कलम, आज उनकी जय बोल

कलम, आज उनकी जय बोल

रामधारी सिंह दिनकर प्रखर और संवेदनशील कवि थे। उनके काव्य व्यक्तित्व का निर्माण स्वाधीनता संग्राम के घात-प्रतिघात के बीच हुआ था। उस समय देश में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष निरंतर बढ़ रहा था। समय ऐसा था जहाँ वायवीय निरुद्देश्य गीतों की गुंजाइश न थी। इसीलिए वे समय की विडंबनाओं से उलझते रहे। उनका समूचा लेखन पराधीनता के विरोध, शोषण पर प्रहार तथा समता के समर्थन की पहचान है। अपने युग का तीखा बोध था उन्हें। वे कहते थे मैं रंदा लेकर काठ को चिकना करने नहीं आया हूँ। मेरे हाथ में कुल्हाड़ी है, जिससे मैं जड़ता की लकड़ियों को फाड़ रहा हूँ। लेकिन कभी-कभी एकांत में उदास भाव से यह भी सोचता हूँ कि क्या मेरे भीतर जो कोमल सपने हैं, वे यों ही मुरझा जाएँगे? क्या उन्हें शब्द नहीं मिलेंगे? ‘रेणुका’ कविता संग्रह में उनकी यही दो धाराएँ फूटी हैं, सौंदर्य प्रेम एवं सामाजिक चेतना से उपनिवेशवाद का विरोध भाव। उपनिवेशवाद के विरोध में उन्होंने सबसे उग्र कविता लिखी। जीवन और जगत के संघर्ष से उनका सीधा साक्षात्कार हुआ था।

दिनकर उत्तर छायावादी स्वच्छंदतावाद के सबसे प्रमुख कवि हैं। उनके स्व-वाद के दो पक्ष थे–सामाजिक चेतना एवं सौंदर्य बोध। ‘रेणुका’ छायावादी अभिजात्य शैली में लिखी गई थी। इसके कथ्य रहस्यात्मक थे लेकिन सामयिक और जन-सुबोध भी। 1930 तक छायावाद के तीन कवि प्रतिष्ठित हो चुके थे। सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद तथा निराला। इनके ‘पल्लव’, ‘प्रेम पथिक’, ‘आँसू’, ‘अनामिका’ आदि का युवा दिनकर के मन पर असर किया। इसी के फलस्वरूप इन्होंने ‘निर्झरिणी’, ‘फूल’, ‘कोयल’, ‘परदेशी’ इत्यादि छायावादी कविताएँ लिखी।

सन् 1933 ई. में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन भागलपुर में हुआ था। उन्होंने तेजमयता से ‘हिमालय’ पढ़ा। पूरी कविता एक जोशीले आलोक में लिपटी हुई थी। उसके हर लय और थिरकन में एक लिरिकल उच्छ्वास था। कविता सुनकर श्रोताओं में ऐसा उल्लास छाया कि सम्मेलन तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज गया। इसी बिंदु से उनकी काव्य की वास्तविक जय यात्रा शुरू हुई। कलकत्ता के कवि सम्मेलन में भारत के लगभग सभी प्रसिद्ध कवि आए थे–महादेवी वर्मा, भगवतीचरण वर्मा, रामकुमार वर्मा, मनोरंजन प्रसाद सिंह, बिस्मिल इलाहाबादी इत्यादि। दिनकर भी अदम्य उत्साह के साथ आए थे। गीतात्मक अंदाज में जिस तरह मानव मन की अभिव्यक्ति कविता में हुई, उसे सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए।

दिनकर का दिल भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद की ओर भाग रहा था। मन में विद्रोह की चिंगारी भड़क रही थी। इनकी कविताओं की खबर सरकार तक पहुँची। सरकार नाराज हो गई। उनसे पूछा गया कि ऐसी कविता पढ़ने या प्रकाशित करने से पहले सरकार की अनुमति क्यों नहीं ली गई? उनका जवाब था–‘कविताएँ सरकार विरोधी नहीं हैं। ये देशभक्ति पूर्ण हैं और देशभक्ति अपराध नहीं है।’ मजिस्ट्रेट बोस्टड इस जवाब से संतुष्ट हुए, पर आगे सँभलकर चलने की हिदायत भी दी।

