महाकवि ‘नीरज’ संग वह रसवंती शाम

महाकवि ‘नीरज’ संग वह रसवंती शाम

वे दिन : वे लोग

सुबह और साँझ का होना प्रकृति की एक अनवरत क्रिया है। संसार में जो कुछ बदलता है वह सब इन्हीं चौबीस घंटों और सात दिनों के भीतर घटता है। अखंड समय की सत्ता को मनुष्य ने जीवन को सुविधाजनक बनाने के लिए विभाजित किया है। मनुष्य के पास यही सरलतम उपाय था। लेकिन इन्हीं क्षणों में कभी-कभी ऐसा घट जाता है जो हमारी स्मृति के भीतर पाल्थी मारकर बैठ जाता है। ऐसा भी होता है जब कभी कुछ अमृत्व पूर्ण घट जाता है जो भावी पीढ़ियों का युगों तक दिग्दर्शन करता और प्रेरणा देता रहता है। एक रसवंती साँझ आज भी हमारी स्मृति में ताजा है। और इस जीवनकाल में यह ताजा ही बनी रहे, यही प्रार्थना ईश्वर से की जा सकती है। अगर यह संभव हो तो, इसी स्मृति को अगले जीवन में भी फॉरवर्ड करना चाहूँगा। यों तो यह साँझ भी एक सामान्य साँझ थी। शहर भी सामान्य गति से चल रहा था, अगर कुछ विशेष था तो वह था साहित्य प्रेमियों का उत्साह। उस साँझ हमारे समकाल में किंवदंती बन चुके कविवर नीरज को सुनने की उत्कंठा, शहर के काव्य प्रेमियों के मानस को पुलकित कर रही थी। ऐसा भी न था कि वे पहली बार इंदौर आए हैं। काव्य पाठ के आरंभ के समय उन्होंने इंदौर में आयोजित अनेक कवि सम्मेलनों के संदर्भ भी सुनाए। उनकी पूर्व यात्राओं के अनेक संस्मरण वरिष्ठजन से पूर्व में भी अकसर सुनता आ रहा था। लोग उन्हें होटल में लेने गए तो उन्होंने कहा कि अभी उस घोड़े पर सवारी ही नहीं की हैं, जिस पर चढ़कर मंच तक जाता हूँ। उनका इशारा शराब की तरफ था।

उस साँझ गीतों के राजकुमार गोपालदास नीरज श्रोताओं की माँग पर काव्य पाठ करने वाले थे। संयोग से मंच संचालन का दायित्व मुझे ही निभाना था। आयोजकों ने मंच बनाया था। उसके सामने गणमान्य काव्य रसिकों के बैठने के लिए कुर्सियाँ लगवाईं। कुर्सियों के साथ दरियाँ भी बिछवा दी गईं। आयोजकों का अनुमान था कि इतने ही श्रोता आने वाले हैं। अनुमान के अनुरूप व्यवस्था थी। सोचा गया था कि व्हील चेयर पर सवार और बूढ़े हो चले कवि गोपालदास नीरज को सुनने के लिए आखिर इस भागमभाग भरी जिंदगी में कितने लोग समय निकाल सकेंगे? साहित्यिक आयोजनों के कार्यकर्ताओं की आज-कल पहली चिंता और आशंका यही होती है कि आयोजन स्थल पर कितने दर्शक, श्रोता और आएँगे? यह कुशंका लगभग हर कस्बे और महानगर में समान रूप से व्याप्त हो रही है। समय की सभी कठिनाइयों और कुशंकाओं को धता बताते हुए उस साँझ इतने कविता प्रेमी आ गए कि बनाई गई सभी व्यवस्थाएँ कम पड़ गई। कुर्सियाँ भर गई। दरियों पर लोग बैठे और दरियों के बाद नंगी जमीन पर धूल में श्रोता जमे थे। धूल उड़ रही थी और इससे बेपरवाह श्रोता बूढ़े कवि नीरज की जवान हो रहे काव्य पाठ सुन रहे थे। उनके चेहरे पर उपस्थित आनंद मानो कह रहा था कि ऐसी ही कविता के आनंद को ब्रह्मानन्द सहोदर कहा गया है। गीत की माँग आती और नीरज उसे सुनाते। उन्होंने बताया कि ईश्वर की कृपा से उन्हें, उनका रचा हुआ साहित्य पूरी तरह कंठस्थ है।

