रेणु का लोकराग

रेणु का लोकराग

जब मैं किशोरावस्था में था, तब ‘दिनमान’ को नियमित रूप से पढ़ा करता था। कभी-कभार उसमें अपनी पाठकीय प्रतिक्रियाएँ भी दिया करता था। वे छपती भी थीं। इसमें दो राय नहीं कि ‘दिनमान’ को पढ़ते हुए मैंने पत्रकारिता के पाठ को भी पढ़ना शुरू किया था। उस वक्त कभी-कभी फणीश्वरनाथ रेणु के रिपोर्ताज भी पढ़ने को मिला करते थे। उनके लेखन को मैं बहुत ध्यान से पढ़ा करता था क्योंकि उसमें एक अलग आनंद महसूस हुआ करता था। लगता था, जैसे कोई कहानी पढ़ रहा हूँ। तब तक मुझे इस बात का एहसास नहीं था कि रेणु साहित्य की दुनिया के एक बड़े हस्ताक्षर भी हैं। हाईस्कूल उत्तीर्ण करने के बाद जब कॉलेज में दाखिल हुआ, तब ‘मैला आँचल’ नामक उपन्यास कोर्स में था। इसके लेखक थे रेणु। तब मुझे समझ में आया कि ये वही रेणु हैं जो दिनमान में भी लिखा करते थे। तब तक मैं उन्हें सिर्फ एक पत्रकार समझता था, लेकिन हिंदी साहित्य के विद्यार्थी के रूप में पढ़ते हुए समझ में आया कि वे बड़े कथाकार भी हैं। बाद में मुझे यह ज्ञात हुआ कि वह दिनमान के विशेष प्रतिनिधि भी थे। इसीलिए समय-समय पर उनकी विशेष रपट दिनमान में प्रकाशित होती रहती थी। हालाँकि तब तक साहित्यिक उपन्यासों को पढ़ने में मेरी रुचि बहुत अधिक नहीं थी। उपन्यासों की पृष्ठ संख्या देखकर मैं बिदक जाया करता था और कुंजी के सहारे परीक्षा उत्तीर्ण कर लेता था। लेकिन धीरे-धीरे जब साहित्य के प्रति गहरी अनुरक्ति विकसित होती गई, तब मुझे लगा कि यह बेईमानी ठीक नहीं है। उसके बाद से पूरी ईमानदारी के साथ मैंने साहित्य का अध्ययन शुरू किया और उसके तहत अपने प्रिय लेखक रेणु को भी कुछ-कुछ पढ़ डाला। ‘मैला आँचल’ को पहले कुंजी के सहारे पढ़ा लेकिन बाद में पूरी ईमानदारी के साथ उस उपन्यास को पढ़ा। फिर तो ‘परती परिकथा’, ‘मारे गए गुलफाम’, ‘पंचलाइट’, ‘लाल पान की बेगम’, जैसी किताबें भी मैंने पढ़ ली। तब समझ में आया कि रेणु को आलोचक आंचलिक उपन्यास के प्रणेता के रूप में क्यों रेखांकित करते हैं। पहले मुझे यह सोच कर दुख होता था कि एक बड़े रचनाकार को आंचलिक उपन्यासकार कह कर उसका अवमूल्यन किया जा रहा है, लेकिन बाद में समझ में आया कि आंचलिक उपन्यासकार कह कर उनकी विशेषता को ही रेखांकित किया जा रहा है, क्योंकि उनके लेखन में बिहार झलकता है। वहाँ का लोकजीवन, वहाँ की लोक भाषा, वहाँ की लोक संस्कृति सबका रूपायन रेणु के कथा साहित्य की विशेषता है। अपने समय में रेणु ही ऐसे कथाकार रहे हैं, जिनकी रचनाओं में लोक का इतना सघन आस्वादन मिलता है। उनके समकालीन कथाकार जब नागर-जीवन के बिंब उपस्थित कर रहे थे, तभी रेणु का कथाकार अपनी मिट्टी की सुवास से अपने कथा साहित्य को समृद्ध कर रहा था। वे सिर्फ कथाकार ही नहीं थे, स्वतंत्रता सेनानी भी थे। साधारण क्रांतिकारी नहीं, असाधारण क्रांतिकारी। उनके इतिहास पर जब मैं दृष्टिपात करता हूँ तो पाता हूँ कि वे अद्भुत क्रांतिकारी थे। बचपन से ही। उनके बचपन की उस घटना को हमें याद करना चाहिए, जब उस समय की प्रख्यात पत्रिका ‘चाँद’ का फाँसी अंक छपा था। उस विशेषांक को देश भर में प्रतिबंधित कर दिया गया था। जिसके पास भी फाँसी अंक मिलता, उसको गिरफ्तार कर लिया जाता था। अँग्रेजों को जब पता चला फणीश्वरनाथ रेणु के पिता के पास भी चाँद का फाँसी अंक है, तो उनके घर छापा पड़ा। तब स्कूल में पढ़ने वाले बालक रिनुआ उर्फ रेणु अपने बस्ते में चाँद का फाँसी अंक छिपा कर घर से बाहर निकल गए। रेणु ने बाल्यकाल में वानर सेना भी बनाई थी। ‘खंगार सेवक’ नामक हस्तलिखित पत्रिका भी निकाली। एक बार गाँधी की गिरफ्तारी के विरोध में रेणु ने स्कूल का बहिष्कार भी किया था। तब उन्हें दस बेंत की सजा मिली थी। वे हर बेंत पर वन्दे मातरम और गाँधी जी की जय बोलते थे। फिर उन्हें 14 दिन की जेल भी हुई। 1942 के आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भागीदारी अदा की। गिरफ्तार भी हुए तो उनको बुरी तरह पीटा गया और ढाई साल के लिए जेल भेज दिया गया। 1943 में जब ज्यादा बीमार पड़े तो उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया। भारत ही नहीं, नेपाल में भी जब अँग्रेजों के खिलाफ आंदोलन की लहर चली, तो वहाँ भी रेणु फौजी वर्दी में लोकतंत्र की लड़ाई लड़ने उतर गए। उन्होंने ‘नेपाली क्रांति कथा’ नामक पुस्तक लिखी, जिसमें नेपाल में चल रहे पूरे आंदोलन का विस्तार से वर्णन किया है। ये सारा रिपोर्ताज दिनमान में ‘हिल रहा हिमालय’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। ‘जै गंगा’ और ‘डायन कोसी’ जैसे रिपोर्ताज तो आज भी श्रेष्ठ पत्रकारिता की अमूल्य निधि हैं। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में भी उनकी सक्रिय भूमिका किसी से छिपी नहीं है। नेपाल से उनका भावनात्मक लगाव था, क्योंकि उन्होंने हाई स्कूल की पढ़ाई विराटनगर से की थी। कोईराला परिवार से उनके निकट के संबंध थे। यही कारण है कि नेपाल में होने वाले आंदोलन में वे सक्रिय रूप से जुड़ गए थे। मतलब यह कि रेणु सिर्फ नाम भर के लेखक नहीं थे साहित्य में यह प्रवृत्ति खूब देखी गई है कि अनेक लेखक केवल लिखते भर हैं, समाज से उनका कोई सरोकार नहीं रहता लेकिन रेणु ऐसे विरल लेखक हैं जिन्होंने अपने जीवन को क्रांतिकारी तेवर से लवरेज कर दिया। जब वे बीएचयू में पढ़ाई कर रहे थे तब उनकी एक लंबी कविता ‘आवाम’ काफी पॉपुलर हुई थी।

