कविता की परख ही श्रेष्ठ संपादन की कसौटी है

कविता की परख ही श्रेष्ठ संपादन की कसौटी है

ह तारीख और वर्ष तो याद नहीं मगर घटना अभी तक ज्यों की त्यों स्मृति पटल पर अंकित है। उन दिनों मैं एक पत्रिका ‘बहुरंग’ का संपादन कर रहा था। इसका संस्थापक संपादक होने का गौरव मिला था। इस नाते यह चिंता थी कि पत्रिका हिंदी साहित्य में एक स्थान बना ले। मैंने निर्णय लिया कि पत्रिका की प्रति साहित्य के मर्मज्ञ लोगों को भेजी जाए। पत्रिका विद्वानों को भेजी जाने लगी। उन दिनों प्रभाकर श्रोत्रिय ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादक थे। बहुरंग उनके पास जाती थी। एक विद्वान, लेखक, संपादक के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। साहित्य से जुड़े होने के नाते मेरा भी उनसे परिचय था। भले ही व्यक्तिगत परिचय नहीं था। मगर उनके संपादन में प्रकाशित ‘वागर्थ’, ‘साक्षात्कार’, ‘अक्षरा’ का पहले से ही पाठक रहा था। प्रभाकर श्रोत्रिय कुशल संपादक के रूप में खूब जाने जाते थे। वे साहित्य अकादमी के एक कार्यक्रम में व्याख्यान देने इंदौर आए थे। उनका वक्तव्य हमेशा सारगर्भित और ज्ञानपूरित होता था। व्याख्यान हुआ, लोगों ने सराहा भी। श्रोताओं में मैं भी उपस्थित था। उस समय सोचा कि कुछ बात कर लूँ, मगर तमाम लोगों के बीच किसी गहरे विषय पर चर्चा करना उचित नहीं समझा। आज-कल किसी विद्वान या संपादक की ओर लोग अपनी रचित पुस्तकों को भेंट करने अथवा अपनी साधारण सी रचनाओं के प्रकाशित करवाने के भाव से संपादक को घेरे रहते हैं। मैंने ऐसे भी साहित्यिक लोग देखे हैं जो उन्हें दी गई पुस्तकों को होटल के कमरे में छोड़कर चले जाते हैं। असल में, यह पुस्तक और साहित्य दोनों का अपमान है। उन तथाकथित साहित्यकारों का अवमूल्यन भी है जो बड़ी हसरतों से इन्हें अपनी पुस्तकें भेंट करते हैं। उन दिनों मेरे पास न तो, कोई पुस्तक थी जो मैं भेंट करता और अगर होती भी तो भी इस रूप में भेंट करने का कोई सवाल ही नहीं था। मेरी समझ में यह प्रयास साहित्य का अपमान है। जो व्यक्ति पुस्तक का सम्मान न करे, उसे पुस्तक भेंट नहीं करनी चाहिए। उसकी गरिमा को कम करता है, उसे पुस्तक भेंट न करें। पुस्तकें भेंट की जाती रही हैं और भविष्य में भी यह क्रम जारी रहने वाला है। भेंट में प्राप्त पुस्तक का सम्मान भेंट प्राप्तकर्ता को करना चाहिए। यदि अपने साथ न रख पाएँ देश के दूर अंचलों में संचालित स्कूलों को भेंट कर देना चाहिए।

