हिंदी गजल पर शोध के बहाने

हिंदी गजल पर शोध के बहाने

हिंदी गजल या हिंदी में गजल, हिंदी की सर्वाधिक विवादास्पद किंतु चर्चित विधा या शैली है। तुष्टिकरण की नीति से प्रभावित अनेक लोग तथा उर्दू की हिमायत करने वाले लोग प्रायः हिंदी में केवल इसे गजली के नाम से ही प्रतिस्थापित करना चाहते हैं। पद्मभूषण नीरज जी ने इसे ‘गीतिका’ का नाम दिया है। दार्शनिक एवं अलौकिक प्रेम पर आधारित गजलें लिखने में यह सिद्धहस्त हैं। उनकी गीतिकाओं का एक संकलन ‘नीरज की गीतिकाएँ’ के नाम से प्रकाशित हो चुका है। अभी हाल में ही हिन्द पॉकेट बुक्स, दिल्ली से उनके संपादन में ‘हिंदी के लोकप्रिय गजलकार’ के नाम से एक परिचयात्मक गजल संग्रह आया है जिसमें प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक सहित कुल चौदह गजलकार संकलित किए गए हैं।

डॉ. मोहन अवस्थी जी ने हिंदी गजल से मिलती-जुलती रचनाओं को अनुगीत की संज्ञा दी है। वे स्वयं अनुगीत विधा के प्रवर्तक माने जाते हैं। क्रांतिकारी एवं जनवादी तेवरों पर आधारित गजलनुमा रचनाओं को लेकर तेवरी आंदोलन आरंभ हुआ। डॉ. ऋषभ देव, रमेश राज व ज्ञानेंद्र साज जैसे लोगों ने इस प्रकार की गजलों को तेवरी की संज्ञा प्रदान की। इसके अतिरिक्त अपने-अपने दृष्टिकोण से अनेक विद्वानों एवं शोधकर्ताओं ने हिंदी गजल को अलग-अलग नामों से अलंकृत किया। कुछ लोग इसे नई गजल एवं जीवंत गजल का नाम भी दे रहे हैं। आज साहित्य के क्षेत्र में भी राजनीति का दूषित पदार्पण हो चुका है। हर व्यक्ति एक दूसरे को पछाड़ कर इस क्षेत्र में मसीहा बनने के लिए कटिबद्ध है।

भाषा, भाव एवं शिल्प को लेकर हिंदी गजल पर अनेक लोगों के अलग-अलग विचार हैं। ये विचार समय-समय पर संगोष्ठियों के माध्यम से उभर कर सामने आते रहे हैं। हिंदी गजल के प्रथम शोधकर्ता के रूप में मेरी मान्यता है कि ‘गजल वह गेयात्मक विधा है जिसमें प्रेम की विभिन्न मनोदशाओं के शब्द-चित्र शेरों के माध्यम से प्रस्तुत करने के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक एवं व्यंग्यात्मक भावभूमि पर आम आदमी के मानस में दबी पीड़ा एवं छटपटाहट को वाणी दी गई हो और जो गजल के व्याकरण को स्वीकारते हुए संक्षिप्तता एवं प्रभावोत्पादकता के गुणों से युक्त हो।’ इतना ही नहीं हिंदी गजल उर्दू-फारसी से आयातित वह काव्य विधा है जो पूर्व निर्धारित लय खंडों (बहरों) के अनुशासन में आबद्ध अनेक शेरों के माध्यम से प्रतीकों एवं बिंबों के सहारे पढ़े-लिखे आम आदमी की भाषा में उसी के जीवन की विसंगतियों एवं विद्रूपताओं को अभिव्यक्त करते हुए आधुनिक जीवन मूल्यों की प्रतिस्थापन में सहायक सिद्ध हुई है। अनुभूति की तीव्रता एवं संगीतात्मकता हिंदी गजल के प्राण हैं। साधारण रूप से हिंदी गजल से हमारा आशय उस गजल से है जिसे कवि या गजलकार विधिवत हिंदी में सोच-समझकर कहता या लिखता है। जिस प्रकार कविगण हिंदी गजलें हिंदी में सोचकर अनुभूतियों को देवनागरी लिपि में प्रस्तुत करते हैं।

