क्या उन्हें बच्चे की याद आती होगी

क्या उन्हें बच्चे की याद आती होगी

अमर सिंह जवंदा जब 1977 में पटियाला (पंजाब) के पास के अपने गाँव चंदू माजरा से बर्लिन आए थे तब किसी भी देश में आने के लिए वीजा की जरूरत नहीं होती थी। ऐसा वे कहते हैं। उस समय भारत में जनता पार्टी की सरकार बन चुकी थी और जर्मनी के भी राजनैतिक हालात बदल रहे थे। उनके तीन भाई, पत्नी और इकलौता बेटा हरदीप गाँव में ही रह गए। उन्होंने 1986 में बर्लिन के पश्चिमी इलाके में पहला भारतीय रेस्त्राँ खोला। उस रेस्त्राँ का नाम उन्होंने ‘टैगोर रेस्त्राँ’ रखा। तब से लेकर अब तक बर्लिन में सैकड़ों भारतीय रेस्त्राँ खुल गए हैं। 1988 में उन्होंने अपने बेटे हरदीप सिंह को बर्लिन बुला लिया। हरदीप ने पूर्वी बर्लिन में ‘अर्जुन रेस्त्राँ’ खोला जो इतना लोकप्रिय हुआ कि आज उनके दस-बारह रेस्त्राँ और खुल गए। अमर सिंह का कहना है कि इसी दो जून को उन्होंने अपने जीवन का आखिरी रेस्त्राँ खोल दिया है जो मैक्सिकन है और कुछ महीने बाद वे रिटायर हो जाएँगे।

बर्लिन के थीगल एयरपोर्ट पर मुझे लेने हरदीप सिंह आए हुए थे। दो साल पहले बर्लिन के भारतीय फिल्मोत्सव में ब्रिटिश फिल्मकार अवतार भोगल की फिल्म ‘ऑनर कीलिंग’ दिखाई गई थी। अवतार ने वहाँ के एक दूसरे नामी रेस्त्राँ ‘बांबे रेस्त्राँ’ के मालिक अवतार सिंह से मिलवाया था। एक शाम मैं, मधुर भंडारकर, प्रेम चोपड़ा, ओमी वैद्य (थ्री इडियट वाले), विपिन शर्मा (तारे जमीं पर), जी.के. देसाई, सरफराज आलम आदि बांबे रेस्त्राँ में जमे हुए थे, वहीं हरदीप सिंह से परिचय हुआ था। बाद में हम गहरे दोस्त बन गए। हरदीप ने रास्ते में बताया कि पिछले दस-पंद्रह सालों से भारतीय अप्रवासी खुद को अनाथ महसूस करने लगे हैं। उन्होंने भारत में निवेश करना बंद कर दिया है। वहाँ कानून एवं व्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं है। कोई भी गुंडा-बदमाश उनकी संपत्तियों पर कब्जा कर लेता है। भारतीय पार्टनर उनका पैसा हड़प लेते हैं। दूसरे दिन जब हम हरदीप के पिता अमर सिंह से मिले तो उन्होंने भी ऐसे दर्जनों किस्से सुनाए। उन लोगों ने मुझसे कहा कि नई सरकार से अप्रवासी भारतीयों को बड़ी उम्मीदें हैं। वे चाहते हैं कि मैं उनकी भावनाओं से दिल्ली में बैठे राजनेताओं को अवगत कराऊँ। मैंने उनसे वायदा किया कि मैं ऐसा जरूर करूँगा।

हरदीप ने कहा कि मैं उसके रेस्त्राँ में किसी को भी आमंत्रित कर सकता हूँ। मैंने उससे आग्रह किया कि मैं जर्मन रेडियो डायच वैले के भारतीय प्रसारणों के पूर्व प्रमुख श्लैंडर को आमंत्रित करना चाहता हूँ। फोन पर उनकी शुद्ध हिंदी सुनकर हरदीप खुशी से उछल पड़ा। उसने किसी जर्मन को इतनी अच्छी हिंदी बोलते नहीं सुना था। फ्रीडमान श्लैंडर के साथ दिल्ली में मेरी कई मुलाकातें यादगार रही थीं। वे मुझे डायच वैले में नौकरी देना चाहते थे। पर तब वह नौकरी मेरी किस्मत में न थी।

