उड़ि गयो फुलवा रहि गयो वास…

उड़ि गयो फुलवा रहि गयो वास…

समय के बीतने की आहट नहीं होती। मुट्ठी में बंद रेत-सा वह फिसलता रहता है। जहाँ गिरता है वहाँ छोटे-बड़े अनगिन टीलों में तब्दील हो जाता है, जिनके नीचे जीवन प्रवाह के कितने खट्टे-मीठे, अनुभव, कोयल और उष्ण संवेगों के साथ कुछ आँसू और श्रमसीकर भी दबे रहते हैं फॉसिल बन कर। पर, सब कुछ याद नहीं रहता। कुरेदने पर महकते फूलों के साथ जख्म भी दिखायी देते हैं। अबोध मन अनुभवों की सान पर चढ़ कर ही परिपक्व होता है। आइनस्टाइन ने ठीक ही लिखा है ज्ञान का एक मात्र स्त्रोत अनुभव है। जीवन में हर किसी को अपनी राह स्वयं बनानी पड़ती है। परिस्थितियाँ हमें सीखाती हैं, हमें गढ़ती हैं। आवश्यक नहीं परिस्थितियाँ प्रतिकूल ही हों, अनुकूल परिस्थितियों में भी स्वयं को सिद्ध करना पड़ता है। पीछे मुड़कर देखना आज को समझने के लिए आवश्यक होता है, नए रास्तों की खोज के लिए भी। एक समय था जब बेटियों का विवाह कम उम्र में कर दिया जाता था। हमारी माँओं ने किशोरावस्था से ही जिंदगी की जिम्मेदारियों का बोझ उठाना शुरू कर दिया था। यौवन की दहलीज तक पहुँचते-पहुँचते उनके कंधे मजबूत हो जाते थे। हर स्थिति की चुनौती को स्वीकारने के लिए। जीवन यात्रा में उनमें से कुछ स्वयं को प्रकाश स्तंभ बना सकी, कुछ दूसरों को बनाने सँवारने में, पर जीवन संघर्षों और सुकूनों के बीच निरर्थक कभी नहीं रहा। कर्म में निष्ठा ने उन्हें आंतरिक रूप से बहुत सशक्त बनाया।

श्रीमती शीला सिन्हा एक ऐसी ही महिला थी जिनका विवाह किशोरावस्था में ही हो गया था। माता-पिता द्वारा अल्पायु में ही सौंपे गये नए जीवन के दायित्व को उन्होंने बहुत सलीके से निभाया ही नहीं, परंपरा के बीच मूल्य-मर्यादा का नव-निकष भी गढ़ा। अपनी तीन पुत्रियों और एक पुत्र को पालन-पोषण में भारतीय संस्कारों, उच्च मानवीय मूल्यों और मानवीय संवेदनाओं को ध्यान रखा और उन्हें विवेक संपन्न शीलवान बनाया जिससे सभी अपने कर्मक्षेत्र में ऊँचाइयों पर पहुँचे। वो आज हमारे बीच नहीं हैं कि हम पूछ सकते कि उन्होंने किस यत्न से, कितने त्याग और अधिकार से परिवार के साथ समाज के प्रति भी अपने दायित्व का निर्वाह प्रतिबद्धता से किया। श्रीमती सिन्हा का जन्म 01 दिसंबर 1931 को छपरा में हुआ। सुशिक्षित, विचारवान पिता डॉ. बी.पी. वर्मा और श्रीमती पार्वती वर्मा की चार संतानें हुई। दो बेटियाँ और दो बेटे। डॉ. वर्मा ने विदेश में चिकित्सा विज्ञान की उच्च स्तरीय शिक्षा प्राप्त कर कुछ समय वहीं चिकित्सक के रूप में काम किया, फिर भारत लौट आए। वे देश के पहले भारतीय थे जिन्हें अँग्रेज हुकूमत ने सिविल सर्जन बनाया था। इससे स्पष्ट है कि वे अपने पेशे में बहुत कुशल और सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग थे। विदेश में रहने के बावजूद वे अपनी सभ्यता और परंपराओं से कटे नहीं थे। परिवार में भारतीय संस्कारों एवं परंपरा के साथ आधुनिक विचारों को भी मान्यता मिल रही थी। उन्होंने अपनी बेटियों की शिक्षा पर पूरा ध्यान रखा, पर उनका विवाह किशोरावस्था में ही उच्च समृद्ध घरानों के योग्य वरों के साथ संपन्न करा दिया। तिलौथू स्टेट और सूर्यपुरा स्टेट बिहार की दो प्रतिष्ठित जमींदारियाँ थी, बड़ी बेटी लीला सिन्हा का विवाह तुलौथू स्टेट में हुआ और छोटी बेटी शीला सिन्हा का विवाह सूर्यपुरा स्टेट के राजाराधिका रमण प्रसाद सिंह के सुपुत्र श्री उदय राज सिंह के साथ। विवाह के बाद शीला जी ने पटना वीमेंस कॉलेज से बी.ए. पास किया। अपनी माँ श्रीमती पार्वती सिन्हा की भाँति उनकी रुचि समाज-कल्याण के कार्यक्रमों में रहती। उनके साथ वो प्रारंभ से बिहार महिला परिषद की बैठकों में भाग लेती और सौंपे गए कार्यों को निष्ठापूर्वक संपन्न करती।

