मधुकर गंगाधर की साहित्य-साधना
- 1 February, 2021
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मधुकर गंगाधर की साहित्य-साधना
स्मृति शेष है
मधुकर गंगाधर ‘नई कहानी’ के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं। पाँचवें दशक के बाद अपनी कहानियों में समाजार्थिक विसंगतियों के विषैले प्रभाव एवं मानवीय प्रयत्न के प्रति गहरे विश्वास को प्रमुखता से स्तर देने वाले मधुकर गंगाधर की पहली कहानी ‘योगी’ (पटना, सं.–ब्रजशंकर वर्मा) पत्रिका में 1954 में प्रकाशित हुई थी। शीर्षक था ‘घिरनी वाली’। इसमें अभाव ग्रस्तता, अस्पृश्यता, आर्थिक विषमता और शोषण को प्रत्यक्ष किया गया है। इस प्रकार अपनी कहानी यात्रा की शुरुआत में ही उन्होंने अपने समय को साधने का अपना मुहावरा विकसित किया और अपने चिंतन और अनुभव के आधार पर मनुष्यता के पक्ष में अपनी संवेदना व्यक्त की। इस कहानी में एक सर्विस लैट्रिन साफ करने वाली दलित स्त्री का चित्रण है। यह एक संकेत था कि अपने आगामी लेखन में वे सामाजिक अंतर्विरोधों, आर्थिक असमानताओं, शोषित वर्ग के प्रति उपेक्षाओं और सांस्कृतिक विडंबनाओं को प्रमुखता से उजागर करेंगे।
मधुकर गंगाधर की बहुचर्चित कहानी ‘ढिबरी’ भैरव प्रसाद गुप्त के संपादन में निकलने वाली ‘कहानी’ पत्रिका के ‘विशेषांक’ में छपी थी। इस कहानी से मधुकर जी को अपार लोकप्रियता मिली। इसने उन्हें ‘नई कहानी’ आंदोलन के प्रमुख लेखकों में स्थापित कर दिया। सन् 1956 में ‘कहानी’ पत्रिका के इस विशेषांक में प्रायः सभी नए कहानीकार सम्मिलित किए गए और उनकी कहानियाँ आज भी हिंदी की प्रतिनिधि कहानियाँ मानी जाती है। इन कहानीकारों ने भिन्न कथ्य और नए शिल्प में कहानियाँ लिखीं जो नई कहानी की प्रारंभिक कहानियाँ होते हुए भी बहुत लोकप्रिय हुई। ये कहानियाँ ‘नई कहानी’ के स्वरूप और प्रवृतियों को स्पष्ट कर देती हैं। डॉ. नामवर सिंह ‘कहानी’ के इस अंक को ही ‘नई कहानी’ की नींव डालनेवाला मानते हैं। डॉ. देवीशंकर अवस्थी द्वारा संपादित पुस्तक ‘नई कहानी : संदर्भ और प्रवृति’ में नामवर सिंह लिखते हैं–‘हिंदी जगत में इस विशेषांक की जितनी व्यापक चर्चा हुई और जैसे सहर्ष स्वागत हुआ उससे कहानी की नींव पड़ गई।’
‘कहानी’ पत्रिका के अतिरिक्त ‘कल्पना’ (हैदराबाद) ‘लहर’ (अजमेर) तथा ‘ज्ञानोदय’ (कलकत्ता) जैसी पत्रिकाओं ने भी नई कहानियाँ प्रकाशित कीं। कहने की जरूरत नहीं है कि इन सभी पत्रिकाओं में मधुकर जी की कहानियाँ, सम्मानपूर्वक प्रकाशित होती रहीं। ‘धर्मयुग’ (बंबई), ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान ‘(दिल्ली)’ ‘अवन्तिका’ (सं.–राजकमल चौधरी) इत्यादि पत्रिकाओं में भी मधुकर जी की कहानियाँ छपती रहीं। शैलेश मटियानी, मधुकर गंगाधर, शानी, मार्कंडेय, शिवप्रसाद सिंह, उषा प्रियंवदा, मन्नु भंडारी, कमलेश्वर, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ इत्यादि कहानीकार ‘नई कहानी’ के पांक्तेय कहानीकार हैं।