फ्रीडमान श्लैंडर के साथ बिताया गया वह पूरा दिन मैं कभी नहीं भूल सकता। सोमवार, 2 जून 1914 को वे सुबह 11 बजे अर्जुन रेस्त्राँ आ गए। मुझे अपनी गाड़ी में बिठाया और लगभग सारा बर्लिन घुमा दिया। शाम को एक जगह उन्होंने गाड़ी पार्क की और एक गली से गुजरते हुए नदी किनारे पहुँचे। वहाँ हमने ‘कैनाल ट्रर’ लिया। एक कुशल गाईड की तरह वे उन जगहों, इमारतों और सड़क-चौराहों का इतिहास-वर्तमान बताते चल रहे थे। उन्होंने 1977 की जनता पार्टी राज का एक सच्चा किस्सा सुनाया। तब के विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जब जर्मनी आए तो साफ-साफ कह दिया कि वे तो केवल हिंदी में बोलेंगे। जर्मन प्रशासन के पास उन दिनों कोई हिंदी-जर्मन जानने वाला दुभाषिया नहीं था। तब सारा काम अँग्रेजी के माध्यम से चल रहा था। बाद में भी चलता रहा। जर्मन सरकार ने डायचवैले से श्लैंडर को भेजने का अनुरोध किया। वे कहते हैं। ‘मेरे लिए वह एक दिलचस्प अनुभव था। अटल जी भी हिंदी में बोलते, मुझे तत्काल उसे जर्मन में बोलना होता था।’ वे चलते-चलते रुक गए। मेरी ओर देखकर बोले। ‘यह कितनी अच्छी बात है कि भारत के नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा हिंदी बोलते हैं।’

हमारी मोटरवोट जब जर्मन चांसलर (राष्ट्र प्रमुख) एंजलिना मर्केल के घर के पास से गुजरी तो श्लैंडर ने कहा–‘क्या आपको पता है कि जर्मन के सबसे बड़े बैंक ‘डायच बैंक’ के अध्यक्ष का वेतन जर्मन चांसलर के वेतन से तीन गुना अधिक है। और वह अध्यक्ष भारतीय हैं’ यह सुनकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा कि वे अगली सर्दियों में अपनी पत्नी के साथ भारत आना चाहते हैं। उन्हें एक विश्वस्त ट्रैवेल एजेंट चाहिए। वे श्रीनगर या उत्तर-पूर्व या उन जगहों को देखना चाहते हैं, जहाँ वे पहले नहीं गए। हरदीप उनसे मिलकर बेहद खुश था। उसने कहा, ‘सर आप बर्लिन में ‘जर्मन-भारत मित्र मंडल’ को फिर से सक्रिय बनाइए। मैं अपने रेस्त्राँ में उनके लिए प्रति माह एक रात्रि भोज आयोजित करूँगा।’ जब वे डिनर के बाद चलने लगे तो अपने खाने का बिल देने पर अड़े रहे। बड़ी मुश्किल से हम दोनों ने उन्हें ऐसा न करने पर राजी किया।