दिनकर का जन्म 2 सितंबर, 1908 को ग्राम सिमरिया में हुआ था। बाँस वनों से घिरे इस गाँव में गरीबी थी, अशिक्षा थी, जीवन-मरण था। तब लालटेन भी वहाँ नहीं पहुँचा था। दीपक की टिमटिमाती लौ में सारा गाँव जी रहा था। शिक्षारंभ सिमरिया में ही हुआ। सरपत की कलम और घोरहा स्याही से लिखना, न जूता, न चप्पल, न चूल काटने का हिसाब। निपट देहाती इस बालक को स्कूल में हिंदी में सर्वाधिक अंक आने पर ‘रामचरित मानस’ और ‘सूरसागर’ ग्रंथ पुरस्कार में मिले। 1924 में शादी हुई और उसी वर्ष जेम्स वॉकर हाईस्कूल में आठवीं में नामांकन। 1928 में ही साइमन कमीशन भारत आए थे। उनके आने के खिलाफ देशभर में विरोध प्रदर्शन हो रहे थे। देश उबल रहा था। तब स्वाधीनता संग्राम एक महायज्ञ था।

सन् 1932 में बी.ए. पास करने के बाद वे एक स्कूल के हेडमास्टर बने। सन् 1934 में बिहार के राजस्व विभाग में नियुक्ति हुई। सन् 1937-38 में उनका तबादला मधुबनी हुआ। सब रजिस्ट्रार के पद पर! तब मेरे पिता जी सच्चिदानंद सिन्हा वहाँ मुंसिफ थे। इन दोनों का सरकारी बंगला अगल-बगल था। वहीं इनमें मित्रता हुई जो आजीवन बनी रही। उनकी माँ उनको नुनु कहकर बुलाती थीं। अब तक दिनकर प्रखर कवि के रूप में विख्यात हो चुके थे। उनकी एक अलभ्य कविता पिता जी की डायरी में थी। मेरी बड़ी बहन प्रीति ने वह कविता मुझे लिखकर दिया

‘जला अस्थियाँ बारी-बारी
छिटकाई जिनने चिनगारी
जो बुझ गया पुण्य वेदी पर लिए गरदन मोल
कलम, आज उनकी जय बोल।’

मेरी माँ अन्नपूर्णा सिन्हा विदुषी महिला थीं। उनका परिवार स्वाधीनता आंदोलन का एक अटूट हिस्सा था। मेरे नाना श्यामाचरण वर्मा थे। 1921 में असहयोग आंदोलन के समय दुमका के टीन बाजार में भाषण देते समय गिरफ्तार कर लिए गए थे। 1923 में वे एम.पी. थे। उन दिनों पूरे देश से सिर्फ 12 एम.पी. हुआ करते थे। इस तरह माँ ने देश भक्ति, खादी, चर्खा और स्वराज का पाठ पढ़ा था। उन दिनों रामवृक्ष बेनीपुरी जी हमारे घर आया करते थे। तब वे ‘जनता’ पत्रिका के संपादक थे। एक बार उन्होंने दिनकर जी से कहा, ‘आपकी कविता सरकार को नागवार गुजर रही है, हो सकता है आपको नौकरी से निकाल दिया जाए।’

सरकार उनसे ख़फा तो थी पर बर्खास्त करने में असमर्थ थी क्योंकि इस लोकप्रिय कवि को बर्खास्त करने से अँग्रेजों की निंदा होती और दिनकर यश के भागीदार होते। कुछ समय बाद उनका और पिता जी का तबादला अलग-अलग जगहों पर हो गया। सन् 1942 में दोनों पटना आ गए। यह ‘अँग्रेजों भारत छोड़ो’ का समय था। वातावरण में एक अलग तरह का जोश था। युवाओं में आक्रोश बढ़ता जा रहा था। अँग्रेज इस आंदोलन को बेरहमी से कुचलना चाहते थे। किंतु संकल्प उस मुकाम पर पहुँच गया था जहाँ उसे दमन से दबाना संभव न था। यह सरकारी पदाधिकारियों के आत्म संघर्ष का भी काल था। वे सरकारी नौकरी को छोड़कर आंदोलन में शामिल होना चाहते थे। मेरे पिता तब जज थे और उनकी भी यही मनोदशा थी। साथ ही उन पर चार बच्चों को पालने की जिम्मेदारी थी। माँ गाँधी जी से मिली। उन्होंने सलाह दी, पति को नौकरी में बना रहने दो, लेकिन तुम किसी सरकारी समारोह में मत जाना। ऐसा ही दिनकर जी के साथ भी हुआ। उन पर एक बड़े परिवार का उत्तरदायित्व था, उनको अर्थाभाव से मारना उचित नहीं लगा। लेकिन सरकार में रहकर भी सरकार के विरोध में लिखते रहे। उनकी कविताएँ पढ़कर नवयुवक बगावत पर उतर आते। उनका मन निरंतर दुविधा में बँटा रहा। उनकी कविता द्वंद्वों से जूझने की थी। वे कठिन मानसिक परिस्थिति से गुजर रहे थे। अंततः 1945 में वे सरकारी सेवा से मुक्त हो गए। सन् 1946 में ‘कुरुक्षेत्र’ प्रकाशित हुई। इसमें जीवन की युद्ध-शांति, हिंसा-अहिंसा, विज्ञान आत्मज्ञान की परिणति हुई है। ‘कुरुक्षेत्र’ के भीष्म में वह अपने ही व्यक्तित्व का प्रक्षेपण करते हैं। उनकी इन पंक्तियों ने तब मुझे बेतरह प्रभावित किया था–‘धर्म स्नेह दोनों प्यारे थे/बड़ा कठिन निर्णय था/अतः एक को देह, दूसरे/को दिया हृदय था/धर्म पराजित हुआ, स्नेह का/डंका बजा विजय का/मिली देह भी उसे दान था/जिसको मिला हृदय था।’

