जो तुम ना मानो मुझे अपना

जो तुम ना मानो मुझे अपना

तेजेंद्र शर्मा एक बड़े रचनाकार के साथ साथ अपनी पहली मुलाकात में ही लोगों के जेहन में समा जानेवाले बेजोड़ शख्शियत हैं। तेजेंद्र जी से मेरी पहली देखा-देखी कथा यू.के. द्वारा प्रवासी साहित्य पर आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में वर्ष 2012 में यमुना नगर में हुई थी। कहना न होगा कि इस प्रथम भेंट में ही हमलोग एक दूसरे के इतने नजदीक आ गए कि लगा मानो हम पुराने परिचित हों। मेरे लिये यमुना नगर की उस संगोष्ठी की एक अन्य उपलब्धि तेजेंद्र जी के साथ साथ जकिया जुबैरी जी का सान्निध्य लाभ प्राप्त करने की भी रही।

मुझे वह क्षण याद है जब मैं प्रवासी साहित्य पर मुख्य वक्ता के रूप में अपना वक्तव्य समाप्त कर अपनी जगह पर वापस आया तो मेरी नजर श्रोताओं की अग्रपंक्ति में विराजमान एक ऐसी भव्य मूरत पर टिक गई जिससे तेजस्विता की आभा फूट रही थी। सत्र के उपरांत पता नहीं मेरी किस बात से प्रभावित होकर उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और अपने बगल वाले सोफे पर बैठने का इशारा किया। बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ और गुफ्तगू के दरम्यिान ही पता चला कि वे प्रसिद्ध कथाकार जकिया जुबैरी जी हैं।

वहीं पर जकिया जी ने तेजेंद्र शर्मा जी से हमारा परिचय कराया। उन्होंने कहा ‘इनसे मिलिए ये हैं सत्यकेतु सांकृत जो अंबेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में हिंदी के प्राध्यापक हैं और ये हैं तेजेंद्र शर्मा जी हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार, जो हैं तो प्रवासी पर प्रवासी कथाकार कहे जाने से गुरेज रखते हैं।’ तेजेंद्र जी ने जिस गर्मजोशी से मुझे गले लगाया उसमें औपचारिकता के सारे ताने बाने प्रथम मिलन में ही तिरोहित हो गए। इसके बाद अनौपचारिक प्रगाढ़ संबंध का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह शनैः शनैः समय की माँग के अनुरूप परवान चढ़ता गया।

वैसे कहने को तो तेजेंद्र जी से मैं पहली बार मिल रहा था पर सही अर्थों में उनसे मेरा परिचय बहुत पुराना था। उस समय तक उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘कब्र का मुनाफा’ ने तो अपनी धूम मचा ही रखी थी साथ ही उनकी ‘देह की कीमत’, ‘कैंसर’, ‘मलबे की मालकिन’, ‘ढिबरी टाईट’, ‘नई दहलीज’, ‘ग्रीन कार्ड’, ‘उड़ान’, ‘कड़ियाँ’, ‘काला सागर’ सहित तमाम कहानियाँ भी हिंदी आलोचना जगत में चर्चा के केंद्र में आ चुकी थीं। पर यहाँ मैं उस बात की चर्चा करना चाहता हूँ जिसका भान शायद तेजेंद्र जी को भी न हो। मैं नवें दशक से ही अपने पिता प्रो. गोपाल राय से उनकी कहानियों की चर्चा सुनता आया था। बाबूजी ने तो नये कहानीकारों को प्रकाश में लाने का बीड़ा ही उठा लिया था और इसमें उनकी संगिनी बनी उनकी अपनी ‘समीक्षा’ पत्रिका जो उनके लिये कृष्ण के पांचजन्य की तरह अजेय अभिव्यक्ति साबित हुई थी। पर किसी कारणवश तेजेंद्र जी की कहानियाँ ‘समीक्षा’ में वह स्थान न पा सकीं जिसकी वे हकदार थीं। इसका कारण शायद उस समय तक तेजेंद्र जी की कहानियाँ का छिटपुट रूप में पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होना रहा होगा। ‘समीक्षा’ ने तो कहानी संग्रहों पर चर्चा करना ही अपना ध्येय बना लिया था। यही कारण है कि शायद गोपाल राय जैसे सतर्क आलोचक भी तेजेंद्र को पढ़ने के बावजूद उन पर अपनी नजरे इनायत न कर पाये हों।

