नंदकिशोर नवल एक राजनीतिक आलोचक
- 1 February, 2021
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नंदकिशोर नवल एक राजनीतिक आलोचक
स्मृति शेष है
जैसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भागवत्, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, पद्मपुराण आदि का ज्ञान अपने गाँव के कथावाचक बलभद्र सिंह के कथा वाचन के माध्यम से प्राप्त किया था, वैसे ही नंदकिशोर नवल ने अपने गाँव के पुस्तकालयाध्यक्ष रामसोहाग सिंह से विद्यापति-पदावली, रामचरितमानस और बिहारी सतसई जैसे ग्रंथों का मर्म समझा था। जैसे रामचंद्र शुक्ल बलभद्र सिंह को अपना साहित्यिक गुरु मानते थे, वैसे ही नंदकिशोर नवल रामसोहाग सिंह को। यह स्वाभाविक ही है कि नवल जी के प्रिय आलोचक रामचंद्र शुक्ल थे।
डॉ. नवल ने अपने लेखकीय जीवन का आरंभ कविता से किया लेकिन हिंदी से एम.ए. करते हुए ‘आलोचना’ के प्रति उनका आकर्षण बढ़ने लगा। नलिन विलोचन शर्मा और देवेन्द्रनाथ शर्मा जैसे विद्वान शिक्षकों का भी नवल जी पर गहरा असर पड़ा। निराला की कविताओं पर पी-एच.डी. करते हुए नवल जी आधुनिक हिंदी कविता की क्षमता और सौंदर्य से गहरे प्रभावित हुए। यह कहना गलत न होगा कि निराला और मुक्तिबोध के रचना संसार से संघर्ष करते हुए ही आलोचक नंदकिशोर नवल का जन्म हुआ। ‘मुक्तिबोध : ज्ञान और संवेदना’ तथा ‘निराला : कृति से साक्षात्कार’; जैसी रचनाएँ निश्चित रूप से हिंदी आलोचना की उपलब्धि है। ‘मुक्तिबोध : ज्ञान और संवेदना’ नवल जी की महत्वकांक्षी किताब है। नवल जी ने अपनी इस किताब की ‘भूमिका’ में मुक्तिबोध का यह कथन उद्धृत किया है–‘कोई समानधर्मा पुरुष जरूर उन्हें पढ़ेगा, आज नहीं, मेरी मृत्यु के बाद सही। उसे अच्छी नहीं लगेगी, वह आलोचना करेगा, किंतु उसे उसके कुछ हिस्से अवश्य पसंद आएँगे! तो, उस समानधर्मा के इंतजार में–या यों कहिए कि आशा में–मेरे इस कमरे में कवि-कर्म चल रहा है! उस समानधर्मा का रूप मेरी आँखों के सामने अवश्य प्रस्तुत होता है। वह मुझसे अधिक बुद्धिमान, अधिक अनुभवी, अधिक उदार, अधिक सहृदय, अधिक मर्मज्ञ, अधिक मेधावी होगा।’ नवल जी टिप्पणी करते है–‘यह पुस्तक उसी समानधर्मा के स्वागत की तैयारी में लिखी गई है।’ नवल जी हिंदी की दुनिया में मुक्तिबोध को प्रतिष्ठित करने वाले नामवर सिंह और मुक्तिबोध पर आक्रामक आलोचना लिखने वाले रामविलास शर्मा, दोनों की सीमाओं को समझ रहे थे। उल्लेखनीय है कि उस दौर की हिंदी आलोचना मुक्तिबोध के आत्मसंघर्ष को पारिभाषित करने के क्रम में न सिर्फ मुक्तिबोध का अवमूल्यन कर रही थी बल्कि अराजक भी हो रही थी। दरअसल मुक्तिबोध का मार्क्सवाद एकरैखिय न होकर संशलिष्ट और जटिल था। इसी तरह से उनके अकूंठ और निर्दोष आत्मसंघर्ष ने उन्हें हिंदी का अद्वितीय और अनूठा रचनाकार बनाया। डॉ. नवल मुक्तिबोध का मूल्यांकन करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मुक्तिबोध गहरे अर्थों में राजनीतिक कवि थे। मुक्तिबोध के मार्क्सवाद को डॉ. नवल कुछ इस तरह से देखते हैं–‘मुक्तिबोध ने मार्क्सवाद को अपनी विश्व दृष्टि के रूप में उसके वैज्ञानिक मानववाद के कारण स्वीकार किया था, इस कारण नहीं कि वह कथित सर्वहारा की पार्टी और नौकरशाही के द्वारा एक निरंकुश और भ्रष्ट सत्ता का रूप ले लेगा।’
