अपने आराध्य की जन्मभूमि के दर्शन

अपने आराध्य की जन्मभूमि के दर्शन

जयप्रकाश शताब्दी वर्ष चल रहा था। कभी जयप्रकाश के सहयोगी रहे सुख्यात गाँधीवादी डॉ. रामजी सिंह की पहल पर पटना के कदमकुआँ में एक विचार गोष्ठी आयोजित थी। उस गोष्ठी में आचार्य राममूर्ति समेत कई अन्य लोग उपस्थित थे। मुझे उस वक्ता का नाम तो ठीक से स्मरण नहीं, लेकिन किसी ने अपने संबोधन के क्रम में यह कहा था कि लोकनायक जयप्रकाश (जे.पी.) के व्यक्तित्व-निर्माण में उनकी जन्मभूमि सिताब दियारा का बहुत बड़ा योगदान रहा है। अपने संबोधन में उन्होंने कहा था कि जयप्रकाश को छठे वर्ग तक की शिक्षा अपने गाँव सिताब दियारा (सारण) में मिली थी। उन दिनों उनके गाँव में प्रत्येक वर्ष बाढ़ आती थी। सब कुछ बरबाद हो जाता था। किंतु वहाँ के लोग पुनः सब कुछ सँवार लेते थे। उनमें संघर्ष से जूझते रहने और आत्मविश्वास की जो भावना थी, उसने जयप्रकाश के हृदय में कभी नैराश्य नहीं आने दिया। उनके जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहे। लेकिन बचपन के उस अवदान के सहारे वे देश की जनता के लिए, उसकी बेहतरी के लिए नई राह का अनुसंधान करते रहे। उस वक्ता की यह बात मेरे अंतर्मन को छू गई थी और उसी क्षण मैंने यह तय कर लिया था कि किसी दिन समय निकालकर अपने आराध्य जयप्रकाश की जन्मभूमि का दर्शन जरूर करूँगा। कई मर्तबे वहाँ जाने का प्रोग्राम भी बना, लेकिन किसी न किसी कारणवश वह टलता रहा। इसी क्रम में लगभग बाइस वर्ष गुजर गए। यह बात मुझे हरदम कचोटती रहती थी।

भोजपुरी भाषा और संस्कृति के सरंक्षण के लिए प्रयासरत जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर पृथ्वीराज सिंह से मेरा पुराना परिचय रहा है। एक दिन फोन पर उन्होंने जानकारी दी कि जयप्रकाश की जन्मभूमि सिताब दियारा में 15-16 अप्रैल, 2023 को उन्होंने ‘भोजपुरी समागम’ का आयोजन किया है और उसमें भोजपुरी कला पर विचार गोष्ठी भी होगी। वे उस गोष्ठी में वक्ता के तौर पर मेरी उपस्थिति चाह रहे थे। जयप्रकाश की जन्मभूमि के दर्शन की वर्षों पुरानी मेरी इच्छा बलवती हो उठी और मैंने ‘हाँ’ कहने में तनिक भर भी देरी नहीं की। उस गोष्ठी में पटना से कला लेखक सुमन कुमार सिंह और वरिष्ठ फोटोग्राफर शैलेन्द्र कुमार को भी आमंत्रित किया गया था। उनसे बात हुई। फिर तय हुआ कि हम सब एक साथ चलेंगे।

नियत तारीख यानी 15 अप्रैल, 2023 को सुबह 08 बजे अपनी गाड़ी में बैठकर हमलोग पटना से निकल पड़े। जयप्रकाश की जन्मभूमि जाने की इच्छा कितने सालों बाद आज पूर्ण हो रही है, यह महसूस कर ही मेरा मन रोमांचित था। शुरुआत में इधर-उधर का गपशप और हँसी-मजाक होता रहा। फिर जयप्रकाश आंदोलन पर चर्चा चल पड़ी। छात्र आंदोलन के किस्से और संस्मरण खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। अगर गाड़ी जाम के वजह से रुक न गई होती तो शायद कुछ देर तक और हमलोग संस्मरणों में खोये रहते। डेढ़ घंटे की यात्रा संपन्न हो चुकी थी और हमलोग छपरा से पहले डोरीगंज के समीप थे। दोनों तरफ बालू से लदे ट्रकों एवं ट्रैक्टरों की बेतरतीब पार्किंग के चलते सामने लंबा जाम लगा हुआ था। हमारी गाड़ी धीरे-धीरे रेंगती रही। करीब आधे घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद उस जाम से मुक्ति मिली। छपरा शहर होते हुए हम माँझी घाट पहुँच चुके थे।