आजादी के बाद सन् 1950 में वे मुजफ्फरपुर के लंगट सिंह महाविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने और 1952 में राज्यसभा के लिए चुन लिए गए। आगे चलकर दिल्ली से उनका मोहभंग हुआ। यहाँ जनता के प्रतिनिधि सुख और विलास का उपकरण सजाने में लगे थे। इसी वेदना से व्यथित उन्होंने ‘भारत का रेशमी नगर’ कविता लिखी–‘भारत धूलों से, भरा आँसुओं से गीला/भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के बारे में;/दिल्ली में तो है खूब ज्योति, की चहल-पहल,/पर भटक रहा है देश सारा देश अँधेरे में।’

सन् 60 में ‘उर्वशी’ आई। उर्वशी एवं पुरूरवा का आख्यान हृदय, कला एवं निरुद्देश्य आनंद की महिमा का आख्यान है। उर्वशी-पुरूरवा कथा का प्राचीनतम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। यों पुराण में यह कथा विस्तार से लिखी गई है। सर विलियम ने अनुमान लगाया कि पुरूरवा और उर्वशी की कथा का वास्तविक नायक-नायिका सूर्य और उषा है। ये प्रतिदिन कुछ पलों के लिए मिलते हैं और फिर बिछुड़ जाते हैं। अमृत मंथन के समय जब अप्सराओं का जन्म हुआ तब उर्वशी भी उन्हीं के साथ जन्मी। एक कथा और भी है। नारायण ऋषि की तपस्या में विघ्न डालने के निमित्त इंद्र ने उनके पास अनेक अप्सराओं को भेजा। क्रोधित ऋषि ने अपने ऊरू से ठोकर मारकर एक ऐसी रूपवती नारी को उत्पन्न कर दिया जो उन सभी अप्सराओं से अधिक रूपमती थी। वह उरू से जन्मी थी, इसीलिए उसका नाम उर्वशी पड़ा। यों उर्वशी का शाब्दिक अर्थ अभिलाषा या कामना है।

राजा पुरूरवा सोमवंश के आदिपुरुष थे। इला और चंद्रमा के प्रेम के फलस्वरूप इनका जन्म हुआ। प्रयाग के पास प्रतिष्ठानुसार इनकी राजधानी थी। पुरूरवा में द्वंद्व है, वह सुख की कामना करता है और उससे आगे निकलने का प्रयास भी करता है। उसके भीतर देवत्व की तृषा है। उसकी वेदना में समग्र मानव जाति के चिरंतन वेदना ध्वनित होती है। उर्वशी द्वंद्व से मुक्त है। वह देवलोक से उतरी है। वह निर्मल और निष्पाप है। वह निश्चित भाव से सुखी होना चाहती है। द्वंद्व की कुछ थोड़ी अनुभूति उसे माता बनने के बाद भी होती है। ‘उर्वशी’ में नारी के भीतर नारी तथा पुरुष के भीतर पुरुष के दैहिक चेतना के पार पहुँचना चाहते हैं जहाँ किरणों की उज्ज्वला है।

दिनकर जी ने विश्व के कई देशों का भ्रमण किया था। पोलैंड, इंग्लैंड, मिस्र, जर्मनी, चीन आदि देशों में वे भारत से शिष्टमंडल लेकर गए। सन् 1962 में जब चीन ने हिंदुस्तान पर आक्रमण किया वे पटना में बीमार चल रहे थे। इस घटना से उनका क्षोभ उबल पड़ा और ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ की रचना हुई, जिसकी ये पंक्तियाँ तब हर जुबान पर होती थीं–‘पर्वतपति को आमूल डोलना होगा,/शंकर को ध्वंसक नयन खोजना होगा;/असि पर अशोक को मुंड तोलना होगा,/गौतम को जयजयकार बोलना होगा।’