डॉ. नवल ने हिंदी की प्रमुख लंबी कविताओं पर गंभीरतापूर्वक विचार किया है। आधुनिक हिंदी कविता में लंबी कविता की परंपरा और वैशिष्ट्य को जिस अनूठेपन के साथ डॉ. नवल ने व्याख्यायित किया है, वह हिंदी आलोचना में एक नई चीज है। उचित ही राजेश जोशी ने इसे डॉ. नवल की उपलब्धि कहा है। जिसे इस बात का यकीन नहीं हो रहा, उसे डॉ. नवल की ‘निराला और मुक्तिबोध चार लंबी कविताएँ’ शीर्षक किताब से गुजरना चाहिए। डॉ. नवल साहसी आलोचक थे। जो बात वे कहना चाहते थे, उसे बहुत ही मजबूती के साथ कहते थे। इस मामले में उन पर रामविलास शर्मा का प्रभाव साफ-साफ दिखाई पड़ता है। उन्होंने यह स्वीकार भी किया है कि हिंदी आलोचना में जब उनका प्रवेश हुआ तब वे रामविलास शर्मा के गहरे प्रभाव में थे। लेकिन रामविलास शर्मा और डॉ. नवल में एक फर्क रहा। हिंदी की दुनिया आज यह बात अच्छी तरह से समझ गई है कि रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध, यशपाल और रांगेय राघव जैसे रचनाकारों का जो मूल्यांकन किया वह गलत ही नहीं अराजक भी था। लेकिन रामविलास शर्मा ने इसके लिए कभी अफसोस जाहिर नहीं किया। इसके विपरीत डॉ. नवल को जहाँ भी लगा कि उनसे गलती हुई है, उसे न सिर्फ ईमानदारी के साथ स्वीकारा बल्कि अपनी समझदारी के हिसाब से उसका परिमार्जन भी किया। बहुवचन 4 में डॉ. नवल का एक लेख छपा ‘मेरी आत्मस्वीकृतियाँ’ शीर्षक से। आलोचना के क्षेत्र में काम करने वाले शोधार्थियों को वह लेख जरूर पढ़ना चाहिए। इस लेख में डॉ. नवल का एक वाक्य मुझे याद आ रहा है–‘मेरी समझदारी गलत हो सकती है, ईमानदारी नहीं।’ डॉ. नवल की आलोचना-दृष्टि को समझने के लिए यह सूत्र-वाक्य है।
डॉ. नवल ने मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ का विस्तृत मूल्यांकन किया है। यहाँ मैं डॉ. नवल के दो कथनों को उद्धृत करके आगे बढ़ूँगा। डॉ. नवल लिखते हैं–‘अँधेरे में’ की मुख्य वस्तु है देश में कायम फासिस्ट हुकूमत और उससे लगा हुआ है उस परिस्थिति में एक सचेत और प्रगतिशील मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी का आत्मसंघर्ष। व्यक्ति चूँकि प्रगतिशील कविता के लिए नई चीज थी, इसलिए भी हिंदी के मार्क्सवादी आलोचक उसी को लेकर उलझ पड़े और डॉ. रामविलास शर्मा ने ‘अँधेरे में’ को विभाजित व्यक्तित्व की कविता कहा, तो डॉ. नामवर सिंह ने अस्मिता की खोज की कविता कहा। स्पष्टतः कविता में जो चीजें गौण थी उसे प्रधान बना दिया गया और जो चीज प्रधान थी, उसे गौण बनाकर पेश किया गया था। डॉ. नवल की दृष्टि में ‘यह कविता वस्तुतः ‘लहरीली थाहोंवाली नीली झील में काँपता एक अरुण कमल’ है : अरुण कमल, यानी फासिज्म के विरुद्ध लिखी गई एक क्रांतिकारी कविता।’