हिंदी गजलें उर्दू-फारसी व्याकरण शास्त्र में निर्धारित बहरों के अनुशासन को स्वीकार करने के साथ-साथ हिंदी के छंदों की ओर भी स्वस्थ संभावनाएँ तलाश रही है। इस दिशा में डॉ. कुँवर बेचैन की कृति ‘हिंदी गजल का व्याकरण’ तथा माधव मधुकर द्वारा रचित ‘आग का राग’ की सार्थक भूमिका उल्लेखनीय है। इसी विषय पर डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल तथा अशअर उरैनवी के ‘हिंदी गजल का व्याकरण’ शीर्षक से दो अलग-अलग ग्रंथ प्रकाशित और चर्चित हुए।

हिंदी गजल की विकास यात्रा का श्रीगणेश अमीर खुसरो की उन गजलों से होता है जिनमें किसी न किसी रूप में हिंदी का रंग विद्यमान है। तब से हिंदी गजल के क्षेत्र में स्फुट लेखन की परंपरा अनवरत जारी है। कबीर, भारतेंदु हरिश्चंद्र, लाला भगवानदीन, निराला, अंचल, हरिकृष्ण प्रेमी, बलवीर सिंह रंग आदि ने इस विधा को समृद्ध किया। परंतु शमशेर बहादुर सिंह से प्रमाणित दुष्यंत कुमार ने तो अपनी गजलों को आम-आदमी के दुख-दर्द, आक्रोश आदि से जोड़कर हिंदी गजल के क्षेत्र में धूम ही मचा दी। जिन दिनों दुष्यंत कुमार हिंदी में गजलें लिख रहे थे, उन्हीं दिनों ‘विराट’ जैसे उनके समकालीन कविगण सार्थक और सटीक गजलें लिख रहे थे। आज उनके समकालीनों एवं परवर्ती कवियों का लंबा काफिला हिंदी गजल की परंपरा की सफलता के सोपानों की ओर लिए जा रहा है। इनमें से एक का नामोल्लेख करना दूसरे के साथ अन्याय करना होगा। यद्यपि अनेक आलोचक हिंदी गजल की उपलब्धियों पर प्रश्न चिह्न लगा रहे हैं, फिर भी मेरी मान्यता है कि हिंदी गजल अब अपने स्वर्णयुग में प्रवेश कर रही है। पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर हिंदी गजलें प्रकाशित हो रही हैं। हिंदी गजलकारों के नित्य नए संग्रह पाठकों को प्रभावित कर रहे हैं। लोकप्रियता का हाल यह है कि उर्दू गजलकारों के संग्रह हिंदी देवनागरी लिपि में प्रकाशित हो रहे हैं और पाठकगण उन्हें पढ़ रहे हैं, पसंद कर रहे हैं। हम उस महान संस्कृति के पोषक हैं जिसके अंतर्गत हिंदी हमारी माँ सी अर्थात मौसी। वास्तव में हिंदी और उर्दू दो सगी बहनों के समान है।

फिर भी आज हिंदी गजल के बारे में चिंतकों में मत-मतांतर है। हिंदी गजल की पृष्ठभूमि क्या है? हिंदी गजल का जन्मदाता किसे माना जाए? हिंदी में लिखी जा रही गजलों का नामकरण क्या हो? हिंदी गजलों को बहरों के अनुशासन का अनुपालन करना आवश्यक है अथवा हिंदी गजलों को हिंदी छंदों में आबद्ध किया जाना अधिक उपयुक्त है? हिंदी गजलों का भाषा-स्वर कैसा हो? हिंदी गजल की विकास यात्रा के कौन-कौन से पड़ाव निर्धारित किए जाएँ? हिंदी गजल का व्याकरण क्या हो? इन तमाम बिंदुओं पर सार्थक, शोधपरक एवं सार्वभौमिक चिंतन प्रस्तुत करने के लिए हिंदी गजल पर विभिन्न विश्वविद्यालयों में शोध कार्य हुए हैं। इस विषय पर महत्त्वाकांक्षी विद्यार्थियों ने लघु शोध प्रबंध भी लिखे हैं।