मधुकर गंगाधर ‘नई कहानी’ धारा के उत्कर्ष काल के चर्चित कथाकार होने के बावजूद ‘नई कहानी’ कहकर वे किसी आंदोलन को मानने के लिए तैयार नहीं थे जिसका प्रमाण है उनका ‘नई कहानी की शव परीक्षा’ शीर्षक आलेख, जो उन्हीं दिनों ‘लहर’ (अजमेर, सं.–प्रकाश जैन) पत्रिका में छपा था। उन्होंने लिखा था, ‘व्यक्तिगत रूप में, मैं आदमी की चेतना और संघर्ष की कहानियों की एक अटूट धारा को स्वीकारता हूँ। उसे कालखंडों द्वारा संज्ञा-सर्वनाम से अभिहित नहीं करता। मैंने ‘नई कहानी’ को उसके फार्मूले के साथ कभी नहीं स्वीकारा, यद्यपि उसकी चर्चा खूब रही और मेरा नाम भी उसमें लिया जाता रहा। अगर इसके पक्ष में कहा जाय तो तर्क हो सकता है कि उस समय की कहानी को परिभाषित करने के लिए यह नाम दिया गया। भाषा की सहजता, शिल्प का नया तेवर, चिंतन की नई भूमि और जीवन की नियोजित रणनीति के जरिये नई कहानी ने अपनी इकाई स्थापित की।’
मधुकर गंगाधर के दस कहानी संग्रह हैं–तीन रंग : तेरह चित्र (1958), हिरना की आँखें (1961), नागरिकता के छिलके (1972), शेर छाप कुर्सी (1976), गर्म गोश्त : बर्फीली तस्वीर (1976), गाँव-कस्बा-नगर (1982), मछलियों की चीख (1984), उठे हुए हाथ (1984), सौ का नोट (1984) तथा बरगद (1986)। इनमें से एक भी संग्रह अब उपलब्ध नहीं है। लगभग आधी शताब्दी तक विभिन्न पत्रिकाओं में बिखरी उनकी कई कहानियाँ भी अब अप्राप्य है। मधुकर गंगाधर जितनी त्वरा से लेखन करते थे, संचयन की प्रवृति नहीं रहने के कारण उन रचनाओं को संरक्षित नहीं कर पाते थे। इस संबंध में संगीता रघुवंशी का कार्य प्रशंसनीय है। उन्होंने ‘मधुकर गंगाधर की कहानियाँ’ शीर्षक से चार खंडों में प्रकाशित किया है जिनमें उक्त संग्रहों की लगभग सभी कहानियाँ संगृहीत हैं।
उनकी गर्मगोश्त, बर्फीली तासीर, फाँसी, अखंड तांडव, धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे, उठे हुए हाथ, सिक्के बदल गए, सोने की नाक, झरोखे टँगा चेहरा, एक बेडौल ईंट, तीन लोक का राजा, सौ का नोट, कागभाखा इत्यादि और भी अनेक कहानियाँ हैं जो हिंदी कथा-जगत की रेखांकीय रचनाएँ हैं, जिन पर विस्तार से चर्चा की जा सकती हैं।
‘शेर छाप कुर्सी का रोजनामचा’ मधुकर गंगाधर की बहुचर्चित बहुप्रशंसित कहानी है। कहानी में कुर्सी सत्ता का प्रतीक है जो अपनी शर्तों पर अपने ऊपर बैठे व्यक्ति को संचालित करती है। अतः कुर्सी ही आदमी का चरित्र गढ़ती है। अवसरवादी नौकरशाही को पूरी कलात्मकता से यह कहानी व्यंजित करती है। यह कहानी 1974 ई. में ‘धर्मयुग’ के दीपावली अंक में छपी थी। छपने के साथ ही इस कहानी पर विवाद प्रारंभ हो गया था। यह एक व्यंग्यपरक कहानी है जिसमें सरकारी कार्यालयों में जुगाड़ के द्वारा पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करने वालों को बेनकाब किया गया है। उनकी ‘भेड़ के पीछे-भेड़ के आगे’ कहानी भी व्यंजनापूर्ण