रेणु की भाषा और सरोकार

रेणु की भाषा और सरोकार

फणीश्वरनाथ रेणु हिंदी के प्रतिष्ठित और लोकप्रिय कथाकारों में से एक हैं। ‘मैला आँचल’ उपन्यास से उन्हें विशेष ख्याति मिली। उस उपन्यास को उन्होंने आंचलिक घोषित किया। अपने उपन्यास को उन्होंने आंचलिक क्यों कहा, इस संदर्भ में पूछे जाने पर उन्होंने लोठार लुत्से को दिए गए अपने साक्षात्कार में कहा था, ‘मैंने जो शब्दों का इस्तेमाल किया, जैसी भाषा लिखी, क्या पता लोग कबूल करेंगे या नहीं करेंगे–इसलिए मैंने उसे आंचलिक उपन्यास कह दिया।’

आज जब रेणु की जन्मशती के बहाने उनके साहित्य के पुनर्पाठ और पुनर्मूल्यांकन का प्रयत्न हिंदी साहित्य से जुड़ा प्रायः हरेक व्यक्ति गंभीरता से करने में संलग्न है, तब रेणु ने अपने साहित्य की भाषा को लेकर जो संकोच और भय प्रकट किया था, उस पर भी विचार करना लाजिमी है। रेणु की आशंका सच साबित हुई थी, जब उन पर भाषा को लेकर तरह-तरह के आरोप लगे थे। उन आरोपों को ‘मैला आँचल’ के एक व्यंग्यात्मक विज्ञापन में रेणु ने निम्नांकित शब्दावली में पिरोया था–‘मैला आँचल? वही उपन्यास, जिसमें हिंदी का एक भी शुद्ध वाक्य नहीं है?’

‘वही मैला आँचल न, जिसमें लेखक ने न जाने लोक-गीतों के किस संग्रह से गीतों के टुकड़े चुराकर जहाँ-तहाँ चस्पा कर दिए हैं। क्यों जी इन्हें तो उपन्यास लिखने के बाद ही इधर-उधर भरा गया होगा?’

‘न कहानी है, न कोई चरित्र ही, जो पहले पन्ने से आखिरी पन्ने तक छा सके। सिर्फ ढोल-मृदंग बजाकर, इन्किलास जिंदाबाघ जरूर किया गया है। ‘पारटी’ और ‘कलस्टर’ और ‘संघर्ख’ और ‘जकसैन’–भोंडे शब्द भरकर हिंदी को भ्रष्ट करने का कुप्रयास खूब सफल हुआ है।’ (प्रकाशन समाचार, जनवरी 1957 उत्तर नेहरू चरितम, रेणु, सं.-भारत यायावर, पृ.-38)

रेणु की भाषा का उपहास बराबर किया जाता रहा, लेकिन यह भी सच है कि जितने संवेदनशील उनकी कहानियों के पात्र हैं, उनकी भाषा भी उतनी ही जीवंत और सच्ची है। तभी तो उनकी कहानियाँ पाठकों के हृदय को छू जाती हैं और उनकी लोकप्रियता में कोई कमी आने के बजाय वह लगातार बढ़ती ही रही है।

प्रश्न यह उठता है कि क्या रेणु की भाषा बनावटी है?

28 फरवरी 2011 को नई दिल्ली में अपने एक व्याख्यान में हिंदी आलोचना के शीर्ष पुरुष माने जानेवाले आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने कहा था, ‘बड़ी गड़बड़ी यह हुई कि आंचलिक कथाकार जो पैदा हुए, फणीश्वरनाथ रेणु जैसे, तो इन लोगों ने स्थानीयता की छौंक देने के लिए कुछ छौंक-बघार ज्यादा ही दे दी उन्होंने। हास्यरस पैदा करने के लिए, लोकतत्त्व ले आने के लिए भाषा को इतना माँज दिया कि लगा, यही स्टैंडर्ड हिंदी है।’ बहुत से लोग कहते हैं कि उम्र के प्रभाव में नामवर सिंह जी बहुत-सी बातें असंगत भी बोल जाया करते थे। लेकिन मुझे लगता है कि इतनी गंभीर, सीधी और खरी बात नामवर जी ने कही तो इसके पीछे उनकी उम्र का कोई असंगत प्रभाव नहीं था, बल्कि यह उनकी सुचिंतित धारणा थी। क्योंकि ये वही नामवर सिंह थे, जिन्होंने ‘मैला आँचल’ के प्रसंग में रेणु की प्रतिभा को रेखांकित करनेवालों का उपहास करते हुए, उन्हें ‘कौतुकी लोग’ कहा था। उन्होंने लिखा था–‘अभी-अभी एकदम नए लेखक फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास ‘मैला आँचल’ निकला है। उपन्यास पढ़ते ही कौतुकी लोग चौंक उठे और विस्मयादिबोधक स्वर में ‘प्रतिभा-प्रतिभा’ चिल्लाने लगे।’

