राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
- 1 May, 1951
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- 1 May, 1951
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
मैं गुप्त जी को कब से जानती हूँ इस सीधे-से प्रश्न का मुझसे आज तक कोई सीधा-सा उत्तर नहीं बन पड़ा। प्रश्न के साथ ही मेरी स्मृति अतीत के एक धूमिल पृष्ठ पर उँगली रख देती है जिस पर न वर्ष, तिथि आदि की रेखाएँ हैं और न परिस्थितियों के रंग। केवल कवि बनने के प्रयास में बेसुध एक बालिका का छाया-चित्र उभर आता है।
ब्रजभाषा में जिनका कवि-कंठ फूटा है उनके निकट समस्यापूर्ति का कल्पना-व्यायाम अपरिचित न होगा। कवि बनने की तीव्र इच्छा रहते हुए भी मुझे यह अनुष्ठान गणित की पुस्तक के सवाल जैसा अप्रिय लगता था, क्योंकि दोनों ही में उत्तर पहले से निश्चित रहता है और विद्यार्थी को उस तक पहुँचने का टेढ़ा-मेढ़ा क्रम खोज निकालना पड़ता है। पंडित जी गणित के प्रश्नों के संबंध में जितने मुक्तहस्त थे, समस्याओं के विषय में भी उतने ही उदार थे। अत: दर्जनों गणित के प्रश्नों और समस्याओं के बीच में दौड़ लगाते-लगाते मन कभी समझ नहीं पाता था कि गणित के प्रश्न का हल करना सहज है अथवा समस्या की पूर्ति।
कल्पना के किसी अलक्ष्य दल-दल में आकंठ ही नहीं, आशिखा-मग्न किसी उक्ति को समस्या रूपी पूँछ पकड़ कर बाहर खींच लाने में परिश्रम कम नहीं पड़ता था। इस परिश्रम के नापतोल का कोई साधन नहीं था, पर सब से अधिक अखरता था किसी सहृदय दर्शक का अभाव। कभी बाहर बैठक की मेज़ पर बैठ कर, कभी भीतर तख्त पर लेट कर और कभी आम की डाल पर समासीन होकर मैं अपने शोध कार्य में लगी रहती थी। उक्ति को पाते ही सरकंडे की कलम की चौड़ी नोक से मोटे अक्षरों की जंजीर से बाँध कर कैद कर देती थी। तब कान, गाल, आदि पर लगी स्याही मेरी उज्ज्वल विजय का विज्ञापन बन जाती थी।
ऐसी ही एक उक्ति अहेर में मेरे हाथ ऐसी पूँछ आ गई जिसका वास्तविक अधिकारी मेरे ज्ञान-जगत की सीमा में नहीं था। ‘मेघ बिना जलवृष्टि भई है।’ अवश्य ही यह समस्या किसी प्रकार पंडित जी की दृष्टि बचाकर ऐसी समस्याओं के बाड़े में प्रवेश पा गई जो मेरे लिए ही सुरक्षित थीं, क्योंकि साधारणत: पंडित जी मेरे अनुभव की सीमा का ध्यान रखते थे। बचपन में जिज्ञासा इतनी तीव्र होती है कि बिना कार्य-कारण स्पष्टता किए एक पग बढ़ना भी कठिन हो जाता है। बादल पानी बिना बरसाए हुए रह सकते हैं, परंतु पानी तो उसके बिना बरस नहीं सकता। उस समय लक्षणा-व्यंजना की गुंजाइश नहीं थी, अत: मन में बारंबार प्रश्न उठने लगा कि बादलों के बिना पानी कैसे बरसा और यदि बरसा तो किसने बरसाया।
प्रयत्न करते-करते मेरे माथे और गाल पर स्याही से हिंदुस्तान की रेलवे लाइन का नक्शा बन गया और सरकंडे की कलम की नोक टूट गई, पर वह उक्ति न मिल सकी जो मेघों के रूठ जाने पर पानी बरसाने का कार्य कर सके।
अतीत के अनेक राजा-रानियों और घटनाओं को मैं कल्लू की माँ की आँखों से देखती थी। विधि-निषेध के अनेक सूत्रों की वह व्याख्याकार थी। मेघरहित वृष्टि के संबंध में भी मैंने अपनी धृतराष्ट्रता स्वीकार कर उसकी सहायता चाही। समस्या जैसे मेरे ज्ञान की परिधि के परे थी, आकाश के हस्ती नक्षत्र का नक्षत्रत्व वैसे ही उसके विश्वास की सीमा के बाहर था। वह मानती थी कि आकाश का हाथी सूँड़ में पानी भरकर जब उड़ेल देता है तब कई-कई दिन तक वर्षा की झड़ी लगी रहती है। मैंने सोचा–हो न हो, मेघों की बेगार ढोने वाला यही स्वर्ग का बेकार हाथी समस्या का लक्ष्य है। पर इस कष्टप्राप्त निष्कर्ष को सवैया में कैसे उतारा जाय इसी प्रयत्न में कई दिन बीत गए। उन्हीं दिनों सरस्वती पत्रिका और उसमें प्रकाशित गुप्त जी की रचनाओं से मेरा नया-नया परिचय हुआ था। बोलने की भाषा में कविता लिखने की सुविधा मुझे बार-बार खड़ी बोली की कविता की ओर आकर्षित करती थी। इसके अतिरिक्त रचनाओं से ऐसा आभास भी नहीं मिलता था कि उनके निर्माताओं ने मेरी तरह समस्यापूर्ति का कष्ट झेला है। उन कविताओं के छंदबंध भी सवैया छंदों से सहज जान पड़ते थे और अहो कहो आदि तुक तो मानो मेरे मन के अनुरूप ही गढ़े गए थे।
अंत में मैंने ‘मेघ बिना जलवृष्टि भई है’ का निम्न पंक्तियों में कायाकल्प किया–
‘हाथी न अपनी सूँड़ में यदि नीर भर लाता अहो
तो किस तरह बादल बिना जल वृष्टि हो सकती कहो!’