भाषा, व्यंग्यकार मुहावरे, भावपूर्ण सुक्तियों और रोचक शैली के कारण विशिष्ट बन गई यह कहानी भी ‘धर्मयुग’ में छपी थी, 1989 में। उनकी ‘लीक’ कहानी पढ़ते हुए प्रेमचंद की ‘दो बैलों की कथा’ की याद आती है। लेकिन यह हीरा और मोती के जेल की दीवार तोड़ने के बाद की कहानी है। ‘लीक’ कहानी ‘कहानी’ पत्रिका में छपी थी। कहानी का अर्थ प्रतीकों में खुलता है कि गुलामी की जंजीर टूटी। आजादी भी मिली। शासक भी बदल गए; किंतु क्या हमारी समाजार्थिक और राजनीतिक स्थिति भी बदली? कहानी पाठक को प्रश्नों के घेरे में लेकर समाप्त हो जाती है।
मधुकर गंगाधर किसी साहित्यिक आंदोलन से नहीं जुड़े। फलस्वरूप उनकी कहानियों में विषय वैविध्य है। उनकी कहानियाँ समय-समाज के किसी महत्वपूर्ण प्रश्न, समस्या और स्थिति से साक्षात्कार कराती है, साथ ही मानवीय चरित्र, संबंधों की जटिलता को व्यक्त करती हुई मानव-व्यक्तित्व के जाने-अनजाने पक्षों के यथार्थ को नए-नए कोणों से फोकस करती हैं। इस प्रकार उनमें सामाजिक चिंता की धारा और मानवीय रिश्तों की विवृति करने वाली धारा–दोनों धाराएँ प्रवाहमान हैं। उन्होंने हिंदी की अधिकांश विधाओं में गुणवत्तापूर्ण लेखन किया है बावजूद इसके वे मूलतः कथाकार ही हैं। मधुकर गंगाधर ने कहानियों के अतिरिक्त साहित्य की अन्य विधाओं–उपन्यास, कविता, नाटक, संस्मरण, निबंध, समीक्षा, अनुवाद, रेडियो रूपक और शोध को भी सशक्त संप्रेषण दिया है। उनके खाते में ग्यारह उपन्यास, पाँच कविता संग्रह, पाँच नाटक, कई रेडियो रूपक, तीन संस्मरण की पुस्तकें विचारात्मक निबंध की एक पुस्तक, साक्षात्कार संबंधी तीन पुस्तकें, एक अनुवाद (बांग्ला उपन्यासकार सतीनाथ भादुड़ी का अपन्यास–‘ढोढायचरित मानस’) एवं प्रसारण संबंधी तीन पुस्तकें हैं।
उनका पहला उपन्यास 1962 में प्रकाशित हुआ था और ग्यारहवाँ 2020 में यानी उनके उपन्यास-लेखन में अट्ठावन वर्ष की लंबी अवधि का विस्तार है। ‘मोतियों वाले हाथ’ उनका पहला उपन्यास है। उपन्यास में वर्णित समस्या छह दशक पहले भी थी, आज भी है और पाश्चात्य जीवन शैली के अंधानुकरण के कारण आगे भी रहेगी। डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने लिखा है, ‘मोतियों वाले हाथ’ एक ऐसी औपन्यासिक कृति को पढ़ रहे हैं।… ‘मोतियों वाले हाथ’ के गुणात्मक विवेचन का आरंभिक सूत्र ही जैसे नए लेखन का गुणात्मक सूत्र बन जाता है कि अपनी जीवनगत अनुसूची में एक पठनीय कृति सदैव पठनीय रहती है। वह नई या पुरानी नहीं पड़ती। (मधुकर गंगाघर का उपन्यास साहित्य, 2017, पृ.-41)