डॉ. नवल की किताब ‘निराला : कृति से साक्षात्कार’ हिंदी में अपने तरह की अद्वितीय किताब है। यह किताब डॉ. नवल की आलोचना-दृष्टि के चरमोत्कर्म है। डॉ. नवल के 75 साल पूरे होने पर पटना में दो दिनों का एक भव्य साहित्यिक आयोजन हुआ था। इसमें भाग लेने दिल्ली से पुरुषोत्तम अग्रवाल भी आए थे। एक होटल के लॉन में टहलते हुए मैंने पुरुषोत्तम अग्रवाल से पूछा कि हिंदी आलोचना में डॉ. नवल को क्यों याद रखा जाएगा? पुरुषोत्तम अग्रवाल का जवाब था–‘निराला : कृति से साक्षात्कार’ के कारण। इस किताब की भूमिका में डॉ. नवल एक मार्के की बात लिखते हैं–‘हिंदी आलोचना जब तक अपने को रचना पर केंद्रित न करेगी, उसमें कोई सार्थक काम न हो सकेगा। यह उसके रचना से हट जाने का ही परिणाम है कि आलोचक जिस भी रचना या रचनाकार का मूल्यांकन करती है, जब पाठक उससे सीधा संबंध स्थापित करता है तो वह बिल्कुल दूसरे, कभी-कभी उलटे नतीजे पर पहुँचता है।’ डॉ. नवल ने अपनी इस किताब में निराला की कविताओं की पाठ केंद्रित आलोचना प्रस्तुत की है। कविता की आलोचना के लिए डॉ. नवल एक शोधार्थी की तरह कविता के शुद्ध पाठ तक पहुँचते हैं। इसके लिए वे कविता के प्रथम प्रकाशित रूप को आधार बनाते हैं। शुद्ध पाठ तक पहुँचने की उनकी आकांक्षा विराम-चिह्नों की छोटी से छोटी गलतियों को भी बर्दाश्त नहीं करता। वे हमेशा कविता-संग्रह के प्रथम संस्करण को ही आधार बनाकर लिखते थे। डॉ. नवल ने अपनी इस किताब में निराला के गीतों का जैसा विश्लेषण किया है, वह हिंदी आलोचना में एक नया स्वाद है। हम जानते हैं कि निराला कलकत्ता में रहते हुए रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद के प्रभाव में आ गए थे। लेकिन डॉ. नवल इस प्रभाव की व्याख्या इस तरह से करते हैं–‘निराला रामकृष्ण और विवेकानंद के विपरीत वासना और प्रेम को मानवीय संस्कृति का अनिवार्य अंग मानते हैं, नारी के अंगों से झरते हुए सौंदर्य को अमृत कहते हैं और उनकी दृष्टि में पुरुष-स्त्री का आनंदमय मिलन जीवन की पूर्णता के लिए आवश्यक है। उनके युवक संन्यास नहीं ग्रहण करते हैं, बल्कि नए मानव-धर्म को स्वीकार करते हुए समाज में विद्रोह कर अपनी प्रेमिका को लेकर नया घर बनाने के लिए निकल पड़ते हैं।’
डॉ. नवल निराला के काव्य-विकास को तीन भागों में बाँटते हैं और तीनों को अपने आप में स्वतंत्र घोषित करते हैं। निराला के काव्य-विकास का पहला स्तर छायावादी है, दूसरा यथार्थवादी और तीसरे स्तर पर वे फिर गीतों की ओर लौट आते हैं। निराला की कविता ‘कुकुरमुत्ता’ ने कविता के पाठकों को विस्मित कर दिया था। डॉ. नवल ‘कुकुरमुत्ता’ की कुंजी कुछ इस तरह खोलते हैं–‘कुकुरमुत्ता निराला की महत्वपूर्ण उपलब्धि इस कारण है कि इस कविता में जैसे उन्होंने अपने सर्जनात्मक लक्ष्य को पा लिया है और उनके सामने जो सर्जनात्मक चुनौती थी, उसका सफलतापूर्वक मुकाबला किया है। सर्जनात्मक लक्ष्य था कविता में खड़ी बोली का प्रयोग और सर्जनात्मक चुनौती थी उस खड़ी बोली में कविता को संभव बनाना।’ वागीश शुक्ल ने बहुवचन के तीन अंकों (1, 2 और 4) में निराला की कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ की टीका प्रस्तुत की। डॉ. नवल अपनी पत्रिका कसौटी में विवेकी सिंह छद्म नाम से लिखते थे। विवेकी सिंह के नाम से एक लेख लिखकर डॉ. नवल ने वागीश शुक्ल की अच्छी खबर ली। डॉ. नवल टीका की दर्जनों गलतियाँ गिनवाते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं–‘वागीश शुक्ल की यह टीका उनके पांडित्य की पोल खोल देती है। इससे मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि वे निराला की कविता क्या, कविता-पात्र को समझने में असमर्थ हैं। उनके पास न तो कविता के सहृदय पाठक की कल्पनाशीलता है और न काव्य-भाषा के प्रति संवेदनशीलता।’
निराला रचनावली का संपादन डॉ. नवल के निराला विषयक अध्ययन का हिस्सा नहीं था। रामविलास शर्मा और राजकमल प्रकाशन की शीला संधू के आग्रह और दबाव के कारण डॉ. नवल ने निराला रचनावली का संपादन किया। लेकिन डॉ. नवल इस रचनावली के संपादन में इस कदर डूबे कि हिंदी में यह रचनावली एक प्रतिमान बन गई। हम कह सकते हैं कि रामविलास शर्मा के बाद निराला साहित्य के दूसरे अधिकारी विद्वान डॉ. नवल ही हैं।
‘आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास’ डॉ. नवल की महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक की भूमिका में डॉ. नवल लिखते हैं ‘अँग्रेजी में जिसे ‘सेकेंड हैंड इंफार्मेशन’ कहते हैं, वह इस पुस्तक में एक भी नहीं मिलेगा, क्योंकि उस पर मेरा विश्वास नहीं। ‘कृति से साक्षात्कार’ पर मैं काफी पहले से जोर देता रहा हूँ। इस पुस्तक में भी वही मेरा आदर्श रहा है।’ डॉ. नवल अपनी इस पुस्तक में काल विभाजन और नामकरण के पचड़े में पड़ने से खुद को पूरी तरह बचा ले गए हैं। डॉ. नवल की दृष्टि में कोई भी कवि छायावादी, प्रगतिवादी या प्रयोगवादी कवि न होकर सिर्फ कवि है और इनके मूल्यांकन का आधार सिर्फ इनकी कविताएँ हैं। इस किताब की शुरुआत स्वाभाविक रूप से भारतेंदु हरिश्चंद्र से होती है। भारतेंदु-युग के संदर्भ में डॉ. नवल बड़ा ही महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं–‘भारतेंदु-युग का तीन हिस्से से भी अधिक काव्य भक्ति-शृंगारमूलक है और एक हिस्से से भी कम काव्य सामाजिक एवं राष्ट्रीय, फिर दूसरे काव्य को पहले काव्य पर तरजीह देना कहाँ तक उचित है? खासतौर से तब जबकि पहला काव्य अपने वर्णन-कौशल और व्यंजना-शक्ति में अनूठा हो तथा उसमें पूर्ववर्ती काव्य की पुनरावृत्ति नहीं हुर्ह हो?’ इसी निकष पर वे भारतेंदु-युग के कवियों का मूल्यांकन करते हैं। भारतेंदु की कविता में जबरदस्ती आधुनिकता खोजने की बजाय डॉ. नवल उनकी भक्ति और रीतिपरक कविताओं के सौंदर्य से पाठकों को परिचित कराते हैं। डॉ. नवल ने यह दिखाया है कि तुलसीदास की तरह भारतेंदु भी अपनी कामुकता से परेशान रहते थे और उससे छुटकारा पाना चाहते थे–‘कबहुं न दुष्ट मनहि करि निज बस कामहि दमत फिरयो/हरिश्चंद हरि-पद-पंकज आदि कबहु न नयत फिरयो।’ डॉ. नवल प्रगतिशील कवियों में केदार, नागार्जुन और त्रिलोचन से पहले शमशेर को रखते हैं और यह सवाल उठाते हैं कि शमशेर जैसा प्रेम का दूसरा कवि कौन है? डॉ. नवल की दृष्टि में केदारनाथ अग्रवाल मूलतः रोमानी कवि हैं, केदार में प्रेम और काम एकात्म है, केदार की मूल प्रकृति सौंदर्यवादी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि डॉ. नवल ने केदार की कविताओं का पुनर्पाठ किया है। कहना चाहिए कि ऐसा पुर्नपाठ वही आलोचक कर सकता है जो यह मानता हो कि विचारधारा एक आँख खोलती है तो दूसरी बंद भी कर देती है। डॉ. नवल अज्ञेय की कविता के चार मुख्य तत्व को रेखांकित करते हैं–आधुनिकता, प्रेम, प्रकृति और अध्यात्म एवं रहस्य। वे अज्ञेय की सबसे बड़ी देन यह मानते हैं कि आधुनिक औद्योगिक समाज ने मनुष्य की संवेदना में जो परिवर्तन उपस्थित किया था, उससे उन्होंने हिंदी कविता को जोड़ दिया और यह भी कि अज्ञेय की सर्वाधिक सुंदर कविताएँ वे हैं, जो प्रेम और प्रकृति को विषय बनाकर लिखी गई है।
यदि कोई मध्यकाल तक की कविता का प्रतिनिधि संकलन निकालना चाहेगा तो रामचंद्र शुक्ल का ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ उसका काम एकदम आसान कर देगी। इसी तरह यदि कोई आधुनिक हिंदी कविता का प्रतिनिधि संकलन निकालना चाहेगा तो डॉ. नवल की किताब ‘आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास’ से उसका काम चल जाएगा।
कवियों पर बात करते हुए उनकी कविताओं को उद्धृत करना डॉ. नवल की आलोचना-शैली की विशिष्टता है लेकिन हिंदी के कुछ संकीर्ण विद्वानों की दृष्टि में यही उनकी सीमा है। कुछ लोगों ने डॉ. नवल को उद्धरणवादी आलोचक भी कहा है। लेकिन डॉ. नवल पर इस तरह की बातों का कोई असर नहीं हुआ। वे हिंदी आलोचना में ‘एकला चलो रे’ की तर्ज पर आगे बढ़ते रहे। डॉ. नवल हिंदी आलोचना की परंपरा में अकेले ऐसे आलोचक हैं, जिसने अनेक कवियों पर स्वतंत्र पुस्तकों की रचना की। तुलसी, सूरदास, मैथिलीशरण, निराला, दिनकर, रूद्र, मुक्तिबोध, अज्ञेय जैसे कवियों पर डॉ. नवल की किताबें हिंदी अलोचना के बहुत बड़े अभाव की पूर्ति करता है। जैसा कि सबको मालूम है हिंदी आलोचना मूलतः कविता-केंद्रित आलोचना है। डॉ. नवल भी मूलतः कविता-केंद्रित आलोचक ही हैं। आलोचना की आलोचना और कविता की आलोचना में ही डॉ. नवल का मन रमा है। एक बार फिर मुझे यह कहने दीजिए कि हिंदी आलोचना में डॉ. नवल ऐसे विरल आलोचक हैं, जिसके चिंतन के दायरे में विद्यापति से लेकर संजय कुंदन तक की कविताएँ आती हैं। इस स्थल पर डॉ. नवल की दो किताबों की चर्चा जरूरी है–‘समकालीन काव्य यात्रा’ और ‘हिंदी कविता अभी, बिल्कुल अभी’। ‘समकालीन काव्य यात्रा’ में धूमिल, रघुवीर सहाय, राजकमल चौधरी, केदारनाथ सिंह और कुँवरनारायण जैसे कवियों पर लंबे-लंबे निबंध हैं। इन कवियों पर इतने विस्तार से विचार करने का काम संभवतः सबसे पहले डॉ. नवल ने ही किया है। इस स्थल पर मुझे अपने एम.ए. के दिनों की याद आ रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में फोटो कॉपी की जो दुकान थी, उसमें मेरी प्रति ‘समकालीन काव्य यात्रा’ की न जाने कितनी छाया-प्रति तैयार हुई। आधुनिक हिंदी कविता के शोधार्थियों-विद्यार्थियों के लिए ‘समकालीन काव्य यात्रा’ हाथ लग जाना, कोई खजाना हाथ लग जाने जैसा हुआ करता था। लेकिन हाय रे हिंदी की दुनिया! डॉ. नवल की आलोचना की इस ताकत को उनकी कमजोरी मान लिया गया!