समस्या-पूर्ति के स्थान में जब मैंने यह विचित्र तुकबंदी पंडित जी के सामने रखी तब वे विस्मय से बोल उठे ‘अरे यह यहाँ भी पहुँच गए।’ उनका लक्ष्य खड़ी बोली के कवि थे अथवा काव्य यह आज बताना संभव नहीं। पर उस दिन खड़ी बोली की तुकबंदी से मेरा जो परिचय हुआ उसे मैं गुप्त जी का परिचय भी मानती हूँ। उसके उपरांत मैं जो कुछ लिखती उसके अंत में अहो जैसा तुकांत रखकर उसे खड़ी बोली का जामा पहना देती। राजस्थान की एक गाथा भी मैंने हरिगीतिका छंद में लिख डाली थी जिसके खो जाने के कारण ही मुझे एक हँसने योग्य कृतित्व से मुक्ति मिल गई है।
गुप्त जी की रचनाओं से मेरा जितना दीर्घकालीन परिचय है उतना उनसे नहीं। उनका एक चित्र, जिसमें दाढ़ी और पगड़ी साथ उत्पन्न हुई-सी जान पड़ती है, मैंने तब देखा जब मैं काफी समझदार हो गई थी। पर तब भी उनकी दाढ़ी देख कर मुझे अपने मौलवी साहब का स्मरण हो आता था। यदि पहले मैंने वह चित्र देखा होता तो खड़ी बोली की काव्य-रचना का अंत उर्दू की पढ़ाई के समान होता या नहीं, यह कहना कठिन है।
गुप्त जी के बाह्य दर्शन में ऐसा कुछ नहीं है जो उन्हें असाधारण सिद्ध कर सके। साधारण मझोला कद, साधारण छरहरा गठन, साधारण गहरा गेहुआँ या हल्का साँवला रंग, साधारण पगड़ी, अंगरखा, धोती या उसका आधुनिक संस्करण गाँधी टोपी, कुरता-धोती और इस व्यापक भारतीयता से सीमित सांप्रदायिकता का गठबंधन-सा करती हुई तुलसी कंठी। अपने रूप और वेष दोनों में वे इतने अधिक राष्ट्रीय हैं की भीड़ में मिल जाने पर शीघ्र ही खोज नहीं निकाले जा सकते।
उनके चौड़े ललाट पर क्रोध और दुश्चिंताओं की क्रूर लिखावट नहीं है, सीधी भृकुटियों में असहिष्णुता का कुंचन नहीं है, ऊँची नाक पर दंभ का उतार-चढ़ाव नहीं है और ओठों में निष्ठुरता की वक्रता नहीं है। जो विशेषताएँ उन्हें सबसे भिन्न कर देती हैं वे हैं उनकी बँधी दृष्टि और मुक्त हँसी। जब हमारी दृष्टि में प्रसार अधिक रहता है तब हम किसी एक में उसे केंद्रित नहीं कर सकते। प्रत्युत हमारी विहंगम-दृष्टि एक ही क्षेत्र में एक साथ अनेक को स्पर्श कर आती है। इससे जिस सीमा तक हमारा ज्ञान बढ़ जाता है उसी सीमा तक हमारी दृष्टि के विषयों का महत्त्व घट जाता है, इसके विपरीत जब हमारी हँसी में मुक्त विस्तार नहीं होता, तब हम हवा के झकोरे के समान उसका सुखद स्पर्श सब तक नहीं पहुँचा सकते। उस स्थिति में हमारे हास-परिहास व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों को केंद्र बना कर सीमित हो जाते हैं। कलाकार की दृष्टि एक-एक पर ठहर कर ही प्रत्येक को अपना परिचय देती है और उसकी हँसी एक साथ सबको स्पर्श करके ही आत्मीयता स्वीकार करती है। इस परिचय और आत्मीयता के अभाव में जीवन का वह आदान-प्रदान संभव नहीं होता जिसकी साहित्य और कला में पग-पग पर आवश्यकता रहती है।