नामवर जी द्वारा उठाए गए सवाल इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो उठते हैं, क्योंकि रेणु की भाषा को आरंभ से ही कठघरे में खड़ा किया जाता रहा है। डॉ. रामविलास शर्मा से लेकर तमाम आलोचकों की एक लंबी कड़ी है, जिन्होंने रेणु के साहित्य को, उनकी आंचलिकता को, उनकी भाषा-शैली को प्रश्नांकित किया है। नामवर सिंह भी उसी कड़ी में हैं। यद्यपि काशीनाथ सिंह को दिए अपने साक्षात्कार में वे इसे अपनी चूक मानते हैं। काशीनाथ सिंह का सवाल है, ‘ऐसा कोई कवि, कहानीकार या समीक्षक–जिसे समझने में चूक हुई हो आपसे?’ जवाब में नामवर सिंह कहते हैं, ‘फिलहाल रेणु का नाम ही याद आ रहा है, जिनके महत्त्व को समझने में देर हुई मुझसे और इस ‘देर’ को ‘चूक’ भी कह सकते हैं।’ (घर का जोगी जोगड़ा, पृ.-134, 2006)। लेकिन सवाल यह उठता है कि अपनी चूक को समझने और स्वीकार करने के बाद भी नामवर जी ने क्या किया? जब वे रेणु के महत्त्व को समझ गए तथा उसे अपनी चूक की तरह देखने लगे, तब भी उन्होंने अपनी चूक को सुधारने का कोई प्रयत्न क्यों नहीं किया? जवाब ढूँढ़ते हुए आप अप्रिय स्थितियों में भी पड़ सकते हैं। लेकिन उक्त चूक के सार्वजनिक स्वीकार के बाद भी जब नामवर जी रेणु की भाषा पर सवाल खड़े करते हैं, तो कहीं-न-कहीं यह लगता है कि रेणु को जानबूझकर महत्त्व नहीं दिया उन्होंने।

यहाँ मैं कहना चाहूँगा कि तमाम अस्वीकृतियों और उपेक्षाओं के बावजूद यदि रेणु आज बार-बार पढ़े जाने की माँग करते हैं, तो यह उनकी भाषा की ही शक्ति है। साथ ही यह शक्ति है उनके लोक की, उनके अंचल की, उनकी स्थानीयता की, जिससे दुनिया का हरेक अंचल, हरेक स्थान और हरेक लोक अपने को नाभिनाल जुड़ा हुआ महसूस करता है। यह जुड़ाव उनके साहित्य में रची-बसी लोक संवेदना और जीवंत भाषा के कारण ही है।

प्रश्न यह है कि कहानी की भाषा में स्थानीयता की छौंक उचित है या अनुचित? यदि उचित है तो वह छौंक कैसी और कितनी आवश्यक है, यह कौन निर्धारित करेगा? कथाकार, आलोचक अथवा कथानक? हास्यरस कथासाहित्य में वर्जित है क्या? लोकतत्त्व को कथावस्तु का अंग बनाना अपराध है क्या? सबसे बड़ा प्रश्न यह कि भाषा के उक्त उपादानों और युक्तियों के प्रयोग किसी भाषायी गड़बड़ी की ओर संकेत करते हैं अथवा भाषा की आंतरिक शक्ति की ओर।