नीरज की कविता की सबसे बड़ी शक्ति उसका हिंदुस्तानी भाषा में होना है। उर्दू और फारसी, संस्कृत और हिंदी के मिले हुए शब्द कविता की संप्रेषणीयता को बढ़ा देते हैं। सर्जना जब तक संप्रेषित न होगी तब तक उसके सृजन का कोई अर्थ नहीं है। आज के कवियों को भी इस पर विचार करना चाहिए। कहानियों में भाषा का जो आस्वाद प्रेमचंद के यहाँ मिलता है, कविता में वही आस्वाद नीरज के यहाँ मौजूद है।

‘यही अपराध मैं, हर बार करता हूँ
आदमी हूँ, आदमी को प्यार करता हूँ।’

यहाँ नीरज ने अपराध, प्यार सब संस्कृत निष्ठ शब्दावली का प्रयोग किया है और दूसरी ओर आदमी शब्द का उपयोग है, मनुष्य, का नहीं। कविता की संप्रेषणीयता का सबसे सहज स्वरूप आधुनिक हिंदी कविता में नीरज के यहाँ मिलता है। नीरज की कविताई पढ़कर और सुनकर लगता है कि सर्जना में सहज बने रहना वास्तव में बहुत कठिन काम है। नीरज सहज हैं, संप्रेषणीय हैं। वे व्यापक समाज के प्रवक्ता हैं। यही विशेषता है जो उन्हें हिंदी और उर्दू दोनों के मंचों पर समान रूप से आदर देती है। वे शायद हिंदी के विरल कवि हैं जिन्हें उर्दू के लोग भी हिंदी के साहित्य प्रेमियों की भाँति ही प्यार देते हैं।

नीरज जैसी प्रतिभा किसी भी भाषा में सदियों में पैदा होती होगी, जिनके गीत आम और खास सभी की जबान पर चढ़ गए। 19वीं सदी की सबसे प्रखर मेधा, दार्शनिक, तर्कशास्त्री, आचार्य रजनीश ने नीरज के गीतों का उपयोग अपने प्रवचनों में किया। तो रिक्शे वाले ने भी उन्हें अपनी तरह गुनगुनाया। जब वे एक कविता में कहते हैं कि ‘जितना कम सामान रहेगा/सफर उतना आसान रहेगा’–एक सीधा और साफ संदेश है कि जीवन को उत्सवी बनाने के लिए बहुत सामान जुटाने की जरूरत नहीं है। जितनी बनावटी वस्तुएँ जुटाई जाएँगी, जीवन यात्रा उतनी ही बोझिल होती जाएगी। दोहा, गजल, गीत मुक्तक आदि काव्य रूपों में उन्होंने भरपूर सुनाया। जो सुनाया वह सुनने वालों के कंठ में बैठ गया। उनकी शैली विरल और मौलिक है। चंचल सलिला की भाँति उनकी कविता में भी एक लय है जो श्रोता के मानस में जल तरंग की भाँति गूँजता रहता है।