बांबे रेस्त्रा के मालिक अवतार सिंह उन दिनों स्पेन गए हुए थे। हरदीप रोज फोन पर उनसे मेरी बात करवाता था। वे वहाँ एक बड़ा मकान खरीदने गए थे जहाँ वे और उनके मेरे जैसे मित्र लोग छुट्टियाँ बिताने जा सकें। इस यात्रा में उनसे मुलाकात न होने का मुझे बड़ा अफसोस रहा क्योंकि अतिथियों को कुछ अति वयस्क स्थानों पर ले जाने का दायित्व वही निभाते हैं। मेरे बर्लिन से लंदन जाने के एक दिन पहले ही मेरी बात बलजिंदर सिंह सोढ़ी से हुई। सोढ़ी बर्लिन के कुछ अमीर व्यावसायियों में गिने जाते हैं। उन्हें पता चला कि मैं बर्लिन में हूँ तो तुरंत अर्जुन रेस्त्राँ आ गए। हरदीप पर बिगड़ने लगे। ‘जब तुम्हें पता है कि मेरे इतने सारे होटल, अपार्टमेंट और रेस्त्राँ हैं तो अजित जी को दूसरे होटल में क्यों ठहराया? अजित भाई, आप आज ही मेरे यहाँ चलिए।’ बड़ी मुश्किल से मैंने उन्हें मनाया कि इस बार रहने दें, अगली बार जरूर आपके यहाँ ठहरूँगा। वे मुझे अपने जर्मन रेस्त्राँ ‘आर-23’ में ले गए और बताया कि वे भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर आए हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री के साथ अपनी फोटो भी दिखाई। उनकी जर्मन संसद में बड़ी जान-पहचान है।

इस समय जर्मनी की अर्थव्यवस्था सारे यूरोप में सबसे अधिक मजबूत है। जर्मन लोगों को मैंने हमेशा भारत और भारतीयों का पक्षधर पाया। जर्मनी में मैं जिन-जिनसे मिला, चाहे वे भारतीय हों या जर्मन, सबने यही कहा कि भारत सरकार को अमेरिका-ब्रिटेन के अलावे जर्मनी पर भी ध्यान देना चाहिए। बर्लिन के एक भारतीय रेस्त्राँ में जो वेटर मुझे खाना परोस रहा था, उससे मैंने बातचीत शुरू की। अपने व्यवहार से उसने मुझे आकर्षित किया था। उसने एक अलग ही कहानी बताई। पंजाब से वह इटली होता हुआ जर्मनी आया था। इटली के खेतों में काम करने के लिए भारतीयों को नौ महीने का वीजा और वर्क परमिट मिलता है। वहाँ से वे बस या ट्रेन लेकर जर्मनी आ जाते हैं। यहाँ किसी तरह उन लड़कियों से दोस्ती करते हैं जो मजदूरी करके अपना काम चला रही होती हैं। पोलैंड, रोमानिया, हंगरी आर्मिनीया और रूसी देशों से रोजगार या पढ़ाई के लिए आई लड़कियों को कुछ सालों बाद जर्मन नागरिकता मिल जाती है। उस पंजाबी लड़के ने बताया कि वह भी पोलैंड से आई एक लड़की के साथ पति-पत्नी की तरह रह रहा है जो जर्मन नागरिक है। उससे हाल ही में उसने एक बच्चा पैदा किया है जिसे सरकार ने मान्यता दे दी है। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मेरे पूछने पर उसने बताया कि दुनिया भर से आए अवैध अप्रवासी ऐसा ही कर रहे हैं। वे जर्मन लड़कियों के साथ संबंध बनाते हैं, बच्चा पैदा करते हैं, वर्क परमिट हासिल करते हैं और चलते बनते हैं। मुझे पाकिस्तान के ऐसे कई युवक मिले जिन्होंने बताया कि उनका दूतावास इसमें उनकी काफी मदद करता है। इस तरह के भारतीय युवक दूतावास से बड़े नाराज दिखे। उनका कहना था कि हमारी सरकार और दूतावास के अधिकारी इस काम में मदद नहीं करते। अब मैं उनको यह कैसे समझाता कि भारतीय दूतावास अवैध अप्रवास में क्यों मदद करे। यह तो हमारे आदर्शों और कानून के खिलाफ है।

