जो कोरोना के गाल में समा गए–दलित संपादक-लेखक

जो कोरोना के गाल में समा गए–दलित संपादक-लेखक

वर्ष 2020 जाते-जाते यह एक दुखद संयोग हुआ कि एक साथ उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात तीन अलग-अलग प्रदेशों, हिंदी, मराठी और गुजराती के, अलग-अलग तीन संपादकों जो कोरोना महामारी के शिकार हो गए। यहाँ तक कि बौद्ध विद्वान विमल कीर्ति और ज्योतिकर तो एक दिन के अंतराल से परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। उनके बाद पूर्व राज्यपाल माता प्रसाद, सुजाता पारमिता, सिद्धलिंगय्या, जसराम हरनौटिया और सूरजपाल चौहान सभी से न्यूनाधिक साहित्यिक और वैचारिक रिश्ते रहे, सहमतियाँ-असहमतियाँ रहीं, संवाद रहे। उनको क्रमवार याद करना एक लेखकीय दायित्व है और शायद यहाँ कोई प्रशंसा-निंदा, आलोचना और मूल्यांकन के लिए यह स्थान नहीं है।

इन तीनों में एक बात सामान्य थी–तीनों पर बुद्ध का प्रभाव था और तीनों ने डॉ. अंबेडकर की पत्रकारिता से प्रेरित होकर पत्रिकाएँ प्रकाशित की थीं।

डॉ. प्रियदर्शी गणेशभाई ज्योतिकर (24.6.1937-2020) का जन्म अहमदाबाद के एक दलित मिल मजदूर के घर उनकी ननिहाल में हुआ था। कोरोना के इलाज के लिए स्थानीय अस्पताल में भर्ती हुए और स्वस्थ होकर घर आए, उन्हें पता चला कि उनकी पत्नी कोरोना में चल बसीं, सुनते ही उनकी साँसें रुक गईं। डॉ. ज्योतिकर ने 1964 में एलएल.बी. किया और 1966 में उन्होंने ‘ग्रेजुएट डिप्रेस्ड क्लासेस एसोसिएशन’ की स्थापना की थी। ‘अंबेडकरवादी आंदोलन का इतिहास 1920 से 1970 तक’ विषय पर पीएचडी करने के बाद गुजरात राजकीय कॉलेज में इतिहास विषय के प्रोफेसर भी रहे। वे 1984 से 1990 तक एस.सी. ‘पत्र-पत्रिका संपादक संघ’ के महासचिव रहे। वे आठ संस्थाओं के प्रमुख रहे। गुजराती दलित पत्रकारिता, अंबेडकरी आंदोलन का इतिहास, अंबेडकर जीवन चरित, तीन ग्रंथ और ‘कौन धर्म सांचा’ और ‘सांचा मार्ग’ नाम से दो धर्मिक पुस्तकें लिखीं।

1959 में ‘ज्योति’ (गुजराती मासिक) पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया था। मोटो था ‘समता, स्वतंत्रता और बंधुता,’ उनके शोध और अध्ययन के विषय कानून और पत्रकारिता थी। इतना ही नहीं, अपितु उन्हें गुजराती भाषा की अंबेडकरी पत्रकारिता में महत्त्वपूर्ण शोधग्रंथ लिखने व संपादन करने के लिए गुजरात सरकार द्वारा ढाई लाख का ‘अंबेडकर रत्ने’ सम्मान मिला था।

वे शोध लेखन और संपादन कार्य में सतत् सक्रिय रहे। उन्होंने कई मौलिक और आधारभूत ग्रंथों की रचना की, जिनमें ‘गुजरात के अंबेडकरी आंदोलन का इतिहास’ पर उन्होंने 1970 में पीएचडी उपाधि प्राप्त की। इस ग्रंथ में उन्होंने सामाजिक, राजनैतिक और साहित्यिक विषयों के साथ-साथ ‘गुजराती अंबेडकरी दलित पत्रकारिता का इतिहास’ भी शामिल किया था। मसलन ‘मुक्ति संग्राम’ (पाक्षिक 1948-54) के यू. परमार, ‘नवयुग’ (मासिक) 1930-31, इंकलाब (मासिक 1953), समानता (मासिक), हुंकार 1951-54 (मासिक), चैलेंज (साप्ताहिक 1946), जयभीम (मासिक 1947) प्रमुख गुजराती पत्रों को इतिहास में दर्ज किया और एक समांतर साहित्य धारा का आधार तैयार किया।