गुप्त जी की दृष्टि और हँसी उन्हें किसी के निकट अपरिचित नहीं रहने देती। कभी-कभी तो उनका देखना और हँसना इस तरह साथ चलता है कि दृष्टि हँसती-सी लगती है और हँसी से दृष्टि का आलोक बरसता जान पड़ता है। वे स्वभाव से प्रसन्न और विनोदी हैं, पर इस प्रसन्नता और विनोद की चंचल सतह के नीचे गहरी सहानुभूति और तटस्थ विवेक का स्थाई संगम है जिस पर सबकी दृष्टि नहीं जाती। केवल विनोदी व्यक्ति की दृष्टि इतनी पैनी नहीं होती कि जीवन के बाह्य आवरणों को भेद कर तथ्य तक पहुँच सके और कवि के लिए यह पैनापन अनिवार्य है। इसी से बाहर से विनोदी कलाकार का स्वभाव अपनी स्पष्टता में भी दुर्बोध रहता है। यदि उसे जीवन कौतुक से अधिक नहीं जान पड़ता तो वह जीवनव्यापी विषमता के प्रति असहिष्णु कैसे हो सकता है। यदि वह जीवन से संतुष्ट है तो सामंजस्य भावना न आवश्यक रहती है, न तीव्र और साहित्य में यदि अधिक सामंजस्य की पुकार नहीं है तो वह इतिवृत्त के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
गुप्त जी स्वभाव से लोकसंग्रही कवि हैं, अत: उनके स्वभाव के तल में ऐसी गंभीर स्थिरता आवश्यक है जिस पर हास और विनोद की सौ-सौ चंचल लहरें बनने के लिए मिट सकें और मिटने के लिए बन सकें।
उन्होंने जीवन के उषा काल में जिस युग से संस्कार ग्रहण किए थे उसमें देश, समाज, साहित्य आदि के क्षेत्रों में नवीन प्रवृत्तियाँ अपनी चंचलता में सहस्रमुखी हो रही थीं, परंतु उनका गंतव्य प्राचीन संस्कार-समुद्र ही था जो न स्वयं चंचल था और न अपनी परिधि में आने वाली धाराओं को चंचल होने देता था।
उन्हें परिवार ऐसा मिला जिसकी प्रतिष्ठा के ऊँचे पर्वत के चारों ओर अर्थ-संकट की खाई गहरी होती जा रही थी। ऊँचाई अच्छी है पर उस पर धूप, आँधी, पानी और भी अधिक वेग से आक्रमण करते हैं।
चित्र में लंबी तलवार साथ रखने वाले कवि-पिता जीवन में सखी संप्रदाय के उपासक थे, जिसमें नारी होने की साधना ही इष्ट पूजा है। उनकी तलवार यदि एक युग की वीरगाथा है, तो उनकी रहस्य-रामायण दूसरे युग का प्रेम-गीत। उनकी वर्णव्यवस्था में आस्था यदि एक युग की धरोहर थी, तो मुसलिम बालक मुंशी अजमेरी को छठा पुत्र मान लेना दूसरे युग का वरदान।
यदि हम लोहे के एक सिरे को आग में रख कर दूसरे को पानी में डुबा दें, तो उष्णता और शीतलता अपनी-अपनी सीमा बढ़ाकर लोहे के मध्य भाग में एक संतुलित सर्दी-गर्मी उत्पन्न कर देगी, पर दोनों सिरों पर आग-पानी अपने मूल रूपों में रहेंगे ही।
बहुत कुछ ऐसा ही संतुलन गुप्त जी के व्यक्तित्व में मिलता है, पर उसमें चरम सीमाओं पर ऐसा आग-पानी भी है जो कोई समझौता नहीं करता। किस दिशा में चलने पर आग मिल जाएगी और कहाँ पानी यह पहले से जान लेने का कोई साधन नहीं है। उसी से उनके संबंध में एक व्यक्ति का मत दूसरे का विरोधी हो तो आश्चर्य की बात नहीं है। बिजली के पॉजिटिव और नेगेटिव तारों के समान दो कोमल-कठोर तार उनके संपूर्ण व्यक्तित्व में साथ-साथ फैले हुए हैं। उनके जीवन और साहित्य में उन तारों के संयोग का ही उजाला है।
शिक्षा संबंधी परीक्षाओं से शीघ्र ही मुक्ति पा जाने के कारण उनके व्यक्तित्व को अपने संस्कार और वातावरण के अनुसार विकास की सुविधा प्राप्त हो गई।