डॉ. नवल ने अपनी किताब ‘आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास’ में केदारनाथ सिंह के बाद के किसी कवि को शामिल नहीं किया है। इसके पीछे डॉ. नवल का तर्क है ‘क्योंकि वे अभी सृजन-रत होते हैं और उनका कवि व्यक्तित्व निर्माणाधीन होता है ऐसे कवियों का मूल्यांकन वस्तुतः उचित नहीं।’ लेकिन डॉ. नवल धूमिलोत्तर पीढ़ी के अपने पसंदीदा कवियों पर लिखने से खुद को रोक न सके–‘धूमिलोत्तर पीढ़ी में ढेर सारे कवि सक्रिय हैं। मैंने इसी पीढ़ी के चुने हुए कवियों को प्रस्तुत पुस्तक में विषय बनाया है। ये कवि अभी भी लिख रहे हैं और इनका कवि-व्यक्तित्व एक हद तक अभी भी निर्माण की प्रक्रिया में है। मुझे इसका पूरा विश्वास है कि कई कवियों की कविता में अभी नए-नए आयाम प्रकट होने को हैं। यहीं मैं यह बात भी कह दूँ कि इन्होंने मुझे अपनी पीढ़ी के कवियों पर गर्व करने का अवसर दिया है।’ डॉ. नवल की इस किताब का नाम है–‘हिंदी कविता अभी, बिल्कुल अभी’। इस किताब में डॉ. नवल ने जिन कवियों पर विचार किया है, वे हैं–विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा, श्याम कश्यप, ज्ञानेन्द्रपति, उदय प्रकाश और अरुण कमल। इन समकालीन कवियों के बाद की भी एक नई कवि-पीढ़ी के ग्यारह कवियों पर डॉ. नवल ने विचार किया है। उनके द्वारा संपादित किताब ‘संधि-वेला’ में इसे देखा जा सकता है। इस स्थल पर मेरा ध्यान एक विडंबना की ओर जा रहा है। यह सोचकर पूरे शरीर में सिहरन सी हो रही है कि डॉ. नवल की अधिकांश किताबें असमीक्षित चली गई। पत्रिकाओं में उन पर लेख छपना दुर्लभ रहा। जिन कवियों के बारे में डॉ. नवल कहते हैं कि मैं उनके साथ उठा हूँ, दौड़ा हूँ और झगड़ा हूँ–उन कवियों ने उन पर कभी कुछ लिखा, इन कवियों ने डॉ. नवल को पढ़ा भी है, इसमें मुझे संदेह है! लेकिन इस बात को लेकर डॉ. नवल को अपने प्रिय कवियों से कभी कोई शिकायत न रही। क्योंकि डॉ. नवल का आदर्श मुक्तिबोध का वह कथन है, जिसे मैंने इस लेख के आरंभ में उद्धृत किया है। दिल्ली में नामवर सिंह के डेरे पर अपना रिकार्डिंग मशीन सामने रखते हुए मैंने उनसे पूछा कि नंदकिशोर नवल के बारे में कुछ कहिए? उन्होंने विस्तार से डॉ. नवल के आलोचक रूप पर बात की। यहाँ मैं डॉ. नवल के बारे में नामवर सिंह का एक कथन उद्धृत कर रहा हूँ–‘नवल जी यदि दिल्ली में होते, तो मुझसे बड़े लेखक होते।’