दयानाथ निगम (1952-2020) का जन्म गाँव तमकुही (कुशीनगर) में हुआ। वे भी कोरोना पॉजिटिव थे। वे 1995 से पत्रकारिता में रम गए। उन्होंने अप्रैल 1999 में अपनी मासिक पत्रिका ‘अंबेडकर इन इंडिया’ आरंभ की और अगस्त 2020 तक कुल 227 अंक प्रकाशित कर चले गए। निगम साहित्य-पत्रकारिता के प्रति उदासीन थे। सुविधाभोगी वर्ग से उन्हें कोई प्रोत्साहन नहीं मिला। इस लेखक को उन्होंने बताया था, मैं अमुक आइ.ए.एस. से मिला और तमुक आई.पी.एस. से, मैंने उन्हें ‘अंबेडकर इन इंडिया’ (पत्रिका) दी और मदद की अपेक्षा की तो उन्होंने ऐसा व्यवहार किया जैसे मैं पत्रिका निकाल कर और वे मुफ्त प्राप्त कर के कोई एहसान कर रहे हैं। जबकि वे मैरिज पार्टियों पर, सैर-सपाटों पर, मैरिज एनवर्सरी पर, बच्चों के बर्थडे आदि पर अमीरी का प्रदर्शन करते हैं। समाज हित में एक पैसा खर्च नहीं करना चाहते।

प्रो. विमल कीर्ति के त्याग और समर्पण की लंबी कहानी है। उन्होंने 1993 में ‘त्रैमासिक अंगुत्तर’ नामक हिंदी में साहित्यिक पत्रिका का नागपुर से संपादन, प्रकाशन आरंभ किया था। देशभर से लेखकों पत्रकारों को नागपुर बुलाकर दलित साहित्य और दलित पत्रकारिता पर केंद्रित सम्मेलनों का आयोजन किए। यह प्रो. विमल की दूरगामी संपादक दृष्टि थी। वे पाली, प्राकृत, मराठी और हिंदी के अच्छे जानकार थे। वैसे ही वे फुले, अंबेडकर साहित्य के अधिकारी विद्वान थे, उन्होंने तिरिपिटक बौद्ध ग्रंथों का हिंदी अनुवाद किया। अंगुत्तर 1991-94 तक ही चल पाई, परंतु उसके अंक स्थायी महत्त्व के थे और संजोकर रखने लायक थे। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय में पाली-प्राकृत विभाग के साहित्यिक विमर्श को धार दी थी। उन्होंने धर्म, दर्शन, साहित्य, संस्कृति जैसे मुद्दों पर अपनी मेधा का उपयोग किया था।

हिंदी के सभी प्रमुख दलित लेखक उनके संपादक मंडल और सलाहकार मंडल में शामिल थे। अक्टूबर 1993 में राष्ट्रीय हिंदी दलित साहित्यकार सम्मेलन नागपुर की तैयारी में चल रही थी। पर एक अक्टूबर की भोर भयानक थी। बीती रात मराठ वाडा के लातूर और उस्मानाबाद जिलों में भूकंप कहर ढा चुका था। हजारों लोग मारे जा चुके थे। विमल कीर्ति ने हिंदी, मराठी, पाली और प्राकृत भाषाओं से कालजयी रचनाओं के अनुवाद किए। फुले रचनावली का अनुवाद प्रस्तुत कर लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त करते हुए सम्मेलन आरंभ हुआ था। इस सम्मेलन में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अध्यक्षीय भाषण देते हुए कहा था ‘प्रेमचंद ने दलित चेतना की कई महत्त्वपूर्ण कहानियाँ लिखी हैं–लेकिन अंतिम दौर की कहानी ‘कफन’ तक आते-आते वे गाँधीवादी आदर्शों, सामंती मूल्यों और वर्ण व्यवस्था के पक्षधर दिखाई पड़ते हैं। एक अंतरद्वंद्व है उनकी रचनाओं में, एक ओर दलित से सहानुभूति और दूसरी ओर वर्ण-व्यवस्था में विश्वास।’