माँझी घाट से दूसरी तरफ माँझी रेल पुल दिखाई पड़ रहा था। उसे देखकर मुझे सहसा साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह का स्मरण हो आया। बताते चलें कि केदारनाथ सिंह का जन्म माँझी पुल से कुछ दूरी पर अवस्थित बलिया (उत्तर प्रदेश) जिले के चकिया गाँव में हुआ था। पटना से उनका गहरा लगाव था। उनका प्रेम और स्नेह मुझे भी बराबर मिलता रहा था। वे जब कभी भी पटना आते थे, मेरे घर पर ही ठहरना पसंद करते थे। कभी-कभार वे शाम की बैठकी में अपने श्रुति-मधुर स्वर में अपनी पसंदीदा कविताओं का पाठ भी करते थे। उन्होंने एक बार माँझी पुल पर लिखी अपनी चर्चित कविता की कुछ पंक्तियाँ भी मुझे सुनायी थी, जो कुछ इस प्रकार हैं–

‘वह कब बना था
कोई नहीं जानता
किसने बनाया था माँझी का पुल
यह सवाल मेरी बस्ती के लोगों को
अब भी परेशान करता है
‘तुम्हारे जन्म से पहले’
–कहती थीं दादी
‘जब दिन में रात हुई थी
उससे भी पहले’–
कहता है गाँव का बूढ़ा चौकीदार।’

माँझी घाट से कुछ दूर आगे बढ़ने पर एक बोर्ड देखकर यह समझ में आया कि सिताब दियारा अब केवल बारह किलोमीटर दूर है, चाँद दियर से गाड़ी बायें घूम गई। अब हम खुले खेतों के प्रदेश में आ गए थे। चंद मिनटों के बाद हमारी गाड़ी एक आलीशान बिल्डिंग के पोर्टिको में जाकर रुक गई। उस पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा हुआ था–लोकनायक स्मृति भवन-सह-पुस्तकालय। समीप में ही एक शिलापट्ट लगा हुआ था, जिससे यह पता चल रहा था कि इस भवन का उद्घाटन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किया था।

भोजपुरी समागम के संयोजक प्रो. पृथ्वीराज सिंह पोर्टिको के पास ही अपने सहयोगियों के साथ खड़ा थे। बड़े ही प्रेम और अपनत्व से उन्होंने हमारा स्वागत किया। तत्पश्चात सुमन सिंह दिल्ली से वहाँ पधारे अरविन्द ओझा और उनकी सहयोगी साधना राणा से मेरा परिचय कराते हैं। पता चला कि श्री ओझा लोकनायक जयप्रकाश राष्ट्रीय कला एवं संस्कृति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के महासचिव हैं और साधना राणा प्रबंध सचिव। पोर्टिको से चंद कदमों की दूरी पर एक दूसरी बिल्डिंग दिखाई पड़ रही थी। सबको नमस्कार करने के बाद मेरे कदम स्वतः उस ओर बढ़ गए। उस भवन के परिसर में लोकनायक जयप्रकाश की आदमकद प्रतिमा लगी हुई थी। प्रतिमा के निकट पहुँचकर प्रणाम किया और फिर वहाँ से चारों ओर नजर घुमाई। थोड़ी दूर पर बाँध दिखाई पड़ रहा था। पता चला कि कभी उस बाँध के आगे सिताब दियारा बसा हुआ था। वहीं पर सरयू और गंगा का संगम है। गंगा और सरयू में प्रत्येक वर्ष आने वाली बाढ़ में धीरे-धीरे सिताब दियारा विलीन होता गया। तब जयप्रकाश के परिजन यहाँ आकर बस गए थे। यह भी जानकारी मिली कि यह स्थल बिहार की सीमा का आखिरी छोर है और यहाँ के बाद उत्तर प्रदेश का बलिया जिला प्रारंभ हो जाता है।