जब आज भी हमारा शिक्षातंत्र विद्यार्थी के व्यक्तित्व को तोड़-मरोड़ कर एकांगी बना देता है तब छ: दशक पहले की स्थिति की कल्पना कर लेना कठिन नहीं है? चलने के समय फुट इंच नाप-नाप कर पग रखने से दो पगों का अंतर गणित के अंकों में समान हो सकता है पर इससे न किसी को चलना आ सकेगा और न रास्ता तय हो सकेगा। जिस काँटे पर नाप-जोख कर रोगी को औषध दी जाती है उसी पर तोल-नाप कर स्वस्थ को भोजन नहीं दिया जाता, क्योंकि एक विकृति से प्रकृति की ओर आने का प्रयास है और दूसरा प्रकृति का प्राप्य। ज्ञान अन्य मनुष्यों के समान कलाकार का भी प्राप्य है, पर उसकी प्राप्ति वैसी ही अनायास होनी चाहिए जैसी फूल को आलोक की होती है, जिस प्रकार बालक बिना किसी पूर्व निश्चित कार्यक्रम के गिर-उठकर गति का संतुलन खोज लेता है उसी प्रकार कलाकार का ज्ञान भी किसी निश्चित योजना की अपेक्षा नहीं रखता। किसी छोटी कक्षा में पढ़ते समय घटित एक साधारण घटना से गुप्त जी के स्वभाव की कुछ व्याख्या हो जाती है। इंस्पेक्टर महोदय संस्कृत के विषय में प्रश्न करेंगे यह सोच कर, उनके कुछ पूछने से पहले वे शिव-तांडव स्तोत्र सुनाने लगे जो न उनकी पाठ्य-पुस्तक में था और पठित पाठों के समान सरल था।
प्रश्न की कल्पना साधारण बालक-विद्यार्थी की सीमा में नहीं रहती। वह तो शिक्षक के प्रश्न-संकेत पर अपने ज्ञान के छिछले पोखर में उतर कर कभी शंख, कभी घोंघा निकाल लाना भर जानता है। ऐसा विद्यार्थी जब शिक्षक के गहरे ज्ञान-समुद्र में गोता लगाकर प्रश्न की मोतीदार सीप खोज लावे तब समझना चाहिए कि उसके मस्तिष्क में कुछ ऐसे विजातीय अणु हैं जो उसे विद्यार्थी नहीं रहने देंगे।
साधारणत: परीक्षा के हथौड़े के नीचे प्रतिभा नहीं गढ़ी जाती; उल्टे उसके चूर-चूर हो जाने की संभावना रहती है। गुप्त जी उस हथौड़े के नीचे से निकल न भागे होते तो हिंदी को तिलक-कंठीधारी राष्ट्रकवि न प्राप्त होता।
पर जीवन की पुस्तक के हर पृष्ठ को उन्होंने जिज्ञासु विद्यार्थी के समान पढ़ा है और उसकी कठिन परीक्षाओं से न कभी भागने की इच्छा की है और न अवैध उपायों से उनमें उत्तीर्ण होना चाहा है। वे उन परीक्षाओं में बैठने के महत्त्व को सफल-असफल होने के परिणाम से अधिक भारी समझते हैं।
जीवन के तीस बसंत पार करने के पहले ही वे दो बार विधुर हो चुके थे। दस संतानों में अब एक है, जिसके संबंध में उन्होंने एक बार मुझे लिखा था–‘यहाँ भी एक घीसा है, यदि आप उसका भार ले सकें तो उसे भेजने का प्रबंध किया जावे।’ एक आस्था-जनित संयम का बाँध न उनके विषाद में ज्वार आने देता है और न हर्ष में। इसी से खोई संतान के लिए उनका शोक भी अव्यक्त रहता है और एकाकी पुत्र के प्रति स्नेह भी। जिस संतान-विछोह की आवृत्तियों ने उनकी सरल सहधर्मिणी की हँसी को आँसुओं में बुझा-सा दिया है उसी ने उनकी दृष्टि को हँसी की दीप्ति दे दी है।
भक्त और कवि के दृष्टि-बिंदुओं में अंतर अनिवार्य है। भक्त के निकट उसका इष्ट ही विश्व है। जो उसने देना उचित समझा उसे अपने तथा संसार के लिए सुखपूर्वक स्वीकार कर लेना ही भक्त की विशेषता है। इष्ट के दान के संबंध में नाप-तोल का विवेक भक्ति को व्यवसाय का रूप दे देता है। पर कवि की स्थिति इससे भिन्न है। उसके लिए लोक-समष्टि ही इष्ट है, पर लोक के दान को निरीह भाव से अंगीकार कर लेना उसे अभीष्ट नहीं होता। वह लोक का निर्माण भी अपनी कल्पना के अनुरूप चाहता है।
