कवि शैलेन्द्र

कवि शैलेन्द्र

याद आता है कि जब मैं नवीं-दसवीं जमात में तब के शाहाबाद ज़िले के हसनबाजार हाई स्कूल में पढ़ता था और बाकी लड़कों की तरह शैलेन्द्र के गीतों का दीवाना था तब मेरे एक सहपाठी ने जिसका आरा शहर में आना जाना था और रिश्तेदारियाँ थीं यह कहकर हमें अचंभित कर दिया कि शैलेन्द्र वास्तव में आरा के पास के रहने वाले हैं और उनके गोतिया-बिरादरी के लोग ऐसा बताते हैं। हमें विश्वास नहीं हुआ। हमें जो मालूम था उसके मुताबिक़ वे पंजाब तरफ के कहीं पच्छिम के ठहरते थे। जब आगे पढ़ने के लिए पटना आया और प्रलेस, इप्टा तथा कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों से संपर्क बना तब भी ऐसी किसी बात का एहसास कहीं न दिखा। बहुत बाद में ऐसा कुछ पता चला, पर खबर पक्की न थी। हाल में पता चला कि गीतकार एस.एच. बिहारी भी आरा के पास के थे। अभी इन्द्रजीत साहब के कहने पर जब लिखने के सिलसिले में उनकी संपादित किताबों में रविभूषण और रत्नेश कुमार के लेख पढ़े तो बचपन के दोस्त द्वारिका की बात का मर्म खुला। शैलेन्द्र तो हमारे यहाँ के थे, भोजपुरिया। हालाँकि इन दो लेखों में भी गाँव के नाम अलग अलग दिए हुए हैं। ख़ैर, गलती मेरी भी है। इतनी इतनी बार आरा गया, बचपन से अब तक, और इतने लेखक कवि भी वहाँ मिले, मेरी सगी बहन भी वहीं है, लेकिन कभी मैंने पता लगाने की कोशिश नहीं की। आज मैं ताकतवर महसूस कर रहा हूँ और गौरवान्वित कि मेरा सबसे प्रिय गीतकार आखिर है तो हमारी ही मिट्टी का जो पूरी दुनिया का हो गया, जिसकी छवि हर कहीं लहलहा रही है। लेकिन शर्मिंदा भी हूँ कि हमारे प्रांत में कहीं कुछ निशानी नहीं है। कैसी विडंबना है कि अगर तुम्हारे पास कोई ज़मीन जायदाद नहीं है तो तुम वहाँ के नहीं हो, भले सारी दुनिया के हो रहो।

शैलेन्द्र हिंदी के सबसे बड़े गीतकार हैं। ऐसा इसलिए कि भाषा की ऐसी सादगी, बहाव और लोच किसी दूसरे गीतकार में नहीं। ‘सो सब हेतु कहा मैं गाई’, तुलसीदास रामचरितमानस में कहते हैं। यह गा कर कहना बहुत दुर्लभ विद्या है जो दूसरे भोजपुरिया भिखारी ठाकुर को प्राप्त थी। शैलेन्द्र गाकर कहते हैं और दिल की बात कहते हैं जो सबकी कैफ़ियत है। खड़ी बोली हिंदी में ऐसी लोच ला पाना बहुत मुश्किल था, और है, जो खड़ी बोली उर्दू में पहले से थी या फिर हमारी ब्रज अवधी भाषाओं में। लगता है बोल अपने आप बिना किसी कोशिश के अंदर से निकले आ रहे हैं, और सिर्फ बोलना कविता बन जाता है–‘आवारा हूँ’; ‘जीना यहाँ मरना यहाँ।’ शैलेन्द्र पूरे खड़े वाक्यों के कवि हैं और लंबे लंबे वाक्यों के रचयिता–‘बोल री कठपुतली डोरी कौन संग बाँधी तूने, ये नाच नाचे किसके लिए?’ ठीक है कि फ़िल्म में स्थिति वगैरह सब दूसरे तै करते हैं, लेकिन वे सब बिना शब्दों के एक डेग न चल पाएँ। एक बार हॉलीवुड में शब्दकारों ने हड़ताल कर दी और पूरा हॉलीवुड ठप्प हो गया। उतने दिन सारे काम बंद रहे। दूसरी बात ये कि अधिकांश गैररोमांटिक कविता दी गई स्थितियों, प्रसंगों, कथा-संयोजनों से निकलती है। रामायण या महाभारत के प्रसंगों ने अनेक महान कृतियों को जन्म दिया, ऐसा कहते हुए मैं स्तर-भेद को भूल नहीं रहा, बल्कि सिर्फ यह कह रहा हूँ कि प्रदत्त सिचुएशन अच्छे गीत का निर्माण कर सकते हैं जैसा कि शैलेन्द्र सरीखे कवियों ने सिद्ध किया। यह सही है कि ऐसे गीत जीवन का नया संधान नहीं करते या नई जीवन-दृष्टि नहीं गढ़ते जो निराला, मुक्तिबोध या प्रसाद और अज्ञेय करते हैं। लेकिन जो पूर्वप्रदत्त विचार या प्रचलित भाव-सरणियाँ हैं उनको सुगम बनाकर सबके कंठ में बसा देते हैं। ‘जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ’, या ‘उस देश में तेरे परदेश में सोने चाँदी के बदले में बिकते हैं दिल’ जैसे भाव-विचार आज भी प्रासंगिक पर विरल हैं और आज भी धार्मिक बोध और पूँजीवाद की साहसिक आलोचना हैं। क्या आज की फ़िल्मों या सीरियल में ऐसे विचारों के लिए कोई जगह बची हो सकती है? शैलेन्द्र और उनके समकालीन गीतकारों ने यह किया और अपने समय और समाज को भावनात्मक रूप से परिवर्तनकारी शक्तियों के पक्ष में तैयार किया।