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रेणु की कहानियों में सबसे बड़ा कमाल उसकी मिश्रित भाषा को लेकर देखा जा सकता है। गाँव के जीवन को जिस कलात्मक भाषा के सहारे वे प्रस्तुत करते हैं, उसे पढ़ते हुए पाठक के सामने जैसे कोई फीचर फिल्म चलने लगती हैं। बिहार के अनेक गाँवों के नाम बीच-बीच में आते रहते हैं। उनकी कहानी को पढ़ते हुए यह नहीं लगता कि एक रचनाकार कोई कृत्रिम कहानी कह रहा है। ऐसा लगता है, कोई शख्स गाँव के किनारे बैठ कर गाँव में घटित होने वाली घटनाओं को नरेट कर रहा है। कथा शैली ऐसी कि पाठक उसके साथ बहता ही चला जाए जैसे कोसी नदी बहती है। उसी तरह पाठक भी प्रवाहमान बना रहता है। उनको हम लोकशिल्पी भी कह सकते हैं। भाषा का खिलंदड़ापन उनकी रचनाओं में यत्र-तत्र पसरा नजर आता है। उनके कथा संग्रह ‘ठुमरी’ की कहानियों में भी अनेक लोकगीतों को खूबसूरती के साथ उन्होंने पिरोया। ‘हल जोते हलवाहा’ या ‘होलिया आई रे’ जैसे लोकगीत तो अनेक लोक कलाकार आज भी गाते हैं।