उस स्थल के समीप ही कई लोग गपशप में मशगूल थे। उनमें से एक व्यक्ति का चेहरा मुझे जाना-पहचाना लग रहा था। मैं उन्हें पहचानने की कोशिश कर रहा था, तभी उनकी नजर मुझसे टकरायी। उन्होंने मुझे पहचान लिया था। वे लपककर मेरे पास पहुँचे और अभिवादन करते हुए पूछा–‘सर, मुझे पहचाना? मैं पर्यटन विभाग, पटना में कार्यरत राहुल कुमार सिंह हूँ और मेला-प्रदर्शनियों में आपसे अक्सर मुलाकात होती रहती है।’ तब तक मैं भी उन्हें पहचान चुका था। मुझे लगा कि शायद मेरी तरह वे भी भोजपुरी समागम में शामिल होने के लिए यहाँ पहुँचे हैं। लेकिन उन्होंने बताया कि वे सिताब दियारा के बाइस टोलों में से एक छोटका बैजु टोला के निवासी हैं। बाइस टोला का नाम सुनकर मुझे जे.पी. के निकटतम सहयोगी और हिंदी के शैलीकार रामवृक्ष बेनीपुरी के एक संस्मरणात्मक लेख की याद आ गई, जिसमें उन्होंने लिखा था–दो नदियों के संगम पर बसा, दो प्रांतों के झूले पर झूलता यह सिताब दियारा गाँव एक छोटा-मोटा कस्बा ही है। बाइस टोले हैं इसके और जनसंख्या बाइस हजार से कम नहीं। बिहार की सभी प्रमुख जातियाँ यहाँ आकार बसी हैं और प्रायः अलग-अलग इनके टोले हैं। बेनीपुरी जी ने आज से लगभग सत्तर-अस्सी वर्ष पूर्व इस क्षेत्र को देखा था। आज स्थिति और भी बदल गई है। टोलों की संख्या बाइस से बढ़कर सताइस हो गई है।

राहुल सिंह कहने लगे कि कायस्थों का एक अलग टोला है–लाला टोला। जयप्रकाश उसी टोले के निवासी थे। मैं राहुल सिंह से सिताब दियारा का इतिहास जानने की कोशिश करता हूँ। प्रत्युत्तर में राहुल सिंह कहने लगे कि सिताब दियारा से गंगा उत्तर प्रदेश से बिहार में प्रवेश करती है। यहाँ से गंगा बिहार होते हुए बंगाल की भूमि से जा मिलती है। सिताब दियारा से कटिहार के पूर्वी छोर तक गंगा की धारा बदलने से जहाँ-तहाँ कुछ जमीन छूट गई है, वैसे क्षेत्र को दियारा कहा जाता है। सिताब दियारा का अपना खास इतिहास है। हमारे इलाके के बड़े-बूढ़े बताते हैं कि इस क्षेत्र में कोई सिताब राय नाम के दबंग व्यक्ति थे, उन्हीं के नाम पर इस क्षेत्र का नाम सिताब दियारा पड़ा। मुसलमानों के राज में वे अंतिम हिंदू सूबेदार थे। वे बड़े चलता-पुर्जा, पढ़े-लिखे तथा समय के अनुकूल चलने वाले व्यक्ति थे। अँग्रेज जब यहाँ आए, तो उन्होंने अँग्रेजों के प्रति अपने को समर्पित कर दिया और पूरी भक्ति से अँग्रेजों का साथ देने लगे। अँग्रेज भी उनसे बड़े प्रसन्न रहते थे। फलतः इस पूरे क्षेत्र का नाम उनके नाम पर सिताब दियारा पड़ गया। तभी किसी ने बताया कि जयप्रकाश स्मृति भवन के अंदर एक हॉल में गोष्ठी प्रारंभ हो गई है और स्थानीय सांसद जनार्दन सिंह सिग्रीवाल, राज्य के पूर्व कृषि मंत्री सुधाकर सिंह समेत अन्य लोगों का व्याख्यान चल रहा है। हम उस हॉल में प्रवेश कर गए। वह एक बड़ा सा हॉल था और उसमें सौ की संख्या में बैठे लोग तन्मयता से वक्ताओं के विचार सुन रहे थे। भोजपुर क्षेत्र के किसानों की समस्याओं पर मत-मतांतर हो रहा था। करीब आधे घंटे तक हमलोग उन्हें सुनते रहे। फिर वह सत्र समाप्त हो गया और मंच से यह घोषणा हुई कि निकट के एक हॉल में सभी के लिए दोपहर के भोजन की व्यवस्था है। दोपहर के 2 बज रहे थे और हमें भी भूख लग चुकी थी। हॉल में भोजन के लिए लंबी कतार थी। हम भी उस कतार में खड़ा हो गए। चावल, दाल, सब्जी, भुजिया, पापड़ और अचार। भोजन सुस्वादु था। खाकर मन और तन दोनों तृप्त हो उठा। आयोजक पृथ्वीराज सिंह ने बताया कि भोजन के बाद डेढ़-दो घंटे तक दूसरा सत्र चलेगा और उसके बाद संध्या 5 बजे से भोजपुरी कला पर हमारा सत्र आरंभ होगा। तत्क्षण मन में यह विचार पनपा कि क्यों न दो घंटे के इस खाली समय का सदुपयोग जयप्रकाश के चरण-रज से पवित्र हुए स्थलों का दर्शन करने में किया जाए। सुमन सिंह, अरविन्द ओझा, शैलेन्द्र कुमार और साधना राणा से जब मैंने इसकी चर्चा की तो वे भी सहर्ष तैयार हो गए। राहुल सिंह तो गाईड की भूमिका में थे ही।