लोकप्रिय या पॉपुलर कलाओं के इस पक्ष और भूमिका पर विचार की जरूरत है और पूछना ज़रूरी है कि क्या आज पॉपुलर कलाओं के मूल्य वही हैं जो तब थे? पॉपुलर कलाओं के साथ एक ख़ास बात ये है कि ये सीधे सीधे सत्ता और शासक वर्गों के मूल्यों से प्रभावित होती हैं और उनको प्रचारित करती हैं। खुद राजकपूर की फ़िल्मों में आए बदलावों के ज़रिये और फ़िल्मी गीतों के बनाव-चरित्र में आए बदलावों से इसे समझा जा सकता है। शैलेन्द्र का हर गीत हम में स्वाधीनता, आत्मसम्मान और लोगों से, जीवन मात्र से गहरे प्रेम के भाव जगाता है। जीवन के प्रति ऐसा गहरा, दुर्निवार आकर्षण और हर व्यक्ति, हर स्त्री के लिए, हर कामगार के लिए गहरा आदर हमारे दिल में जगाता है। प्यार का मीठा महासागर। शैलेन्द्र, साहिर, कैफ़ी, मजरूह सबने यही किया। इन गीतों ने हम में अनंत लालसा जगाई, हमें प्रेम करना और ठगे जाना, और हार कर बर्दाश्त करना भी सिखाया–‘तू आ के चली छम् से ज्यों धूप के दिन पानी…’ या, ‘रस्ते में हो गई शाम किसी से हाय दिल को लगा के…।’ इन गीतों को सुनकर हम बेहतर इनसान बनें, प्यार करने की ज्यादा ताक़त मिली और जीवन की सुंदरता को पहचानना सीखा और इन गीतों ने हमें स्त्रियों और ग़रीबों का सम्मान करना सिखाया। आदमी से बड़ा कुछ भी नहीं। ‘रमय्या वस्तावइया’ आज भी मुझे हिला देता है। यहाँ एक बात जोड़ना जरूरी है कि इन गीतों के पीछे बाहरी संगीत की भी ताक़त है जो लगातार गीतों के शब्द और वाक्यों को विस्तार तथा सहारा देते, एक आकाश बनाते चलते हैं। ये गीत हम तक केवल शब्द-रूप में नहीं आए, बल्कि साज-बाज और लयकारी और सुंदर कंठ में आए। बचपन में जब मैं फ़िल्में देखने जाता तो हॉल में बिकती गानों की किताब जरूर ख़रीदता जो बाहर पटरी पर भी खूब मिलती थीं, जिन्हें जब बिना लय के सिर्फ लिखित में पढ़ता तो मजा नहीं आता जबकि वही बोल संगीत के साथ तूफ़ान मचा देता। लेकिन शैलेन्द्र के अधिकांश गीतों में शब्द मुखर और प्रमुख रहते हैं और संगीत के बाहर से भी हमें आवाज़ देते हैं।