सूर्यपुरा स्टेट जमींदारी और राजनीतिक गतिविधियों में तिलौथू स्टेट की भाँति ही सक्रिय रहा। सूर्यपुरा स्टेट किंतु साहित्य सृजन और साहित्यिक गतिविधियों के कारण व्यापक पहचान बना चुका था। राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह उच्च कोटि के कथाकार और सुप्रतिष्ठ शैलीकार थे। उनके पिता राजा राज राजेश्वरी सिंह ‘प्यारे’ स्वयं भी उच्चकोटि के कवि थे। पटना में सूर्यपुरा हाऊस बन जाने के बाद यह भवन हिंदी साहित्यकारों की गतिविधियों का केंद्र बन गया। देशभर से साहित्यकारों का आना, विचार गोष्ठियों का आयोजन चलता रहता। कथा सम्राट राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की कल्पना को आचार्य शिवपूजन सहाय ने ‘नई धारा’ पत्रिका के रूप में साकार किया। रामवृक्ष बेनीपुरी के संपादन में ‘नई धारा’ बह चली, बाद में उदय राज सिंह ने उसका विस्तार किया और उनके बाद उनके पुत्र प्रमथ राज सिंह ने उसे श्रेष्ठ पत्रिकाओं में प्रथम पांक्तेय पद पर पहुँचाया। इन समस्त साहित्यिक गतिविधियों में श्रीमती शीला सिन्हा एक कुशल व्यवस्थापक के रूप में सदा निष्ठापूर्वक संलग्न रही। वे स्वयं लेखिका नहीं थी, पर सूर्यपुरा हाऊस के साहित्यिक अवदान में उनको उनके प्रबंध कौशल के लिए सदा सम्मानपूर्वक याद किया जायेगा। सभी अतिथियों का स्वागत सत्कार करने में वो कभी पीछे नहीं रहीं। मुझे याद है कि वरिष्ठ लेखिका-पत्रकार श्रीमती मृणाल पांडेय जब पहला उदय राज व्याख्यान देने पटना आई तो इसी सूर्यपुरा हाऊस में रही। वहाँ की सुरुचिपूर्ण सज्जा ने उनका मन मोह लिया। श्रीमती शीला सिन्हा ने व्यक्तिगत रूप से उनकी सुख सुविधा का ध्यान रखा और स्वास्थ्यवर्धक सुस्वादिष्ट भोजन भी कराया जिसकी प्रशंसा करते मृणाल जी थकी नहीं।