मैं देर तक उन लड़कियों और उनके बच्चों के बारे में सोच-सोचकर दुखी होता रहा जिनके पति या पिता उन्हें छोड़कर चल देते हैं। उस पंजाबी युवक ने बताया कि दो तरह की बातें होती हैं। एक हम भारतीय लोग अपने परिवार और बच्चों की देखभाल बहुत अच्छे से करते हैं, इसलिए यहाँ हमारी माँग दूसरे देशों के युवकों से ज्यादा है। दूसरी, यहाँ की संस्कृति हमसे अलग है। ये पत्नियाँ हमारी पत्नियों की तरह पति की सेवा नहीं करतीं। इसलिए खूब लड़ाई-झगड़ा होता है। और फिर हमें अलग होना होता है। बच्चों का सारा खर्च सरकार उठाती है क्योंकि यहाँ पैदा होने वाले सभी बच्चे जन्म से ही स्वतः जर्मन नागरिक होते हैं। यह एक दिल दहला देने वाली सूचना थी। इस संसार में क्या-क्या हो रहा है। प्रेम, दांपत्य, बच्चे, सब कुछ पहले से ही निर्धारित कर दिए जाएँ कि इसी रास्ते से आपके सारे अपराध माफ हो सकते हैं। आप कानून को धोखा दे सकते हैं और उन स्त्रियों और बच्चों को छोड़कर जा भी सकते हैं।

मैं सोचता हूँ कि दस साल बाद जब वे एक वैध नागरिक बन चुके होते हैं। किसी अपनी ही जाति की लड़की से भारत में शादी करके जर्मनी या ऐसे ही किसी देश में अपना घर-परिवार बसा चुके होते हैं तो क्या उन्हें कभी अपने पहले बच्चे की याद आती होगी जिसके सहारे उन्हें यहाँ सब कुछ मिला और जिसने अपना बचपन पिता की गोद में नहीं बिताया। क्या कभी उन स्त्रियों की याद आती होगी जिसने सबसे पहले उन्हें अपना साथी चुना और कुछ साल के लिए सहजीवन बिताया?

एक शाम मैंने स्टीफन ओट्टेब्रूच को अर्जुन रेस्त्राँ बुलाया और मैंगो लस्सी पिलाई। उसने पहली बार ऐसी लस्सी पी थी। वह दो गिलास मैंगो लस्सी पी गया। वह पूरे 25 किलोमीटर का सफर तय करके साइकिल से आया था। बर्लिन के भारतीय फिल्मोत्सव में उससे दोस्ती हुई थी, फिर कान में हम मिलते रहे थे। बेबीलोन सिनेमा में वह काम करता है। मुंबइया फिल्मों का जबरदस्त दीवाना है। वे लोग वहाँ हर महीने ‘इंडो-जर्मन फिल्म डिनर’ आयोजित करते हैं, जिसमें हिंदी की कोई नई फिल्म दिखाई जाती है। उसके बाद रात्रि भोज में उस पर बातचीत करते हैं। फिल्म देखने और खाने-पीने का खर्चा टिकट में ही शामिल होता है। स्टीफन बेबीलोन में भारतीय फिल्मों का एक बड़ा फिल्मोत्सव आयोजित करना चाहता है। मैंने उससे वादा किया है कि हम मिल-जुलकर इस तरह के आयोजन की संभावनाएँ तलाशेंगे। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि कितना अच्छा हो कि दुनिया के पचास देशों में हर साल भारतीय सिनेमा का एक फेस्टिवल हो और वहाँ के लोगों को भारत का अच्छा सिनेमा देखने को मिले।

नीदरलैंड से जॉन एस्सेलबास के कई फोन आ चुके थे। मुझे जल्द से जल्द वहाँ पहुँचना था। लेकिन बीच में लंदन भी जाना था। दिव्या माथुर, इस्माइल चुनारा और निखिल कौशिक से मिले बिना यूरोप की ग्रीष्मकालीन यात्रा पूरी ही नहीं होती है। इस बार तो लंदन में कैलाश बुधवार, अचल शर्मा और मीरा कौशिक के घर भी कुछ शामें गुजरीं। निखिल मुझे लिवरपुर और मैनचेस्टर भी ले गए। बरमिंघम और ग्लासगो जाना नहीं हुआ। निखिल इन दिनों चेस्टर में लाचे एफएम पर हर हफ्ते एक लाइव प्रोगाम करते हैं। ‘साँझी रेडियो’। उन्होंने एक घंटे मेरी पंसद के फिल्मी गीतों के साथ मुझसे बातचीत की। जमाने के बाद रेडियो कार्यक्रम में जाकर अच्छा लगा। हमेशा की तरह लंदन के ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट में एच.एम.वी.स्टोर और टेम्स नदी के किनारे साउथ बैंक के ब्रिटिश फिल्म इंस्टीच्यूट के शोरूम में मनपंसद की ढेरों फिल्में खरीदने और इस्माइल चुनारा तथा सांद्रा डेविड के साथ लंबी मुलाकातों के बाद मैं जॉन एस्सेलबास के कला महोत्सव में नीदरलैंड के एक टापू पर जा पहुँचा।