तेजेंद्र शर्मा पर कुछ न लिखने का मलाल उन्हें बहुत दिनों तक सालता रहा और जब मौका मिला तो उन्होंने उसे जाया भी नहीं किया। अपने हिंदी साहित्य के इतिहास के तीसरे खंड में अपनी सारी भड़ास निकालते हुए तेजेंद्र शर्मा पर न केवल लिखा बल्कि जम कर लिखा। ऐसे तेजस्वी तेजेंद्र जी से अचानक एक कार्यक्रम में मुलाकात हो जाने को मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ। इसके बाद से तो हमलोग के संबंध में जो प्रगाढ़ता आई उसे शब्दबद्ध करना मेरे जैसे नाचीज के लिये अत्यंत मुश्किल है। तेजेंद्र जी के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। वे जितने ही प्रतिभावान हैं उतने ही व्यावहारिक भी। संबंधों का निर्वाह करना तो कोई उनसे सीखे। इस संबंध में एक वाक्या याद आ रहा है जिसका यहाँ पर जिक्र कर लेना लाजिमी होगा। पिछले वर्ष नॉटिंघम ट्रेंट यूनिवर्सिटी में दलित साहित्य पर आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में एक सत्र की अध्यक्षता करने का मुझे आमंत्रण मिला। तेजेंद्र जी लंदन में थे और मैं पहली विदेश यात्रा को लेकर थोड़ा नर्वस भी था। मैंने तुरत उनसे संपर्क साधा। सुनते ही उन्होंने कहा कि तुम तो बस आ जाओ और सारी चिंता मुझ पर छोड़ दो।

मैं अपने मित्र अजय नावरिया के साथ, जिन्हें वहीं पर अपना मुख्य वक्तव्य देना था, ब्रिटेन के लिये निकल पड़ा। नॉटिंघम ट्रेंट यूनिवर्सिटी के निर्देशानुसार हमलोग सबसे पहले बरमिंघम पहुँचे। वहाँ एयरपोर्ट पर बीमार होने के बावजूद कृष्ण कुमार जी सपत्नीक हमारे स्वागत के लिये खड़े थे। वहाँ से उनकी गाड़ी में बैठकर हमलोग हिंदी के एक अन्य साहित्यकार कृष्ण कन्हैया जी, जो वहाँ के एक प्रतिष्ठित चिकित्सक भी हैं, के घर पहुँचे। इस बीच तेजेंद्र जी की उपस्थिति का आभास बराबर मुझे होता रहा। वे लगातार सभी लोगों को दिशा निर्देश देते जा रहे थे ताकि हमलोग को कोई तकलीफ न हो। बरमिंघम में एक काव्यगोष्ठी में शिरकत करने के बाद दूसरे दिन हमलोग नॉटिंघम के लिये चल पड़े। वहाँ के एबिस होटल में हमलोग के रुकने की व्यवस्था थी।

दूसरे दिन कार्यक्रम के उपरांत हमलोग होटल पहुँचे। कुछ ही देर में अजय जी ने यह बताया कि नॉटिंघम की एक बड़ी कवयित्री जय वर्मा हमलोग को सैर कराने और अपने निवास पर भोजन हेतु हमें निमंत्रित करने के लिए पधारने वाली हैं। हम समझ गए। एक अदृश्य शक्ति के रूप में तेजेंद्र जी की उपस्थिति निरंतर आभासित हो रही थी। उनकी चाक चौबंध व्यवस्था का हमलोग भरपूर आनंद ले रहे थे। अगले दिन हमलोग लेस्टर के लिये रवाना हुए। वहाँ के विश्वविद्यालय में एक कार्यशाला आयोजित थी जिसमें अजय नावरिया की कहानी पर चर्चा होनी थी। उस कार्यक्रम को संपन्न कर तेजेंद्र जी की योजना के अनुरूप हमलोग लेस्टर की एक प्रसिद्ध कहानीकार नीना पॉल जी के यहाँ पहुँचे। नीना जी ने जिस तरह से अपने घर पर हमारा स्वागत किया वह अविस्मरणीय है।

दो दिनों तक नीना जी के यहाँ रहने, उनके साथ मटरगश्ती करने और तरह तरह के व्यंजन का लुत्फ उठाते  तेजेंद्र जी की उपस्थिति का लगातार आभास करते हुए हमलोग वहाँ पहुँच गए जहाँ दो धाराएँ सब कुछ तोड़ती हुई बिना किसी तकल्लुफ के मिलने को उतावली हो रही थी। हमलोग अब लंदन में थे और सामने तेजेंद्र जी साक्षात हमारे स्वागतार्थ जकिया जी के साथ उपस्थित थे। हमलोग जकिया जी की गाड़ी में गपियाते हुए लंदन में हैरो स्थित तेजेंद्र शर्मा जी के यहाँ शाम के वक्त पहुँच गए। रास्ते में तेजेंद्र जी से ही पता चला कि हमलोग के स्वागत में बीबीसी लंदन हिंदी एवं तमिल विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष श्री कैलाश बुधवार महोदय ने अपने निवास पर कुछ भारतीय मूल के निवासियों के बीच भोजनादि के साथ साहित्यिक चर्चा का आयोजन रखा है। हम समझ गए कि यहाँ पर भी तेजेंद्र जी ने अपना जादूई दाँव चल दिया।