रेणु का कालजयी उपन्यास ‘मैला आँचल’ भी लोक जीवन से दीप्त है। अपने इस उपन्यास के बारे में रेणु ने खुद लिखा कि ‘इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।’ इसमें गरीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, बाह्याडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है।’ इससे अलग हट कर जो सबसे बड़ी बात यह है कि इस कृति में भी लोकभाषा शैली का जबरदस्त इस्तेमाल किया गया है। हालाँकि ‘परती परिकथा’ से पहले लिखा गया था यह उपन्यास। इस उपन्यास को रेणु ने खुद प्रकाशित करवाया था। लेकिन इस उपन्यास की अद्भुत लोकप्रियता देखकर दिल्ली का एक प्रकाशक उनके पास पहुँचा और पुनर्प्रकाशन के लिए उनसे अनुबंध किया। उसके बाद से तो अब तक ‘मैला आँचल’ के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए। उपन्यास का विश्व की कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। इसमें लोकभाषा शैली का लालित्य देखते बनता है। हर पृष्ठ पर उसका सौंदर्य बिखरा है। फिर भी बानगी के तौर पर एक अंश देखिए ‘सुसलिंग मत कहिए, सोसलिस्ट कहिए।… बात तो सही मुँह से निकलती ही नहीं है और मुंसियाती बघारते हैं।… जमीदार के तहसीलदार से और अपने मैनेजर से भी जा कर कह दो, रैयत से जमीन छुड़ाना हँसी-ठट्ठा नहीं है। पाटी के एजकूटी में परसताब पास हो गया है, संघर्ष होगा, संघर्ष! समझे?’ (पृष्ठ-148)

रेणु ने कहीं-कहीं लोकगीत भी पिरोये हैं। जैसे–

‘आँ रे काँचही बाँस के खाट रे खटोलना
आखै मूँज के र हे डोर!
हाँ रे मोरी रे ए ए ए हाँ आँ आँ रामा रामा!
चार समाजी मिली डोलिया उठाओल
लई चलल जमूना के ओर
हाँ रे मोरी रे ए…!’

(पृष्ठ-258)

रेणु के ग्रामीण लेखन के कारण उनकी चर्चा प्रेमचंद से जोड़कर भी की जाती रही है। यह मेरी अपनी विनम्र स्थापना है कि प्रेमचंद अपनी कहानियों में रस तो सृजित करते हैं लेकिन जो लय रेणु उपस्थित करते हैं, वह प्रेमचंद की रचनाओं में नजर नहीं आता। प्रेमचंद की कथाओं में कथावस्तु तो प्रचुर मात्रा में है लेकिन लोक का चमत्कार लगभग अनुपस्थित है। ‘मैला आँचल’ के अंत में रेणु लोक भाषा से स्थानांतरित होकर ठेठ हिंदी के ठाठ का भी आनन्द देते हैं, जिसमें भाषा काव्यात्मक हो उठी है। उपन्यास का पात्र प्रशांत कहता है, ममता! मैं फिर काम शुरू करूँगा–यहीं, इसी गाँव में। मैं प्यार की खेती करना चाहता हूँ। आँसू से भीगी हुई धरती पर प्यार के पौधे लहलहाएँगे। मैं साधना करूँगा ग्रामवासिनी भारत माता के मैले आँचल तले। कम-से-कम एक ही गाँव के कुछ प्राणियों के मुरझाये ओंठों पर मुस्कुराहट ला सकूँ, उनके हृदय में आशा और विश्वास को प्रतिष्ठित कर सकूँ…।’

ममता हँसती है–‘मन करता है, किसी को आँचल पसार कर आशीर्वाद दूँ–तुम सफल होओ! मन करता है, किसी कर्मयोगी के बढ़े हुए चरणों की धूलि लेकर कहूँ…’ कहकर ममता प्रशांत के पैरों की ओर हाथ बढ़ाती है।

‘ममता!’