कलाओं का भौतिक, इंजीनियरिंग, भवन निर्माण, शहरी विकास आदि-आदि से क्या रिश्ता है, इसे जानना हो तो नीदरलैंड जरूर जाइए। नीदरलैंड के रोतर्दम से दो घंटे में डेल्टा क्षेत्र में पहुँचते हैं जिसके चारों ओर समुद्र है। इसे जीलैंड कहते हैं जहाँ जॉन ट्रस्ट ‘डाइनेमिक आर्ट डेल्टा’ काम करता है। वे साल में एक बार कला महोत्सव करते हैं। इसके लिए उन्होंने किशोरवय के स्कूली छात्रों को चुना है। पूरे प्रदेश के स्कूल अपने-अपने कला मॉडल प्रदर्शित करते हैं, जिन पर जाने-माने कलाकार चर्चा करते हैं। यहाँ इस बात का ख्याल रखा जाता है कि भौतिक विकास और कलात्मक विकास साथ-साथ चलें। अब इसमें तीसरा पक्ष जुड़ गया है ‘पर्यावरण’। असली बात यह कि जॉन एस्सेलबास और उनके साथी मेरे सहयोग से इसी संस्कृति केंद्र में दुनिया का पहला किसान अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह करना चाहते हैं जिसका दूसरा अध्याय भारत में होना निश्चित हुआ है। यह जगह इतनी सुंदर है कि मन करता है कि यहीं बस जाया जाए।

तीन दिन बाद मुझे अम्सतर्दम जाना था। कलाकार दंपति हेराल्ड स्कोल और एडिथ रिंजा मेरा इंतजार कर रहे थे। उनके साथ मुझे पूरे अम्सतर्दम शहर के स्थापत्य और भवन निर्माण में कलाओं की उपस्थिति का अध्ययन करना था। हेराल्ड भारत में कला की कई कार्यशालाओं का संचालन कर चुके हैं। हम एक दिन घूमते हुए अम्सतर्दम के सेंट्रल रेलवे स्टेशन की दूसरी ओर मोटर वोट से वहाँ के सबसे कड़े कला केंद्र में चले गए जिसे ‘आई’ (आँख) कहते हैं। यह बिलकुल ताजा-ताजा बना है। ऐसा बहुकला केंद्र मैंने बहुत कम देखा है। एडिथ मुझे ‘पार्थ’ सिनेमा भी लेकर गई जहाँ सभी प्रमुख फिल्मों का प्रीमियर होता है। हम अपनी पसंदीदा जगह वॉन गॉग म्यूजियम भी गए–निर्माण कार्य हो रहा था। हेराल्ड ने सामने के मैदान की ओर इशारा करते हुए कहा कि एक दिन यहीं घूमते हुए अचानक एक छोटा विमान उतरा और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा प्रकट हुए। तीन दिन हमने जिस तरह दिन-रात, बारिश-धूप, रौशनी-चाँदनी में शहर को देखा वह मैं कभी नहीं भूल सकता।

