एक नाव में अनेक नाविक

एक नाव में अनेक नाविक

आज सुबह से मन प्रमुदित था। प्रमुदित इसलिए क्योंकि आज काशी में गंगा की बीच धार से तटों को निहारने का अवसर मिलने जा रहा था। तट पर खड़े होकर धारा को बहुत बार देखा था। धारा से तटों को देखने का यह पहला अवसर था। धारा से नदी के तटों को देखने का अर्थ जीवन के दोनों किनारों अर्थात जन्म और मृत्यु को देखने जैसा है। हमारे पुरखों ने आदमी की आयु का मध्य साठ वर्ष माना है। अर्थात साठ की उम्र बीते हुए जीवन और आगत जीवन का सही अनुमान देती है। इसीलिए शायद साठा को पाठा कहा गया होगा। अनुभव जन्य जीवन, सामान्यतः साठ के बाद जिया जाता है। इसके बाद की आयु सार्थक और सधी हुई होती है। यह इसलिए कि तब तक जीवन की अनेक प्यासें बुझ गई होती है या बुझाने की अक्ल पैदा हो चुकी होती है। व्याकुलताएँ अपना जाल समेट चुकी होती हैं और मन प्रशांत हो चुका होता है। आज तो मेरा और सौभाग्य था कि मैं साठ का हुआ और गंगा नदी की धार के मध्य से इसके दोनों तटों को देखने जा रहा था। वास्तव में मैं, नदी के दोनों तटों के साथ-साथ, जीवन के भी दोनों तट देख रहा था। क्योंकि मैं, एक नहीं दो धाराओं के बीच नाव में बैठा था। एक धारा जीवन की और दूसरी गंगा की थी। दोनों के तट भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक रस लग रहे थे। असमंजस यही है कि इसे मैं नौका विहार कहूँ या जीवन का मध्याह्न। जीवन की धारा भी नदी की ही तरह है। दोनों में समानता है। इसीलिए नदियाँ हमें बहुत भाती हैं। वे आमंत्रित भी करती हैं।

धारा के बाईं ओर का किनारा अंधकार में डूब रहा था। बीता हुआ समय कहीं अंधकार में विलीन हो रहा है। बीते हुए समय की स्मृतियाँ भी कुछ इसी भाँति समय के गर्त में विलीन हो जाती हैं। शायद इसी धुँधलके को लक्ष्य करते हुए पुरखों ने इस समय को संध्या समय कहा होगा, जिसमें सब कुछ धुँधला है। भक्तों ने इस तीन समयों को संध्याकाल कहा। यानी त्रिकाल संध्या। मगर दाईं ओर का तट प्रकाश से जगर-मगर था। मणिकर्णिका घाट मेरी दाईं ओर ही था, विश्वविख्यात श्मशान, जहाँ चिताएँ अनवरत जलती रहती हैं। यहीं से सत्यवादी हरिश्चन्द्र की कथा जुड़ी है। भगवान शिव और पार्वती का संदर्भ जुड़ा है। मैं दो किनारों की बात कह रहा था। मणिकर्णिका जीवन का दूसरा किनारा है। धारा ही जीवन है। कविवर सुमित्रानंदन पंत ने ठीक ही लिखा है–

‘इकधारा-सा ही जग का क्रम
ग् ग् ग् ग्
शाश्वत इस जीवन का उद्गम
शाश्वत है गति
शाश्वत संगम
चिर जनम मरण के आर-पार
शाश्वत जीवन नौका विहार।।’