‘यही सच है’ (1964) उपन्यास भी राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। यह एक अलग ढंग का उपन्यास है, जिसमें कथानायक के मानसिक अंतर्द्वंद्व का सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण है। उपन्यास का मूल तनाव नैरेटर का मानसिक अंतर्द्वंद्व ही है। ‘फिर से कहो’ उपन्यास सांसद साहित्यकार स्व. डॉ. शंकर दयाल सिंह के पारिजात प्रकाशन, पटना से 1964 ई. में प्रकाशित हुआ था। यह ठेठ गाँव की खेतिहर-समस्या पर आधारित आंचलिक उपन्यास है। उपन्यास छोटे कैनवास पर लिखा गया है क्योंकि कथा को संक्षिप्त में प्रस्तुत करना उपन्यासकार का वैशिष्टय है। उपन्यास के सारे पात्र न सिर्फ वास्तविक हैं बल्कि उनके जीवन-संघर्ष के बीच गुजरती स्थितियाँ और घटना क्रम भी वास्तविक है। उपन्यास में ‘गोदान’ की तरह ही कर्ज की समस्या है। भारतीय कृषि-जीवन की इस दारुण-गाथा में कोसी अंचलीय ग्राम्य-समाज और जीवनगत त्रासदी पूरी प्रखरता के साथ प्रतिबिंबित हुई है। इसमें घोषित तौर पर–कृषि चक्र और तीन पीढ़ियों की श्रम गाथा है। ‘सातवीं बेटी’ (1996) शीर्षक उपन्यास स्त्री-चिंतन और चुनौतियों को चित्रित करने वाला महत्वपूर्ण उपन्यास है; साथ ही इसमें परिवार नियोजन की महत्ता एवं जीवन मूल्यों में आई गिरावट को भी उपन्यस्त किया गया है। प्रकारांतर से इसमें वृद्ध जीवन की त्रासदी भी रेखांकित है। उपन्यास सकारात्मक संचेतना से संपन्न है। ‘सुबह होने तक’ (1978) मधुकर गंगाधर का आंचलिकताधर्मी उपन्यास है, जिसे कोसी अंचल की ‘महाकारुणिक गाथा’ कहा जा सकता है। कोसी नदी की महाविनाशक मृत्यु-लीला की काली छाया में हर साल लोगों के बसने-उजड़ने के त्रासदी की साक्षी रहे मधुकर जी की है, जितना कोसी अंचल का जन-जीवन अपनी वास्तविकता में है। ‘गर्म पहलुओं वाला मकान’ लोक भारती प्रकाशन इलाहाबाद से 1983 ई. में प्रकाशित हुआ था। यह रेडियो उपन्यास है। यह उपन्यास पटना आकाशवाणी, इलाहाबाद आकाशवाणी और अखिल भारतीय स्तर पर ‘विविध भारती’ से प्रसारित हो चुका है। यह उपन्यास लेखक की स्वानुभूति पर आधारित है। उपन्यासकार ने खोये को पुनः पाने और टूटे को फिर से जोड़ने वाली घटना को दर्शाकर इसे यादगार कृति बना दिया है। इस तरह उपन्यास सुखांत बन जाता है। कथात्मक संगठन और कलात्मक दृष्टि से यह सशक्त उपन्यास है।
भारती भंडार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद से 1984 में प्रकाशित ‘उत्तरकथा’ में पूर्णिया जिला के ग्राम्यांचल की कहानी है जिसका कथानायक गोपीचंद महात्मा गाँधी के सिद्धांतों के प्रति समर्पित कार्यकर्ता है। वह गाँव में होने वाले रचनात्मक कार्यों में बढ़-चढ़ कर भाग लेता है, सांप्रदायिक दंगों को रोकने की कोशिश करता है। भेद-भाव वाले छल-छंद से दूर रहता है और नेताओं की भ्रष्ट राजनीति के कारण भीतर तक टूटकर-बिखरकर भी अपना धैर्य नहीं खोता है। ‘तुम नष्ट करो, मैं निर्माण करूँगा? की आस्था से अनुप्राणित गोपीचंद परिवर्तन, विकास और आदर्श का प्रतीक है। स्वातंत्र्योत्तर समय में लिखा गया यह उपन्यास हिंदी कथा-साहित्य की एक अप्रतिम कृति है। मधुकर जी का ‘जयगाथा’ उपन्यास स्वतंत्रता-आंदोलन के संघर्ष की गाथा है, परंतु लोक-राग की सहजता से संपन्न और कोसी नदी की काली छाया से संपृक्त भी। सन् 1934 ई. के भूकंप से शुरू होकर