भ्रमण की शुरुआत लोकनायक स्मृति भवन से हुई। स्मृति भवन में कई कमरे हैं। सबसे पहले जिस कमरे में हमलोगों ने प्रवेश किया, उसमें जयप्रकाश के जन्म से लेकर महाप्रयाण तक के फोटोग्राफ्स प्रदर्शित हैं। उनमें डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, लोहिया, जगजीवन राम, सीमांत गाँधी, चन्द्रशेखर, कर्पूरी ठाकुर, विनोबा भावे और शेख मुजीर्बुर रहमान इत्यादि नेताओं के संग विभिन्न अवसरों पर खींचें गए फोटोग्राफ्स हैं, दूसरे में जयप्रकाश के जीवन की प्रमुख घटनाएँ पेंटिंग, फोटोग्राफ्स, विभिन्न नेताओं के साथ हुए पत्राचार, उस अवधि के अखबारों के कतरन इत्यादि को सलीके से प्रदर्शित किया गया है। मैं रुक-रुककर सभी को ध्यान से देखता और पढ़ता रहा। फिर उस कमरे से निकलकर पुस्तकालय की ओर बढ़ चला।

पुस्तकालय बड़ा था। तीन-चार आलमीरे में रखी हुई पुस्तकों को उलट-पुलट कर देखता रहा। अधिकांश पुस्तकें जयप्रकाश, गाँधी, समाजवाद, सर्वोदय पर केंद्रित थी। पुस्तकालय में पुस्तकों की संख्या मुझे कम लगी। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के बाद अगर किसी महामानव को सबसे ज्यादा साहित्य अर्पित किया गया है, तो वे जयप्रकाश हैं। रामवृक्ष बेनीपुरी, नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु, रामधारी सिंह दिनकर, गोपी वल्लभ सहाय समेत सैकड़ों कवि-साहित्यकारों ने अपनी-अपनी रचनाओं द्वारा लोकनायक जयप्रकाश की अभ्यर्थना की है। मैंने भी ‘लोकनायक जयप्रकाश’ शीर्षक से उनकी जीवनी लिखकर अपनी लेखनी के अर्ध्य उन पर चढ़ाए हैं। लेकिन इनमें से कई महत्वपूर्ण पुस्तकों की कमी मुझे खली। स्मृति भवन-सह-पुस्तकालय की देख-रेख करने वाले जे.पी. ट्रस्ट को इस ओर ध्यान देने की जरूरत है।