श्रीमती शीला सिन्हा से मेरी पहली भेट श्री अरविंद महिला कॉलेज में हुई थी। सन् 1982 में महामहिम राज्यपाल-सह-कुलाधिपति के आदेश से राँची विश्वविद्यालय से मगध विश्वविद्यालय की पटना स्थित अंगीभूत इकाई, श्री अरविंद महिला कॉलेज में मेरा स्थानांतरण और पद स्थापन हुआ था। कॉलेज की प्रधानाचार्या श्रीमती कृष्णा जमैयार बिहार महिला परिषद की वरीय सदस्य और पदाधिकारी थी अतः इस संस्था की बहुत सी बैठकें, विचार गोष्ठियाँ कॉलेज परिसर में आयोजित करती थीं। प्रधानाचार्या की भतीजियाँ राँची में मेरी विद्यार्थी रह चुकी थीं, मुझे यहाँ देख बहुत प्रसन्न थी, उनसे ही कृष्णा दी को मेरे बारे में अनेक जानकारियाँ मिल चुकी थी। परिणामतः मेरे आने के बाद परिषद की जो पहली विचार गोष्ठी कॉलेज परिसर में हुई, उसमें उन्होंने मुझे भी एक वक्ता के रूप में बुलाया। नारी शोषण से संबंधित विषय पर आयोजित इस गोष्ठी की मुख्य वक्ता थी पटना विश्वविद्यालय की विदुषी प्रध्यापिका डॉ. वीणारानी श्रीवास्तव। वीणा दी ने अत्यंत विस्तार से विद्वतापूर्ण तथ्यपरक व्याख्यान दिया। किसी तथ्यपरक विस्तार की अपेक्षा मैंने अपने संक्षिप्त व्याख्यान में परिषद की कार्य योजनाओं के परिप्रेक्ष्य में मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पृष्ठभूमि पर मूल समस्या को सुलझाने की बात की। पटना में मेरे लिए यह पहला अवसर महत्त्वपूर्ण भी बन गया। एक तो परिषद में वरीय प्रतिष्ठित सफल, निर्भीक, निष्ठावान, कर्मयोगी, विख्यात विदुषी महिलाओं की भागीदारी थी, दूसरे वीणा दी के साथ सभी ने वक्तव्य को पसंद किया और प्रशंसा कर मुझे सुखद आश्चर्य से भर दिया। यह उनकी उदारता थी। बाद में मैंने जाना था श्रीमती उमा सिन्हा, श्रीमती किशोरी सिंह, श्रीमती मनोरमा सिंह, डॉ. कलावती त्रिपाठी, श्रीमती कुमुद शर्मा, डॉ. शीला शरण प्रभृति विख्यात महिलाएँ उपस्थित थी। जब हम सभा स्थल से निकल रहे थे, तब तेजपूर्ण गौरवर्ण की अति सुंदर और गरिमापूर्ण महिला ने मुझे बधाई दी–मैंने जाना वो ख्यातिलब्ध शैलीकार राज राधिकारमण प्रसाद सिंह की पुत्रवधू श्रीमती शीला सिन्हा हैं। बाद में जब भी ऐसे अवसर आए, उनसे भेट होती, उनकी टिप्पणी होती–‘आप बोलती बहुत अच्छा हैं।’ उदय राज सिंह जी के स्वर्गवास के बाद, सूर्यपुरा हाउस में हुई महत्त्वपूर्ण एवं यादगार शोक-सभा में पटना के गणमान्य साहित्यकार उपस्थित थे। परिवार के सभी सदस्य भी थे। नई धारा के संपादकत्व के प्रश्न पर नाटककार परेश सिन्हा और मैंने तर्क संगत विचार स्पष्ट रखे। बाद में भेट होने पर शीला जी ने बताया था उसको सबने पसंद किया। उनकी सरलता निष्कपट थी।