‘ममता दी!…लो इसे। दूध फेंकता है। कमली अपने शिशु को गोदी में लेकर हँसती हुई आती है।’ अर्थात लोक राग से लेकर देशराग हिंदी तक पहुँचा कर रेणु अपने उपन्यास को शिखर तक ले जाते हैं।

‘परती परिकथा’ उपन्यास में नये भारत की कुछ परियोजनाओं का जिक्र है, तो समाज में कटुता नहीं, प्रेम की प्रतिष्ठा का संदेश भी है। भाषा की लोक रंजकता तो इस उपन्यास की आत्मा है ही। एक अंश देखें, ‘अब यहाँ का किस्सा यहीं, आगे का सुनहु हवाल। देखिए कि क्या रंग-ताल लगा है! कोसी मैया लौटी। गौर पहुँचकर दीप जलाई। दीप जलते ही, उधर सास की मूर्छा गई टूट, क्योंकि गौर में दीप जलाने से बाप-कुल, स्वामी-कुल दोनों कुल में इंजोत होता है। उसी इंजोत से सास की मूर्छा टूटी। अपनी दोनों बेटियों को गुन मारकर जगाया, अरी, उठ गुनमंती, जोगमंती, दुनू बहिनियाँ!’ ऐसी बतियाती देशज भाषा का आनन्द शहरी उपन्यासों में नहीं मिल सकता। दृश्य को जीवंत करने के लिए रेणु जो ध्वन्यात्मकता उपस्थित करते हैं, वह अभूतपूर्व है। अद्भुत है। जैसे–‘कुल्हड़िया आँधी और पहड़िया पानी ने मिलकर कैसा परलय मचाया है : ह-ह-ह-र-र-र-र…! गुड़गुडुम-आँ-आँ-सि-ई-ई-ई-आँ-गर-गर-गुडुम!’ रचना में ऐसा नाद दुर्लभ है। तभी तो उन्हें गाते हुए गद्य का कथाकार कहा जाता है। उनके यहाँ गद्य सपाट गद्य नहीं है, वरन गीतात्मकता की आत्मा के साथ निबद्ध है। रेणु के पहले किसी कथाकार ने ऐसी भाषा का इस्तेमाल नहीं किया और उसके बाद के भी किसी कथाकार ने ऐसी लयात्मक भाषा का इस्तेमाल कम ही किया।

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हमारी आलोचना की कमजोरी यह है कि वह किसी भी रचनाकार को समग्रता में देखने की कोशिश नहीं करती। रचनाकार की किसी एक प्रमुख विधा को लेकर उस पर ठप्पा मार देती है। जैसे रेणु के मामले में हुआ। उन्हें हिंदी जगत एक कथाकार के रूप में जानता है लेकिन रेणु ने अनेक कविताएँ भी लिखीं। उनकी तमाम कविताएँ ‘कवि रेणु कहें’ में संगृहीत हैं। अब तो गूगल के माध्यम से भी हम ‘कविता कोश’ में रेणु की कविताएँ पढ़ सकते हैं। इसी तरह एक बड़े रचनाकार विष्णु प्रभाकर के साथ भी हमारी आलोचना ने अनदेखी की। उनके कवि रूप को हाशिये पर ही डाल दिया, जबकि उन्होंने भी अनेक महत्वपूर्ण कविताएँ की थीं। रेणु की कविताओं में कहीं शांत रस दिखाई देता है, तो कहीं वीर रस। कहीं-कहीं व्यंग्य की प्रखरता भी द्रष्टव्य होती हैं। जैसे उनकी कविता ‘इमरजेंसी’ को देखें। इसमें उन्होंने अभिव्यक्ति की बारीक बुनावट का सहारा लेकर प्रतीकों के माध्यम से इमरजेंसी के दर्द को अभिव्यक्त किया है। समझदार पाठक एक-एक पंक्ति के परिपार्श्व में निहित प्रतीकों को समझ सकता है और यही इस रचना की विशेषता भी है कि वह सपाट तरीके से इमरजेंसी को पारिभाषित नहीं करती, वरन प्रतीकों में बहुत कुछ कह जाती है। देखें,