खैर, श्रोत्रिय जी व्याख्यान के उपरांत होटल में चले गए। मैं उनसे मिलने के लिए उत्कंठित था। यह सोचकर मैं, सहमा हुआ था कि इतना बड़ा लेखक बिना किसी पूर्व परिचय के मिलेगा भी क्यों? और अगर मिले भी तो किस विषय पर बात करेंगे? बहरहाल विचारों की ऊहापोह में मैंने उनके मोबाइल की घंटी बजा दी। उधर से आवाज आई कौन? मैंने कहा राकेश। कौन राकेश? मैंने श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति से जुडे़ होने का हवाला दिया। मगर यह प्रयास पर्याप्त न था। इसी बीच श्रोत्रिय जी ने कहा, एक कोई राकेश शर्मा, इंदौर में हैं जो ‘बहुरंग’ के संपादक हैं, कहीं आप वही तो नहीं हैं? यह सुनकर मेरी खुशी का अंत न रहा। मैंने कहा जी सर, मैं वही हूँ। उन्होंने कृपापूर्वक आने की अनुमति देते हुए कहा, आप तुरंत आ जाएँ। मैं भी आपसे मिलना चाहता हूँ। इस अप्रत्याशित उदारता से मैं गदगद था। लगभग दस मिनट की अवधि में मैं होटल पहुँच गया। उनके कमरे के गेट को खटखटाया। अंदर से आवाज आई, गेट खुला है। आप भीतर आ सकते हैं। देखा कि टेबल की दोनों तरफ दो कुर्सियाँ लगी हैं। एक कुर्सी पर वे बैठे थे और दूसरी खाली थी, मुझे देखकर वे अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए। यह देखकर मैं बहुत घबराया और सोचने लगा कि इतना उम्रदराज और बहुत वरिष्ठ साहित्यकार व्यक्ति, मुझ जैसे कनिष्ठ व्यक्ति के सम्मान में भला उठकर क्यों खड़ा हो रहा है? लेकिन देखते ही देखते वे दूसरी खाली पड़ी कुर्सी पर जाकर बैठ गए। और मुझे उस कुर्सी पर बैठने के लिए इशारा किया। मैं भारी अचरज में डूबा था कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? उनके निदेश की अनदेखी कर, मैं खड़ा ही रहा। मुझे इस तरह मौन और खड़ा देखकर वे गुस्साते हुए बोले–‘आप इस कुर्सी पर बैठ जाइए।’ मैं संकोच के साथ बैठ गया। लेकिन मन अशांत था और भी प्रश्नाकुल। आखिर, मैंने हिम्मत जुटाते हुए पूछा कि आपने ऐसा क्यों किया? आप जिस कुर्सी पर थे वह भी तो ठीक थी। मेरे लिए इसे खाली क्यों किया? उन्होंने कहा, मैं संपादक की भूमिका में बहुत लंबे समय से हूँ और इस उम्र में यह जगह किसी को सौंपना चाहता हूँ और इसके लिए तुम्हें चुना है तो यह जो कुर्सी खाली की है और जिस पर अब आप बैठे हैं, वह संपादक की गादी (स्थान) है। आपके द्वारा संपादित ‘बहुरंग’ मैं देख रहा हूँ। बहुत अच्छा संपादन है। संपादन का एक महामंत्र आपको देना चाहता हूँ कि संपादन कौशल का मूल्यांकन कविता से होता है। जिस संपादक के पास कविता को समझने की जितनी गहरी दृष्टि होगी, वह उतना ही अच्छा संपादक होगा। आपके संपादन में कविताएँ बहुत अच्छी प्रकाशित हो रही हैं। इस अप्रत्याशित प्रसंग और प्रशंसा से मैं आश्चर्य में डूबा था। मैंने उठकर उनके चरण छुए और उनका आशीर्वाद लिया। उस अवसर पर कहे गए, ये वाक्य मेरे मानस में किसी बड़े सम्मान और पुरस्कार की मधुर स्मृति की तरह सुरक्षित हो गए।

यह प्रसंग मेरे मानस में हमेशा ताजा बना रहता है। श्रोत्रिय जी ने जिन पत्रिकाओं का संपादन किया उनमें सभी विचारधाराओं के रचनाकार प्रकाशित हुए हैं। मैं भी रचनाओं को ही देखता हूँ, विचारधारा को नहीं। मूल्यांकन रचना का होना चाहिए, रचनाकार के व्यक्तिगत कार्यकलापों का नहीं। इन अर्थों में श्रोत्रिय जी मेरे आदर्श बन गए। ‘वीणा’ का संपादन मैं लंबे समय से कर रहा हूँ, मगर अब तक कोई यह आरोप न लगा सका कि यहाँ रचनाओं के प्रकाशन में कोई पक्षपात होता है।