स्मृति भवन-सह-पुस्तकालय से निकलकर हमलोग जयप्रकाश राष्ट्रीय स्मारक की तरफ बढ़ चले। स्मारक के ठीक पीछे है जयप्रभा स्मृति भवन। जयप्रकाश का पुराना मकान, जिसमें रहकर उन्होंने छठे वर्ग तक की शिक्षा ग्रहण की थी। ईंट मिट्टी का पुराना मकान। मिट्टी की दीवारें, खपरैल छप्पर, फूल-पत्ते कढ़े दरवाजे, खिड़कियाँ, रोशनदान, नीचे की जमीन–सब वहीं की वहीं, लगा मानो यहाँ किसी मुलम्मे की जरूरत नहीं। अंदर की ओर प्रवेश करता हूँ। एक सुकून भरा एहसास हो रहा है, समय जैसे ठहर गया हो। प्रत्येक कमरे के बाहर नामों की तख्तियाँ लगी हुई है। बैठक कक्ष, रसोई घर, विश्राम कक्ष, अतिथि कक्ष इत्यादि। उनमें जयप्रकाश द्वारा उपयोग की गई चीजें जस की तस रखी हुई हैं। दही मथनी, सब्जी काटने का चाकू, गेहूँ के डंटल से बना डगरा, मौनी, कुर्सियाँ, पलंग के अलावा और भी बहुत कुछ। उन्हें देखते हुए मैं उन सारी स्थितियों-परिस्थितियों की कल्पना करता रहा, जिनके साये में वे पले और बढ़े होंगे।

लगभग आधे घंटे तक उनके पैतृक मकान का अवलोकन करने के बाद हमलोग गाड़ी में बैठकर जयप्रकाश नगर के लिए निकल पड़े। राहुल सिंह ने हमें पहले ही यह जानकारी दे दी थी कि सिताब दियारा से जयप्रकाश नगर की दूरी सिर्फ तीन किलोमीटर है, लेकिन वह उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में पड़ता है। राहुल सिंह ने यह भी बताया था कि जयप्रकाश के पूर्वजों की वहाँ सौ बीघा जमीन थी। उसमें से नौ बीघा जमीन पर जयप्रकाश ने अपने लिए मकान बनवाया था, शेष जमीन उन्होंने भूमिहीनों को दान कर दी थी। तब से वह स्थल जयप्रकाश नगर के रूप में विख्यात हो गया है। जयप्रकाश के निधन के बाद पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर द्वारा गठित जयप्रकाश नगर स्मारक प्रतिष्ठान के सौजन्य से उनकी स्मृति में अनगिनत निर्माण कार्य हो चुके हैं। निर्माण कार्य में कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े, भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार का भी सहयोग रहा है। जयप्रकाश नगर उनके अनुयायियों के लिए अब तीर्थस्थल बन चुका है और उनके जन्म दिवस एवं निर्वाण दिवस पर बड़ी संख्या में लोग वहाँ श्रद्धा-सुमन अर्पित करने आते हैं।

रास्ते में एक मैदान दिखाई पड़ा। राहुल सिंह बताने लगे कि यह चैन छपरा का क्रांति मैदान है। वर्ष 1977 में जयप्रकाश ने यहाँ एक महती जनसभा को संबोधित किया था। उस समय उनके साथ मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर और रामसुन्दर दास का भी आगमन हुआ था। तब जयप्रकाश को देखने-सुनने के लिए यहाँ लाखों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। सिताब दियारा में यह उनका अंतिम भाषण था। चंद मिनटों की यात्रा के बाद एक तिकोन मिला, जहाँ से हमारी गाड़ी दायीं तरफ मुड़ गई। राहुल सिंह ने बताया कि यह तिकोन तीन जिलों का मिलन-स्थल है। बायीं तरफ भोजपुर, दायीं तरफ छपरा और पश्चिम में उत्तर प्रदेश का बलिया जिला है। इस क्षेत्र के कुछ बड़े जोतदारों का एक-एक प्लॉट तीन जिलों में विभक्त हैं और उनकी मालगुजारी जमा करने के लिए उन्हें संबंधित जिलों का चक्कर लगाना पड़ता है। मैं वहाँ से चारों ओर नजर घुमाकर प्रकृति-सौंदर्य का आस्वादन करने लगा। हर जगह प्रकृति का सौंदर्य बिखरा हुआ। खुले खेतों का प्रदेश। बायीं तरफ थोड़ी दूर पर कलकल बहती सरयू और गंगा, ऊपर नीला स्वच्छ गगन, उस पर तरह-तरह के चित्र को रेखांकित करने वाले धवल कांति युक्त बादल। मन रोमांचित हो उठा।