‘कफन’ और प्रेमचंद को लेकर चलने वाली बहस का आरंभ इन्हीं तीन पंक्तियों से हुई थी। बाद में वह बहस गोरखपुर विश्वविद्यालय के सम्मेलन से होती हुई प्रेमचंद की ‘सामंत का मुंशी’ और प्रेमचंद की ‘नीली आँखें’ तक पहुँची।

यही कारण है कि दलित संपादक के साथ ही उनकी पत्रिकाएँ भी चली जाती हैं। जिस तरह प्रेमचंद का ‘हंस’ राजेंद्र यादव, संजय सहाय और रचना यादव बचा लेते हैं, दलित पत्रिकाओं को वारिस नहीं मिल पाते। डॉ. तेजसिंह के बाद ‘अपेक्षा’ बंद हो गई। अपने समय की चर्चित दलित पत्रिका ‘निर्णायक भीम’ कानपुर से भी आर कँवल के बाद नहीं निकल सकी। उनकी बेटी ने बताया था कि पिता जी के बाद किसी और ने पत्रिका के लिए हाथ नहीं बढ़ाया।

अछूतानंद के बाद ‘आदि हिंदू’ को भी कुछ ही दिन निकाला जा सका था। कई पत्रकार साहित्य को तरजीह नहीं दे पाते और वे स्तरहीन हो बंद हो जाती हैं या जब तक चलती हैं, राजनैतिक उत्थान-पतन का चित्रण करती रहती हैं। बीते 6 से 20 जून के दौरान दलित सृजन शृंखला की चार कड़ियाँ टूट गईं।

सुजाता पारमिता (6 जून 2021 मुंबई-20 मार्च 1955 दिल्ली) के पिता ‘भारत के सामाजिक क्रांतिकारी’ ग्रंथ के लेखक डॉ. देवेंद्र कुमार बैसंत्री भारत सरकार के सूचना मंत्रालय में वरिष्ठ अधिकारी थे। माता कौशल्या बैसंत्री (‘दोहरा अभिशाप’ की लेखिका) डॅा. अंबेडकर के आंदोलन में डिप्रेस्ड क्लासेस विमेन संगठन की कार्यकर्ता थीं। सुजाता ने नाट्य क्षेत्र में प्रवेश किया था। उन्होंने प्रोफेशनल ट्रेनिंग ली थी। 1974 में बिहार सरकार की छात्रवृत्ति पर पत्रकारिता की पढ़ाई करने गई थीं। पूना फिल्म इंस्टीट्यूट में सतीश शाह और राकेश बेदी के साथ अभिनय सीखा और मुंबई फिल्म उद्योग में प्रवेश किया, किंतु वहाँ वे कोई जगह हासिल नहीं कर पाईं उन्होंने ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ से ओमपुरी और नसरुद्दीन शाह के बैच में प्रशिक्षण लिया और ‘आहृान थियेटर’ की स्थापना की। पहली नाट्य प्रस्तुति ‘देवदासी’ श्रीराम सेंटर में की थी। दो दिन तक चली उनकी प्रस्तुतियों पर तत्कालीन मीडिया में अच्छी चर्चा हुई। दूसरी प्रस्तुति उन्होंने दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम में अमेरिकन अश्वेतों की रंगभेदी समस्या पर की थी। उसके बाद सोवियत सांस्कृतिक केंद्र के सहयोग से तीजनबाई की नृत्य प्रस्तुतियाँ कराईं। 1976 में सुजाता ने अंतरजातीय प्रेमविवाह किया था। अभिजीत व चुमकी दो बच्चों को जन्म दिया। बेटा अभिजीत की मृत्यु से उन्हें गहरा आघात पहुँचा। मंडल के दौरान सुजाता का रुझान राजनीति में प्रवेश का हुआ। उन्होंने जेएनयू में डॉ. नामवर सिंह के साथ बसपा संस्थापक कांशीराम का खुला संवाद कराया था, जिसमें प्रकाशराव अंबेडकर और प्रो. नंदूराम शामिल थे। वे ‘दलित पैंथर’ के नेता प्रो. अरुण कांबले के माध्यम से प्रधानमंत्री वी.पी.सिंह, रामविलास पासवान और राष्ट्रपति ज्ञानीजैल सिंह से मिली थीं। जीविका के लिए उन्होंने मुंबई एयरपोर्ट पर सिंतूर होटल में एस.सी. कोटे से एक दुकान ली और वस्त्रों का कारोबार करने लगीं। बकौल बेटी चुमकी वे कोरोना संक्रमण से निकल चुकी थीं और उनकी मृत्यु किडनी खराब होने से हुई। पति कुलप्रीत सिंह सूद ने तीमारदारी की और लंदन से लौटी बेटी अंतिम विदाई दी।