इस विषय पर कुछ ऐसी पुस्तकें भी प्रकाश में आई जो किसी शोध उपाधि के लिए नहीं लिखी गईं परंतु उनका महत्त्व किसी शोध कार्य से कम नहीं है। ये ग्रंथ स्वाध्याय के बल पर स्वांतःसुखाय की भावना से हिंदी में गजल लिखने वालों का मार्गदर्शन करने के लिए लिखे गए। इन ग्रंथों में निम्नलिखित प्रमुख है–‘गजल एक अध्ययन’–चानन गोविंदपुरी, हिंदी गजल संरचना एक परिचय–राम प्रसाद शर्मा ‘महर्षि’, हिंदी गजल निर्देशिका, आर.पी. शर्मा ‘महर्षि’। इनमें ‘गजल एक अध्ययन’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कृति है। इसमें विषय-वस्तु को निम्न शीर्षकों के अंतर्गत प्रस्तुत किया गया है–शाइर की दुनिया, शहरी और असलियत, ख्याल, नवीनता, तासीर, मजमून तलाशी, गजल, गजल का बुनियादी ढाँचा, गजल का विषय, गजल का ब्रह्मांड, तगज्जुल, हिंदी गजल, बहर (छंद), शे’र के गुण-अवगुण।

उपर्युक्त ग्रंथों ने मुझे भी ‘हिंदी गजल : उद्भव और विकास’ पर कानपुर विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि के लिए डॉ. वंशगोपाल जी के निर्देशन में शोधकार्य करते समय पर्याप्त सहायता प्रदान की। उक्त शोध ग्रंथ पर मुझे 1984 में पी-एच.डी की उपाधि प्राप्त हुई और इसे वर्ष 1987 में सामयिक प्रकाशन ने इस विषय का प्रथम शोध ग्रंथ मानते हुए अपने स्तर से सहर्ष प्रकाशित किया।

इस शोध ग्रंथ के पश्चात सूर्यप्रकाश शर्मा द्वारा प्रस्तुत लघु शोध प्रबंध ‘गजल : एक यात्रा’ 1988 में प्रकाशित हुआ। श्री शर्मा ने डॉ. कांतिकुमार जैन के मार्गदर्शन में अपनी स्नातकोत्तर परीक्षा में एक प्रश्न-पत्र के रूप में इस लघु शोधप्रबंध को प्रस्तुत किया था। लगभग इसी समय डॉ. जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव के निर्देशन में गोरखपुर विश्वविद्यालय की स्नातकोत्तर परीक्षा में एक प्रश्न-पत्र के रूप में श्री अनिल राय ने हिंदी गजल पर आधारित लघु शोध प्रबंध प्रस्तुत किया। तत्पश्चात डॉ. जे.पी. गंगवार ने डॉ. रमाशंकर मिश्र के निर्देशन एवं डॉ. भगवान शरण भारद्वाज के मार्गदर्शन में ‘हिंदी कविता में गजल : संवेदना और शिल्प’ पर शोध प्रबंध प्रस्तुत करके संभवतः 1988 में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। इसका प्रकाशन 1991 में हुआ। प्रस्तुत शोध प्रबंध को सात अध्यायों में विभक्त किया गया है, जो इस प्रकार है–

  1. गजल का अर्थ एवं स्वरूप 2. संवेदना और शिल्प 3. हिंदी गजल और संवेदना 4. हिंदी गजल और भाषा 5. हिंदी गजल और सादृश्य संगठन 6. हिंदी गजल में छंद विधान, और 7. उपसंहार।

