दिल से संसद तक तेजेंद्र ही तेजेंद्र

दिल से संसद तक तेजेंद्र ही तेजेंद्र

तेजेंद्र शर्मा–यह नाम मस्तिष्क में आते ही मानो हलचल सी होने लगती है। उसकी याद के साथ साथ उससे मिलने की बेचैनी मन में बढ़ने लगती है। उसकी सुंदर, गहरे बेधने वाली आँखें और होंठों की भोली मुस्कान नटखट कान्हा की तर्ज पर ही बनी है। द्वापर के उस महानायक से यह हमारा नायक कुछ मिलता जुलता सा लगता है। याद नहीं कब से उसे जानता हूँ, लगता है कई युग बीत गए हैं। हमारे कॉलेज के छात्र जीवन के पसंदीदा क्षणों के अंतिम प्रहर पर तेजेंद्र दिल्ली कॉलेज में दाखिल हुए थे–तब कुछ गोष्ठियों में देखा था। शीघ्र ही हमलोग यानी मैं, प्रेम जनमेजय, प्रताप सहगल, दिविक रमेश, सुरेश ऋतुपर्ण, गोविंद व्यास उस समय के साहित्यिक साथी प्राध्यापक पद प्राप्त कर गए। प्रताप सहगल दिल्ली कॉलेज (जिसे अब जाकिर हुसैन कॉलेज कहा जाता है) में तेजेंद्र के नॉन-टीचिंग अध्यापक बन गए। तब वहाँ डॉ. कमलकिशोर गोयनका और डॉ. सुधीश पचौरी भी तेजेंद्र जैसे व्यक्तित्व के धनी छात्र को पा सके थे। ये तीनों प्राध्यापक हिंदी पढ़ाते थे और तेजेंद्र कर रहा था अँग्रेजी ऑनर्स। उसकी साहित्यिक अभिरुचियाँ उसे इन तीनों का शिष्यत्व स्वीकार करने से परहेज नहीं करने देती थीं–भले ही वह उनका कक्षा-छात्र नहीं था।

मैं शिवाजी कॉलेज और फिर वोकेशनल स्टडीज में पढ़ाने लगा था। तेजेंद्र शर्मा का कहानीकार कद निकल रहा था। वह एक चित्रात्मक कथा शैली को विकसित कर रहा था। उसे रंगमंच और सिनेमा से भी बेहद लगाव था। उससे तब मिलना बहुत कम हुआ…मगर हाँ, वह चर्चा में होता था। उससे खुद मिलने से पूर्व वह प्रसिद्ध टी.वी. धारावाहिक ‘शांति’ के लेखक के रूप में ख्याति पा रहा था। वह मुंबई में रहने लगा था। एकाध बार उससे मुलाकात हुई जरूर पर उल्लेखनीय नहीं।

तेजेंद्र शर्मा का प्रथम कहानी संग्रह ‘काला सागर’ प्रकाशित होकर आया। उसकी कहानियाँ एक साथ मिलीं। शीर्षक कहानी ने झकझोर दिया। कनिष्क विमान दुर्घटना को लेकर वह कहानी बुनी गई थी। तेजेंद्र, जहाँ तक मुझे ध्यान है, उस समय एअरलाइन में ही काम करते थे। वहाँ के उनके प्रत्यक्ष अनुभवों ने एक श्रेष्ठ कहानी बुनी थी। एक ओर आतंकवाद को उभारा गया था तो दूसरी ओर उसमें सगे परिजनों की उस वृत्ति पर चोट की गई थी जो आत्मीयों की मौत से पाने वाले फायदों का हिसाब किताब करने लगते हैं। मुआवजे विषयक कहानियाँ पहले भी आई थीं मगर बेटी की मौत के मुआवजे से कमाई के साधन जुटाना पहली बार विषय बना था। इस कहानी विशेष की काफी चर्चा हुई थी। अपने मन की बात और प्रतिक्रिया को एक पत्र उस लेखक के लिए प्रकाशक को रवाना भी किया था। इसके बाद तेजेंद्र शर्मा मेरे जहन में रहने लगा। उसके जीवन में कई बदलाव आए। कई प्रकार के कठिन संघर्षों का सामना उसने छोटी आयु में किया जिसका जायका उसकी कहानियों से लगाया जा सकता है।