सिद्धलिंगय्या (3 फरवरी 1954-11 जून 2021) ने कन्नड़ साहित्य में एम.ए. कर कर्नाटक के बेंगलुरु विश्वविद्यालय से साहित्य में डॉक्टरेट हासिल की और उसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर-डीन रहे। 1988 से 2001 तक विधायक रहे। संप्रति कर्नाटक सरकार के विकास प्राधिकारण बोर्ड के अध्यक्ष थे। उन्होंने कविता, नाटक, आलोचना, कहानी, निबंध आदि सभी विधाओं में लेखन किया। आत्मकथा ‘ऊरूकेरी’ के प्रथम भाग का हिंदी अनुवाद ‘गाँवगली’ शीर्षक से प्रो. टी.वी. कट्टिमनी ने किया। लेखक ने झकझोर देने वाली इस आत्मकथा में लिखा कि ‘हमने आश्चर्यजनक घटना देखी। दो लोग अपने कंधों पर हल का जुआ उठाए अय्यनूरू (जमींदार) का खेत जोत रहे थे और एक अन्य व्यक्ति उनके पीछे उन्हें हाँक रहा था। दो लोगों को बैल की तरह हल खींचते और तीसरे को उन्हें धमकाते-हाँकते देखना बड़ा ही अजीब लग रहा था। एक क्षण बाद ही तब मेरा कलेजा मुँह को आ गया जब मैंने देखा कि हल खींच रहे दो लोगों में से एक मेरे पिता थे।’

जसराम हरनौटिया (15 जनवरी 1940-13 जून 2021) ने चालीस साल तक एस.सी./एस.टी. ट्रेड यूनियन का नेतृत्व किया। उन्हें सार्वजनिक जीवन में बाबू जगजीवन राम का सानिध्य मिला। कुछ सालों से वे लेखन में सक्रिय हुए, उन्होंने दलित समस्याओं पर कविताएँ-कहानियाँ लिखीं। ‘तत्तापानी’ शीर्षक से आत्मकथा लिखी। वे बाबूजी और बाबा साहब में समानताएँ और सकारात्मक संबंधों की खोज कर रहे थे। उनकी मान्यता थी कि गाँधी जी ने बाबूजी के कहने पर ही डॉ. अंबेडकर को संविधान निर्मात्री सभा का अध्यक्ष बनवाया था। उनका कहानी संग्रह ‘एक बारात और चढ़ी’ आज भी प्रासंगिक है। हम खबर पढ़ते हैं ‘हरियाण : 300 साल में पहली बार घोड़ी चढ़ा अनुसूचित जाति का दूल्हा।’ यह विजय कुमार और पूजा की शादी का समाचार 21 जून को अमर उजाला में छपा है। ऐसी ही एक खबर एक जून को अमर उजाला में मौहबा से आई कि ‘पहली बार घोड़ी पर बैठेगा अनुसूचित जाति का दूल्हा।’