उन दिनों हमारा परिवार राँची में था। वे जब राँची आते, हमारे घर भी आते। माँ ने ‘रश्मिरथी’ की एक कविता मुझे याद करवाई थी, जिसे मैंने उनको सुनाया था। मुझे उनसे शाबाशी भी मिली थी। ‘रश्मिरथी’ सन् 1950 में लिखी गई थी। यह युग दलितों-उपेक्षितों के उद्धार का युग था। कुल और जाति का अहंकार विदा ले रहे थे। कर्ण के बहाने कवि ने समाज की पीड़ा कही। एक नई मानवता की स्थापना का प्रयास है ‘रश्मिरथी’। हमारे परिवार के लिए यह गौरव की बात रही कि दिनकर जी ने मेरी बड़ी बहन प्रीति की शादी के कार्ड का निमंत्रण पत्र लिखा था। उस समय वह ‘संस्कृति के चार अध्याय’ लिख रहे थे। इसकी चर्चा वे मेरे पिता जी से भी किया करते थे। यह एक ऐसी पुस्तक है जिसे प्रत्येक हिंदुस्तानी को पढ़ना चाहिए। इसे पढ़कर ज्ञात होता है कि भारत क्या है? इसका मूल तत्व क्या है? वह कौन-सी शक्तियाँ हैं जिनसे भारत का निर्माण हुआ है? भारतीय संस्कृति क्या है? शादी के बाद पहली दफा 1968 में जब राँची से जोधपुर आ रही थी तो माँ ने मुझे दो पुस्तकें दी थी–‘संस्कृति के चार अध्याय’ और रंगनाथ दिवाकर का ‘Bihar Through Ages’ बाजार में नहीं मिली तो माँ हिंदी विद्वान कामिल बुल्के से मिलीं और अपनी बात कही। उस साधु पुरुष ने अपनी निजी पुस्तकालय से किताब माँ को दी। पिता जी ने मुझे गीता प्रेस का ‘रामचरित मानस’, ‘श्री दुर्गासप्तसती’, ‘स्त्रोत्र रत्नाकर’ और ‘हनुमान चालीसा’ दिया था। 48 वर्षों बाद भी वे पुस्तकें आज मेरे साथ हैं।

सन् 70 में मैं कोटा में थी। मेरे पति ओमप्रकाश बिहारी तब वहाँ सिटी मजिस्ट्रेट थे। जब दिनकर जी ने पिता जी से कोटा जाने की बात कही तो उन्होंने बताया कि मैं वहीं हूँ। कोटा आने पर उन्होंने हम दोनों को सर्किट हाउस बुलाया। हमारे घर खाने का निमंत्रण स्वीकार किया। दूसरे दिन हमने कुछ और लोगों को भी आमंत्रित किया। हमें पिता के जैसा स्नेह और आशीर्वाद देकर गए। सदाशयता और कठोर श्रम उनका स्वभाव था।

इन्हीं दिनों उनका एक वक्तव्य आया था, जिसकी चर्चा थी। उन्होंने कहा था ‘आज कवि ऐसी कविताएँ लिख रहे हैं कि उनकी कविताएँ कुछ खास-खास कवि ही समझ पाते हैं। काश! कोई ऐसा कवि होता जो इलियट तथा रिल्के के सपनों को और तुलसी की सरलता से लिखने का मार्ग खोल कर निकाल देता।’ दिनकर पर टैगोर एवं इकबाल का गहरा प्रभाव था। टैगोर की तरह इकबाल भी मानते थे कि कला व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। किंतु ये दोनों दो ध्रुवों के कवि हैं और अक्सर आमने-सामने दो विरोधी क्षितिजों से बोलते हैं। टैगोर में प्रभु के प्रति संपूर्ण आत्म समर्पण का भाव है–‘प्रभु! तोमा लागि आँखि लागे/देखा नराई पाई, शुघु पथ चाई,/सेओ मोने भालो लागे।’ और इकबाल कहते हैं, मैं भगवान में लीन नहीं होऊँगा, भगवान को ही मुझमें विलीन होना पड़ेगा–‘खुदी को कर बुलंद इतना/कि हर तकदीर से पहले/खुदा बंदे से खुद पूछे, बता, तेरी रजा क्या है?’