पत्थर को तिल-तिल तराश कर उसमें अपनी कल्पना को उतारना और उस मूर्ति को अपने भाव की परिधि मान लेना एक ही मानसिक वृत्ति से संभव नहीं। मूर्तिकार तो अपनी कल्पना को आकार देकर सफल होता है और पुजारी उस आकार में अपने आप को मिटाकर पूर्णता पाता है। एक में अभाव की भाव-परिणति है और दूसरे में भाव का रूप में विलयन।
गुप्त जी कवि भी हैं और भक्त भी, अत: निर्माण भी उनके स्वभाव में है और निर्मित के प्रति आत्म-समर्पण भी। साहित्य में उन्हें ऐसी ही कथाएँ चाहिए जो लोक-हृदय में प्रतिष्ठा पा चुकी हों, पर उस परिधि के भीतर हर चरित्र का कुछ नया निर्माण उनका अपना है। वे रामायण को नहीं भूलते पर रामायणकार जिन्हें भूल गया उन चरित्रों को अपने ढंग से स्मरण करते हैं। वे महाभारत के स्थान में कोई अन्य कथा नहीं खोजेंगे पर महाभारत के भीतर खोए किसी साधारण पात्र को खोज लेंगे। ये कथाएँ अनेक युगों की लंबी यात्राओं का आँधी-पानी, धूप-छाया सहते-सहते धूमिल हो गई हैं, पर जिन्हें ये वहन कर के लाईं हैं वे पात्र गुप्त जी के आँसुओं में धुल-धुल कर नए रंगों में उद्भासित आज के प्राणी बन चुके हैं। उनके साहित्य में जो नया है उसका मेरुदंड पुराना है और जो पुराना है उस पर रंग नया है।
जीवन में भी कुछ आदान और कुछ निर्माण उनके साथ चलता है। पुरातन संस्कारों का घेरा उन्हें वंश-परंपरा से मिला है, पर उसमें नए आलोक को लाने वाले झरोखों का निर्माण उनका अपना है। ऋण का दुर्वह भार उन्हें रईसों के उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था। पर उस विष का अचूक उतार–साधारण रहन-सहन–उनकी स्वार्जित संपत्ति है। तुलसी कंठी की अनिवार्यता उनकी वैष्णवता की देन है। पर उस सीमा में मुंशी अजमेरी के लिए अनन्य स्थान रखना उनके हृदय की माँग है।
वे नम्र हैं पर यह विनय उनकी वैष्णवता का ऐसा पानी है जो बड़े-बड़े जहाजों को संभाल सकता है, किंतु छोटे से पत्थर का भी भार सहन नहीं कर सकता। इस प्रशांत सतह वाले सागर के तल में किसी अव्यक्त ज्वालामुखी की चोटियाँ भी हैं जो ठेस से विस्फोटक बन सकती हैं।
जीवन के पिछले पहर में उन्हें ऋण से जो मुक्ति मिली है उस तक पहुँचने के लिए उन्हें अर्थ-संकट की अनेक दुर्गम घाटियाँ पार करनी पड़ी हैं। उन दिनों की स्मृति-मात्र से उनकी आँखों में जो पानी छलक आता है उसी ने उनके स्वाभिमान पर शान चढ़ाई है। वे जिस सीमा तक साधनहीन के प्रति विनीत हैं उसी सीमा तक अर्थदंभी के प्रति असहिष्णु।
किसी परिचित के साधारण द्वार पर उपस्थित होकर वे अकुंठित भाव से कह सकते हैं–‘महाराज हम तो हाजिरी देने आए हैं।’ पर संपन्नता के संकेतपट जैसे द्वार पर यह हाजिरी कितनी महँगी पड़ सकती है इसे न वे बता सकते हैं न उनके परिचित।
गुप्त जी के बाल्यबंधु रायकृष्ण दास जी ऐसे संस्था संप्रदाय में दीक्षित हैं जिसके सदस्य ‘यांचामोघा वरं अधिगुणे नाधमे लब्धकाम’ पर विचार करने के अधिकारी नहीं होते। उन बेचारे संस्थाबाजों के लिए ‘सममान निरादर आदरहीं’ की साधना अनिवार्य है! याचक एक से दो भले सोचकर वे अपने अभिन्न बंधु को लेकर किसी अर्थपति के दरबार में पहुँचे। एक ओर अर्थपति की अवज्ञा स्वाभाविक थी दूसरी ओर गुप्त जी की नम्रता के तल में छिपे ज्वालामुखी में विस्फोट होना। जब उन्होंने अपनी सप्रयत्न सीखी याचक की भूमिका भूलकर संभाव्य दाता को फटकारना आरंभ किया तब भाई कृष्ण दास जी को कुछ पाने की आशा छोड़ कर भागने का द्वार खोजना पड़ा।