अब हमारी गाड़ी जयप्रकाश नगर में प्रवेश कर चुकी है। विस्तृत भू-भाग उस नगर में नीम, पीपल, आम, अशोक एवं कदम इत्यादि के वृक्ष और जगह-जगह बने मकान तथा उनकी खिड़कियाँ दूर से ही दिखाई पड़ रही है। दाहिनी तरफ एक हवेलीनुमा मकान था। पता चला कि यह मकान धनबाद के चर्चित कोयला माफिया रहे सत्यदेव सिंह का है। याद आया कि कभी कोयलांचल में सत्यदेव सिंह की तूती बोलती थी। भारत सरकार के खादी एवं ग्रामोद्योग परिसर के बाद दाहिनी तरफ जयप्रकाश स्मारक परिसर का मुख्य द्वार है। अंदर प्रवेश करने के बाद बायीं तरफ मकानों की शृंखला प्रारंभ हो गई। उन पर बोर्ड भी टँगे हुए हैं। प्रभावती पुस्तकालय, गर्ल्स डिग्री कॉलेज, आचार्य नरेन्द्र देव बाल विद्या मंदिर, प्रभावती देवी इंटर कॉलेज, गेस्ट हाउस इत्यादि का अवलोकन करते हुए हम आगे बढ़ते रहे। सामने था लोकनायक जयप्रकाश नारायण का मकान। ईंट-सीमेंट से बना खपरैल छप्पर वाला मकान। चारों तरफ सादगी और स्वच्छता। मन नमित हो उठा। गाड़ी से उतरकर अंदर की ओर प्रवेश करता हूँ। बरामदे में कुछ बेंच, टेबल और कुर्सियाँ सजी हुई हैं। मेरे कदम स्वतः अंदर की ओर बढ़ गए। एक बड़ा-सा आँगन और उसकी चारों तरफ छोटे-छोटे कमरे। चन्द्रशेखर कक्ष, भोजनालय कक्ष, स्नेहमयी कक्ष, अतिथि कक्ष और जयप्रकाश कक्ष। मैं ठिठक-ठिठक कर देखता रहा। जयप्रकाश कक्ष के सामने बरामदे में एक पुराना ड्रेसिंग टेबुल रखा हुआ था। उस पर की गई नक्काशी बरबस ही ध्यान आकृष्ट कर रही थी। फिर जयप्रकाश के कमरे में प्रवेश करता हूँ। छोटा सा कमरा है। उस कमरे में दो अलग-अलग पलंग। दीवार की खुँटी पर एक बंडी टँगी हुई है, जो कभी जयप्रकाश पहनते होंगे। एक छोटे से कमरे में पति-पत्नी के लिए दो अलग-अलग पलंग! दोनों एक ही कमरे में सोते थे, परंतु अलग-अलग पलंग पर। मुझे जयप्रकाश और प्रभावती के जीवन काल की वर्षों पुरानी घटना याद आ गई। जब मैं जयप्रकाश की जीवनी लिख रहा था, तभी मुझे उस घटना की जानकारी हुई थी। जयप्रकाश को पूर्ण रूप से समझने के लिए उस घटना को जानना-समझना आवश्यक है। वह घटना कुछ इस प्रकार थी–