आज यह नाव साधारण न थी। नाव में कोई सामान नहीं, केवल जीवन सवार था। साहित्य की अनेक आशाएँ और उम्मीदें। स्वप्न और यथार्थ भी सवार थे। अनेक अर्थों में नाव तो एक ही थी, मगर नाविक अनेक थे। जो नाविक नाव चला रहा था, उसके पास नाव में लगे इंजन की स्पीड का स्विच के साथ पतवार भी थे। मगर नाव में मेरे साथ बैठे साहित्यिकों के वरद हाथों में साहित्य की नाव के चप्पू थे। नाविक चप्पू तो कम ही चला रहा था, इंजन से ही नाव चल रही थी। क्या इसे जल प्रदूषण कहना उचित होगा? जल जंतुओं को नाव के इंजन की आवाज भयभीत तो करती ही होगी। इन बेचारों के प्राकृतिक अधिकारों के हनन की शिकायत कहाँ की जाए? आदमी अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए प्रकृति के साथ अन्याय करता रहता है। इस अन्याय को वह कभी धर्म की आढ़ में, कभी कुरीतियों के आधार पर, कभी कुतर्कों के सहारे, न्यायोचित बताने का उद्यम करता है। पशुबलि, इनकी कुर्बानी को भला कैसे तर्क संगत माना जाए? जल के साथ आदमी का दुराचरण, जल को क्रोधी बना रहा है। आपने देखा होगा कि वर्षा के समय जल विकराल रूप धारण करने लगा है, पुरखे ठीक ही प्रार्थना करते हैं कि जल शांत रहे, वायु शांत रहे। इसका अर्थ हुआ कि कुपित जल मेरा जीवन नष्ट करेगा। इसीलिए ये प्रार्थनाएँ रची गईं। शांति पाठ में ‘आपः शांति’ की प्रार्थना इसी भावभूमि पर टिकी है।

नाव में मेरे साथ सवार थे, कथाकार बलराम (नई दिल्ली)। बलराम जी केंद्रीय साहित्य अकादमी, दिल्ली की पत्रिका, ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के यशस्वी संपादक हैं। वे हिंदी के स्वनामधन्य कहानीकार, संस्मरण लेखक, लघुकथा सम्राट और पत्रकार हैं। इस तरह वे हमारे समकाल की साहित्यिक नवकाओं में एक के वे खेवनहार हुए। पूरी यात्रा में वे प्रसन्न थे और इस अद्भुत संयोग पर अहोभाग्य से भरे थे। वे बहुत अधिक पूजा-पाठी जरूर नहीं हैं, मगर ईश्वर में गहरी आस्था रखने वाले हैं। उनका यह वाक्य याद आता है कि चलो! यह पुण्यदायी यात्रा संपन्न हुई, जीवन का क्या भरोसा। जीवन की नश्वरता का बोध ही मनुष्य को सदमार्ग पर चलते रहने की प्रेरणा देता है। यही भाव बोध हमें हमारी सहयात्रियों जिसमें यह संपूर्ण सृष्टि शामिल हैं, को देखने की करुणापूरित दृष्टि देती है। दुनिया में शायद हम पहले ऐसे मनुष्य होंगे जो सृष्टि के हर कण में भगवान के दर्शन करते हैं। सबके प्रति करुणा का भाव रखते हैं। यही कारण है कि भारत ही गाँधी और गौतम को पैदा कर सका। हमारे समाज में अनेक बुराइयाँ हैं। मानव जीवन की गरिमा विश्व के अन्य समाजों की तुलना में, बहुत कम है। जातियों में बँटे हुए हम एक अवैज्ञानिक विभाजन को झेल रहे हैं। बलराम जी अपनी सर्जना में इन्हीं बुनियादी सवालों से टकराते हैं। इनका यह प्रगतिशील दृष्टिकोण सराहनीय है।

