर का खाना (लंच) आम, रात को खाने (डिनर) में भी टॉर्च से खोजे हुए आम। हम सब आम के मौसम में उनके दोस्त बन जाते और सीजन जाते ही बाय-बाय कर देते। आशीष व गोपाल मेरे हमउम्र थे। वे कभी-कभी अपना पाया-खोजा आम भी हमें दे देते। उनकी दीदी भी हमारी दोस्त थीं। वो भी मेरे घर आम भेजतीं। चाची (गोपाल की माँ) की तो मैं बहुत प्रिय थी। वो भी हमें खाने को आम देतीं। हाय, अब वैसा आम कभी भी पथरिया में नहीं होगा।

ऐसा और इतना मैंने उस समय नहीं सोचा। उस समय तो हम भाई-बहन भी भीड़ के पीछे-पीछे कालो के घर चल पड़े। वैसे भी हमारी आदत थी कि जहाँ हल्ला हो रहा है, झगड़ा-फसाद की संभावना है, कुछ ड्रामा और थ्रिल होने को है, वहाँ हम सब किसी अदृष्ट शक्ति से पहुँच जाते थे।

कालो को उसके घर के आँगन में एक खरहरी खटिया पर लिटा दिया गया। उसकी माँ और भाभी ने देखा तो व्याकुल हो गईं। दीदी यानी बुआ (कालो की माँ) तो बैन करने लग गईं।

–बेटा, रे-बेटा, काहे उस चधुरिया के अंबवाँ में गया रे! बैलों को पानी कौन देगा रे, कालो बेटा रे!

फिर फूफा जी को देखकर जो कालो को पढ़ने-लिखने के लिए डाँटते-फटकारते रहते थे–पड़ गया इसके करेजा में ठंडक। हो गई इसकी मुराद पूरी। अब कंधे पर झरझोटा (गाँव का श्मशान) लेकर जाएगा ये बेटे को। अरे बाप रे माई गे…

गाँव के समझदार लोगों ने उन्हें एक किनारे बिठा दिया और कालो के उपचार में लग गए।

‘अरे! हवा छोड़ दो भाई।’

‘अरे, थोड़ा गरम पानी लाओ, कनिया!’

‘डॉक्टर को बुलाओ!’

‘सबसे पहले बच्चों और कुत्तों को हटाओ।’

मुझे डर लगा कि अब तो हमें भगा दिया जाएगा, पहले हम सब खटिया के बगल से हट गए और दीदी के पास बैठ गए। मैंने सोहो दीदी को पानी ला दिया। उनका हाथ सहलाने लगी।

तभी डॉक्टर आ गया। आते ही उसने कैंची माँगी।

‘अरे बाप रे, क्या सीधा चीर डालेगा? कैसा डॉक्टर है?’

मैं भागकर अंदर से कैंची ले आई। इसी कारण मुझे रोगी के बेहद करीब खड़े होने का मौका मिल गया। मुझे वीआईपी जैसा महसूस हो रहा था। डॉक्टर ने कैंची से कालो के मोटे जैकेट और टी-शर्ट को काट डाला। और उसे धीरे-धीरे शरीर से अलग करने लगा।

अरे, यह क्या? कालू के जैकेट से पके आम गिर रहे थे। करीब बीस-पच्चीस छोटे-छोटे चौरहा आम खटिया नीचे और आसपास बिखर गए। सबलोग कालो के इलाज और डॉक्टर में उलझे थे। मैंने झुककर खटिया के नीचे से वे सारे आम निकाले और फ्रॉक में खोईछा भरकर सर्र से बाहर निकल गई। घर आते ही हम सब भाई-बहन आम पर टूट पड़े। बहुत मजा आया था उस दिन आम खाकर।

हमने, कालो को मन ही मन धन्यवाद दिया।

किसी ने बाद में मेरी मैया को रिपोर्ट कर ही दिया और हम पिट गए। यह कोई नई बात नहीं थी। असल खुशी थी कि हमने भी चौरहा आम की अंतिम फसल खायी जिससे हम लगभग वंचित हो चुके थे।

× × ×
‘सभी फलों का राजा आम
मीठा-मीठा ताजा आम
आओ बच्चों खा लो आम।’