अपने बचपन और किशोरावस्था में एक दो नारे अक्सर सुनने में आते थे–‘हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’ तथा ‘जो चाल चलेगा हिटलर की हिटलर की तरह मिट जाएगा।’ बाद में जाना ये शैलेन्द्र के गीत हैं। इसी तरह, ‘तू ज़िंदा है तू ज़िंदगी की जीत में यक़ीन कर’ जो इप्टा में आज भी गाया जाता है। तब के बहुत से नारे और तराने जैसे ‘जो हमसे टकराएगा चूर चूर हो जाएगा’, या, ‘हम धरती के लाल नया संसार बनाएँगे’ सामूहिक रचना बन गए थे। शील और निरंकार देव सेवक के गीत, बाद में शलभ जी के भी गीत यह दर्जा प्राप्त करते हैं। यह वह दौर था जब प्रगतिशील लेखक संघ, इप्टा और कम्युनिस्ट आंदोलन मज़बूत था, सोवियत था, चीन की क्रांति थी, देश साम्राज्यवाद को हरा कर अभी अभी आज़ाद हुआ था और पूरी दुनिया में देश आज़ाद हो रहे थे। न केवल शैलेन्द्र बल्कि सारे बड़े कवि इन मूल्यों से अनुप्राणित थे। हिंदी में शील, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, शमशेर, सुमन, कन्हैया और अनेकानेक कवि जो लिख रहे थे वैसी ही कविता शैलेन्द्र भी लिख रहे थे; कॉमनवेल्थ, साम्राज्यवाद, पूँजीवाद, शोषण, असमानता और नवस्वाधीन देश के नेताओं का भ्रष्टाचार और विश्वासघात–ये सब शैलेन्द्र की कविताओं के भी तत्व हैं। कॉमनवेल्थ के विरुद्ध ‘मुझको भी इंग्लैंड ले चलो’ को नागार्जुन की ‘आओ रानी हम ढोएँगे पालकी’ के साथ रखा जा सकता है। आज पेरिस कम्यून की याद करते हुए शैलेन्द्र की यह कविता ज़रूर याद आती है :

‘सौ सलाम उस कार्ल मार्क्स को
सौ सलाम पेरिस कम्यून को
जो मरकर भी नहीं मरा है।’

और कितनी साफ समझ के साथ शैलेन्द्र अमरीकी हुकूमत की चाल को खोलते हैं, लगता है यह आज की बात है :

‘युक्ति निकाली है हिटलर के भाई ने
कहें कि छेड़ो जंग और बेचो बंदूक।’

कम्युनिस्ट आंदोलन ने हर भाषा में ऐसे कवियों को जन्म दिया जो बहुत जनप्रिय भी हुए। शैलेन्द्र ने अपनी किताब मराठी शाहिर यानी गीतकार ‘मराठी के कामगार साहित्यिक अन्नाभाऊ साठे को’ समर्पित की। वे सारे कवि जीवन को बदलने वाले स्वप्नों और संघर्षों से अनुप्राणित थे। क्या आज ऐसी कविता हो रही है या संभव है? क्या आज खुले कंठ से पुकारा जा सकता है :

‘तू आ कदम मिला के चल
चलेंगे एक साथ हम।’

आज जब सर्वजन और सर्वहारा मूल्यों का स्थान खंडित, अस्मितामूलक हितों ने ले लिया है तो क्या कोई भी कवि इतने विश्वास और ताक़त से सबको आवाज दे सकता है? आज तो कम्युनिस्ट आंदोलन भी कमजोर है और वर्ग-चेतना का क्षरण तथा अभाव है। फिर भी ये कविताएँ हमारी जातीय चेतना में जीवित हैं। ये महज़ नारा नहीं हैं; अपने जीवन, संघर्षों और आंदोलनों से उपजे जीवन-सत्य हैं जिन्हें वही लिख सकता है जिसका खुद का जीवन वैसा हो, और वैसी ही प्रतिबद्धता हो। इनमें सामूहिक बल और महान आदर्शों का निवास है।

इसी तरह क्या आज धर्म और रूढ़ियों पर ऐसा वार करके कोई बच सकता है :

‘राह देखते श्री लक्ष्मी के शुभागमन की
बरबस आँख मुँदी निर्धन की
मिट्टी के लक्ष्मी गणेश गिर चूर हो गए।’

हम बहुत मोह और लालसा से उन वक्तों के बारे में सोचते हैं जब कवि सबकी ओर से बोल सकता था और जिसके साथ पार्टी थी, आंदोलन था और एक स्नेह-आतुर जन समूह था। वे दिन बीत गए। शायद फिर आवें।

शैलेन्द्र की सारी कविताओं का एकत्र प्रकाशन तो ज़रूरी है ही, उनके फिल्म-गीतों का संकलन भी ज़रूरी है जैसे साहिर का हुआ है। इन्द्रजीत जी से ही हमारी उम्मीद है। ‘इश्क़, इंक्लाब और इनसानियत’ के इस कवि को हर पीढ़ी बार बार पढ़े इसके लिए यह जरूरी है।