जयप्रकाश और प्रभावती की शादी बहुत कम ही उम्र में हो गई थी। शादी के कुछ महीने बाद ही जयप्रकाश उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका चले गए और प्रभावती गाँधी के साबरमती आश्रम में। जयप्रकाश का व्यक्तित्व-निर्माण अमेरिका में हो रहा था, वहीं प्रभावती का चरित्र-निर्माण गाँधी जी की छत्रछाया में। गाँधी जी के प्रभाव में आकर प्रभावती ने ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा ले ली थी। जयप्रकाश उससे अनजान थे। जयप्रकाश जब अमेरिका से 1929 में वापस लौटे, सिताब दियारा में बहुत बड़ा जलसा आयोजित हुआ। उस समय प्रभावती गाँधी जी के साथ उतर प्रदेश के दौरे पर थीं। गाँधी जी ने प्रभावती को सिताब दियारा भेज दिया। लगभग एक माह तक सिताब दियारा में रहने के बाद जे.पी. और प्रभावती गाँधी से मिलने वर्धा पहुँचे। गाँधी जी से जयप्रकाश की यह पहली मुलाकात थी। वर्धा में कस्तूरबा और गाँधी ने जयप्रकाश के स्वागत की व्यापक तैयारी की थी, बिल्कुल दामाद की तरह। लेकिन जयप्रकाश के मन में गाँधी जी के प्रति आक्रोश था क्योंकि उनका मानना था कि प्रभावती को ब्रह्मचर्य व्रत दिलाने में कहीं न कहीं गाँधी जी का हाथ है। जयप्रकाश के गुस्से का आभास गाँधी जी को भी हो चुका था। एक दिन गाँधी जी ने जे.पी. से माफी माँगी और कहा, ‘प्रभावती ने बड़ी कठिन प्रतिज्ञा ले ली है, टस से मस नहीं हो रही है। कहो, जयप्रकाश क्या किया जाए? यह तो मानती ही नहीं है।’ जवाब में जे.पी. फूट-फूट कर रोए। फिर बोले, ‘आप क्या सोचते हैं कि मैं दूसरी शादी करूँगा। इस जन्म में तो प्रभावती को छोड़कर दूसरी कोई मेरी पत्नी बन ही नहीं सकती। भारत में आज तक पत्नी पति के व्रत में शामिल होती रही हैं, अब आप देखेंगे कि पत्नी के व्रत में जयप्रकाश शामिल है। गाँधी जी काफी देर तक जयप्रकाश का चेहरा निहारते रह गए थे। इस घटना के बाद जयप्रकाश के लिए व्यक्तिगत सुख, सामाजिक प्रतिष्ठा और ऐश्वर्य-भोग तुच्छ हो गया। देश-सेवा के श्रेष्ठतम आदर्श की प्राप्ति ही उनका लक्ष्य बन गया था।

जयप्रकाश के घर की परिक्रमा के बाद जयप्रकाश स्मारक में प्रवेश करते हैं। आधुनिक ढंग से निर्मित भव्य स्मारक के बाहर में लगे शिलापट्ट से यह पता चल रहा था कि इस भवन का शिलान्यास पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने 30 मई, 1985 को किया था और उसका उद्घाटन कर्नाटक के मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगडे़ ने जयप्रकाश के जन्म दिवस के अवसर पर 11 अक्टूबर, 1985 को किया था। स्मारक के अंदर की परिक्रमा करता हूँ। चारों तरफ की दीवारों पर जयप्रकाश के जीवन काल की प्रमुख घटनाओं को फोटोग्राफ्स के माध्यम से दर्शाया गया है। जयप्रकाश द्वारा समय-समय पर विभिन्न नेताओं, संस्थाओं को लिखे गए पत्र भी प्रदर्शित हैं। उनका अवलोकन करते हुए मैं कुछ क्षणों के लिए उस समय की स्थितियों-परिस्थितियों की कल्पना में खो गया। शाम के 5 बजने वाले थे। 5 बजे से हमारी गोष्ठी का समय निर्धारित है। यह सोचकर हम वहाँ से सिताब दियारा के लिए निकल पड़े।

लोकनायक स्मृति भवन-सह-पुस्तकालय के एक बड़े हॉल में भोजपुरी लोक चित्रकला पर आयोजित गोष्ठी में मेरे संग-संग अरविन्द ओझा, कला-लेखक सुमन कुमार सिंह, साधना राणा और आर्ट फोटोग्राफर शैलेन्द्र कुमार भी वक्ता के रूप में शामिल थे। श्रोता भी बड़ी संख्या में उपस्थित थे। लगभग एक घंटे तक विचार-परिर्वतन का दौर चला। बीच-बीच में तालियाँ भी बजती रहीं। सर्वप्रथम सुमन कुमार सिंह ने बिहार की लोककलाओं के विकास में मेरे योगदान की चर्चा करते हुए भोजपुरी लोक चित्रकला की वर्तमान दशा-दिशा का चित्रण प्रस्तुत किया। तत्पश्चात भोजपुरी में दिए गए अपने संबोधन में मैंने मधुबनी चित्रकला, मंजूषा चित्रकला के साथ-साथ भोजपुरी चित्रकला के इतिहास पर प्रकाश डाला और उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान के निदेशक के तौर पर अपने कार्यकाल में भोजपुरी चित्रकला को राज्य सरकार के विभिन्न आयोजनों में शामिल करवाने के अपने प्रयास का उल्लेख किया। अरविन्द ओझा ने बेहतर समाज के निर्माण में कला की भूमिका पर व्याख्यान देते हुए लोकनायक जयप्रकाश राष्ट्रीय कला एवं संस्कृति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के योगदान का उल्लेख किया। गोष्ठी को साधना राणा एवं आयोजक पृथ्वीराज सिंह ने भी संबोधित किया। कार्यक्रम के अंत में शैलेन्द्र कुमार सिंह ने धन्यवाद ज्ञापित किया। घड़ी की ओर निगाह दौड़ाई, शाम को 6:30 बज रहे थे। सर्वसम्मत राय बनी कि पटना लौट चला जाए। आयोजकों का अनुरोध हुआ कि प्रस्थान के पूर्व अतिथि-कक्ष में बैठकर चाय का आनंद ले लिया जाए।