आप यदि दिल से हिंदी में बोलेंगे तो हम समझ लेंगे, बट नो इंग्लिश प्लीज

मास्को के ‘पीपुल्स फ्रेंडशिप यूनिवर्सिटी’ के भव्य सभागार में 12 सितंबर 2014 की शाम सात बजकर पैंतीस मिनट पर प्रथम भारतीय फिल्मोत्सव के निदेशक के रूप में बोलने के लिए जब मेरा नाम पुकारा गया तो मैंने अपनी बगल में खड़े सरफराज आलम से कहा–‘मैं तो हिंदी में बोलूँगा, तुम भी मेरे साथ आओ और हर वाक्य का रूसी में अनुवाद करके बोलना।’ सरफराज ने मेरे भाषण का इतना अच्छा रूसी अनुवाद किया कि लोग लगातार तालियाँ बजाते रहे। मुझे यह तो अंदाजा था कि मैं कला-संस्कृति-सिनेमा और साहित्य के एक महान शहर के बाशिंदों से भारतीय सिनेमा के साथ मुखातिब हो रहा हूँ, मगर यह अहसास नहीं था कि मेरे भाषण पर मॉस्को की जो नई पीढ़ी तालियाँ बजा रही है, उसमें से कई से यह भी सुनना पड़ेगा कि ‘सर, रूसी सिनेमा, साहित्य और रंगमंच के बारे में आप हमसे कहीं अधिक जानते हैं।’ मेरे लिए यह मेरी तारीफ नहीं थी, एक दुखद सूचना थी। आज का मॉस्को पूरी तरह से बदल गया है। भारत में जिन महान रूसी लेखकों को पढ़ते हुए हम जवान हुए थे, रूस में अब वे इतिहास हो चुके हैं।

मैंने तो बस इतना कहा था, ‘आज मैं जिस जमीन पर खड़ा हूँ वहाँ रंगमंच के महान सिद्धांतकार कोस्तांतिन सर्जेविचि स्तानिस्लावस्की (17 जनवरी, 1863, 7 अगस्त, 1938) की जमीन है जिसने अभिनय में आध्यात्मिक यथार्थवाद को संभव बनाया। हम महान रूसी फिल्मकार सर्जेई आइजेंस्टाइन (22 जून, 1998, 11 फरवरी 1943) को कैसे भूले सकते हैं जिन्होंने पहली बार सिनेमा में ‘मोंटाज’ का आविष्कार किया था और अपनी फिल्म ‘बैटलशिप पोटेमकीन’ (1925) में इस तकनीक का प्रयोग किया था। मैं अपने प्रिय फिल्मकार आंर्द्रई तारकोवस्की (4 अप्रैल, 1932, 29 दिसंबर, 1986) को याद करना चाहता हूँ जिन्हें फिल्मकारों का फिल्मकार कहा जाता है। उस जमाने में भी उन्होंने ‘आध्यात्मिक पराभौतिकी’ को सिनेमा में संभव बनाया। मॉस्को के प्रति मेरे मन में तभी से आर्कषण पैदा हुआ जब मैंने ब्लादिमीर मेनशोव की ऑस्कर पुरस्कार प्राप्त फिल्म देखी थी ‘मास्को इज नॉट बिलीव इन टीयर्स’ (1980)। भारत और रूस में सिनेमा एक ही साथ पहुँचा था। जुलाई 1896 में और रूस की फिल्में चार-चार बार ऑस्कर पुरस्कार जीत चुकी हैं…।’

यह एक ऐसी शुरुआत थी जो केवल मॉस्को में भारतीय सिनेमा के प्रदर्शन तक सीमित नहीं रहनेवाली थी। हम दोनों देशों के बीच फिल्म निर्माण के क्षेत्र में एक पुल बनाने की कोशिश कर रहे थे। राजकूपर और ‘मेरा जूता है जापानी…’ का समय बीत चुका है। रूस की एक पूरी पीढ़ी जो मिथुन चक्रवर्ती की ‘डिस्को डांसर’ (जो भारत में 10 दिसंबर, 1982 को प्रदर्शित हुई थी) देखती हुई जवान हुई थी, वह अब पचास पार कर चुकी है। अब एक नए पुल की जरूरत है। हमारी सोच है कि हमारा सिनेमा यह पुल बना सकता है।