वक्त गुजरता गया। सहधर्मिणी इंदु की मृत्यु ने तेजेंद्र को भयभीत कर दिया। मुंबई की नौकरी छोड़ दी, फिर मुंबई भी छूटी और वह ब्रिटेनवासी हो गया। उसने अपने को संयत और व्यवस्थित किया। परिजनों के प्रति दायित्वों का वहन करने हेतु नजरिया अपनाया और विदेश में देश को जीवित और जीवंत करने लगा। हिंदी और हिंदी साहित्य के प्रति उसकी चिंताएँ रहीं और रहती हैं। वह इनके वैज्ञानिक हल ढूँढ़ता रहा है। उसकी कलम इन्कलाबी होती गई। देशप्रेम उसकी कहानियों में चस्पाँ है। भारत-विभाजन का अभिशाप, दहेज आदि समस्याएँ उसके कहानीकार के समक्ष हमेशा मौजूद रहती हैं।

असली मिलना कई सालों बाद मिला दिल्ली में हुआ। वह आया हुआ था…जब भी आता था तूफान की भाँति आता जाता था। इस बार तूफान वश में था। वह मेरे हिंदू कॉलेज स्थित निवास में आया। ऐसे मिला मुझे जैसे मेरे साथ ही रहता हो। ऐसे मिला सुधा से मानो उसका देवरत्व सर्वोपरि है। ऐसे मिला बीजी से जैसे उनका बिछुड़ा बेटा हो। मेरी बेटियों को एक ‘हीरो चाचा’ मिला। वह छोटी बेटी आस्था का तो मानो फ्रेंड ही हो गया। उसकी जिंदादिली, उसका ब्रिटेन में रहने के बावजूद भी मीठा देसीपन, उसका अँग्रेजीदाँ होने के बावजूद हिंदी और भारतीय भाषाओं से प्यार, कहीं कोई किसी किस्म का दंभ नहीं, कोई फॉरेन ब्रांड जैसी बात नहीं…यहाँ तक कि घरेलू सेविका गीता भी उसके लिये उसकी पसंद की चाय बिना पूछे ही बना लाई।

मैंने उन्हीं दिनों कमलेश्वर जी और बालस्वरूप राही जी की सरपरस्ती में एक लघु-संस्था ‘शब्द सेतु’ आरंभ की थी। तेजेंद्र ने कहा कि उसकी कहानी पर ‘शब्द सेतु’ की गोष्ठी करूँ। उसने कहा कि वह इस गोष्ठी में कहानियाँ पढ़ेगा। तब तक मैंने कभी उसका कथा वाचन सुना नहीं था, केवल उसे पढ़ा था।

गोष्ठी धन्य हो उठी जब तेजेंद्र ने कहानी ‘कब्र का मुनाफा’ का पाठ किया। उसका कहानी वाचन का अंदाज इतना सशक्त कि आश्चर्य हुआ, उसका उच्चारण इतना शुद्ध कि पंजाबीपन मात खा गया। ध्वनि के उतार-चढ़ाव, कथन शैली का जादुई मेस्मेरिज्म पूरे कमरे में फैल गया। अगर सच कहूँ तो मैंने अपने जीवन में कभी किसी को इतने बेहतरीन ढंग से कहानी पढ़ते नहीं सुना। आमंत्रित श्रोतागण मुग्ध थे…चर्चा सत्र में जब कहानी पर टिप्पणियाँ हुईं, तो सभी ने वाचन की बहुत तारीफ की।  पहले तो तेजेंद्र खुश हुआ, फिर असलियत पर उतरा और कहा, ‘सभी यही कह रहे हैं कि अच्छा पढ़ता हूँ। अरे भाई, क्या अच्छा लिखता नहीं हूँ मैं?…इस पर बात होनी चाहिए।’