उस साँझ को आज भी याद करता हूँ, एक जन सैलाब नीरज को सुनने के लिए उमड़ा था। लगभग 92 वर्ष के नीरज की कविताई के रसिक श्रोता लगभग सभी उम्र ग्रुप के थे। इनमें स्त्रियाँ भी थीं और पुरूष भी। युवक और युवतियाँ भी। आज के वे युवक भी थे जिनके ऊपर यह आरोप चस्पा है कि ये साँझ वे हिंदी नहीं जानते, इस कारण पूरी पीढ़ी ही कविता और साहित्य से कट गई है। पर उस साँझ ऐसा नहीं लगा। नीरज को सुनने वालों में शिक्षित, अशिक्षित, श्रमजीवी और विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले सभी थे। नीरज की कविता की रेंज में ये सभी आते हैं। तुलसीदास को पढ़ने वालों में हर वर्ग शामिल है। उस दिन अपने उद्बोधन में नीरज बोले कि मुझे सुनने के लिए श्रोता पाँच सौ रुपये का टिकट खरीद लेते हैं मगर सौ रुपये की मेरी पुस्तक नहीं, खरीदते। इस परिदृश्य पर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए। इसके कई कोण हैं। क्या हम एक ऐसे समय में प्रवेश कर गए हैं, जहाँ लिखे हुए शब्द को पढ़ने वाले कम से कम होते जा रहे हैं? और क्या यह पूरा समय केवल सुनने में ही विश्वास करने लगा है? अगर ऐसा है तो नीरज की तरह लोग उन्हें भी सुनें जो अकादमिक कविता लिखते हैं। क्या अकादमिक कही जाने वाली कविता जनता के लिए नहीं है? क्या कविता का कठिन, दुखद और अप्रत्यक्ष होना आवश्यक गुण है? कवि से सीधे कविता सुनना और लिखी हुई कविता को बाँचना दो अलग-अलग अनुभव देते हैं। इसका अर्थ हुआ कि कविता दोनों ही स्तरों पर संप्रेषणीय होनी ही चाहिए। नीरज के पास कविता सुनाने की शैली बहुत मार्मिक थी। उनका अंदाज केवल उनका ही था। क्या इसी शक्ति के सहारे ही वे प्रसिद्धि के शिखर पर रहे? नहीं, हर कवि की अपनी शैली और सुनाने का अपना अंदाज होता है, होना भी चाहिए। इसके लिए कवियों को श्रम करना भी चाहिए। हर कला जन्मजात नहीं मिलती। परिश्रम से भी अर्जन की जा सकती है।

प्रेमचंद कहानी की शैली के कारण ही अमर नहीं हुए। नीरज के साथ भी यही स्थिति है। साहित्य का आकाश तो सबके लिए खुला है। जो चाहे अपनी नई शैली का आविष्कार कर ले। मगर अब तक जो लोग भी सफलता के शिखर पर गए थे, सब अपनी समस्त विशेषताओं के कारण ही वहाँ पहुँचे। और आज भी इन्हीं विशेषताओं के कारण ही प्रसिद्धि के शिखर पर विद्यमान हैं। नए ढंग से सर्जना करना, प्रस्तुत करना आदि की आजादी तो सबके लिए है। पंख तो हैं, मगर उड़ान भरना ही नहीं आता, तो इसमें किसको दोष दिया जाए।

उस दिन नीरज ने अनेक तरह के गीत सुनाए। उनमें एक गजल भी सुनाई, जिसका उन्मान था। ‘हम तो बदनाम हुए जमाने में/तुम्हें लग जाएँगी सदियाँ हमें भुलाने में।’ इनमें भुलाना पीड़ा देता है। भुलाना क्यों? नीरज का दर्द इसमें शामिल है। उन्हें उनके जीवन काल में भुला देने की कोशिशें की गई हैं। भुलाने के लिए ही बदनाम किया गया। बदनाम शराब पीने को लेकर और औरत को लेकर भी। हालाँकि ये बात, वे जानते थे और उस रात्रि उन्होंने कहा कि मैं 60-65 वर्षों से मंच पर हूँ, इसलिए लोग मुझे बदनाम करते हैं। अब एक कलाकार के मूल्यांकन के लिए यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि वह शराब पीता है या चंदन लगाता है। मूल्यांकन उसकी सर्जना का होना चाहिए। उन शब्दों को देखिए, परखिए जो उसने लिखे हैं। पर, नीरज की पीड़ा को समझिए, उन्हें शाजिशन हिकारत के साथ मंचीय कवि घोषित किया गया। और इसका प्रस्तुतीकरण इतने षड़यंत्रों के साथ किया गया कि मानो मंच को बहुत बदनाम जगह और मंच पर काव्य पाठ कोई महत्वपूर्ण बात न होकर दयनीयता और बिचारेपन का प्रतीक है। मंच वह पवित्र स्थान हैं जहाँ से प्रसारित विचार तत्काल जनता के बीच सक्रिय हो जाते हैं।