दूसरे साथी यात्री थे, डॉ. शिवनारायण जी (पटना)। वे 75 वर्ष पुरानी पत्रिका ‘नई धारा’ के यशस्वी संपादक हैं। वे, पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य के वरिष्ठ प्रोफेसर हैं। कथा, कहानी के अलावा वे हमारे समकाल के अच्छे ग़ज़लकार भी हैं। यात्रा का आनंद लेने के साथ ही, वे अपने मोबाइल पर भी व्यस्त थे। चित्र खींचते, बातें करते और फेसबुक से उसका सीधा प्रसारण भी करते जाते। वे अंदर तक गहरे मानवीय सरोकारों में डूबे हैं। डॉ. शिवनारायण का मित्र प्रेम अवर्णनीय है। उन्हें गंगा की धारा के बीच नौका विहार करते समय उनके साथ नाव में बैठना एक तरह से उनकी पत्रिका ‘नई धारा’ के साथ प्रवाहमान होना भी था। मैं, कभी उन्हें देखता तो कभी गंगा माई की धारा को निहारता। शिवनारायण जी का पुलकित चेहरा अनेक तरह के भावों को आने-जाने की सूचना दे रहा था। मुझे याद आया जब वे एक बार नर्मदा के तट पर खड़े थे और उनके भीतर का किशोर-मन अप्रतिम नदी नर्मदा को जानने के लिए तरह-तरह के सवाल कर रहा था। यह सब विश्व विख्यात नगर महेश्वर में घटित हुआ था। महेश्वर लोकमाता अहिल्याबाई होल्कर की राजधानी थी और काशी में माता अहिल्या द्वारा बनवाया गया तट नाव से साफ-साफ दिखाई दे रहा था। उन्होंने ही बाबा विश्वनाथ के मंदिर का जीर्णोद्धार भी करवाया था। वैसे तो कहा जाता है कि इतिहास दिवंगत लोगों की कथा है, मगर अवसर आने पर इतिहास किस भाँति वर्तमान में उतर आता है। इसे मैं गंगा की बीच धार से देख रहा था। इतिहास रचने वाली महान आत्माओं को परमात्मा यदा-कदा ही धरती पर उतारता है। इनकी नैतिक उपस्थिति की आँच से शक्ति लेकर साधारण जन सदियों तक अपने जीवन को चलाते रहते हैं। शिवनारायण जी को इन ऐतिहासिक महापुरुषों पर गर्व है और मुझे भी। मुझे उनकी ‘नई धारा’ पत्रिका की याद बार-बार आई कि वे साहित्य की नई धारा में नाव चलाते हैं और पता नहीं किस समय के लिए नए नाविक तैयार कर रहे हैं जो, भविष्य में साहित्यिक मल्लाह बनेंगे और मानवता की सेवा में सन्नद्ध होंगे। हर समय में साहित्यिकों ने ही मानवता का पथ नयन किया है। मनुष्य में चेतना का संचार जितना साहित्य के माध्यम से होता है, उतना किसी अन्य माध्यम से नहीं। शायद संपादकों और साहित्यिक प्रतिभाओं का यह कर्म है कि वे नई पीढ़ी को निखारते चलें। हमारे समकाल यह कार्य डॉ. शिवनारायण बतौर संपादक बहुत सार्थक ढंग से कर रहे हैं।

तीसरी यात्री, नासिरा शर्मा थीं। नासिरा जी हमारे समय की चर्चित कहानीकार और व्याख्याकार हैं। वे फारसी की अद्भुत जानकार हैं। यात्रा के दौरान प्रायः चुप रहीं मगर, उनके चेहरे पर नदी के तट पर उमड़ने वाली अनियंत्रित भीड़ और अव्यवस्थाओं की पीड़ा दिख रही थी। यात्रा के समापन पर एक लंबी साँस लेकर उन्होंने कहा कि नाव में इस तरह बैठे थे कि नदी के जल का स्पर्श भी नहीं कर सकी। जल का स्पर्श न कर पाना तो ठीक है, मगर इसी के साथ लगा कि मानो यह कहना चाहती हों कि गंगा जल की दो बूँद कंठ में धारण करती तो बेहतर होता। बहरहाल जो भी हो पर गंगाजल के प्रति उनका मन भींगा हुआ तो था ही। हमारा शरीर गंगा जल से स्नान जरूर करता है, इससे अधिक हमारा अभ्यंतर भींगता है। उसके भींगने से ही पाप छीजते हैं और जीवन गतिमान बनता है। नदी में स्नान का यही पुण्य फल है।