जाहिर है उसके बाद ही कहानी पर असल चर्चा शुरू हो पाई। तेजेंद्र जो कहना चाहता है निःसंकोच कहता है। यह निस्संकोचत्व उसके कहने पर भी लागू होता है। उसने कहा कि जब कभी वह दिल्ली आए, एक कथा-गोष्ठी मेरे यहाँ अवश्य हो। ‘शब्द सेतु’ ने ऐसा अवसर दो बार और लिया और हर बार तेजेंद्र शर्मा को हीरो कहानीकार माना गया। तेजेंद्र हीरो कहानीकार ही है। चाहे ‘ढिबरी टाईट’ हो या ‘पासपोर्ट का रंग’ या ‘बेघर आँखें’ या फिर ‘काला सागर’–वह अप्रतिम है। ‘कब्र का मुनाफा’ में तो वह रोंगटे खड़े कर देता है।

एक कहानी सुनी हमने लंदन के टेम्स नदी के किनारे बने सभा-कक्ष में। मैं, सुधा और बेटी आस्था अमरीका से लंदन गए थे। संयोग से तब सुषम बेदी भी अमरीका से लंदन पहुँची थीं। तेजेंद्र शर्मा, दिव्या माथुर और अनिल जोशी ने एक गोष्ठी तय की जिसमें सुषम बेदी और तेजेंद्र ने कहानी, सुधा, आस्था और दिव्या माथुर और सत्येंद्र श्रीवास्तव ने कविताएँ पढ़ीं। यह एक सफल और स्नेहिल आयोजन था जिसके साफल्य के श्रेय का एक बड़ा हिस्सा तेजेंद्र को जाता है। गोष्ठी के बाद तेजेंद्र और दिव्या ने हमें स्पेशल डोसा खिलाने के जो प्रयास किए वे भुलाए नहीं भूलते। यह दीगर बात है कि उस रात डोसा उपलब्ध नहीं हुआ।

‘माध्यम’ लखनऊ का ‘अट्टहास व्यंग्य सम्मेलन’ एक बार जयपुर में आयोजित हुआ। सौभाग्य से तेजेंद्र भी भारत में था। दिल्ली से एक वैन में तेजेंद्र, प्रेम जनमेजय, शेरजंग गर्ग और मैं साथ साथ गए। पूरे रास्ते में मानो चलती फिरती महफिल लग गई क्योंकि तेजेंद्र जो साथ था। उसकी चुटीली, चोटीली बातें और मधुर तर्क-कुतर्क सुखद अहसास देते रहे थे।

तेजेंद्र के भीतर का बालक बहुत स्मार्ट है। वह कभी थकता नहीं, कभी हारता नहीं, कभी रोता नहीं। बाल-सुलभता बल्कि कहूँ कि ऐसी चपल चंचल बाल-सुलभता प्रौढ़ों  में भला कहाँ मिलती है?  जयपुर में व्यंग्य और हास्य का जो भी वातावरण बना वह हमारी आने-जाने की यात्रा में हुए हास्य, व्यंग्य और विद्वत विमर्श से बहुत पीछे था।

फेसबुक में प्रवेश करके जो आत्मीय फेसबुकीय मित्र बने उनमें भी तेजेंद्र शिखर वालों में रहा। हमलोग विश्व के कोनों में होते हुए भी अपने अपने कोणों को एक दूसरे से शेयर करते रहे हैं। फेसबुक पर भी तेजेंद्र महानायक है। ऐसा अजब गजब चरित्र वाला मुद्दा उठा देगा और एक कोने में बैठ जाएगा कि भाई लोग चोंचें लड़ाते रह जाएँगे। मुद्दा कोई भी हो सकता है–‘पद्मश्री किसे’, ‘व्यंग्य क्यों’, ‘केजरीवाल क्यों’, ‘ओबामा का मतलब’…और लंदन में बैठे बैठे भाई को सैंकड़ों लाइक्स मिनटों में मिल जाते हैं।