निराला, महादेवी, पंत, दिनकर, सुमन सब ही तो मंच पर थे लेकिन इनमें से किसी को मंचीय नहीं कहा गया। यह शब्द हरिवंशराय बच्चन पर पहली बार चस्पा किया गया और फिर ‘नीरज’ आदि तक चला आया। भारत में कथा कहने वाला लगभग हर एक ऋषि हैं, संत के पास मंच हैं। मगर उनके सम्मान में कोई कमी नहीं है। मंच तो लगभग हर विचारक के पास है और हर विचारक अपनी बात को लोगों तक पहुँचाने के लिए मंच की तलाश करता है। मनुष्यता के प्रारंभिक दौर से आज तक मंच की महिमा है। विगत सदी में विश्वविख्यात दार्शनिक और तर्कशास्त्री आचार्य रजनीश मंच की सार्थकता को प्रमाणित करते हैं। मंचों की सार्थकता विचारों को जनता तक पहुँचाने में रही है। नीरज भी पूरी ठसक और सार्थकता के साथ मंच पर थे। उनकी ख्याति और जनप्रियता बहुत व्यापक हो चुकी थी। वे एक ऐसे समय में प्रसिद्धि के शिखर पर थे, जब हिंदी में जनवाद का प्रभाव था। वह भी सत्ता की बदौलत। पंडित जवाहरलाल नेहरू का झुकाव साम्यवाद की ओर था। यह झुकाव अकारण नहीं था। उस समय रूस अपने पूर्ण विकसित रूप में था। नेहरू रूस से प्रभावित थे, लेकिन पंडित नेहरू और मार्क्सवाद के पुरोधा भूल गए कि भारत की स्थिति यूरोप जैसी नहीं है। यह पुरातन सांस्कृतिक विरासत का राष्ट्र है। यहाँ सामाजिक विकास अलग ढंग से हुआ है और तब तक भारत में यूरोप की तरह न तो औद्योगिक क्रांति हुई और न ही हमारा समाज ही कम्यून और सोसाइटी में बदला था। यहाँ सामाजिक स्तर पर अलग-अलग जातियाँ होते हुए भी आंतरिक पारिवारिक नाता बना हुआ था। खेतहर व्यवस्था होने के नाते किसी भी तरह की खूनी क्रांति की न तो कोई संभावना थी और न ही आज है। यह हमारे देश की विशेषता भी है। हमें कोशिश करनी चाहिए कि यह विशेषता अक्षुण्ण बनी रहे। इन विशेषताओं के होते हुए भी समाज भीतर से अवैज्ञानिक तौर से तथाकथित ऊँची और नीची जातियों में बँटा है। इसके अंदर अनेक तरह की विसंगतियाँ और कुरूपताएँ हैं। साहित्य में उन्हें उजागर करने की जरूरत है। यह काम प्रेमचंद ने किया और निराला ने भी, साहित्यिक लोग ये काम निरंतर करते आ रहे हैं। बस, यही तो वह जगह है जहाँ लेखक, सर्जक और पंडा-पुरोहितों के मार्ग अलग-अलग हो जाते हैं। कोई लेखक सड़ी-गली सामाजिक व्यवस्था का समर्थन आँख मूँदकर नहीं करेगा।

जनवाद के नाम से जो अन्य कवि नीरज के समय रचनाकर्म कर रहे थे, वे नीरज की तुलना में बहुत प्रभावहीन थे। इसलिए उन्हें बड़ा बनाने के लिए नीरज और नीरज को साहित्य से बेदखल करने के लिए यह मध्यम मार्ग निकाला गया कि उन्हें ‘मंचीय कवि’ कहकर प्रभावहीन किया जाए। उस समय के किसी आलोचक ने नीरज का नोटिस नहीं लिया। बस, नीरज की ख्याति और उनके गीतों का सर्वसाधारण द्वारा स्वीकार कर लेना नीरज की कमजोरी घोषित किया गया है? यह तो कुछ वैसा ही हुआ जैसे किसी स्त्री की सुंदरता ही उसका सबसे बड़ा शत्रु हो जाए। इन अर्थों में नीरज की जनप्रियता ही उनकी दुश्मन हो गई। कमोवेश ये सब हर युग में होता रहा है। आज वे नहीं हैं मगर उनकी जनप्रियता शिखर पर है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों पर वे ही सबसे अधिक सुने जाते हैं। अब जरा दूसरे कवियों को भी देख लीजिए, जिन्हें संघबद्ध ढंग से बहुत बड़ा बनाया गया और अभी भी बड़े बनाए जा रहे हैं। वास्तव में इनके होने की कोई खबर समाज के पास नहीं है। लोक स्वीकृति के बगैर, भला कोई महान सर्जक कैसे हो सकता है? और देशों में शायद हों, भारत में यह काम असंभव है।