इन प्रश्नों पर जब तक आपलोग विचार करें, तब तक आइए रेणु के अंचल और उस अंचल की भाषा के बारे में जानें। रेणु के कथासाहित्य का आधार जो अंचल और परिवेश है, उसे हम कोसी अंचल का नाम दे सकते हैं। कोसी अंचल से तात्पर्य उस भू-भाग से है, जो कोसी नदी की विभीषिका का साक्षी रहा है। मार्ग परिवर्तनशीला कोसी नदी अपनी छाड़न धारा परमान से लेकर तिलयुगा तक हजारों वर्षों से बहती आई है और इन धाराओं के बीच के भू-क्षेत्र का निर्माण और ध्वंस करती रही है। इस दृष्टि से 1964 ई. में संपूर्ण कोसी तटबंध के निर्माण के बाद निर्धारित कोसी नदी के वर्तमान प्रवाहमार्ग के पूरब के क्षेत्र को हम कोसी अंचल के नाम से अभिहित कर सकते हैं, जिसकी पूर्वी सीमा महानंदा नदी का प्रवाह-मार्ग है, जबकि दक्षिणी सीमा गंगा नदी का प्रवाह मार्ग। अंचल की उत्तरी सीमा भारत-नेपाल की सीमा भी है। कोसी अंचल के इस सीमांकन में प्रशासनिक दृष्टि से बिहार के पूर्णिया और सहरसा प्रमंडल के अंतर्गत आनेवाले सात जिले शामिल हैं–कटिहार, पूर्णिया, अररिया, किशनगंज, मधेपुरा, सहरसा और सुपौल। कोसी अंचल के इस भू-भाग के अलावा रेणु के अनुभवों में नेपाल, भागलपुर, बनारस, पटना आदि स्थानों के अनुभवों का भी समावेश हुआ है, जहाँ-जहाँ उनका प्रवास रहा है। रेणु ने ‘मैला आँचल’ में वर्णित स्थान और परिवेश को इसकी भूमिका में ही स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘यह है मैला आँचल, एक आंचलिक उपन्यास। कथांचल है पूर्णिया। पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला। …मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर इस किताब का कथाक्षेत्र बनाया है।’ उल्लेखनीय है कि उस समय के पूर्णिया जिले में वर्तमान कटिहार, पूर्णिया, अररिया, किशनगंज-चारों जिलों का समावेश था।

आगे उपन्यास में भी उन्होंने इस अंचल का चित्र इस प्रकार खींचा है, ‘बूढ़ी कोसी के किनारे-किनारे बहुत दूर तक ताड़ और खजूर के पेड़ों से भरा हुआ जंगल है। इस अंचल के लोग इसे नवाबी तड़बन्ना कहते हैं। …तड़बन्ना के बाद ही एक बड़ा मैदान है, जो नेपाल की तराई से शुरू होकर गंगा जी के किनारे खत्म हुआ है। लाखों एकड़ जमीन, वंध्या धरती का विशाल अंचल।’ उपन्यास का एक पात्र डॉ. प्रशांत भी अपनी मित्र ममता को एक पत्र में इस अंचल के बारे में लिखता है, ‘मिथिला और बंगाल के बीच का हिस्सा वास्तव में मनोहर है।’

‘परती परिकथा’ में भी रेणु लिखते हैं, ‘धूसर, वीरान, अंतहीन प्रांतर।… उत्तर नेपाल से शुरू होकर, दक्षिण गंगातट तक, पूर्णिया जिले के नक्शे को दो असम भागों में विभक्त करता हुआ–फैला-फैला यह भू-भाग। लाखों एकड़ भूमि, जिन पर बरसात में क्षणिक आशा की तरह दूब हरी हो जाती है। संभवतः तीन-चार सौ वर्ष पहले इस अंचल में कोसी मैया की यह विनाश लीला हुई होगी।’