एक बार तेजेंद्र ने फेसबुक पर ऐसे चित्र लगा दिये जिनमें अमरीका में उसका भव्य स्वागत हो रहा है। उसके बड़े बड़े कट-आउट लगे हैं। बसों पर विज्ञापन में भी तेजेंद्र दिखाई दे रहा है। अनगिनत लाइक्स मिल रहे थे। उन दिनों मैं भी अमरीका में ही था। मेरा भी जी चाहा मैं भी बाहर जा कर अपने दोस्त का जलवा देख कर आऊँ। बाहर न तो कोई कट-आउट न ही कोई होर्डिंग जिनमें तेजेंद्र दिखाई दे रहा हो…। तेजेंद्र से दरियाफ्त किया। उसने हँसते हुए बताया, ‘हरीश जी यह तो मजाक था। ये चित्र एक सॉफ्टवेयर से बन जाते हैं और एकदम असली लगते हैं।’ मैं सन्नाटे में सोच रहा था कि वे सब तो मुगालते में होंगे जो लाइक्स और बधाइयाँ दे रहे हैं। मगर तेजेंद्र की बालसुलभ हँसी अपनी मासूमियत की कहानी कह रही थी।

तेजेंद्र के भीतर का बालक ही नहीं, उसके अंदर का प्रौढ़ भी बहुत तेजस्वी और भाव-प्रवण है जिसकी बुद्धि प्रखर और व्यक्तित्व प्रेरक है। वह विद्वान तेजेंद्र है जो संगोष्ठियों में अपने वक्तव्यों से रौशनी देता है। जिसके प्रश्न बहुत महीन होते हैं, जिसके उत्तर बहुत कसे होते हैं। उसे अपना पक्ष रखना आता है। वह विषय की तह तक जाता है। वह जड़ों को सींचता है पत्तों को नहीं। उसकी सोच बहुत परिपक्व है तभी उसका लेखन इतना सशक्त, पारदर्शी और गंभीर है। वह संपादन कला का भी बेजोड़ कलाकार है।

तेजेंद्र ने गत वर्ष मुझसे कहा कि मैं ब्रिटेन की कविता के विषय में एक लेख उसके लिये लिखूँ। मैंने अपने व्यक्तित्व, अनुभव और संस्मरणों के साये में विगत पचास साल की ब्रिटेन की हिंदी कविता पर एक लंबा लेख लिख मारा। अपनी तरफ से मैंने बहुत श्रम किया था परंतु बिना किसी झिझक के तेजेंद्र ने मुझे फोन पर कहा कि वह लेख को संपादित कर छोटा करेगा। उसके मत में लेख के केंद्र में केवल कविता होनी चाहिए न कि व्यक्तिगत अनुभव। उसके कहने का अंदाज और बताने का ढंग ऐसा प्रभावी था, जैसा सदा होता है कि मैंने उसे संपादन का चार्ज सौंप दिया। जब लेख पत्रिका में प्रकाशित हो कर आया–मैं चकित हो गया देखकर कि लेख पढ़कर कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि इसे संपादित किया गया है। कमाल था कि बाईस पृष्ठों का लेख मात्र दस का रहा गया था–पर अपने आप में पूर्ण था।

