साहित्य-संस्कृति में सनी-पगी एक गृहिणी

साहित्य-संस्कृति में सनी-पगी एक गृहिणी

वह सन् सतहत्तर का समय था। बहुत दिनों बाद मैं अपनी शिक्षा के शहर पटना में पहुँची थी। इस बार मैं एक जिम्मेदार गृहस्थी की मुखिया थी। मेरे चार बच्चे थे, दफ्तर जाते पति थे। मेरा अपना किराये का ही सही आवास था। पटना तुरंत एमरजेंसी, जानलेवा जलाप्लावन से उबरकर खड़ा हुआ था। सर्वत्र उत्साह था। मैं स्वयं फिर से लिखने की दुनिया में आ गई थी। ऐसे समय में पटना ए.आइ.डब्ल्यू.सी. अर्थात ऑल इंडिया वीमेंस कांफ्रेंस का महाधिवेशन होना तय हुआ। मुझे शांति ओझा दीदी ने उसमें जोड़ लिया। पटना वीमेंस कॉलेज परिसर ही वेन्यू था। उस समय तक न तो कांफ्रेंस हॉल पटना में कहीं बने थे न कभी ऐसा समारोह हुआ था। कमिटी बँट रही थी। मुझे जिन सीनियर दीदी के साथ रहना था वो थीं शीला सिन्हा। शीला दी भव्य, खूबसूरत और अभिजात थीं, पर दूर से देखने पर। निकट जाते ही पता चलता कि वे कितनी वत्सल और सहज थीं। शीला दी की बड़ी बहन लीला दी कोर कमिटी में थीं। वे उन्हें बेबी कहतीं, हमारी कई दोस्त उन्हें बेबी दी कहतीं तो मैं उन्हें बेबी दी कहने लगी। शीला दी फूड कमिटी की इंचार्ज थी। मैं उसी में थी। शांति दी मेरी ओर देखकर मुस्कुरा रही थीं, मैं उनकी ओर थोड़े अनमने भाव से देख रही थी, शीला दी ने भाँप लिया। उन्होंने पूछा–‘क्या, क्यों असमंजस है?’ शांति दी ने कहा–‘यह लड़की फूड कमिटी के लायक है नहीं, हम इसके सीनियर थे होस्टल में, सब जानते हैं।’

‘शांति जी, अच्छा तो है, नहीं जानती है तो सीख लेगी। क्या उषाकिरण जी?’–मैंने हाँ में सर हिलाया। मुख्य कार्यक्रम का भव्य नाश्ता खाना, चाय कॉफी समय पर होना था। मुझे शीला दी ने प्रतिदिन सुबह का काम सौंपा जो मुझे सूट करता था। सब कुछ बहुत सहज और पूर्णता से संपन्न हुआ। शीला दी को यश मिला। शीला दी ने मुझे भी लेखक के रूप में जाना और छोटी बहन का मान दिया। उनके घर में एक बड़ी पार्टी रखी गई, जिसमें सभी स्त्रियाँ थीं। उस अनौपचारिक पार्टी में उन्हें, पता चला कि मेरे पति भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी हैं, तब उन्होंने बड़े गर्व से मुझे कहा कि उनकी बेटी मंजरी सिन्हा भी बिहार की पहली महिला आई.पी.एस. हुई है। वह उस समय ट्रेनिंग में थी। कुछ दिनों बाद उसका विवाह बैचमेंट राकेश जरूहार से हुआ जिसमें हमलोग शामिल थे। शादी में आदरणीय जयप्रकाश नारायण भी शामिल हुए थे।

शीला दी के कारण मैं ए.आई.डब्ल्यू.सी. में काफी दिनों तक सक्रिय रही। फिर परिवार, लेखन और कॉलेज की नौकरी के कारण वह छूट गया। शीला दी का साथ नहीं छूटा। छूट भी नहीं सकता था। शीला दी के प्रभाव में जो आ गया, फिर उन्हीं का होकर रह जाता। वह सबको जोड़ने और उनके कर्तव्य भाव को जाग्रत करने की कला जानती थीं। उनके स्नेह ने मुझे सदा-सदा के लिए अपना बना लिया था। वह घर भले ही राजा साहब का था, पर राजा तो स्वयं बड़े शैलीकार साहित्यकार थे, राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह। उनकी किताबें हमने न सिर्फ घोंट रखी थीं बल्कि कुछ चीजों पर अमल करते थे। जैसे ‘पुरुष और नारी’ में नायिका नायक के सामने भाव प्रकट करने के लिए हल्वे के ऊपर अखरोट के बुरादों की चित्रकारी करती थी और हम भी करने लगते थे। स्वयं भाई साहब उदय राज सिंह जी का उपन्यास ‘भूदानी सोनिया’ मेरी रुचि का था। उनके घर में साहित्यगंध पसरी रहती।

कोई भी साहित्यिक गोष्ठी हो, तब मैं जरूर बुलाई जाती। उन दिनों बाहर से आए साहित्यकार उनके घर ही ठहरते। मैंने तो अक्सर देखा। आदरणीया महादेवी वर्मा जी से मैंने रेडियो के लिए साक्षात्कार बेबी दी यानी शीला दी के यहाँ ही ली। वहीं दीदी ने मुझे कहा–‘ऊँह, बेबी दी न कहिये। शीला दी ठीक है।’ भाई साहब उदय राज सिंह ने विपुल साहित्य की सर्जना की। ‘नई धारा’ को ऊँचाई दी और बेहद भव्य तरीके से राजा साहब की शताब्दी मनाई, शीला दी का उज्ज्वल व्यक्तित्व, उत्फुल्ल स्वभाव भूलने लायक नहीं है। शीला दी के आवास का नाम है ‘सूर्यपुरा हाउस’, जो साहित्य का तीर्थ रहा। साहित्य के कितने ही महारथी वहाँ आते रहते, जिनके दर्शन के लिए शहर के साहित्य प्रेमी उमड़ पड़ते। शीला दी सबका सत्कार करतीं और पूरे मनोयोग से उनके सम्मान में कोई कमी न आने देतीं। वास्तव में वे ही ‘सूर्यपुरा हाउस’ की धुरी रही हैं। सुसंस्कृति साहित्यिक गृहिणी। कभी कुछ लिखा नहीं, लेकिन उस घर के लिखने वाले की प्रेरक रहीं। उस परिसर के कोने-कोने में साहित्य की गंध फैलाने में सहायक बनीं। समाज सेवा के क्षेत्र में तो अद्वितीय थीं। शीला दी हमारी यादों में बनी रहेंगी!


Image: Auguste Reading to Her Daughter
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Artist: Mary Cassatt
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उषाकिरण खान द्वारा भी