कालांतर में डॉ. सरदार मुजावर जी ने डॉ. व्यंकटेश कोटागे जी के निर्देशन में ‘हिंदी गजल के विविध आयाम’ नामक शोध प्रबंध प्रस्तुत करके पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। इसका प्रकाशन वर्ष 1993 में हुआ।

हिंदी गजल हिंदी में अब एक स्वतंत्र काव्य रूप है। हिंदी में गजल एक लोकप्रिय काव्य विधा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी है। हिंदी में गजलों का आगमन फारसी-उर्दू की गजलों के प्रभाव स्वरूप हुआ है। हिंदी गजल का उद्भव काल तेरहवीं शताब्दी है। अमीर खुसरो हिंदी के पहले गजलकार हैं। हिंदी गजलें आज भी सामाजिक जिंदगी का आईना है। हिंदी की गजलें सामाजिक परिवेश में साँस लेती हैं। दुष्यंत कुमार हिंदी के महान गजलकार हैं। हिंदी की गजलें आम आदमी के दुख-दर्दों से बाते करती हैं। हिंदी गजलों में प्रेम भाव भी मुखरित हुआ है, पर उसमें वासना की बू नहीं है। हिंदी गजलों में प्रासंगिकता का अभाव नहीं है। हिंदी गजलों की भाषा उर्दू-फारसी-अरबी एवं हिंदी के मिलाप से स्वाभाविक बन चुकी है। हिंदी की गजलों में रदीफ एवं काफिया का सफल निर्वाह हुआ है तथा हिंदी गजलों के ये विविध आयाम ही हिंदी गजलों का निरालापन साबित करते हैं।

इसी क्रम में डॉ. महेश अग्रवाल ने हिंदी गजल को नई गजल के रूप में स्वीकारते हुए जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर से इसी विषय पर शोध प्रबंध प्रस्तुत करके पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। हिंदी गजल पर इसी विश्वविद्यालय से डॉ. प्रमिला श्रीवास्तव ने भी पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। ये दोनों शोध प्रबंध यद्यपि अभी प्रकाशित नहीं हुए पर इनमें अनेक महत्त्वपूर्ण एवं क्रांतिकारी तथ्यों का उद्घाटन हुआ है।

‘हिंदी गजल संवेदना और शिल्प’ पर एक शोधकार्य डॉ. मंजू गर्ग द्वारा किया गया है। उनका शोध ग्रंथ छह अध्यायों में विभक्त है। डॉ. मंजू गर्ग के अनुसार आज की गजल की धारा तीन रूपों में बह रही है–शृंगारपरक धारा, सामाजिक धारा एवं दार्शनिक धारा। हिंदी गजलों में प्रयुक्त उपमान आज के जीवन की सच्चाई को अभिव्यक्त करने में पूर्ण सक्षम हैं। हिंदी गजलें, उर्दू बहरों के साथ-साथ हिंदी, संस्कृत के छंदों में भी लिखी जा रही हैं। इन्होंने अपने शोध-ग्रंथ के माध्यम से हिंदी गजल की भागवत एवं शिल्पगत विशेषताओं को मौलिकता से रेखांकित करने का प्रयास किया है।

इसी से मिलते-जुलते शीर्षक ‘हिंदी गजल की वैचारिक भंगिमा : संवेदना और शिल्प’ पर डॉ. शंभूनाथ मिश्र आचार्य जी के निर्देशन में डॉ. शिव ओम ‘अंबर’ जी ने कानपुर विश्वविद्यालय से शोधकार्य करके पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। इसी क्रम में हिंदी, उर्दू और अँग्रेजी इन तीनों भाषाओं में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त डॉ. सादिका असलम नवाब ‘सहर’ ने डॉ. दशरथ सिंह जी के निर्देशन में मुंबई विश्वविद्यालय ‘साठोत्तरी हिंदी गजल : शिल्प और संवेदना’ पर शोध करके डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की जो कालांतर में वर्ष 2007 में प्रकाशित हुआ।