एक बार पटना में मैं डॉ. नवल के साथ रिक्शा पर बैठकर कहीं जा रहा था। रास्ते में सड़क किनारे भीड़ लगी हुई थी। डॉ. नवल ने रिक्शा रुकवाकर यह जानने की कोशिश की कि भीड़ क्यों लगी हुई है! जब डॉ. नवल को तसल्ली हो गई, तब उन्होंने रिक्शा आगे बढ़ाने को कहा। डॉ. नवल मुझे समझाने लगे कि आलोचक को आँख बंद कर के नहीं चलना चाहिए। समाज की नब्ज की समझ और पकड़ के बिना आलोचना लिखी ही नहीं जा सकती। मैंने अपने झोले से ‘हिंदी आलोचना का विकास’ नामक उनकी किताब निकालकर उनसे उस पर कुछ लिख देने का आग्रह किया। किताब देखते ही वे कहने लगे कि यह मेरे बालपन की किताब है। मैं इसका नया संस्करण छपने देना नहीं चाहता था। लेकिन नामवर जी का आग्रह मैं टाल नहीं पाया। फिर कुछ सोचते हुए उन्होंने कहा कि ‘इस किताब की सीमाओं को समझना ही इस किताब को पढ़ना है।’ आज एक बार फिर डॉ. नवल की इस किताब से गुजरते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हिंदी आलोचना के जीवंत और विवादास्पद पड़ावों को समझने के लिए हिंदी साहित्य के विद्यार्थी को इस किताब से अवश्य गुजरना चाहिए। इस किताब को लिखने में डॉ. नवल ने घनघोर परिश्रम किया है। इस स्थल पर एक साक्षात्कार में डॉ. नवल द्वारा मुझसे कहा गया एक कथन का स्मरण हो रहा है–आलोचना में होने वाली कठिनाई और उससे मिलने वाले आनंद के प्रसंग में मुझे विद्यापति की एक पंक्ति याद आती है, जो उन्होंने नवोढ़ा के प्रणय के बारे में लिखा है–‘दुख सहि-सहि सूख पावोल’।
विश्वनाथ त्रिपाठी से एक अनौपचारिक बातचीत में डॉ. नवल का प्रसंग आया। मैंने उनसे पूछा कि नवल जी से आपकी पहली मुलाकात कहाँ हुई? उन्होंने गया में मुलाकात होने की बात कहते हुए एक मार्मिक प्रसंग सुनाया–उस समय मेरी किताब ‘हिंदी आलोचना’ छप चुकी थी। नवल जी मेरे पास आए और इस किताब की कमियाँ गिनाने लगे। मैंने उन्हें टालने के अंदाज में कहा–हो सकता है! मैं आचार्य द्विवेदी का शिष्य था। मुझे लगता था कि आई एम ऑन द् टॉप ऑफ द् वर्ल्ड। मैंने नवल जी से कहा कि किसी ने कृष्ण चन्दर से कहा कि आपकी कहानियाँ मुझे कुछ कमतर लगती हैं। कृष्ण चन्दर ने उस व्यक्ति से कहा कि मेरे पास हजारों पाठकों के पत्र आते रहते हैं, सब पर ध्यान देना तो संभव नहीं। इतना कहकर विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने दोनों हाथों को कानों पर रखते हुए दाँतों तले जीभ को दबाया।
बात नंदकिशोर नवल पर हो रही हो तो उनके संपादक-रूप को कैसे भूला जा सकता है! डॉ. नवल छह पत्रिकाओं के संपादन से जुड़े रहे–ध्वजभंग, सिर्फ, उत्तरशती, धरातल, आलोचना और कसौटी। ‘घ्वजभंग’ की योजना डॉ. नवल ने राजकमल चौधरी के साथ मिलकर बनाई थी। कहा जाता है कि उस समय डॉ. नवल भी ‘भूखी पीढ़ी’ के असर में थे। ‘घ्वजभंग’ में किताबों की ईमानदार और कठोर समीक्षाएँ छपती थीं। ‘सिर्फ’ को उस समय