रेणु का यह कोसी अंचल एक मिश्रित सांस्कृतिक भाषायी परिवेश लिए हुए है। राजनीतिक दृष्टि से यह क्षेत्र कभी मिथिला, कभी विराट, कभी अंग, कभी बंग आदि राज्यों के शासकों द्वारा शासित हुआ, कभी स्वतंत्र शासन में भी रहा। इसके कारण यहाँ समावेशी सभ्यता-संस्कृति का विकास हुआ। मुख्य रूप से जल और जंगल पर निर्भर यहाँ के लोगों ने खेती-किसानी का जो सपना देखा था, उसका सटीक चित्रण रेणु जी ने अपने उपन्यास ‘परती परिकथा’ में किया है।

कोसी अंचल की बहु-सांस्कृतिक पहचान में यहाँ की संताल जनजाति के निवासियों के अलावा भोजपुर, मगध और बज्जि प्रदेश से रोजगार के लिए आए लोग भी शामिल हो जाते हैं। प्रतिवेशी अंग, बंग, मिथिला और नेपाल का प्रभाव और वहाँ के लोगों का यहाँ आकर निवास और आवाजाही तो बनी ही रही। यही कारण है कि रेणु के इस अंचल में मैथिली, अंगिका, नेपाली, बांग्ला, मगही, भोजपुरी एवं बज्जिका भाषाओं के साथ-साथ स्थानीय संताली एवं सूरजापुरी भाषाओं की भी उपस्थिति उनके रचनाकाल में प्रमुखता से रही, जो आज भी बनी हुई है। स्वतंत्रता-पूर्व के काल में भाषाओं के इस पंचमेल में देशी-विदेशी दो अन्य भाषाओं ने भी अपनी जगह बनाई-हिंदुस्तानी (जो बाद में लिपि-भेद के साथ हिंदी एवं उर्दू के रूप में मान्य हुई) और अँग्रेजी।

जाहिर है कि स्कूली शिक्षा के माध्यम से, प्रशासन की भाषा के नाते तथा अखबार एवं पत्रिकाओं के प्रचार-प्रसार के सहारे कोसी अंचल के लोग भी हिंदी एवं अँग्रेजी, विशेषकर हिंदी से परिचय प्राप्त कर रहे थे। देश के विभिन्न प्रांतों में हिंदुस्तानी के रूप में हिंदी के पाँव पसारने का यह समय था। रेणु ने अपनी रचनाओं में जब अपने अंचल को जीवंत किया तो अंचल के लोगों द्वारा उस समय बोली जानेवाली इसी कचराही हिंदी, जिसे पंचमेली भाषा भी कहा जाता है, का प्रयोग किया। भले ही उनके इस प्रकार के चित्रण को यथार्थवाद के नाम पर परोसा जानेवाला प्रकृतवाद कहकर खारिज किया जाए।

मैं कहना चाहूँगा कि निश्चित रूप से रेणु ने यह जानबूझकर किया। उस समय हिंदी कहानी एक ओर जहाँ पश्चिमी शिल्प के प्रभाव में थी, वहीं दूसरी ओर मानकीकृत नागरी भाषा के प्रभाव में ग्रामांचलों की धड़कन से दूर जाती हुई महसूस हो रही थी। रेणु ने न केवल भारतीय लोकसाहित्य की आख्यान परंपरा के शिल्प को अपनाया, बल्कि आंचलिक भाषा का प्रयोग करके हिंदी कथासाहित्य को ग्रामांचलों से जोड़ दिया। सबसे सकारात्मक बात यह हुई कि तमाम आरोप-प्रत्यारोपों, विरोध-अस्वीकृतियों के बावजूद गाँव और उसका जनजीवन फिर से हिंदी कथासाहित्य के केंद्र में आ गया, जिसका प्रभाव आंचलिक कथाधारा की अद्यतन प्रवहमान प्रवृत्ति के रूप में आज भी नजर आता है।