सूरजपाल चौहान (20 अप्रैल 1955-20 जून 2021) फुसावली, अलीगढ़ के वाल्मीकि परिवार में जन्मे दलित साहित्य में परंपरागत हिंदू कवियों के रास्ते आए थे। उन्होंने ‘प्रयास’, ‘क्यों विश्वास करूँ’, ‘कब होगी वह भोर’, ‘हैरी कब आएगा?’, ‘तिरस्कृत’, ‘संतप्त’ आदि कृतियों की रचना की। ओमप्रकाश वाल्मीकि और राजेंद्र यादव के ‘हंस’ के मार्फत दलित साहित्य से जुड़े। सूरजपाल चौहान की दृष्टि यथार्थवादी लेखन की ओर गई थी और उन्होंने दो महत्त्वपूर्ण कविताएँ लिखी थीं ‘मेरा गाँव कैसा गाँव, न कहीं ठौर न कहीं ठौर’ तथा ‘ये दलितों की बस्ती है’ जिसकी वजह से चौहान काफी लोकप्रिय हुए थे।

हाल ही में पूर्व राज्यपाल एवं साहित्यकार माता प्रसाद (1925-2021) 95 वर्ष की आयु पूरी कर 20 जनवरी की रात गुजर गए। अब बतौर राजनेता उनका अतीत सरकारी दस्तावेजों में दब कर रह जाए पर यह मुमकिन नहीं है कि एक सहृदय लेखक के रूप में उनकी मौजूदगी लंबे समय तक रहेगी। माता प्रसाद के राजनैतिक दिनों की लोग केवल तारीखें ही जान पाएँगे लेकिन उनकी साहित्यिक कृतियों से प्रेरणा लेकर अपना साहित्यिक-सांस्कृतिक संसार समृद्ध करेंगे। बेशक वे 1957 से 1974 तक पाँच बार एम.एल.ए. रहे। 1980 से 1992 दो बार विधान परिषद के सदस्य रहे। जहाँ तक उनके व्यक्तित्व का प्रश्न है वे बहुत ही नम्र, गंभीर, सहज और अध्ययनशील प्राणी थे। कांशीराम को अपवाद और राजेंद्र गौतम व चंद्रशेखर आजाद को संभावना मानें तो कमजोर कौमों की यह बदकिस्मती ही कहिए कि डॉ. अंबेडकर और गाँधी जी के बीच हुए पूना समझौता के बाद उनको अपना नेता नहीं मिला। सत्ता का स्वाद चखते ही दलित नेता और अधिकारी आम-अवाम के प्रतिनिधि से नहीं रह जाते हैं। यहाँ तक कि वे सामाजिक कार्यकर्त्ताओं को तो पहचानते तक नहीं। माता प्रसाद अपवाद थे तो इसलिए कि उनकी गाँधी पोशाक के भीतर एक ऐसा लेखक जी रहा था जिसे अस्पृश्य कौमों के अस्तित्व की चिंता थी। एक प्राथमिक शिक्षक से उठ कर उन्होंने जब राजनैतिक जीवन में प्रवेश किया था तब काँग्रेस का राज उभार पर था। उत्तर प्रदेश का नेतृत्व नारायण दत्त तिवारी के हाथों में था और केंद्र में इंदिरा गाँधी का दायाँ हाथ थे बाबू जगजीवन राम। बाबू जी अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व करते थे। उनकी राजनैतिक शैली गाँधीवादी थी। उसका असर पड़ा माता प्रसाद जी पर। माता प्रसाद राजनैतिक कार्यकर्त्ता के साथ-साथ लोक कवि और आत्म कथाकार थे, वे सस्वर गाते थे, उनके आदर्श बाबू जगजीवन राम ने दलित समस्या पर ‘हरिजन समस्या’ नाम से पुस्तक लिखी थी, जबकि अछूतानंद और अंबेडकर ने गाँधी जी के ‘हरिजन शब्द’ का पुरजोर विरोध कर दिया था। स्वयं माता प्रसाद ने 1948 में ‘हरिजन ग्राम्य गीत’ संग्रह प्रकाशित कराया था। चूँकि काँग्रेस को ‘हरिजन’ शब्द बहुत प्रिय था। जब 1982 के बाद कांशीराम की राजनीति ने पाँव पसारने आरंभ किए और 1991, शताब्दी वर्ष में डॉ. अंबेडकर रचनावली आने लगी, शोधकार्य होने लगे, मूकनायक और बहिष्कृत भारत के संपादकीय विचारों का फैलाव हुआ। दलित लेखक अपने मुद्दे और अपनी समस्याएँ लेकर आगे आने लगे। दलित लेखन की सोद्देश्यता स्पष्ट होने लगी अश्लीलता, मनबहलाव, काल्पनिक साहित्य के स्थान पर लोकतांत्रिक यथार्थ स्थान पाने लगा। तब माता प्रसाद ने भी गाँधीवाद से अंबेडकरवाद की ओर अपने लेखन की धारा को मोड़ दिया, यह दलित लेखकों का उन पर प्रभाव था। 1986 में उन्होंने ‘भीम शतक’ 1992-96 के दौरान राजनीति अर्ध सतसई, परिचय सतसई और सन् 1996 में तो उन्होंने ‘दिग्विजयी रावण’ प्रबंध काव्य लिख दिया। जो उनसे लेखन की विषयवस्तु में बदलाव की घोतक है।