कक्षा तीन की किताब में पढ़ी यह कविता अब तक सिर्फ इसलिए याद है कि मैं आमप्रेमी हूँ। खट्टा आम, मीठा आम, कसैला, कच्चा या पक्का कैसा भी आम हो, मुझे प्रिय है। जैसा कि आम प्रेम में मेरे साथ होता था, घर से भागकर आम चुनने भाग जाना और लौटने पर डाँट-मार और दादा जी का सोंटा। पर भरी दुपहरी, सनसनाती हवा, तवे-सी जलती जमीन और आग बरसाता सूरज, गलियाँ सुनसान और सिर्फ हमजोलियों की टोली आम के पेड़ के नीचे। जैसे, मियाँ की दौड़ मस्जिद तक वैसे उन दिनों हम अंत में पूनम के कोहंडवा आम तले जमा होते थे। उस आम का छिलका बस हरे कद्दू (पंपकिन) जैसा था। खाने में वह गुड़ की तरह मीठा और गुद्देदार हुआ करता था। पका हुआ आम टपकता भी बहुत था। दस मिनट में कम से कम दो-तीन आम तो गिर ही जाते। आगे की तरफ ज्यादा आम थे और पके भी थे, शायद दक्षिण मुखी होने के कारण उस ओर सूर्य की रोशनी ज्यादा मिलती थी। फोटोट्रॉपिक परिघटना भी हो सकती है।

खैर, तो अधिकतर बच्चे उसी ओर खड़े रहते। पीछे की ओर बहुत कम लोग होते। कोहंडवा आम बहुत पुराना था। हर गरमी की आँधी में कम-से-कम एकाध डालियाँ तो गिर ही जाती होंगी। इसलिए, पेड़ में खोंड़र हो गए थे। उनमें, कौवे, तोते और बुलबुल घोंसले बनाते या यों ही पड़े रहते।

गरमी का मौसम इनका भी ब्रीडिंग सीजन होता है। यह भी हम बच्चों के लिए खेल का साधन था। हम खोंड़र में हाथ डाल कर चिड़ियाँ या उनके बच्चों को टटोलने की कोशिश करते। कई बार हम तोते के बच्चे खोंड़र से निकाल लाते। उसे एक छोटी टहनी पर बिठाकर बेचने के लिए आसपास के घरों में जाते। उस समय कोई भी तोता का बच्चा निकाल सकता था, सो उन्हें बेचना अत्यंत कठिन होता। अंत में माँ ने ही पाँच रुपये दे कर तोता का बच्चा खरीदा था, और बाद में पीटकर वो पैसे भी ले लिए थे, क्योंकि हम उससे जो सफेद बैलून खरीद रहे थे, वह वस्तुतः कंडोम था। हमने ढेर सारे कंडोम फुलाकर साइकिल के पहियों के दोनों ओर बाँध दिए थे। जब साइकिल चलती तो कर्र-कर्र की कर्णप्रिय आवाज निकालती थी, जिससे हमें घंटी नहीं बजानी पड़ती थी, और लोग साइड हो जाते थे। उन दिनों घंटी बजाना बड़ा मुश्किल काम था, जबकि हम साइकिल बराबर हाइट के थे। पर माँ को मेरा लॉजिक कभी सही नहीं लगा और मुझे खूब कूटा।

खैर, एक बार हम सब कोहंडवा आम पेड़ के नीचे जमा थे। हमने कोलाहल मचा रखा था कि तभी ऊपर से एक अजगर धप्प से मेरे आगे गिरा। करीब दो मीटर लंबा, पीले रंग का जिस पर ब्राउन धब्बे थे। अच्छा खासा मोटा था। निश्चित (एग्जैक्ट) तो नहीं बता सकती, पर जिधर वो चल रहा था वहाँ धूल में जोहड़ जैसा लहरदार निशान बनता जाता था। सारे बच्चे थतमता (सकपका) गए। कुछेक पलों बाद हमने गुहार लगाना शुरू किया।

‘साँप-साँप!’

‘दौड़ो-दौड़ो हो लोगो। साँप हो बड़का सँपवा…’

कुछ लोग लाठी लेकर साँप को मारने आए। पर साँप ज्यादा चालाक था। वह उजिर के घर के पीछे की तरफ रखे मिट्टी के ढेर में घुस गया और गायब हो गया। आज भी वह अद्भुत अकल्पित नजारा मेरी आँखों और जेहन में कैद है। शायद चिड़ियों का शिकार करने की घात में अजगर बैठा था और आँधी में संतुलन (बैलेंस) बिगड़ जाने से गिर पड़ा होगा।

मेरी दादी यह हल्ला सुनकर कैसे ना आतीं। आते ही बरसने लगीं। और हम सब हो गए नौ दो ग्यारह।


Image Source : Nayi Dhara Archives

अंजु रंजन द्वारा भी