चौथी यात्री थीं डॉ. शशिकला पांडेय। वे अपने परिवार के साथ उपस्थित थीं। सच यही है कि उनके होने से ही, हम सब वहाँ थे। उन्होंने ही हमें बनारस बुलाया था। अपने स्वर्गीय पति पंडित राजेन्द्र प्रसाद पांडेय की पावन स्मृति में एक अखिल भारतीय आयोजन संपन्न करवाती हैं। अपने पति और हिंदी साहित्य के प्रकांड विद्वान, प्रशासनिक अधिकारी रहे पंडित राजेन्द्र प्रसाद पांडेय का अप्रकाशित साहित्य, वे प्रकाशित करवा रही हैं। उनका समर्पण देखकर स्मरण आता है कि प्रेमचन्द के न रहने पर उनकी पत्नी श्रीमती शिवरानी देवी, श्री नरेश मेहता के न रहने पर उनकी धर्मपत्नी श्रीमती महिमा मेहता ने भी इसी तरह का अविस्मरणीय काम किया था। वह एक वंदनीय और अनुकरणीय परंपरा है। वे लोग ही परंपरा का निर्माण करते हैं जो केवल अपने लिए नहीं बल्कि दूसरों को अपना बनाकर जीवन जीते हैं। बाबा तुलसीदास का स्मरण होना यहाँ स्वाभाविक है, क्योंकि उनके नाम का घाट भी सामने था। वे कहते हैं कि

‘निज मय जग देखन फिरहुँ
केहिसम करहुँ विरोध’

अर्थात सर्वत्र अपना ही स्वरूप देखता हूँ। विरोध किससे? और क्यों? शशिकला जी का भाव भी समष्टि को मातृत्व भाव से भरता है। यही बोध है जो हम सब को बाँधता है और हर वर्ष 25 जून, को बनारस में एकत्र करता है। श्रीमती शशिकला पांडेय ने ही नाव का इंतजाम किया था। नाव को यहाँ बजरा कहते हैं। उनका आतिथ्य भाव वंदनीय है। बनारस में रहने, बनारस का दर्शन करवाने तथा अन्य जिम्मेदारियों का निर्वहन, जिस समर्पण की माँग करता है, वह सब उनके और उनके परिवार के पास है।

इस नौका यात्रा से पूर्व, विगत दो दिनों तक साहित्य समागम चला, अनेक विषयों पर विद्वानों ने विचार रखें। आयोजकों ने जिस विषय पर चाहा, उस पर शायद ही कोई बोला। जो विषय पर बोले, वे सचमुच सतर्क लोग हैं। शेष अब कोई विषय पर नहीं बोलता। विषय देना बंद करें। केवल भाषण के लिए लोगों को बुलाएँ। विषय देकर भी हासिल कुछ नहीं हो रहा है। प्रायः लोग अध्ययन नहीं कर रहे हैं। इस कारण मौलिक कुछ भी नहीं आ रहा है। भाषण रटे-रटाए और ज्ञान तथा सूचनाओं से रहित है। संदर्भ गायब हैं, संदर्भ तभी आएँगे जब कोई नया पढ़ेगा। डॉ. शशिकला पांडेय ने विषय दिया था ‘उपन्यासों में गाँव’ एक विद्वान उस विषय पर बोले–‘उन्हें आश्चर्य है कि डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पांडेय, प्रोफेसरी छोड़कर, प्रशासनिक सेवा में क्यों चले गए? अगर वे प्रोफेसर रहे होते, आज बड़े साहित्यकार होते।’ अब इस अप्रासंगिक और तर्क रहित व्याख्यान देने वाले तथाकथित विद्वान से यह पूछा जाए कि क्या सभी प्रोफेसर, बड़े लेखक भी बने हैं? क्या सर्जना का कोई संबंध आजीविका से है? कबीर जुलाहा थे, प्रोफेसर नहीं थे। क्या इस आधार पर उनकी सर्जना नहीं मानी जाएगी? संत परंपरा में सभी संत रचनाकर भी हैं, ये लोग माँगकर खाते थे और समाज सेवा करते थे। क्या उनकी सर्जना को निरस्त कर दिया जाना चाहिए? छायावाद के सभी सर्जक, प्रोफेसर होना तो छोड़िए कोई एम.ए. तक भी नहीं पढ़ा था। निराला कक्षा चार पास थे, जयशंकर प्रसाद कक्षा 8वीं तक पढ़े थे। पन्त 12वीं पास थे, केवल महादेवी जी, ग्रेजुएट थीं। क्या इस स्थिति में छायावाद की सर्जना को निरस्त कर दिया जाए? सर्जना बहुत अलग ढंग की प्रतिभा और समर्पण की माँग करती है। वह दृष्टि चाहिए जिससे इस संसार को रचनाकार देखता है। आम आदमी के देखने और एक सर्जक के देखने में यही अंतर पैदा होता है। दृष्टा भाव से देखना ही सर्जना है और साधारण तरह से देखने वाले को दर्शक कहा जाता है। संत और जुलाहे तो बहुत हुए और आज भी हैं मगर ये तुलसीदास और कबीरदास नहीं हैं।