फिर तो उन्होंने दलितों के उपेक्षित रहे नायकों के विमर्श को शीर्ष पर लाकर खड़ा कर दिया। मसलन ‘अछूत का बेटा’, ऊदादेवी पासी, रैदास से संत शिरोमणी रविदास, दिल्ली की गद्दी पर खुसरो भंगी, चमार जाति का इतिहास इत्यादि दर्जनों पुस्तकें लिखीं और संपादित की। खुद माता प्रसाद का अभिनंदन ग्रंथ डॉ. एन. सिंह ने तैयार किया। उन्होंने संपादकीय में एक घटना का संज्ञान लिया। माता प्रसाद बतौर एम.एल.ए. अपने क्षेत्र के दौरे पर थे। एक गाँव में उनका रात्रि विश्राम एक ब्राह्मण कार्यकर्त्ता काँग्रेसी के घर था। खाना बने तब तक वे जनसंपर्क के लिए दलित बस्ती में चले गए। एक परिवार में उन्होंने बच्चों को खास कर लड़कियों को पढ़ाने, स्वछता अपनाने की सलाह दी। उन्होंने एक से पूछा तुम्हारा दूसरा भाई कहाँ है? तो उसने बताया आज हमारे गाँव में काँग्रेस का एक बड़ा नेता आया है। वह नेता हमारी जाति का है। पंडित जी के घर खाना खाएगा। सो वह उसके खाने के लिए बर्तन पहुँचाने गया है। माता प्रसाद ने बाबू जगजीवन राम द्वारा स्थापित की गई ‘भारतीय दलित साहित्य अकादमी’ का लंबे समय संरक्षण किया। अध्यक्ष डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर ने पूरा जीवन अकादमी को समर्पित किया। शीर्ष राजनेताओं से सीधा संपर्क अकादमी का रहते हुए भी सुमनाक्षर ने राजनैतिक लाभ नहीं लिया। माता प्रसाद को सन 1988 में ही नेशनल अवार्ड से सम्मानित करने वाली दलित साहित्य अकादमी में 23-24 नबंवर 1997 को तालकटोरा स्टेडियम में दलित साहिय अकादमी का भव्य आयोजन था। श्री अटलबिहारी बाजपेयी अकादमी के मुख्य अतिथि थे, उस अवसर पर इन पंक्तियों के लेखक को अकादमी सम्मान दिया गया था। बाजपेयी जी देर तक खड़े नहीं रह सकते थे, सो उन्होंने तत्कालीन गवर्नर माता प्रसाद के हाथों सम्मान भेंट कराया था। उस मौके पर अपने संबोधन में अटल जी ने मुहावरेदार भाषा में कहा ‘बाबा साहब डॉ. अंबेडकर आधुनिक मनु थे और मैं घोषित मनुवादी हूँ।’ अगले दिन 24 को सम्मेलन ने संविधान दिवस मनाया तब अटल जी के बयान को लेकर गर्मागर्म प्रतिक्रियाएँ सामने आईं। 2005 में माता प्रसाद जी चंदौसी में अंबेडकर जयंती के मुख्य अतिथि थे। इन पंक्तियों का लेखक बतौर मुख्य वक्ता उपस्थित था। वे उठे और माइक पर जा कर बोले, ‘बाबा साहब पर पीएचडी तो बेचैन जी ने की है, ये इस क्षेत्र में एक-डेढ़ दशक से आपके बीच सामाजिक कार्य भी करते रहे हैं। इसलिए ये बोलेंगे और मैं सुनूँगा। पर जब डॉ. बद्रीनारायण तिवारी ने माता प्रसाद पर उनके गाँव में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम किया। कँवल भारती और मोहनदास नैमिशराय के साथ इन पंक्तियों का लेखक शामिल था। माता प्रसाद जी ने अपने लोक गीतों से विभोर कर दिया था। 1993-1996 के दौरान जब वे बतौर राज्यपाल ‘अरुणाचल भवन’ दिल्ली में आते थे। समाज-साहित्य के इतिहास से रूबरू कराते थे। 5 अप्रैल 1996 को ट्रिनीडाड टेवेको (पोर्ट ऑफ स्पेन) में संपन्न हुए पाँचवें विश्व हिंदी सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि मंडल के बतौर नेता माता प्रसाद जी ने प्रधानमंत्री वासुदेव पांडेय को ‘रामचरित मानस’ की प्रति भेंट की थी।