एक बार मेरी मित्र डॉ. कुमकुम नारायण (जुही) ने मुझे अपने ननिहाल तिलौथू स्टेट के महिला मंडल के स्थापना दिवस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनने का आग्रह किया जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार किया। महिला मंडल की महिलाओं के एपलिक वर्ग और अन्य कला कौशल से हम परिचत थे और कुछ वस्तुएँ खरीदा करते थे। पटना से जुही, डॉ. रीना सहाय और मैं साथ चले। सफर यादगार सिद्ध हुआ पर उससे भी अधिक यादगार तिलौथू में बीते तीन दिन रहे। जुही के साथ मैं भव्य और दूर तक फैले हरे-भरे परिवेश के बीच महलनुमा घर के अतीत को देख रही थी कि शीला जी पुत्र प्रमथ राज के साथ पहुँच गई। उन्हें देख प्रसन्नता हुई और यह जानकर आश्चर्य हुआ कि ये निकट संबंधी हैं। शीला जी के देहांत के बाद मुझे एक आश्चर्य यह जानने के बाद हुआ कि रंजना चौधरी, जिससे मेरा पुराना मेल-मिलाप रहा है, शीला जी की बड़ी बहन की पुत्री हैं। इस अनभिज्ञता में मेरी कोई हानि नहीं थी, हम सबके बीच जो स्नेहभाव था उसे रिश्ते की डोर की आवश्यकता नहीं थी। पारिवारिक रिश्तों को जाने बिना जब हम व्यक्तिगत स्तर पर किसी को जानते हैं और जानने लगते हं तो एक रचनात्मक अनुभूति होती है। तिलौथू में शीला जी को घरेलू रूप में देखा। जुही की भाभी जहाँ रोज नए-नए बनारसी व्यंजन परोस रही थी, वहीं शीला जी विभिन्न, स्वाद की, चर्चा करती पाक-विधियों के और परोसे गये व्यंजनों को चाव से चखती। बड़े आत्मीय भाव से पूरे घर की सज्जा, रख-रखाव पर ध्यान देना, घर-गृहस्थी की, पुराने परिचितों, सेवकों की कुशल क्षेम, बीच-बीच में लोक धुन की गुनगुनाहट…मेज पर सजे बगीचे के ताजे फलों, लुप्त फलों का हाल-चाल पूछना…सब सहज पारिवारिक सौहार्द्र और आत्मीयता को सींच रहा था।

श्रीमती शीला सिन्हा बहुआयामी प्रतिभा से संपन्न थीं। रंजना चौधरी ने मुझे बताया कि वो रेखांकन (स्केचिंग) बहुत अच्छा करती थीं–उनके बनाए कुछ रेखाचित्र रखे हुए हैं। वो लोक संगीत की अच्छी जानकार थी, आकाशवाणी केंद्रों से उनकी गायक मंडली के कार्यक्रम प्रसारित होते थे। वो सिलाई, बुनाई कटाई में पारंगत थी, रंगों का संयोजन, डिजायनों का चयन, फेर-बदल कर कलात्मक संयोजन में उनका ज्ञान प्रशंसनीय था। वो पाक-कला में निपुण थी, नये प्रयोग करना और सबको खिलाना उन्हें भाता था। व्यक्ति की रचनात्मक प्रतिभा अनेक रूपों में प्रस्फुटित होकर जीवन को सुंदर और उज्ज्वल बनाती है। परिषद की अभावग्रस्त महिलाओं की सुप्त प्रतिभा को कौशल में बदलने का काम शीला जी…

व्यक्ति अपने परिवेश के प्रति सजग और दायित्वों से प्रतिबद्ध रहते हुए अपने अंतर को प्रकाशित और सशक्त बना सकता है। मेरी दृष्टि में श्रीमती शीला सिन्हा ने एक भरपूर अनुकरणीय जीवन जीया और स्वयं को उन बंधनों और सोच से मुक्त रखा जो आत्मा के विस्तार को कुंठित करते हैं। उनका संपूर्ण जीवन एक प्रकाश स्तंभ के सदृश है, जिसकी जितनी सामर्थ्य होगी, वह उतनी प्रकाश ऊर्जा उससे प्राप्त करता रहेगा।


Image Source : Personal collections of Pramath Raj Sinha and Family