आजादी तक की इस कहानी में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की गतिविधि, महात्मा गाँधी की अहिंसा, सत्याग्रह, चरखा अभियान की समीक्षा के साथ-साथ द्वितीय विश्वयुद्ध के घटना-क्रम का चित्रण मनोवैज्ञानिक धरातल पर विश्लेषण-पद्धति से हुआ है। निस्संशय स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि पर रचित–‘जयगाथा’ कथात्मक रोचकता और चरित्र-चित्रण की सूक्ष्मता एवं सार्थकता की दृष्टि से एक अनुपम उपन्यास है।
‘धुवांतर’ उपन्यास में वर्तमान भारत के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का लेखा-जोखा है, संपन्नता और विपन्नता का मूल्यांकन है; साथ ही गाँधीवाद और मार्क्सवाद में, मत-पत्र अथवा बंदूक के द्वारा सत्ता-परिवर्तन में कौन-सा तरीका सही है, इसका गंभीर विवेचन है। मधुकर गंगाधर एक सिद्धहस्त किस्सागो हैं, इसलिए उनके लेखन में बतरस का आनंद है, परंतु वे सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं को ओझल नहीं होने देते प्रत्युत उसकी वस्तुनिष्ठ जाँच करते हैं फिर उन्हें प्रस्तुत करते हैं। ‘भींगी हुई लड़की’ (2016) मधुकर जी का दसवाँ उपन्यास है। उपन्यास का आरंभ होता है कौतूहल और जिज्ञासा से लेकिन अंत होता है विषाद के महासागर में। भींगी हुई लड़की यानी स्वर्णकांता के जीवन-यात्रा के माध्यम से लेखक ने लड़कियों की तस्करी, लवजिहाद और स्त्रियों की त्रासद स्थिति का इसमें मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। उपन्यास में जिस प्रश्न को उठाया गया है वह नीति-निर्धारकों, जन-प्रतिनिधियों और समाज-सुधारकों के लिए चुनौती पूर्ण बनकर उभरा है लेकिन जवाब किन्हीं के पास नहीं है।
मधुकर गंगाधर के प्रायः सभी उपन्यास लघुकाय हैं। लेकिन इसे उपन्यास की कमजोरी नहीं मानकर शिल्पगत वैशिष्टय स्वीकार करना समीचीन होगा। यहाँ उपन्यास की संक्षिप्तता के पीछे लोगों के समयाभाव की दृष्टि नहीं है बल्कि उपन्यासकार के निर्दिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक प्रतीक वाली घटनाओं के चयन की दृष्टि है। ये घटनाएँ, पात्र आदि अपने विशिष्ट लक्ष्य पूरा नहीं हो जाता। उनके उपन्यासों में संवाद-योजना संक्षिप्त, सहज-स्वाभाविक, कथा-विन्यास में सहायक और पात्रों के चारित्रिक उद्घाटन में सक्षम होते हैं। कथोपकथन छोटे होते हैं। भाषा बहुत ही व्यंजक और समर्थ हैं। जीवंत भाषा और सुघड़ शिल्प के प्रयोग में मधुकर गंगाधर सिद्धहस्त हैं।
मधुकर जी के पाँच कविता संग्रह हैं–‘झलारी : चरित काव्य’, ‘कविता की वापसी’, ‘बधनखा’, ‘उन्नीस सौ पचहत्तर’ और ‘गूँगी चीखें’। बिहार के कोसी अंचल का एक गाँव है झलारी, जहाँ मधुकर जी का जन्म हुआ, पले, बढ़े। अपनी माटी के प्रति अगाध अनुरागासिक्त आराधक आकर्षण का आविर्भाव होने पर ही कोई रचनाकार ‘झलारी : चरित काव्य’ जैसी ग्राम्य चेतना की सुंगध से संयुक्त कविताओं का प्रणयन कर सकता है। कवि ने समर्पण में लिखा है–‘झलारी की उस पवित्र माटी को जहाँ हमारे पूर्वज पैदा हुए, वर्तमान लोग हैं और भविष्य की पीढ़ियाँ पैदा होंगी, आंतरिक श्रद्धा और प्रणाम सहित।’ इस संग्रह की कविताएँ प्रायः स्मृति-बंध सी हैं जिनमें झलारी की धूल भरी सड़क, आम, बबूल, बाँस की झाड़ियाँ, हल जोतते किसान, गोबर से तुलसीचौरा लिपती स्त्रियाँ, माँ की स्नेहमयी स्मृति, पिता का प्यार-दुलार, बथान पर रँभाती दुधार गाय, वर्षा के बीच धान रोपती औरतें, कातिक में धान के फूल से महकते खेत, अगहन में धान काटती औरतें इत्यादि सभी समाहित हैं। ‘दरख्तों के साये’ मधुकर जी के संस्मरणों की पुस्तक है। इसमें उन्होंने आचार्य शिवपूजन सहाय, लक्ष्मीनारायण ‘सुधांशु’, जनार्दन झा ‘द्विज’, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, नागार्जुन, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’, भैरव प्रसाद गुप्त, नलिनविलोचन शर्मा, राजेन्द्र अवस्थी, अनूप लाल मंडल, राजकमल चौधरी, उपेन्द्रनाथ अश्क आदि साहित्यकारों के विषय में आत्मीय एवं अर्थवान भाषा में संस्मरण लिखा है। इस संस्मरणात्मक कृति में मधुकर गंगाधर का विरोध शालीन और उग्र दोनों रूप अख्तियार करता है। जैनेन्द्र जी के साथ उपन्यास विधा पर उन्होंने बहस किया जो निश्चय ही उन दिनों सहज नहीं रहा होगा। इसी तरह ‘दिनकर’ जी के आगे अड़ जाना और फिर सुधांशु जी की इच्छा के विरुद्ध समानांतर साहित्य सम्मेलन करवा लेना उस ज़माने में बड़ा कठिन कार्य रहा होगा। दरअसल कुछ नया करने तथा अपनी सोच को प्रतिष्ठित साहित्यकारों द्वारा अनुमोदन कराने की प्रवृति के कारण मधुकर जी शुरू से ही ऐसे कार्य करते रहे हैं। इन सभी घटनाओं में मधुकर एक पात्र होते हुए भी तटस्थ दर्शक की भूमिका में दिखाई देते हैं।
मधुकर गंगाधर ने नाटक विधा को भी समृद्ध किया है। उनके पाँच नाटक हैं–अकाल (1950), गाँधी का बेटा (1952), सूरज डूब गया था (1960), विषपान (1962) और भारत भाग्य विधाता (1996), किंतु इनमें से मात्र दो ही नाटक उपलब्ध हैं। ‘सूरज डूब गया था’ अजंता प्रेस, पटना से प्रकाशित हुआ था। इसमें नाटककार ने ऐतिहासिक तथ्यों की रक्षा करते हुए राजनीति की उन विकृतियों, षड्यंत्रों, विश्वासघातों को उद्घाटित करने की कोशिश की है जिसके कारण भारत का शौर्य और पराक्रम अस्ताचलगामी हो गया। दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान के पराभव में कौन-कौन-सी राजनीतिक दुर्बलताएँ थीं, उनको इसमें दिखाया गया है। जयचंद की भूमिका को इसमें अलग कोण से देखने की कोशिश की गई है। नाटक की भाषा संश्लिष्ट और मंचीय है। संवादों से दर्शक पर कथ्य का मार्मिक प्रभाव पड़ता है। मंचन की दृष्टि से नाटक सरल है।