यहाँ यह भी कहना उचित होगा कि रेणु के पात्र परिस्थितियों के अनुसार ही हिंदी के अलावा किसी अन्य भाषा में संवाद बोलते हैं। वास्तव में यह छौंक की तरह ही है। इस प्रकार कि कहानी-उपन्यास अथवा पाठकों के प्रवाह में कहीं बाधा नहीं पहुँचाते। जैसा कि मैंने जिक्र किया उनके पात्र अपनी भाषा में जीनेवाले वे लोग हैं, जो एक ओर जहाँ हिंदी सीखकर उसे व्यवहार में ला रहे थे, वहीं अँग्रेजी शब्दावली की घुसपैठ को भी रोक पाने में असमर्थ थे, जिसके कारण अँग्रेजी शब्दों का भ्रष्ट उच्चारण उनके द्वारा किया जाता था। संवाद के अलावा अपनी कहन में भी रेणु ने तत्कालीन पंचमेली आंचलिक शब्दावली का प्रयोग किया है। केंद्रीय कथा के साथ-साथ आनुषंगिक कथाओं की उपस्थिति भारतीय लोक आख्यान शैली की विशेषता है। कहीं-कहीं हास्य पैदा करनेवाली शब्दावली का व्यवहार करनेवाले उनके पात्र लोक आख्यानों के विदूषकों की याद दिलाते हैं।

रेणु की रचनाओं में भाषा के पंचमेली प्रयोग के अलावा आंशिक तौर पर संवाद रूप में भी स्थानीय भाषाओं का प्रयोग मिलता है। ‘मैला आँचल’ तथा ‘परती परिकथा’ के ऐसे प्रयोगों को यहाँ देखा जा सकता है–

‘मैला आँचल’ से उदाहरण देखिए–

भोजपुरी ‘अरे! ई तो दस आदमी के काम बा।’

मैथिली ‘चाह पीयै ले बजबै छथिन दाय-नीचाँ! चलो’

अंगिका ‘पुरैनिया जिला में कंबल के नीचे भी घुसकर ससुरे मच्छर कटे है हो।’

मगही ‘रानीगंज के तीन गो मुरती तो आज सात दिन से धरना देले हथुन।’

बंगला ‘तुमि जाओ! आमार जनये भेबो ना। ओई द्याखो, भगवान आमार काछे निजय ऐसे गेछेन।’

‘परती परिकथा’ से उदाहरण देखिए–

अंगिका–‘देखबो तोहर अंडा। खूब सेबो अंडा।’

नेपाली–‘पानी मा भ्गुते हेरेर कॉऊ दृ कॉऊ कराउॅ छ मीत।’

बांग्ला–‘आमार चोख बुझी कॉटा?’

मैथिली–‘मालकिन, दुलहा बाबू आबिगेल।’

भोजपुरी–‘फिलिंग रिकार्ड हो रहल बा।’

मगही–‘कत्ते तनखा मिलै हको।’

भाषाविज्ञानी अंगिका, मैथिली, भोजपुरी और मगही को हिंदी की उपभाषाएँ, बोलियाँ कहते हुए गौरवान्वित होते हैं। इस दृष्टि से देखें तो यदि इनकी शब्दावलियों का अथवा आंशिक तौर पर वाक्यों का प्रयोग यदि रेणु की रचनाओं में मिलता है तो इससे हिंदी भाषा कमजोर कैसे हो रही है, यह समझ से परे है। यह विचार का एक अलग विषय है कि जब हिंदी साहित्य के इतिहास और क्षेत्र को विस्तृत करने की दृष्टि से हमने इसकी उपभाषाओं, बोलियों में लिखे गए प्राचीन साहित्य और उसके रचनाकारों को हिंदी का रचनाकार घोषित कर दिया, तब उन भाषा-बोलियों के आधुनिक कालीन लेखकों से किस बात की दुश्मनी?

यह सचमुच एक यक्षप्रश्न है कि जब तुलसीदास, कबीरदास, सूरदास, मीराबाई और विद्यापति हिंदी के प्रतिष्ठित कवियों में परिगणित किए जाते हैं, तो उनकी भाषा में लिखनेवाले आधुनिक कवियों को हम हिंदी का कवि क्यों नहीं मानते, उन्हें समुचित प्रतिष्ठा क्यों नहीं देते? यह एक भिन्न प्रसंग है। लेकिन रेणु ने जिस प्रकार अपनी रचनाओं में स्थानीय भाषाओं और उनकी शब्दावली को महत्त्व दिया, उसको देखते हुए उनकी भाषा और सरोकार पर विचार के बहाने निश्चय ही इस सवाल पर गौर किया जाना चाहिए।