‘इस ब्लॉक में मुख्य प्रवेश द्वार के सामने’
हर मौसम आकर ठिठक जाता है
सड़क के उस पार
चुपचाप दोनों हाथ बगल में दबाए
साँस रोके खामोश इमली की शाखों पर हवा
‘ब्लाक’ के अंदर एक ही ऋतु
हर वार्ड में बारहों मास
हर रात रोती काली बिल्ली
हर दिन
प्रयोगशाला से बाहर फेंकी हुई
रक्तरंजित सुफेद खरगोश की लाश
‘ईथर’ की गंध में ऊँघती जिंदगी’ रोज का यह सवाल
‘कहिए! आप कैसे हैं?’
रोज का यह जवाब–‘ठीक हूँ सिर्फ कमजोरी
थोड़ी खाँसी और तनिक सा
…यहाँ पर…मीठा-मीठा दर्द!’

‘मेरा मीत सनीचर’ में रेणु छंद का सहारा लेते हैं। छंद कविता का प्राणतत्त्व है। यह और बात है कि साठोत्तरी कविता की आँधी में छंद के बंध टूट गए। रेणु ने भी कविताएँ लिखीं तो अतुकांत अधिक रची। लेकिन इस कविता में उन्होंने छंद के बंध को जीने की कोशिश की। देखिए, कुछ पंक्तियाँ–

‘पद्य नहीं यह, तुकबंदी भी नहीं, कथा सच्ची है
कविता-जैसी लगे भले ही, ठाठ गद्य का ही है।

बहुत दिनों के बाद गया था, उन गाँवों की ओर
खिल-खिल कर हँसते क्षण अब भी, जहाँ मधुर बचपन के
किंतु वहाँ भी देखा सब कुछ अब बदला-बदला-सा
इसीलिए कुछ भारी मन लेकर लौट रहा था।’

रेणु जी की एक और बेहद प्रभावशाली कविता है, ‘सुंदरियों’। यह कविता बदलते हुए समाज, बाजार और बदलती हुई मानसिकता को केंद्र में रखकर लिखी गई है। किस तरह से स्त्री सौंदर्य के वशीभूत होकर पुरुष समाज उनका दोहन करने लगता है, इसे दर्शाने वाली कविता यह संदेश भी देती है कि अगर सुंदरियाँ अपनी जरूरत के हिसाब से बाजार में उतरी भी हैं, तो उन्हें अपनी अस्मिता को बचाकर रखना है। वरना लुटेरे उसे तार-तार कर के रख देंगे। कविता की और अधिक व्याख्या करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि कविता अभिधात्मक ढंग से अपने कंटेंट को अभिव्यक्त करती चलती है–

‘सुंदरियो-यो-यो
हो-हो
अपनी-अपनी छातियों पर
दुद्धी फूल के झुके डाल लो!

नाच रोको नहीं, बाहर से आए हुए
इस परदेसी का जी साफ नहीं।

इसकी आँखों में कोई
आँखें न डालना।

यह ‘पचाई’ नहीं
बोतल का दारू पीता है।

सुंदरियो जी खोलकर
हँसकर मत मोतियों की वर्षा करना
काम-पीड़ित इस भले आदमी को
विष-भरी हँसी से जलाओ।

यों, आदमी यह अच्छा है
नाच देखना, सीखना चाहता है।’

रेणु की कविताएँ यथार्थवादी हैं। वे बहुत कलात्मक औजारों से लैस नहीं हैं। वे अपनी बात बेहद सहज सरल तरीके से कहते हैं। उनकी तमाम रचनात्मकता को अगर एक पंक्ति में व्याख्या करना चाहो तो मैं कह सकता हूँ कि फणीश्वरनाथ रेणु की रचना में रचना कर्म में लोक संगीत, लोक कला, परंपरा का अद्भुत समन्वय दीखता है। उनकी रचना की अंतरधारा में परिवर्तनकामी मूल्य भी साफ दृष्टिगोचर होते हैं। महान रचनाकार रेणु की जन्मशताब्दी वर्ष पर उन्हें याद करना अपने एक महान साहित्य पुरखे को याद करने का आंशिक कर्तव्य निभाना है। उस पुरखे को जिसने साहित्य के केंद्र में आंचलिकता को सम्मानपूर्वक स्थान दिलाया, और उसके बाद से ही साहित्य में आंचलिकता सम्मिश्रण का एक नया दौर ही प्रारंभ हो गया।


Image : Young Girl Reading
Image Source : WikiArt
Artist : Pierre-Auguste Renoir
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