बाद में दिनकर जी का परिचय इलियट की कविताओं से हुआ। इलियट उस दुनिया के कवि हैं जो समृद्धि की अधिकता से बेजार हैं–इस दुनिया से उनको शिकायत थी, जिसने आत्मा को सुलाकर शरीर को जगा दिया। साथ ही अरविंद, नीत्शे, रिल्के, बेट्रेड रसल आदि चिंतकों ने इनके भीतर चिंतन का द्वार खोल दिया। दिनकर की कविता द्वंद्वों से जूझने की कथा है। द्वंद्व इनके श्वास-प्रश्वास में है। ये द्वंद्व उनके मन की शांति भंग कर देती और मन उस दिशा में चला जाता जिस दिशा में कहीं कोई क्षितिज नहीं। द्वंद्व इनको चिंतन के प्रत्येक स्तर पर घेरते हैं, विकल करते हैं तथा चुनौती देते हैं। वे पुरखों की कथाओं की पुनर्व्याख्या करते थे। उनका मानना था कि ये हमारी विरासत हैं, इसलिए हमारे भीतर आसानी से घुलते हैं। यहाँ प्राचीनता व नवीनता में एक निरंतरता है। प्रबंध काव्य के प्रति आज भी भारतीय जनमानस में प्रेम भाव प्रबल है। इस परंपरा में मैथिलीशरण गुप्त पहला कवि थे। इनकी सभी रचनाएँ उनकी आत्मजा हैं, किंतु इनकी कविताएँ छायावाद की अस्पष्ट काव्य परंपरा से अलग थी। यह छायावाद की अति कल्पनाशीलता के विरोध से जन्मी थी। उनको छायावादी कवियों के लंबे बाल, लंबे कुर्ते, कृत्रिम मुखमुद्रा, कठिन भाषा का प्रयोग, जनसाधारण की रुचि एवं विश्वासों की उपेक्षा, दूसरों की मान्यताओं का अनावश्यक विरोध, व्यक्तिवादी दृष्टिकोण सही नहीं लगती थी। कविता को शून्य गगन से उतार कर मिट्टी की ओर ले जाते थे–‘वनफूल की ओर’ में कहा है–‘स्वर्णांचल अहा! खेतों में उतरी संध्या श्याम परी/रोमंथन करती गायें आ रही रौंदती घास हरी/घर-घर में उठ रहा धुआँ, जलते चूल्हे बारी-बारी/चौपाल में कृषक बैठ गाने, कहं अटके बनवारी।’

अपनी सृजन यात्रा के लिए उनका कहना था, कि आरंभ में वे जानते थे कि उनकी कविता कहाँ से आ रही है और वह किस तरफ जाएगी, किंतु धीरे-धीरे ऐसा हुआ कि उन्हें मालूम नहीं होता कि कविता कहाँ से आती है और उसका गंतव्य कहाँ है? कविता का क्षेत्र ज्यों-ज्यों नया होता जाता है त्यों-त्यों अधिक गहराई में उतरता जाता है और जितनी गहराई में जाता है उतना ही समझना कठिन हो जाता है कि सत्य क्या और क्या नहीं? वह ज्ञान से धोखा खा चुके थे, सत्य को बदलते देखा था इसलिए वह कहीं अड़ने को तैयार न थे। वे ज्ञात-अज्ञात, निश्चित-अनिश्चित के संधि स्थल पर खड़े थे। उनकी कविता सत्य का उद्घोष नहीं, सत्य के अनुसंधान का प्रयास है।

सन् 1970 के बाद उनका स्वास्थ्य गिरने लगा, आर्थिक तंगहाली थी, कुनबा बड़ा था, बड़े पुत्र का निधन हो गया था। मेरी माँ ने उनकी परेशानियों की चर्चा श्रीमती रमा जैन एवं श्री शांति प्रसाद जैन से की। जैन दंपत्ति ने ही भारतीय ज्ञान पीठ की नींव रखी थी। ये दोनों साहित्य एवं संस्कृति के संरक्षक थे। ये दिनकर जी की साहित्यिक प्रतिभा का सम्मान करते थे। दिनकर जी भारतीय ज्ञानपीठ के प्रथम पुरस्कृत साहित्यकार थे। सन् 1974 में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। उस समय उनकी 95 वर्षीया माँ जीवित थी। आकाशवाणी पटना ने उनकी ही ‘रश्मिरथी’ काव्य में भीष्म पितामह के अंत समय वाले अंश को पढ़कर उनको श्रद्धांजलि दी–‘गिरि का उग्र गौरव धार/गिर जाय शृंग ज्यों महाकार/अथवा सूना कर आसमान,/ज्यों गिरे कवि मासमान/कौरव दल का कर तेज हरण,/त्यों पीरे भीष्म आलोक वरण।’