पत्रकारिता के धवल पुरुष जितेंद्र सिंह

पत्रकारिता के धवल पुरुष जितेंद्र सिंह

वे दिन : वे लोग

पत्रकारिता के धवल ही नहीं एक उन्नत शिखर भी थे पत्रकार जितेंद्र सिंह। गौरवर्ण, उन्नत ललाट और अतिशय विनम्र। बी.एच.यू. से हिस्ट्री में गोल्ड मेडलिस्ट। पहले इलाहाबाद में पं. नेहरू जी के अखबार ‘लीडर’ में पत्रकारिता की, फिर पटना आकर लंबे समय तक ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में रहे। वे केंद्रीय मंत्री और राज्यपाल रहे स्व. सत्यनारायण सिंह के दामाद थे, और खुद भी बनारस के समीप सकलडीहा तहसील के एक समृद्ध परिवार से आते थे। लेकिन उनकी निकटता लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव जैसे समाजवादियों के साथ थी। पर नेहरू जी की बहुमुखी प्रतिभा और उनके मानवीय गुणों के वे उतने ही बड़े प्रशंसक भी थे।

देश के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति पद से मुक्त होकर जब पटना के सदाकत आश्रम की उसी पुरानी कुटिया में आकर रहने लगे, जिसमें राष्ट्रपति बनने से पहले वे रहा करते थे, उन्हें एक वर्सेटाइल सचिव की आवश्यकता हुई। उन्होंने टाइम्स प्रबंधन से जितेंद्र बाबू की सेवाएँ माँगी। प्रबंधन ने बड़ी मशक्कत के बाद उन्हें शाम दो घंटे राजेंद्र बाबू का काम-काज देखने की इजाजत दी। उन्होंने इसे बखूबी निभाया भी। राजेंद्र बाबू जब तक जीवित रहे, उनकी ज्यादातर शामें उन्हीं के सान्निध्य में बीतीं।

हिंदी की दो पत्रिकाएँ ‘धर्मयुग’ और ‘दिनमान’ की उन दिनों धूम थी। लेखकों के लिए इन पत्रिकाओं में छपना गर्व की बात थी। ‘धर्मयुग’ के संपादक हिंदी के दिग्गज लेखक धर्मवीर भारती थे, तो हिंदी के मूर्धन्य कवि अज्ञेय के संपादन में निकलने वाला ‘दिनमान’ लोगों के दिलो-दिमाग पर छाया हुआ था। निश्चिय ही हिंदी पत्रकारिता का वह स्वर्णकाल था। इन दोनों महारथियों ने जितेंद्र बाबू से हिंदी में भी खूब लिखवाया। 1966 में बिहार में पड़े भयंकर अकाल में ‘अकाल डायरी’ के नाम से धर्मयुग में कई किश्तों में छपे उनके रिपोर्ताज में विपत्ति के इन क्षणों का मार्मिक चित्रण है।

राष्ट्रपति न रहने के बावजूद लोग राजेंद्र बाबू की जिंदगी के बारे में पढ़ने को बेताब रहते थे। उन्होंने राष्ट्रपति भवन के बाद की उनकी जिंदगी और चिंतन पर धर्मयुग में कई एपिसोड लिखे। इसी दौरान लोकनायक जयप्रकाश नारायण से उनकी निकटता बढ़ी। बाद में आपातकाल के दौरान जेपी का खुल कर साथ देने वाले देश के निर्भीक पत्रकारों में उनकी भी प्रसिद्धि हुई। जब पटना में जेपी पर लाठीचार्ज हुआ तो ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ जैसे अँग्रेजी अखबार में ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ जैसे शीर्षक से उनकी रिपोर्ट छपी और एक अँग्रेजी अखबार में संस्कृतनिष्ठ-देवनागरी अपने पूरे दमखम और अर्थवत्ता के साथ उजागर हुई। अपनी इसी ईमानदार पत्रकारिता के कारण उन्हें ‘टाइम्स’ की नौकरी तक गँवानी पड़ी। तथ्यपरक पत्रकारिता के प्रशिक्षण के लिए बाद के दिनों में उन्होंने पटना में डॉ. सच्चिदानन्द सिन्हा पत्रकारिता संस्थान की स्थापना की। उनके निर्देशन में प्रशिक्षित छात्र आज भी देश-विदेश में महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य कर रहे हैं।

‘टाइम्स’ की नौकरी जाने के बाद उनका जीवन आर्थिक कठिनाइयों में बीता। लेकिन पटना कॉफी हाउस बंद होने के बाद भी फ्रेजर रोड स्थित होटल राजस्थान में इत्मीनान से कॉफी पीने का उनका शौक हर हाल में बरकरार रहा।