इसी प्रकार कुमाऊँ विश्वविद्यालय से डॉ. नीरज टंडन जी के निर्देशन में शशि जोशी का पी-एच.डी. स्तर का शोधकार्य आधुनिक हिंदी गजलों का समीक्षात्मक अध्ययन भी पूर्ण हो चुका है। यह सात अध्यायों में विभक्त है।

इसी परंपरा का अनुशीलन एवं प्रवर्तन करते हुए डॉ. वशिष्ठ अनूप ने पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर से ‘हिंदी गजल : उपलब्धियाँ और संभावनाएँ’ विषय पर डी. लिट् स्तर का शोधकार्य किया। वर्ष 2006 में उनकी दो आलोचनात्मक कृतियाँ प्रकाशित हुईं जिनके शीर्षक हैं–‘हिंदी गजल का स्वरूप और महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर’ तथा ‘हिंदी गजल की प्रवृत्तियाँ’। इन दोनों कृतियों में उनके वृहद् शोध का सार विद्यमान है। प्रथम कृति के अंतर्गत हिंदी गजल के 25 महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षरों के साहित्य का निरूपण किया गया है जिनमें इन पंक्तियों का लेखक भी सम्मिलित है।

हिंदी गजल के दिशावाहक कवि के रूप में दुष्यंत कुमार का नाम सर्वविदित है। उनके रचना संसार में ‘साये में धूप’ का नाम सर्वविदित है। अतः उनके बारे में शोध कार्य करने वालों का उल्लेख करना यहाँ समीचीन ही होगा।

हिंदी गजल ने देश में प्रचलित तथा संविधान में स्वीकृत अन्य भाषाओं में भी लिखी जा रही गजलों को प्रभावित किया है।

अतः हिंदी के साथ अन्य भाषाओं में रची जा रही गजलों के तुलनात्मक अध्ययन को अनेक अनुसंधित्सुओं ने अपने शोध का विषय चुना है। हिंदी और गुजराती गजल के तुलनात्मक अध्ययन पर डॉ. सुभाष भदौरिया जी ने डॉ. अम्बा शंकर नागर जी के निर्देशन में शोधकार्य करके डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। इसी क्रम में डॉ. मोहम्मद अजीज नदाफ ने ‘गजल तंत्र : हिंदी-उर्दू मराठी गजलों के संदर्भ में’ विषय लेकर शिवाजी विश्वविद्यालय, कोल्हापुर से पी-एच.डी. स्तर का शोध कार्य पूर्ण किया जो बाद में प्रकाशित एवं चर्चित हुआ।

इससे भी आगे हिंदी गजल देश की सीमाओं को लाँघकर नेपाल तक पहुँची है। उसने नेपाली भाषा में भी गजल लेखन को प्रेरणा दी। नेपाल के घनश्याम न्यौपायने ‘परिश्रमी’ हिंदी और नेपाली गजल के तुलनात्मक स्वरूप पर शोध कार्य कर रहे थे। संयोगवश वे एक नेपाली गजलकार भी हैं। उनकी नेपाली गजलों का संग्रह भी ‘घाम के छहारीमा’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है।

आज हिंदी गजल पर जो शोधकार्य हो चुके हैं तथा जो हो रहे हैं अब उन सबके समग्र एवं तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता है। यदि कोई होनहार और प्रतिभा समपन्न शोधार्थी मैदान में उतरे तो वह ‘हिंदी गजल में शोध के विविध आयाम’ जैसे विषय पर उपयोगी एवं महत्त्वाकांक्षी शोध कार्य कर सकता है। शोध और संरचना की दृष्टि से हिंदी गजल की दशा अत्यंत ही उपलब्धिपूर्ण तथा दिशा उज्ज्वल एवं संभावनाओं से परिपूर्ण है।