यदि मिट्टी को प्रतिबिंब ग्रहण का वरदान मिला होता तो उस कक्ष की दीवारों पर कवि-अभ्यागत की उग्रता आज भी अंकित होती और यदि स्वर को मिटने का अभिशाप न मिला होता तो उस वातावरण में निर्वेद में रौद्र रस की प्रतिध्वनि अब तक गूँजती होती।
याचक की सहनशीलता उनमें नहीं है, आत्मीयजनों का अनुरोध अस्वीकार करने की दृढ़ता का भी उनमें अभाव है! इस संबंध में वे चोट खाने से भी डरते हैं और चोट पहुँचाने से भी।
कला-भवन के लिए अर्थ-संग्रह के उद्देश्य से जब एक शिष्टयाचक-मंडल की योजना बनाई गई और उसमें उनका नाम भी सम्मिलित कर लिया गया, तब वे एक प्रकार के आतंक की छाया में रहने लगे। यदि उस चर्चा के उठने से पहले और समाप्त होने के उपरांत उन्हें तोला जाता तो निश्चय ही वे वजन में कुछ घटे हुए मिलते। यह याचना-अभियान की संभावना कम होने के साथ-साथ उनके रोग के आक्रमण भी कम हो गए हैं।
सभा-सम्मेलन आदि की अध्यक्षता से भी वे कम नहीं घबड़ाते। संभवत: उनका अवचेतन मन जानता है कि यह सब आयोजन एक ही देवता के अनेक विग्रह हैं। इन सभी कामों से व्यक्ति का अहं इस सीमा तक स्फीत हो जाता है कि उस अहंकार की रक्षा के लिए दैन्य को स्वीकार करना भी स्वाभाविक हो जाता है।
स्पष्टवादिता के कारण उन्हें किसी प्रकार की मंत्रणा में सम्मिलित करना खतरे से खाली नहीं है। वह गोपनशास्त्र की वर्णमाला भी नहीं जानते जिसकी आज के युग में पग-पग पर आवश्यकता पड़ती है। परिणामत: जहाँ मौन रहना चाहिए वहाँ वे सब कुछ कह देंगे। उस संबंध की कुछ घटनाओं के स्मरण मात्र से हँसी आ जाती है। एक संस्था की विशेष बैठक में वे आहूत थे। बैठक के पहले कुछ व्यक्तियों ने विचार विनिमय करके अपना निश्चित कार्यक्रम बना लिया और सामान्य बैठक में उसी के अनुसार प्रस्ताव और अनुमोदन होने लगे। पूर्व विचार-विनिमय के समय जो अनुपस्थित थे उनमें से किसी की जिज्ञासा के उत्तर में वे बोल उठे–‘हाँ महाराज हमलोग बात कर के पहले ही यह निश्चय कर चुके हैं।’ उनके इस उत्तर से अन्य सदस्य निरुत्तर रह गए, तब उन्होंने क्षमा-याचना की मुद्रा में कहा–‘हमारे साथी मौन हैं, इससे जान पड़ता है कि हमने बता कर ठीक नहीं किया।’
एक दूसरी घटना भी कम मनोरंजक नहीं है। साहित्यकार-संसद के लिए गंगातट पर एक भवन खरीदने का निश्चय हुआ जिसके स्वामी चालीस हजार से कम लेने को प्रस्तुत नहीं थे। मैं जब गुप्त जी को वह स्थान दिखाने ले गई, तब वे रास्ते भर जो कुछ करते रहे उसका आशय था कि मुझे ऐसे क्रय-विक्रय का अनुभव नहीं है। मैं वहाँ कुछ न बोलूँ। वे गृह स्वामी से बात करके कम में तय करा देंगे। वहाँ पहुँचकर उस भवन की तरल सीमा बनाती हुई गंगा और उसके तट पर एक बड़े कमल-सा रखा हुआ मंदिर देखकर वे सब कुछ भूल गए।