तेजेंद्र का संपादन हम सब देखते रहे हैं। दो वर्षों तक वे ब्रिटेन से निकलने वाली पत्रिका ‘पुरवाई’ का संपादन भी करते रहे। उसमें उन्होंने हिंदी सिनेमा, मिथक और हिंदी व कंप्यूटर आदि पर बेहतरीन लेख लिखे और विशेषांक निकाले। इंदु शर्मा कथा सम्मान के अवसर पर प्रकाशित होने वाली स्मारिकाएँ भी तेजेंद्र के संपादन की भव्यता प्रस्तुत करती हैं। सिनेमा का उसे ज्ञान ही नहीं, वह स्वयं भी रील में अवतरित हो चुका है। माशा-अल्लाह हैंडसम है, आवाज में दम है, अभिनय का तजुर्बा है। सच कहूँ तो यदि वह प्रयास करता तो यश चोपड़ा उसको छोड़ते नहीं। अभी भी उसमें दम-खम है–थोड़ा सा मुटिया गया है, कुछ जुल्फें भी उड़ी हैं पर अभिनय अभी भी स्वाभाविक सा है। वह भिन्न भिन्न अभिनेताओं की ऐसी नकल करता है कि सुनकर लगे कि यह दिलीप कुमार, राज कपूर, राज कुमार या देवानंद ही बोल रहे हैं। अभिनय की कला उसकी बेटी ने उसी से पाई है। वह आजकल टीवी के पर्दे पर दिखाई देने लगी है।

…बहरहाल हम चैट करते रहे फेसबुक पर और मिलते रहे हैं–साल-दो-साल में एक-दो बार, पर जब भी मिले, मन खिले खिले ही रहे–अवधि की दूरी कभी हमारे बीच नहीं आई। फेसबुक पर प्रिय लालित्य ललित द्वारा प्रेषित एक संदेश ने तेजेंद्र को बेचैन कर दिया। वह संदेश मुझसे ही संबंधित था। मैं कैंसर रोग की गिरफ्त में आ गया था। मेरी तीन सर्जरी हुई थीं। यह संदेश पढ़ते ही तेजेंद्र सकते में आ गया। कुछ दिन बाद बड़ी हिम्मत से मुझे फोन किया। मैं बहुत दुर्बल हो चुका था, मेरी आवाज भी साफ नहीं निकल पा रही थी और अतिशय भावुक हो उठा था अपने छोटे भाई प्रिय तेजेंद्र की आवाज सुन कर। तब तो डॉक्टरों को भी लगता था कि…तेजेंद्र कुछ बोला और कुछ न बोल पाया। उसके रुंधे गले का अहसास मुझे हो गया था।

तेजेंद्र ऐसा ही है…उसे किसी आत्मीय की जुदाई बर्दाश्त नहीं, किसी के संताप में वह भागीदारी कर सकता है। उसके भीतर का मनुष्य उसे इनसान बनाता है। तेजेंद्र मेरी बीमारी के इलाज के दौरान लगातार मुझ से फोन या फेसबुक पर संपर्क करता रहा। मुझे आश्वस्त करता रहा कि मैं ठीक हो जाऊँगा, उसके दोस्तों ने भी मेरे लिये शुभकामनाएँ प्रेषित कीं।

जुलाई से नवंबर हो आया। मेरा स्वास्थ्य सुधार पर था। मैं कभी कभी सुधा के साथ कहीं कहीं जाने भी लगा था पर अभी कमजोरी बहुत थी…अस्पताल से रिश्ता बना हुआ था। मुझे तेजेंद्र का फोन आया कि वह दिल्ली में है और पाँच नवंबर को साउथ एक्सटेंशन में एक गोष्ठी में मुख्य वक्ता है।

संयोग की बात कि उस दिन मुझे मैक्स अस्पताल, साकेत में जाना था। साउथ एक्सटेंशन रास्ते में ही था। लौटते हुए तेजेंद्र से मिलने की उत्कंठा में हिम्मत बँध गई और मैं और सुधा उस संगोष्ठी में पहुँच गए। गोष्ठी में चर्चाएँ जारी थीं, हम पीछे, काफी पीछे बैठ गए…

…गोष्ठी अंतराल में तेजेंद्र आया। गले से लिपट कर मुझे कसता गया। हम दोनों के कोरों में मिलनाश्रु थे। हम दोनों मानो कई युगों बाद मिले थे।