बिहार के कोसी अंचल के पूर्णिया जिलान्तर्गत झलारी (रूपौली) गाँव के समृद्ध किसान दीपनारायण सिंह के यहाँ 7 जनवरी 1932 को जन्मे मधुकर गंगाधर ने 15 मार्च 1961 ई. को आकाशवाणी में अपनी सेवा आरंभ की, पटना केंद्र में। 1982 में वे केंद्र निदेशक बने, इलाहाबाद केंद्र में और आकाशवाणी निदेशालय एवं विदेश प्रसारण सेवा, नई दिल्ली से 1990 में डायरेक्टर पद से सेवामुक्त हुए। छोटे-से गाँव से लेकर कॉलेज-विश्वविद्यालय तक के शैक्षणिक अनुभव, सरकारी सेवा, साहित्यिक सृजन एवं पटना, इलाहाबाद, दिल्ली आदि नगरों की रूपता-विरूपता के साथ-साथ अवकाश मुक्ति तक और उसके बाद की जीवन-यात्रा में उन्होंने न केवल प्रचुर मात्रा में लेखन किया बल्कि अनेकानेक सुप्रसिद्ध साहित्यकारों को अपना मित्र भी बनाया तथा वरेण्य साहित्यकारों गुरुजनों से आशीर्वाद भी प्राप्त किया जो उनके बहुमुखी व्यक्तित्व का द्योतक है। बहुमुखी व्यक्तित्व और बहुआयामी कृतित्व के धनी डॉ. मधुकर ने कॉलेज की शिक्षा पूर्णिया कॉलेज से की थी जहाँ ‘द्विज’ जी प्राचार्य थे। प्रसिद्ध आलोचक ‘सुधांशु’ जी कॉलेज के संस्थापक थे। दोनों ने इन्हें पुत्रवत स्नेहाशीष दिया। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ पूर्णिया आते-जाते रहते थे, अतः दिनकर जी से भी पूर्णिया में ही संपर्क सूत्र जुड़ा।
उपन्यासकार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ और अनूपलाल मंडल भी पूर्णिया अंचल के ही थे। उन दिनों मंडल जी बिहार राष्ट्रभाषा परिषद में रहते थे। मंडल जी से उनका आत्मीय संबंध रहा। पटना में नागार्जुन, लाल धुआँ, डॉ. भगवतीशरण मिश्र, रॉबिन शॉ पुष्प, मार्कंडेय प्रवासी, मधुकर सिंह इत्यादि साहित्यकारों से उनकी अंतरंगता थी। गंगा प्रसाद विमल, बलदेव वंशी, रवीन्द्र कालिया उनके पटना निवास पर अक्सर आते थे। कलकत्ता में इनके मित्र थे राजकमल चौधरी, सिद्धेश, ‘शनीचर’ पत्रिका के संपादक ललित कुमार शर्मा ‘ललित’ एवं बांग्ला कथाकार समरेश बसु। लखनऊ में इनके मित्र थे अमृतलाल नागर और ठाकुर प्रसाद सिंह। इलाहाबाद में भैरव प्रसाद गुप्त, कमलेश्वर, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, धर्मवीर भारती, मार्कंडेय, शेखर जोशी, जगदीश गुप्त से इनकी मित्रता हुई। महादेवी वर्मा और रामकुमार वर्मा का आशीर्वाद भी इन्हें प्राप्त था। दिल्ली आने पर गंगा प्रसाद विमल, रवीन्द्र कालिया और बलदेव वंशी से संबंध और गाढ़ा हुआ। दिल्ली में उनके अन्य मित्र थे राजेन्द्र अवस्थी, शिवसागर मिश्र, मुद्राराक्षस, धर्मेंद्र गुप्त इत्यादि। इसमें कोई दो मत नहीं कि वे अशेष ऊर्जा के रचनाकार थे। वे कई विधाओं में लिखते थे और जीते थे। कथा-साहित्य सृजन की तो जबर्दस्त क्षमता उनके पास थी और किस्सागोई की कला भी। नवासी वर्ष की उम्र में शारीरिक अक्षमता के बावजूद मानसिक रूप से वे पूर्णरूपेण उर्जस्वित थे। अभी एक और उपन्यास और एक संस्मरण की पुस्तक लिखने की तैयारी में थे कि क्रूर काल ने उन्हें हमसे छीन लिया। 6 दिसंबर 2020 अपराह्न 4.40 बजे यकृत संक्रमण के कारण वसंत कुंज दिल्ली स्थित ‘इंस्टीच्यूट ऑफ लीवर एंड बिलयरी साइंसेज’ में उनका निधन हो गया।