रात में हमलोग जकिया जी के कुशल परिचालन में बुधवार जी के यहाँ धमक गए। हालाँकि वो कहने मात्र के लिये रात थी। रात्रि के आठ बज चुके थे और सूर्य देवता अभी भी आँखें तरेरे अपनी तेजस्विता के साथ विद्यमान थे। तेजेंद्र जी ने बताया गर्मियों में यहाँ सूर्यास्त 10 बजे के लगभग होता है। मेरे लिये यह नया ही नहीं बल्कि अचंभित कर देने वाला अनुभव था। खैर, गोष्ठी अपने सही समय पर शुरू हुई। उसी में महेंद्र प्रजापति के संपादन में निकलने वाली पत्रिका के लोक साहित्य विशेषांक का विमोचन भी करा लिया गया। यह तेजेंद्र जी की व्यवहार कुशलता का एक ऐसा अद्भुत नमूना था जो निश्चित ही उन्हें एक ऐसा संबल प्रदान करता है जो अन्य को सहज उपलब्ध नहीं है। युवा रचनाकारों को प्रोत्साहित कर उभारने का जो बीड़ा उन्होंने उठा रखा है उसके लिये वे ब्रिटेन में तो जाने जाते ही हैं, अबकी बार उसकी अनुगूँज उस रात सात समुंदर पार दिल्ली में भी सुनाई पड़ी। गोष्ठी के उपरांत  बुधवार जी के यहाँ हमलोग ने लजीज व्यंजन का जो आनंद उठाया उससे हृदय से आवाज आई बड़े भाई तेजेंद्र जी तुसी ग्रेट हो। रात को हमलोग तेजेंद्र जी के आवास पर लौट आए और गपियाते हुए कब निद्रा देवी की गोद में चले गए इसका पता ही नहीं चला।

प्रातःकाल जब नींद खुली तो सबसे पहले तेजेंद्र जी पर ही नजर पड़ी। वे कंप्यूटर पर कुछ काम कर रहे थे। पता चला कल संपन्न हुई गोष्ठी और वहाँ दिये गए वक्तव्यों की रपट तैयार कर फेसबुक पर उसे सजा रहे थे। मैं समझ गया उनके अद्यतन रहने का शायद यही राज है। इसके बाद का जो दृश्य मैंने देखा वह मेरे लिये अविस्मरणीय था। तेजेंद्र एक ऐसी सुसज्जित रसोई में विराजमान होकर चायादि बनाने में मशगूल थे जहाँ हर चीज बड़े करीने से रखी थी। अभी हमलोग ने तेजेंद्र जी के हाथों बनीं कड़क चाय का आनंद लिया ही था कि सामने नाश्ता भी आ गया। तेजेंद्र जी के हाथों बने उन गोल गोल स्वादिष्ट भरवा पराठों की याद आते ही आज भी मुँह में पानी आ जाता है। उन पराठों की विशेषता यह थी कि वह एक रचनाकार के हाथों निर्मित हुई एक ऐसी कलाकृति थी जिसमें प्रेम का संसार फैला था। ऐसी ही रोटियों को देखकर कभी नजीर ने कहा होगा–‘जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ/फूली नहीं बदन में समाती हैं रोटियाँ।’

नाश्ता करने के उपरांत हमलोग तेजन्द्र जी के कुशल नेतृत्व में लंदन भ्रमण को निकले। दिनभर के सैर सपाटे, कुछ खरीददारी और अंत में टेम्स नदी में मोटर बोट का आनंद लेते हुए शाम को थके माँदे घर पहुँचे। कुछ देर के विश्राम के उपरांत गप्प शप्प के दरम्यिान ही हमें इस बात का आभास हो गया कि तेजेंद्र जी कहानी के अलावा कविता, गजल, व्यंग्य, अभिनय सहित अनेक विधाओं में  दखल रखते हैं। उस रात तेजेंद्र जी की गजलों ने जो आनंद पहुँचाया, उससे सारी थकावट फुर्र हो गई। पहली बार इस बात को जान पाया कि तेजेंद्र जी न केवल एक अच्छे गजलकार हैं बल्कि सुरीली आवाज के मालिक भी हैं। उनकी एक गजल जिसे उन्होंने तरन्नुम में सुनाया था उसका एक शेर आज भी मुझे याद है–

‘कुछ जो शराब पीकर लिखते हैं, बहक कर बेहिसाब लिखते हैं

होश लिखने का गो नहीं होता, फिर भी मेरे जनाब लिखते हैं।’

तीसरे दिन तेजेंद्र जी की मेहमानबाजी की बेहतरीन स्मृतियों को सँजोए हम अपने वतन के लिये रवाना हो गए। तेजेंद्र जी को तो हम लंदन में ही छोड़ आए थे पर उनकी बेमुरौवत गजलों का क्या करूँ! वे कमबख्त कुछ इस प्रकार पीछे पड़ी थीं कि विस्मृत होने का नाम ही नहीं ले रही थीं। तेजेंद्र बराबर मन मानस में बने थे, मानो कह रहे हों–‘यह घर तुम्हारा है इसको न कहो बेगाना/मुझे तुम्हारा, तुम्हें अब मेरा सहारा है।’


Image : Reading by Candlelight
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Artist : Petrus van Schendel
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