अतिथि-कक्ष में पहले से चार-पाँच लोग बैठे हुए थे। वेश-भूषा से स्थानीय लग रहे थे। मैंने उनका परिचय पूछा, तो मेरा अनुमान सही निकला। चाय आने में कुछ देर थी। इसलिए मैं उनसे अनौपचारिक होने का प्रयास करता हूँ। बात छेड़ते हुए मैं उनसे जयप्रकाश के जीवन काल की घटनाओं को जानना चाहता हूँ। वहाँ पर गरीबा टोला के अरविन्द कुमार सिंह नामक एक उत्साही कार्यकर्ता बैठे हुए थे। अरविन्द कुमार सिंह कहने लगे कि आप जिस पक्की सड़क से होकर यहाँ पहुँचे हैं, वह श्रमदान में बनी थी। भूदान के समय विनोबा को लेकर जे.पी. यहाँ आए थे और गाँव-गाँव घूमे थे। उसी समय जयप्रकाश ने श्रमदान से वह रोड बनवाया था। मैं उनकी बातों में रुचि लेता हूँ तो वह और आगे बढ़ते हैं। जयप्रकाश जब तक जीवित थे, उनकी पहल पर सिताब दियारा में प्रत्येक वर्ष 12 फरवरी को एक बहुत बड़ा मेला लगता था। उस मेले के आयोजन के पीछे जयप्रकाश की ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना थी। उस मेले में देश के विभिन्न राज्यों के किसान अपने-अपने उत्पादों के साथ शामिल होते थे। उस समय सिताब दियारा की शान थी शान। वहाँ बैठे अन्य लोग भी उनकी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाते हुए कहने लगे कि लोकनायक जयप्रकाश जैसे महामानव के गाँव में पैदा होना, उन्हें देखना, उनसे बातें करना हमलोग के लिए गौरव की बात है। इसलिए हमलोग खुद को खुशकिस्मत और भाग्यशाली मानते हैं। तब तक चाय आ चुकी थी। गरमा-गरम चाय पीकर मन तृप्त हो उठा। फिर पृथ्वीराज सिंह और अन्य लोगों से पुनः मिलने का वादा कर हम अपनी गाड़ी में बैठकर पटना के लिए निकल पड़े।

मैं सिताब दियारा में ज्यादा देर तक नहीं ठहर सका। दोपहर में पहुँचा और देर शाम में चल दिया। लेकिन उन चंद घंटों की अवधि में ही सिताब दियारा और जयप्रकाश नगर में बिताए गए क्षण मेरी जिंदगी की अमूल्य निधि बन गए हैं। लौटते वक्त मैं मन ही मन यह सोच रहा था कि जयप्रकाश के गुजरने के बाद भारतीय राजनीति के पास अब बचा क्या है? निश्चय ही देश के राजनीतिक आकाश की उज्ज्वलता में बहुत कमी आई है। आज की राजनीति उनके सामने बौना दिखलाई पड़ रही है। जयप्रकाश के अवदान को यह देश कभी नकार न सकेगा। वे राजनीति के सहारे नहीं चलते थे, बल्कि देश की राजनीति उनके सहारे चलती थी।


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जयप्रकाश नारायण द्वारा निर्मित ‘सोखोदेवरा आश्रम’ का वर्णन पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें : https://nayidhara.in/gadya-dhara/yatra-sansmaran-about-ek-tirth-se-guzarte-hue-by-ashok-kumar-sinha/