साधारणत: व्यवसाय की नीति में खरीदने वाले और बेचने वाले दो भिन्न-भिन्न छोरों से चलते हैं। एक वस्तु का मूल्य घटाने के लिए उसमें अनेक कल्पित दोषों का आरोप करता है और दूसरा मूल्य बढ़ाने के लिए कल्पित गुणों का। बीच की स्थिति तक पहुँचते-पहुँचते दोनों ओर की अतिरंजना में संतुलन आ ही जाता है। यदि हम मन की प्रसन्नता को छिपाकर कह सकते कि इसके एक ओर नाला और दूसरी बालू का ऊसर कगार है, अत: वह स्थान काम का नहीं है या गंगा के तट पर होना ही इसका दोष है क्योंकि उसकी धारा धीरे-धीरे सारी जमीन बहा ले जाएगी तो गृहस्वामी की प्रशंसा का पलड़ा अधिक न झुकता। पर गुप्त जी से यह साधना संभव नहीं थी। उनकी कंठी और तन्मयता देखकर गृहस्वामी को इस निर्णय पर पहुँचते देर नहीं लगी कि जिसका अध्यक्ष ऐसा है उस संस्था से सौदा करने में हानि क्यों उठाई जावे।
उनकी दृष्टि में वही रहता है जो उनके हृदय में है और हृदय में वही रहता है जो वचन में है। हम उन विचारों से सहमत हों या असहमत, पर उनके संबंध में किसी भ्रम या उलझन में नहीं पड़ सकते। अधिकारी, व्यापारी, संपन्न, दरिद्र किसी भी वर्ग के व्यक्ति के सामने वे उसके दोषों की व्याख्या करने से नहीं हिचकते। उस समय उनकी हँसी जैसे तलवार का मखमली म्यान हो जाती है जिसका बाहरी कोमल स्पर्श भीतरी धार की पैनी कठिनता का आभास देता है। ऐसी मुखर स्पष्टवादिता लौकिक सफलता से मेल नहीं खाती।
आर्थिक दृष्टि से गुप्त जी की आज जो स्थिति है उसका कुछ श्रेय इंडियन प्रेस को भी मिलना चाहिए जिसने ‘रंग में भंग’ छाप कर उन्हें कुछ नहीं दिया। यदि बाँटने के लिए पर्याप्त प्रतियाँ भी मिल सकतीं तो उनके पितृव्य उसे छापने का विचार न करते, क्योंकि उस समय पुस्तक से अर्थलाभ का प्रश्न कल्पना से परे था।
आर्थिक दृष्टि से अनुकूल समय न होने पर भी उन्होंने कुछ प्रबंध करके कवि किशोर की कृति छाप देने का साहस किया। जब बाँटने से शेष बची प्रतियाँ बिक गईं तब उन्होंने पूछा–क्या कोई और भी लिखा है। ‘ऐसा बहुत सा लिखा रखा है’ सुन कर उनका विस्मित होना स्वाभाविक था।
अपने पितृव्य और अग्रज की व्यवस्था के कारण ही गुप्त जी अर्थसंकट के उस बवंडर में स्थिर रह सके हैं जिसने इस युग के अधिकांश साहित्यकारों को कभी खाई में गिरा कर और कभी पर्वतों पर पटक कर चूर कर दिया है।
कुछ संस्कार और कुछ आस्था के कारण गुप्त जी व्यक्तिगत सुख-दु:खों में विचलित कम होते हैं। दूसरों के व्यंग भी उनकी हँसी में बुझ जाते हैं। पर किसी निर्दोष के प्रति किए गए अन्याय की चेतना उनके स्वभाव के आग्नेय तारों को छूकर चिनगारियाँ उत्पन्न किए बिना नहीं रहती। सन् 42 के आंदोलन में पुलिस ने बिना किसी कारण के ही उन्हें तथा उनके अग्रज को अपने बंदीगृह का अतिथि बनाया। वैष्णवता की जिस सजलता ने उनके मन से रोष का दाह धो डाला था उसी में अनेक निर्दोषों के बंधन ने ज्वाला उत्पन्न कर दी।
दुर्भाग्यवश कलेक्टर जेल की परिधि में अपने कवि-बंदी से प्रश्न कर बैठा–‘आप कुछ कहेंगे’। उत्तर देने वाले बंदी की विनम्रता मानों शिला से टकरा कर उग्रता में फूट पड़ी–‘आपका दिमाग खराब हो गया है; आपसे क्या बात करें। आप निर्दोषों को पकड़ते घूमते हैं! हमारा क्या, हम तो लेखक ठहरे, यहाँ सब देखेंगे और इसके खिलाफ लिखेंगे’। अनेक कैदियों और जेल के कर्मचारियों की भीड़ के सामने बंदी से ऐसी अभ्यर्थना पाकर अधिकारी ने उस कुघड़ी को कोसा होगा जिसमें उसने पूछने का शिष्टाचार दिखाया।