नीरज की कविता की कई परतें हैं। उनका काव्य कर्म बहुत बड़े फलक पर व्याप्त है। उसमें जीवन के सभी रंग हैं। यह बात एक सफल कवि में ही ढूँढ़ी जा सकती है, जिसने जीवन को गाया हो। जीवन कोई पगडंडी वाला संकरा-सा रास्ता नहीं है। उसमें वैविध्य व्याप्त है। यहाँ एक ओर शृंगार है, कहीं दूसरी ओर वीरत्व की भी प्रतीक्षा है। ये सब माँगे अंतत: साहित्य से ही पूरी होती हैं। नीरज के गीत, कविताएँ, गजलें, मुक्तक मनुष्य जीवन के संपूर्ण स्वरूप को पाठक के सामने रखते हैं। दर्शन जैसे नीरस विषय को सरस कविता में गाना सरल काम नहीं है। इसे ‘नीरज’ ने गाया और चिर अनोखे ढंग से गाया। उस साँझ उन्होंने कहा–

‘न जन्म कुछ
न मृत्यु कुछ बस इतनी सी ही बात है
किसी की आँख खुल गई, किसी को नींद आ गई।’

उस साँझ उन्होंने दो गीत बहुत महत्वपूर्ण सुनाए, उनमें एक का उन्मान था कि–‘अब तो कोई मजहब भी ऐसा चलाया जाए।’ सच यही है कि अब तक सारे मजहब मनुष्य को बाँटते हैं। ये अपूर्ण हैं। पूरा मजहब वही है जो पूर्ण मनुष्य का निर्माण करे। साहित्य का एक काम सृष्टा की बनायी व्यवस्था की असहमति प्रकट कर एक नई व्यवस्था का प्रारूप बनाना है। यही बात है जो सर्जना कर्म को निरंतरता देता है। इन्हीं अर्थों में कवि को सृष्टा कहा गया है। नीरज अपनी काव्य यात्रा में एक समतामूलक समाज के लिए निरंतर चिंतित दिखाई पड़ते हैं।

नीरज ने दूसरा महत्वपूर्ण गीत सुनाया ‘आग गंगा में भी है/झेलम में भी, कोई बताए कहाँ जाकर नहाया जाए।’ मन्तव्य बहुत साफ था कि वैमनष्यता, आतंकवाद भारत में भी है और पाकिस्तान में भी। सवाल यह है कि ऐसी विषम स्थिति में आखिर कहाँ रहा जाए। ये वे कठिन सवाल हैं जिनके उत्तर मनुष्यता को तलाशने हैं। नीरज की मेधा इन प्रश्नों से टकरा रही थी। कोई कवि केवल मनोरंजन वाली कविताओं से बड़ा नहीं बनता। बड़ा कवि वह होता है जो अपने समकाल के बड़े सवालों से टकराता है और प्रश्नोत्तर ढूँढ़ने की कोशिश करता है। नीरज के गीत सवालों से टकराते भी हैं और मनुष्य को भीतर से पिघलाते भी हैं। पिघलाकर एक नए मनुष्य का निर्माण भी करते हैं। वे अपने गीतों की लय में निरंतर जीवित रहने वाले कवि हैं और हमेशा रहेंगे। वे कालजयी सर्जक हैं, उनकी पावन स्मृति को कृतज्ञता पूर्ण प्रणाम।


Image : In the Outskirt of the City
Image Source : WikiArt
Artist : Laszlo Mednyanszky
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