समय बीत गया, उनके द्वारा दिया गया गुरु मंत्र आज भी काम आता है। मुसीबत यह है कि अब मर्मस्पर्शी कविताएँ बहुत कम मिलती हैं? यह एक ऐसा दौर है, जहाँ तथाकथित कवियों की संख्या तो बहुत है, मगर अच्छी कविताओं की संख्या बहुत कम। ये आज के संपादक का संकट है। गद्य कविता के नाम पर जो कुछ लिखा जा रहा है। वह प्रायः नीरस और अबूझ है। अब सोचता हूँ कि श्रोत्रिय जी जैसे कितने और बड़े लेखक बचे हैं जो अगली पीढ़ी के लेखकों, संपादकों को अहेतुक मार्ग दर्शन देते हैं? मेरी दृष्टि में बड़ा लेखक वह नहीं है जिसने ज्यादा संख्या में किताबें लिखी हैं, वरन बड़ा वह है जो अपने प्रयासों से नई पीढ़ी के रचनाकारों का मार्गदर्शन भी करता हो। साहित्य की परंपरा को आगे बढ़ाता हो और अपने अनुभव को श्रोताओं में बाँटता हो। लेखक होने का मतलब केवल कागद कारे करना भर नहीं है, बल्कि समाज को वह दृष्टि प्रदान करना है, जिस दृष्टि से उसने जीवन और जगत को देखा है। लेखक का देखना केवल देखना (निहारना) भर नहीं होता, वह वस्तुओं, व्यक्तियों के आंतरिक पक्ष को शब्दों में उतारता है। बड़ा व्यक्ति वह है जिससे मिलने वाले को लगे कि वह स्वयं बड़े हो गए हैं। सौभाग्य से श्रोत्रिय जी ऐसे ही बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी लेखक थे और बड़े व्यक्ति थे। उनसे जब-जब मिले मन को यही लगा। लेखक से मिलना एक देहधारी आदमी से मिलना भर न होकर पूरे समय से मिलना होता है। लेखक के पास समय भूत, भविष्य और वर्तमान नहीं रहता, वह समय के भीतर चहलकदमी करने वाला व्यक्ति होता है। इन्हीं गहरे अर्थों में वह कालजयी कहलाता है।

इंदौर की भेंट के बाद एक बार केंद्रीय हिंदी अकादमी, नई दिल्ली के कार्यालय में साहित्यकार सूर्यकांत नागर के साथ उनसे मिला था। उस समय वे ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ का संपादन कर रहे थे। संपादन के मौजूदा संकट पर बातें हुईं। उन दिनों ‘वीणा’ का प्रकाशन ठीक ढंग से नहीं हो रहा था। हिंदी की सबसे पुरानी पत्रिका की दुर्दशा पर हिंदी के सभी बौद्धिक चिंतित और आक्रोशित थे। इनका आक्रोश ठीक ही था। उन दिनों ‘वीणा’ साहित्य की कम, धर्म और कर्मकांड की चिंताएँ ज्यादा कर रही थीं। हालाँकि साहित्य में पूरे ब्रह्मांड की चिंताएँ स्वतः ही शामिल होती हैं। साहित्य ही वह जगह है, जहाँ जड़ और चेतन का भेद मिट जाता है। यहाँ मानव और मानवेतर का संबंध भी समाप्त हो जाता है। मैं आज तक तथाकथित उन विद्वानों का यह तर्क न समझ सका कि साहित्य क्रांति का आधार है, विचारधारा का संवाहन है कि साहित्य का काम पीड़ा का गायन है, लेखक को यही काम करना चाहिए। श्रोत्रिय जी यही काम करते भी रहे।

एक बार दिल्ली पुस्तक मेले में भी वे मिले। मिले तो क्या हमने उन्हें अपनी पत्रिका ‘बहुरंग’ पर केंद्रित कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था। वे सपत्नीक आए और एक अच्छा व्याख्यान दिया। पत्रिका के मालिक मनीष जैन ने उनका हृदय से स्वागत किया। उन्होंने पत्रिका की तारीफ की। तारीफ का अर्थ गुण दोषों के मूल्यांकन से लिया जाए। एक तरफा प्रशंसा के पुल साहित्य में नहीं बाँधना चाहिए। जब कोई साहित्यकार बोलता है तब समूचा समकाल और पूरा समय मानो निवेदन करता हुआ प्रतीत होता है कि उसका भी दर्द कहा जाए। श्रोत्रिय जी का वक्तव्य समय की दीवार पर चस्पा हुआ सा होता था। वे बात वर्तमान की करते थे, मगर प्रसंग ‘भारत में महाभारत’ का होता था। लेखक के यहाँ अतीत हुआ समय नए रूप में ढलता है। जैसे सुनार पुराने आभूषण को गलाकर नया स्वर्ण आभूषण गढ़ता है और इस तरह नए और पुराने का भेद समाप्त हो जाता है। कुछ यही प्रक्रिया लेखन में भी घटती है। अतीत को गला कर वर्तमान में लाने का कौशल श्रोत्रिय जी के पास था। उन्हें देखते ही लगता था कि यह व्यक्ति निश्चित ही सरस्वती पुत्र होगा। उन्नत और चमकदार ललाट, दमकती हुई देह, गौर वर्ण, श्वेत केश राशि आदि सब मिलकर जो दिव्यता निर्मित हुई थी, उसी का नाम था–प्रकार श्रोत्रिय।


Image : Claude Monet (The Reader)
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Artist : Pierre-Auguste Renoir
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