लंदन में घटित एक प्रंसग का उल्लेख किए बगैर बात बेहद अधूरी रहेगी। हुआ यह था कि 15 अक्टूबर 2000 को लंदन के एक शहर बर्मिराज में मायावती के व्याख्यान का आयोजन भारतीय दलित प्रवासियों की एक संस्था ने कराया था। हम सब सम्मेलन के प्रतिनिधि बस में सवार होकर लंदन से बर्मिघम रवाना हुए। रास्ते में हमने शेक्सपियर का जन्म स्थान म्यूजियम में रखी उनकी लेखनी आदि का अवलोकन किया। बर्मिघम में भारी सुरक्षा तामझाम के बीच उमड़ी भीड़ को ‘बसपा’ ने मायावती जो दलित मुद्दों पर बोलना भूल चुकी हैं बर्मिघम में ढ़ाई घंटे तक हिंदी में संबोधित किया। माता प्रसाद हमारे साथ दर्शक दीर्घा की पहली पंक्ति में बैठे थे। मायावती ने अपने राजनैतिक विरोधियों में वी.पी. सिंह, रामविलास पासवान पर कटाक्ष किये, वे तो वहाँ उपस्थित नहीं थे। परंतु काँग्रेस के टिकट पर घोसी सीट से मायावती के खिलाफ चुनाव लड़ चुके माता प्रसाद तो अपनी काँग्रेसी वेषभूषा में सामने बैठे थे। मायावती ने कठोर शब्दावली में कहा था बूढ़ा खूसट मेरे सामने बैठा है, इसे शर्म नहीं आई मेरे खिलाफ चुनाव लड़ते हुए…। इतना ही नहीं आयोजन के बाद अतिथियों का रात्रि भोजन था ‘इंपीरियल-होटल’ में माता प्रसाद, डॉ. महीप सिंह, डॉ. सुमनाक्षर, डॉ. वी. कृष्णा सहित हम सभी प्रतिनिधि एक ओर थे और पास ही सुरक्षा गार्डों से घिरी मायावती बैठी थीं। हमें लगा सही दलित लेखकों से संवाद करना चाहेंगी। पर नहीं, उनका वह व्यवहार अच्छा नहीं था। इसलिए कि लोकतंत्र है, चुनाव होगा तो प्रतिद्वंद्वी तो होगा ही। उसका सम्मान होना चाहिए। उस समय बसपा की राजनीति उभार पर थी, परंतु मायावती का दलित लेखकों से अलगाव था, जबकि काँग्रेस की राजनीति कमजोर हो रही थी और माता प्रसाद का साहित्यिक कद बढ़ रहा था। माता प्रसाद को अछूतानंद बिहारी लाल हरित की परंपरा में रखते हुए सोचना पड़ता है।