सर्जना बहुत अलग विषय है, वह छठवीं इन्द्री के जाग्रत होने पर अवतरित होती है। व्यवसाय से सर्जना का कोई संबंध नहीं है। जयशंकर प्रसाद तंबाकू की पुश्तैनी दुकान में बैठते थे और ‘कामायनी’ लिख गए। यह उनका निजी पौरुष है उनकी मेधा का चमत्कार था और व्यवसाय पुरखों और पीढ़ियों की व्यवस्था होती है। सर्जक होना सौभाग्य होता है। कविवर गोपालदास नीरज लिखते हैं–

‘मानव होना भाग्य है
कवि होना सौभाग्य’

इसलिए इस सौभाग्य की तुलना किसी व्यवसाय से करना औचित्यहीन बात है।

हमारी नौका की यात्रा तो पूरी हो गई। हमलोग वापस अपने-अपने घरों में आ गए। लेकिन उन घाटों पर भीतर का कुछ छोड़ आए हैं। हम ही क्यों सदियों से असंख्य लोग इन पवित्र नदियों के तट पर कुछ विसर्जित कर एक उजास भीतर भरकर लौटते रहे हैं। यही इन तटों का प्रताप हैं। इन तटों से कोई उसी रूप में वापस नहीं लौटा, जिस रूप, रंग और जीवन का बोझ लिए हुए वहाँ गया था। यह बोझ वहाँ खो जाता है। अहं से वयं बनाते हैं, ये तट। इन तटों को न जाने कितनों ने देखा है और भविष्य में भी देखते रहेंगे। मेरे साथ मेरी पत्नी श्रीमती अर्चना शर्मा भी यात्रा में शामिल थीं। वे भावुक मन महिला हैं। अधिकांश उत्तर भारतीय भावुक ही होते हैं। इस पर शोध होनी चाहिए। भावुकता अच्छा गुण है। इन तटों पर जमे पण्डे इसी भावुकता का दूध निकाल लेते हैं। बाबा तुलसी ने शायद इन्हें ही लक्ष्य करके लिखा था–‘बेर्चाहं वेद, धर्म दुहि लेहीं। वापस लौटकर वे भी अब उतनी भावुक नहीं रहीं। ये तट अमर रहें। ये यात्राएँ अनवरत रहें। हम भारी मन तटों पर जाएँ और हलके होकर लौटते रहें।


Image : On The River Benares
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Artist : Edwin Lord Weeks
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राकेश शर्मा द्वारा भी