की नई पीढ़ी के अनेक कवियों को सामने लाने का श्रेय जाता है। इन कवियों में ज्ञानेन्द्रपति, विजेंद्र, ऋतुराज, कुमार विकल और वेणुगोपाल जैसे कवियों का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। ‘धरातल’ को भी उस समय की नई पीढ़ी के अनेक कवियों को सामने लाने का श्रेय प्राप्त है। इन कवियों में अरुण कमल, राजेश जोशी, उदय प्रकाश, श्याम कश्यप, रामकृष्ण पांडेय और स्वप्निल श्रीवास्तव जैसे कवि प्रमुख हैं। एक संपादक के लिए इससे बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती है! 1980 में नामवर सिंह के आग्रह पर डॉ. नवल ‘आलोचना’ के सह-संपादक बने। 5 वर्षों तक इस पत्रिका से जुड़े रहने के बाद अप्रिय स्थितियों का सामना करते हुए उन्हें इस पत्रिका से अलग होना पड़ा। 1999 में डॉ. नवल ने ‘कसौटी’ निकालने का निर्णय लिया। इस पत्रिका के प्रवेशांक के संपादकीय में डॉ. नवल ने लिखा–‘हिंदी का क्षेत्र बहुत विस्तृत है, लेकिन अभी उसमें आलोचना की एक भी उल्लेख योग्य पत्रिका प्रकाशित नहीं हो रही है। जहाँ तक साहित्य-चिंतन का प्रश्न है, वह पाश्चात्य दर्शन और विचार से नए सिरे से आक्रांत है। बात उत्तर औपनिवेशिकता की की जाती है, लेकिन असलियत यह है कि हम उपनिवेशवाद के शिकार होते जा रहे हैं। समकालीन हिंदी साहित्य का यही वह परिदृष्य है, जिसमें हमने कसौटी के प्रकाशन की योजना बनाई है।’ ‘कसौटी’ मूलतः आलोचना की पत्रिका थी, लेकिन इसने भी नई पीढ़ी के अनेक कवियों को सामने लाने का श्रेय पाया। इन कवियों में प्रेमरंजन अनिमेष, कुमार अंबुज, आशुतोष दुबे, गगन गिल, नीलेश रघुवंशी, निलय उपाध्याय, बोधिसत्व, एकांत श्रीवास्तव और राकेश रंजन का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। इस स्थल पर मुझे डॉ. नवल का एक कथन याद आ रहा है–‘आलोचना लिखने की मेरी कोई योजना नहीं थी, लेकिन बाद में उलझता चला गया, जिसे सुलझाने के क्रम में मैं कवि से कविराज बन गया। पहले कविताएँ लिखता, अब घुमा-फिराकर अच्छी कविताएँ लिखने के नुस्खे बाँटने लगा।’ डॉ. नवल का एक और कथन देखा जाए–‘यह देखकर शर्म महसूस होती है कि उर्दू का नया से नया कवि भी गलत उर्दू नहीं लिखता, जबकि मेरी समकालीन पीढ़ी के महत्वपूर्ण कवि भी अनेक बार भाषा में व्याकरणिक भूलें कर बैठते हैं। मैं यह नहीं कहता कि वे सर्वथा व्याकरणसम्मत भाषा लिखें, पर उनसे भाषा के न्यूनतम आवश्यक ज्ञान की अपेक्षा अवश्य रखता हूँ।’
मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि डॉ. नवल राजनीतिक आलोचक हैं। ठीक वैसे ही जैसे नागार्जुन और मुक्तिबोध राजनीतिक कवि हैं।