राजभवन की विशेष सुविधाएँ भोग लेने वाले माता प्रसाद पैदल चल कर, रिक्शे पर बैठ कर आयोजन में पहुँचते थे। बिना किसी मानदेय की अपेक्षा किए वे अपने मूल्यवान विचार व्यक्त करते थे। नए लेखन का संज्ञान लेते थे और ससम्मान प्रोत्साहन भी देते थे, परंतु वे अश्लील कथाकारों की पीठ कभी नहीं थपथपाते थे। जब लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष के रूप में दलित प्रो. कालीचरण स्नेही को अवसर मिला तो माता प्रसाद जी ने साहित्य संगोष्ठी के बाद समारोहपूर्वक दलित प्रो. को अध्यक्ष की कुर्सी पर बिठा, कार्यभार ग्रहण कराया। उन्होंने कहा था, अब शिक्षा और साहित्य में भी लोकतंत्र लाने की आवश्यकता है, इसी से सामाजिक संस्कृति समृद्ध होगी।

डॉ. प्रेमचंद पातंजली पूर्वांचल विश्वविद्यालय (जौनपुर) के वी.सी. बने थे। तब के मानव संसाधन मंत्री डॉ. मुरलीमनोहर जोशी के हाथों उर्दू शायर कैफी आजमी और माता प्रसाद को डी.लिट्. की उपाधियाँ दी गई थीं। विश्वविद्यालय ने माता प्रसाद की अध्यक्षता में अक्तूबर 1998 में कबीर पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की थी। निवृत्त होकर हम निकले तो माता प्रसाद जी ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा ‘मेरा घर यहाँ पास ही मछली शहर में है, आप अभी तक मेरे घर नहीं आए हैं और भविष्य में भी पता नहीं आपका इधर आने का कोई संयोग बनेगा या नहीं। इसलिए मैं चाहता हूँ आप मेरे साथ मेरे घर चलें। आज रात रुकें और कल दिल्ली चले जाएँ। यह लेखक उनका आग्रह नहीं टाल सका। अगले दिन सुबह स्नान के बाद उन्होंने दही जलेबी का नाश्ता कराया और यह पूछने पर कि, आपने अपनी आत्मकथा ‘झोपड़ी से राजभवन’ लिखी। मैं देख रहा हूँ वह झोपड़ी कहा है? तो उन्होंने कहा ‘मेरी तो झोपड़ी भी नहीं है यह घर मेरे पिता की ननिहाल है और फिर मैं झोपड़ी से निकल कर आ रहा हूँ जा नहीं रहा।’

माता प्रसाद का परिवार लेदर वर्कर था। उनकी जातिगत दरिद्रय का अंदाजा आत्मकथा में दिए तथ्यों से लगाया जा सकता है कि हमारी जाति के लोग मरे हुए मवेशी का मांस खाकर गुजारा किया करते थे। माता प्रसाद को जनाब रऊफ जाफरी साहब ने अध्यापन छोड़ कर हरिजन समाज कल्याण विभाग के ‘सोशल वर्कर’ बनने की सलाह दी थी और यह रास्ता उन्हें बाबू जगजीवन राम की मार्फत काँग्रेसी राजनैतिक की ओर ले गया। ऐसा ही प्रसंग डॉ. धर्मवीर के जीवन में आया था। विधार्थी जिसने विज्ञान की पढ़ाई की थी और जिसने एम.एन. राय के दर्शन पर अपनी पीएचडी थीसिस अँग्रेजी में लिखी थी। इस लेखक को बताया था कि देववंदी शायद अल्लाहमा अनवर शावरी के कहने पर अँग्रेजी छोड़ तुम्हें अपने बहुसंख्य समाज की सेवा करनी है तो हिंदी अपना लो। हिंदी लिखो और हिंदी सिखाओ और राजनीति काजल की कोठरी है उससे दूर रहो। माता प्रसाद की तरह बाबू जगजीवन राम के पास तो डॉ. धर्मवीर भी गए थे पर टिकट के लिए नहीं, बल्कि यह कहने के लिए कि आप ऐसी कोई संस्था खड़ी कर दें जिससे मेरी रोटी-रोजी चल जाए तो मैं आइ.ए.एस. की नौकरी छोड़ ताउम्र साहित्य सेवा करूँ। माता प्रसाद ने राजनीति के साथ भी साहित्य सृजन किया।


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Artist: Aleksey Savrasov
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