मेरे हिंदी में बोलने का असर ये हुआ कि हमारे मित्र इम्तियाज अली और मोहित चौहान भी हिंदी में बोले जबकि बाकी लोग रूसी में बोले। ‘जब वी मेट’, ‘लव आजकल’, ‘रॉक स्टार’ और ‘हाइवे’ जैसी एक के बाद एक सुपरहिट फिल्म देने वाले इम्तियाज थोड़ा भावुक हो गए थे। मॉस्को में भारतीय दूतावास की ओर से नृत्य का एक रंगारंग कार्यक्रम भी था लेकिन श्वेतलाना और रीडी शेख ने तो कमाल ही कर दिया। हजारों रूसी दर्शक हो सकता है कि हिंदी फिल्मों के गीतों को न समझते हों, पर श्वेतलाना के ‘बॉलीवुड डांस’ पर झूम रहे थे और अंत में जब मोहित चौहान मंच पर आए तो पूरा सभागार जोश में हिल रहा था। मोहित आज चर्चित पार्श्वगायक हैं।

बिहार के नालंदा जिले के बिहार शरीफ से दो भाई बारी-बारी से मेडिकल की पढ़ाई करने मॉस्को गए। शाहबाज आलम (1993) और सरफराज आलम (1996)। दोनों अपने-अपने समय में मॉस्को के दक्षिणी इलाके में स्थित ‘पीपुल्स फ्रेंडशिप विश्वविद्यालय’ में छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए। दोनों ने मेडिकल की पढ़ाई करने के बाद मास्को में अपना बिजनेस शुरू किया। शाहबाज सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते गए और सरफराज ने कला, संस्कृति, रंगमंच और सिनेमा की ओर कदम बढ़ाया। सरफराज की बांग्ला फिल्म ‘चोखर पानी’ बर्लिन, तेहरान, मॉस्को तथा भारत में जागरण फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई और चर्चित रही। मॉस्को में बसे अधिकतर भारतीयों की तरह सरफराज ने एक रूसी लड़की से प्रेम-विवाह किया।

पिछले साल बॉलीवुड फेस्टिवल नार्वे से लौटते हुए मैं एक सप्ताह के लिए दोनों भाइयों के साथ मॉस्को में ठहरा था। बातों-बातों में मैंने कहा कि क्यों न हमलोग मॉस्को में एक भारतीय फिल्मोत्सव करते हैं। बात सभी को जँच गई। शाहबाज ने पूछा कि कितना पैसा खर्च होगा? मेरे मुँह से निकल गया ‘केवल पाँच लाख रुपये।’

सरफराज बोले, ‘पाँच लाख में तो यहाँ ढंग का सभागार भी नहीं मिलता।’

शाम का वक्त था। हम वोल्गा के पानी में गंगाजल पी रहे थे। मैंने खिड़की से बाहर देखते हुए कहा ‘हमें सभागार की जरूरत ही नहीं है। विदेशों में यदि किसी प्रोग्राम में सौ-डेढ़ सौ लोग भी आ जाएँ तो बहुत है।’ मेरे ध्यान में यूरोप था।

शाहबाज ने तुरंत फैसला सुनाया ‘अजित दा, आप फिल्म फेस्टिवल के निदेशक होंगे। आप तैयारी शुरू करें। दस हजार डॉलर (करीब पाँच लाख रुपये) तो मैं ही आपको देता हूँ। किसी और से चंदा माँगने की जरूरत नहीं है।’ बात वहीं खत्म हो गई थी और हम मॉस्को की नाइट लाइफ देखने निकल पड़े थे।