कुछ लोगों को लगता है कि रेणु को हिंदी नहीं आती थी, इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में ऐसी भाषा का प्रयोग किया। ऐसा माननेवाले लोग गलतफहमी का शिकार हैं, क्योंकि रेणु को न केवल अच्छी हिंदी आती थी, बल्कि वे बांग्ला, नेपाली, संस्कृत और अँग्रेजी भाषाओं के भी जानकार थे। लेकिन आम जन के साथ घुलमिलकर वे उन्हीं की पंचमेली भाषा का आनंद उठाते थे। उनकी अनुभूतियों को जीते थे और कागज पर उतारते थे।

लोठार लुत्से को दिए अपने साक्षात्कार में रेणु ने भाषा के अपने प्रयोग के बारे में कहा था, ‘यूँ जब साधारण आदमी की बात करनी हो, जब वे लोग बोलते हैं, तब तो जाहिर है, गाँव की बोली में बोलते हैं, मैथिली में बोलते हैं, मगही में बोलते हैं। मुझको लिखना पड़ रहा है उसको हिंदी में। तो मैं उसको शुद्ध व्याकरणसम्मत और पंडिताऊ भाषा में लिखता हूँ तो खुद कान में यह कैसा लगेगा कि एक गाँव का आदमी किस तरह बोलता है–उतना शुद्ध बोलता है और बिल्कुल वैसा या अशुद्ध लिखने से यह उपन्यास चल नहीं सकता है तो बीच का कहीं एक रास्ता तय करना होगा।’ आम जनता के लिए जो दो चीजें असह्य होती हैं, वही उनको भी थीं, जिनके खिलाफ उन्होंने आजीवन संघर्ष किया। ये दो चीजें थीं–अन्याय और भ्रष्टाचार। उनका कहना था, ‘मैंने आजादी की लड़ाई आज के भारत के लिए नहीं लड़ी थी। अन्याय और भ्रष्टाचार अब तक मेरे लेखन का विषय रहा है और मैं सपने देखता रहा हूँ कि यह कब खत्म हो। अपने सपनों को साकार करने के लिए जन-संघर्ष में सक्रिय हो गया हूँ।’ (दिनमान, 28 अप्रैल 1974)

संघर्ष के साथ उनके जीवन का चोली-दामन का साथ रहा। स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे और तीस महीने जेल में काटे, नेपाल के मुक्ति आंदोलन में भागीदार रहे, किसान-मजदूर आंदोलनों में शरीक हुए, जयप्रकाश नारायण का साथ दिया, आपातकाल में भूमिगत हुए। उनके संघर्ष तथा जनता के सरोकारों से जुड़े उनके जमीनी स्तर के मार्मिक रिपोर्ताज तथा कहानियाँ, जिनका लेखन वे 1946 से ही करते रहे, उन्हें संघर्षशील जनता की दिल की धड़कनों के करीब ले आते हैं। वास्तव में रेणु की रचनाओं के कथ्य, तत्त्व, भंगिमा, भाषा-प्रयोग आदि उनके जन-सरोकारों तथा जमीन से जुड़े होने की ताईद करते हैं। यही उनकी रचना की ताकत है, जो आज भी आम जन को अपनी ओर खींचती है। उन्हें अपने जैसा पाती है। अपने दुख-तकलीफ में उनको अपना सहारा बनाती है।

आज, जबकि भूमंडलीकरण तथा बाजारवाद के प्रभाव में किसान-मजदूरों और आम जनता का जीवन और उनके अधिकार सरकारों की प्राथमिकता में नहीं हैं तथा लोकभाषाओं एवं लोकसंस्कृतियों के लुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है, रेणु का साहित्य और उसकी भाषा हमें एक नई ऊर्जा और सकारात्मकता से भर देते हैं। आज की शब्दावली का प्रयोग करें, आलोचना की टटका शब्दावली का, तो निश्चित रूप से हमें यह बेहिचक कहना होगा कि रेणु के सरोकार बहुजन समाज के सरोकार हैं, उनकी भाषा बहुजन समाज की भाषा है और इसलिए उनकी उपेक्षा बहुजन विमर्श की उपेक्षा है।