वे एक प्रभावपूर्ण वक्ता भी थे। स्मरण शक्ति भी इतनी मजबूत कि इतिहास की महत्त्वपूर्ण तिथियाँ उन्हें कंठस्थ थीं। उद्बोधनों के दौरान पंत, प्रसाद, निराला और महादेवी जी की काव्य पंक्तियों का प्रवाह श्रोताओं को मुग्ध कर देता था। ऐसे ही एक समारोह में उनके प्रभावपूर्ण संबोधन के बाद एक सज्जन ने आकर उनके पैर पकड़ लिए। वे बिहार सरकार में एडीएम रैंक के अधिकारी थे और मन-ही-मन उन्हें अपना पथ-प्रदर्शक मान चुके थे। बी.एच.यू. के पत्रकारिता विभाग में व्याख्यान के बाद उनके ऑटोग्राफ के लिए छात्रों में मची होड़ भी मैंने देखी है।

इन्हीं दिनों का एक वाकया भुलाए नहीं भूलता–उन्हें शायद अपने बड़े बेटे आलोक जी के पास भुवनेश्वर जाना था। कुली से सामान प्लेटफार्म पर रखवा कर वे कहीं चले गए। ट्रेन के आगमन की सूचना हुई तो उनकी पत्नी जरा चिंचित हो बोलीं–राजेश जी, जरा देखिए, ये कहाँ गायब हो गए? मैंने सोचा–कहीं नहीं, वे होंगे किसी बुक स्टॉल पर। उन्हें खोजने गया, तभी वे प्लेटफॉर्म के बाहर किसी को ढूँढ़ते-से दिखाई दिए। मामला कुछ समझ में नहीं आया। मुझे हैरान देख बोले–अरे भाई, जब मैं आ रहा था तो एक भिखारी ने मुझसे पैसे माँगे, मेरे हाथ में किताबों वाली डोलची थी, मैं उसे कुछ दे नहीं पाया। उसे ही ढूँढ़ रहा हूँ…पर पता नहीं वह कहाँ चला गया!

ऐसे कितने ही मौकों पर मैंने उन्हें एक महामानव के तौर पर देखा है।

लोग जिन्हें सिर्फ सीढ़ियाँ समझ चढ़ते रहे…

मुझे उनके साथ लंबे समय तक रहने का मौका मिला। गाँधीवादी-समाजवादी चिंतन पर आधारित उनके जीवन की बारीकियों को बहुत पास से देखा। उनके साथ अनेक यात्राएँ कीं। कभी रोमांचकारी क्षण बिताए, तो कभी उनके साथ मेरा भी अंतर्मन रोया। किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं। पर उस दिन किसी बात को लेकर गहरी पीड़ा में थे। बहुत देर तक हमलोग मौन बैठे रहे। रात घिरती देख मुझे घर जाने को कहा। लगभग घंटे भर की मौन मुलाकात में बस इतना ही बोले–जिंदगी भर लोग मुझे सिर्फ सीढ़ियाँ ही समझते रहे।

उनके घर रहते न रहते तरह-तरह के लोग उन्हें ढूँढ़ते हुए आते। बोरिंग रोड पर उनके आवास ‘मणि कुटी’ पर उनके मुलाकातियों की आवभगत में लगी रहने वाली उनकी पत्नी की गृहस्थी के जंजालों से निरंतर जूझते रहने की पीड़ाओं का भी मैं साक्षी रहा हूँ। उनकी साफ़गोई से स्वयं जितेंद्र बाबू क्या, बड़े-से-बड़े लोग, यहाँ तक लेखक-सांसद डॉ. शंकर दयाल सिंह तक घबराते थे। किसी भी तामझाम या तड़क-भड़क से वे जरा भी प्रभावित नहीं होती थीं।

एक दिन उन्होंने इलाहाबाद के दिनों का एक वाकया सुनाया–भीषण गरमी वाली दोपहरी में किसी ने दरवाजा खटखटाया, देखा एक हट्टा-कट्टा आदमी कंधे पर बड़ा-सा तरबूज लिये खड़ा है–

‘क्या जितेंद्र बाबू का घर यही है? यह तरबूज उन्हीं के लिए लाया हूँ।’

‘वो तो हैं नहीं, पर इतनी गरमी में आने की क्या जरूरत थी? न जाने कितनी दूर से इसे ढोकर लाए हो, यहीं कहीं रख दो।’

वह कमरे के एक कोने में तरबूज रखकर चुपचाप चला गया।

जितेंद्र जी जब घर आए, पत्नी से आगंतुक की भाव-भंगिमा और कद-काठी का वर्णन सुना तो अवाक रह गए–‘अरे वो तो महाकवि निराला थे!’

हिंदी के महान कवि पं. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’।


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राजेश शुक्ल द्वारा भी