इस साल गर्मियों में सरफराज जब दिल्ली आए तो मैं ‘कान फिल्मोत्सव’ की तैयारियों में व्यस्त था। उन्होंने बताया कि मॉस्को में तैयारियाँ शुरू हो चुकी हैं, लेकिन हमें मनोज तिवारी का साथ चाहिए। जुलाई में मैंने मनोज से बात की। मुझे जब बताया गया कि मॉस्को में भोजपुरी भाषी लोगों की अच्छी तादाद है तो सुखद आश्चर्य हुआ। मनोज को मुख्य भूमिका में लेकर सरफराज एक भोजपुरी फिल्म बनाना चाहते थे। हमने तय किया कि 14 सितंबर, 2014 को विश्वविद्यालय की कैंटीन में उस फिल्म का मुहूर्त करेंगे।

दुर्भाग्यवश दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनावों के कारण मनोज मॉस्को नहीं जा सके, पर उनका वीडियो संदेश हमने लोगों को दिखाया।

मॉस्को दुनिया के महँगे शहरों में से एक माना जाता है। हम जितना बजट कम करने की सोचते उससे ज्यादा ही बजट बढ़ जाता। सरफराज और उसकी टीम ने दिन-रात मेहनत की थी। मेरी समस्या यह कि मुझे रूसी एकदम नहीं आती और मॉस्को में आज भी गलती से भी कोई बोर्ड तक अँग्रेजी में नहीं है। विश्वविद्यालय के चांसलर की बात मेरी समझ से परे थी कि ‘आप यदि दिल से हिंदी में बोलेंगे तो हम समझ लेंगे, बट नो इंग्लिश प्लीज।’ अरे भाई कैसे समझ लेंगे? एक शाम शहबाज के ड्राइवर दामित्री के साथ मैं खाना लेने एक रेस्त्राँ पहुँचा। मैं आधे घंटे तक दिल से उसे हिंदी में यह नहीं समझा पाया कि हमारा खाना पैक कर दो, हम घर जाकर खाएँगे।

हमारा फेस्टिवल सफल रहा। हमने अगले साल की तैयारी अभी से शुरू कर दी है। जब तक आप मॉस्को नहीं जाते आप इस बात का अंदाजा नहीं लगा सकते कि रूसी लोग हिंदुस्तानियों को बेइंतहा प्यार करते हैं। लातीविया, बेलारूस, कजिकिस्तान, उक्रेन और रूस के कई शहरों से हमें सोशल मीडिया पर फिल्मोत्सव के आयोजन के न्योते मिल रहे हैं। मेरे इस विश्वास को बल मिला कि पैसे से ही सब कुछ नहीं होता। यदि आप में जुनून है तो आप कुछ भी कर सकते हैं।

फिल्मोत्सव के बाद मैं एक दिन विश्वविद्यालय के छात्रावास में गया। वहाँ मुझे एक पूर्व छात्र मिला जो सरफराज का सहपाठी था। उसने मुझे एक हृदयविदारक घटना बताई। 1990 से 2000 के बीच यूरोपीय देशों में भारतीय लड़के अवैध तरीके से नौकरी के लालच में जाते थे उनमें से अधिकतर वाया मॉस्को जाते थे क्योंकि तब मॉस्को का वीजा आसानी से मिल जाता था। फिर मानव तस्कर उन्हें बड़े-बड़े कंटेनर ट्रकों में मांस, मछली तथा दूसरो खाद्य पदार्थों के बक्सों के साथ पोलैंड या जर्मनी का बॉर्डर पार करवाते थे। कई तो ठंड में जम जाते थे, कई सीमा पुलिस की गोलियों का शिकार हो जाते थे। उसने मुझे बताया कि एक लड़का तो उसके ही कमरे में छुपकर रह रहा था। उसे कुछ दिन बाद सीमा पार करना था। एक दिन जब वह हॉस्टल लौटा तो वह लड़का गायब था। फिर उसका कुछ भी पता नहीं चला। वह जब भी हॉस्टल आता है उसकी आँखों के सामने उस लड़के का चेहरा घूम जाता है जो आज तक लापता है। सरफराज और हमने तय किया कि इस विषय पर अच्छे से रिसर्च की जाए और मनोज तिवारी को लेकर भोजपुरी में एक फिल्म बनाई जाए।


Image : Child Drinking Milk
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Artist : Mary Cassatt
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