तेजेंद्र अब संतुष्ट तो था मगर मेरी दुर्बल काया का निरीक्षण कर उदास था। सब कुछ बिना होंठ हिलाए उसकी आँखों और बॉडी लैंग्वेज ने कह दिया। उसके न दिखते हुए आँसू एक कविता लिख रहे थे। तेजेंद्र शर्मा का कवि रूप भी बहुत तेजस्वी है। उसकी कई कविताएँ भीतर तक हिला देती हैं। उसे कहीं गिला भी है कि उसके कवि रूप को लोग नहीं पहचानते।

तेजेंद्र दिमाग से कहानी लिखता है और उसमें दिल से भाव भरता है। दूसरी ओर वह दिल से कविता लिखता है और उसका दिमाग उसमें विचार प्रेषित करता है। मैं कहूँगा कि तेजेंद्र एक संपूर्ण साहित्यकार है। वह एक अनोखा शैलीकार भी है। उसकी रचनाओं के शेड और रंग कॉमन नहीं हैं।

फरवरी 2015 में भी तेजेंद्र पुनः दिल्ली में था। फरीदाबाद में अपनी माँ का स्पर्श पाने के लिए हमेशा ललायित रहने वाला तेज बहुत जल्दी जल्दी दिल्ली आता है। राष्ट्रपति भवन में उसे पुरस्कार मिलना हो या अकादमी में सम्मान, वह दिल्ली भाग कर आता है अपनी माँ से मिलने के लिए। वही उसका सबसे बड़ा सम्मान या पुरस्कार है।

एक फरमाबरदार बेटा, एक आदर्श पति, एक दायित्वपूर्ण पिता, एक दिलदार दोस्त, एक श्रेष्ठ साहित्यकार, श्रेष्ठतर नागरिक और श्रेष्ठतम की ओर बढ़ता हुआ मानव, मुझे उसके सभी रूप भव्य लगते हैं। किन्हीं को यह अतिउक्ति लग सकती है, मगर मेरा तेजेंद्र-संदर्भित सच यही है।

नवंबर में तय हुआ कि वह मेरे घर एक गोष्ठी में कहानी पढ़ेगा…परंतु उसका फोन आया कि वह नहीं आ पाएगा। मैंने कारण पूछा। वह झूठ न बोल पाया। उसने बताया कि उसकी मनःस्थिति अभी मेरे आवास पर आने की नहीं है। एक मित्र और उसके बीच कुछ गलतफहमी पैदा हो गई है…इसलिए वह नहीं आ पाएगा।

फरवरी के वासंतिक मौसम में तेजेंद्र फिर दिल्ली में था। वंदना यादव और बल्ली सिंगा ने दिल्ली छावनी के एक सैनिक क्लब में बहुत जानदार कार्यक्रम रखा था, जहाँ तेजेंद्र के मेरे जैसे कई मित्र शामिल हुए थे, जहाँ उसने अपने अभिनय से मनोरंजन और एक मार्मिक गीत गाकर सबको मोहपाश में कस लिया। सबसे अच्छी बात यह थी कि जिस मित्र के साथ कुछ अर्सा पहले तक मन-मुटाव था। इस कार्यक्रम में तेजेंद्र उसके साथ फोटो खिंचवा रहा था…उसे आग्रहपूर्वक खाना खिलवा रहा था…शायद इस बार रूठे को मनाने आया था मेरा दोस्त…

और क्या कहूँ इस मित्र के विषय में…उसके बारे में सोचो तो कई कई बातें…घटनाएँ कौंधने लगती हैं…फिलहाल उन्हें फिर कभी लिखने के लिये छोड़ देता हूँ…लिखूँगा जरूर। हाँ, ऐसा कोई मेरा मित्र तेजेंद्र जैसा नहीं जिसने हिंदी साहित्य को ब्रिटेन की संसद तक पहुँचा दिया…ऐसी और अन्य बातों की चर्चा…ब्रेक के बाद…!


Image : Paul Alexis Reading a Manuscript to Emile Zola
Image Source : WikiArt
Artist : Paul Cezanne
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हरीश नवल द्वारा भी