गुप्त जी का भावुक होना तो कवि-सामान्य है पर भावुकता के साथ चलने वाली कर्म तत्परता तो उनकी निजी विशेषता है।
प्राय: सभी सच्चे कलाकारों में संवेदनशीलता का आधिक्य स्वाभाविक है, पर सबके सुख-दु:खों से तादात्म्य का परिणाम उनकी कला ही होती है। किसी तीव्र रागात्मक अनुभूति का कर्म में व्यक्त होना कला में व्यक्त होने वाली तीव्रता को बाँट लेता है। सामान्यत: कलाकार अपने व्यक्तिगत अभावों का उपचार भी कर्म में नहीं खोज पाता, फलत: उत्कृष्ट कला का सृजन करके भी वह लौकिक दृष्टि से कुशल व्यक्तियों की अवज्ञा का भार वहन करता है। वह तत्पर सहकर्मी नहीं माना जाता, क्योंकि जीवन की विषमता का जो परिहार उसके सृजन में व्यक्त होता है वह स्थाई होने पर भी सद्य: फलदाई नहीं हो सकता। कला मनुष्य के हृदय और बुद्धि को प्रभावित करके ही उसके कर्म को प्रभावित करती है और एक-एक को बदल कर ही सब को बदलने में समर्थ होती है। कलाकार को मनुष्य के रूप में पहचानने के लिए उसकी कला और कर्म में गठबंधन होना ही चाहिए।
किसी मृतवत्सा माता की वेदना से तादात्म्य कर मूर्तिकार उस आकार को पत्थर में स्थायित्व देगा, चित्रकार उस दृश्य को रेखाओं में बाँधेगा, कवि उस दु:ख को छंद में गूँथेगा और संगीतकार उस विछोह को विहाग में गा देगा पर गोद में बालक का शव लिए हुए माता तो उस पड़ोसी को पहचानती है जो उसकी गोद से मृत शिशु को आग्रह-पूर्वक हटा देता है और दूसरे धूलभरे बालक को वहाँ बैठा कर कहता है–अब इसे तुम्हारे आँचल की छाया चाहिए।
गुप्त जी ऐसे ही पड़ोसी हैं, अत: उनका दद्दा-रूप कवि-रूप से अधिक व्यापक हो तो आश्चर्य नहीं। वे नगर दद्दा ही नहीं प्रांत भर के दद्दा हैं और जो उनके संपर्क में आते हैं उन्हें भी दूसरी पहचान स्मरण नहीं रहती।
छोटे झरोखे और बड़े आकारवाली हवेली के समीप ही अयोध्या के निकट साकेत के समान उनका नीम की टेढ़ी-मेढ़ी बल्लियों पर खपरैल से छाया हुआ शयन-कक्ष है। उसके बाहर तुलसी चौरा और गेंदे के पौधे तथा भीतर पत्थर के चबूतरे पर कविता लिखने के लिए रखी हुई दो-तीन स्लेटें और एक छोटा डेस्क देखकर गाँव की प्राथमिक पाठशाला की भ्रांति हो जाना स्वाभाविक है। उनकी काव्यसाधना के लिए वह कच्चा घर उपयुक्त ही है पर स्लेट पेंसिल देखकर भ्रम होता है कि वे असमय स्कूल छोड़ने का स्मरण कर रहे हैं।
जिसका सफेद फर्श सब की धूल ग्रहण कर साम्य की उपासना करता है वह बैठकखाना और जिसकी गोबर से लिपी धरती सब के चिह्न मिटा कर एकता की बात कहती है वह आँगन कचहरी भी है और जंतुशाला भी। वहाँ शिखाधारी पंडित जी विराजमान होंगे और दाढ़ीवाले बड़े मियाँ भी। वहाँ व्यापारी भी आसीन होंगे और मजदूर भी। वहाँ दरोगा भी बैठे मिलेंगे और संदिग्ध अपराधी भी। वहाँ गाँधीवादी भी उपस्थित होंगे और क्रांतिकारी भी। परिचित-अपरिचित, सभी प्रकार के अतिथि वहाँ देवता बन जाते हैं।
बैठक के एक ओर कभी स्व. मुंशी अजमेरी के लिए मोटा गद्दा बिछा रहता था जिस पर आराम से लेटे-लेटे वे अद्भुत आख्यानों का पंचतंत्र सुनाया करते थे। आज वह कोना खाली है पर गुप्त जी का हृदय अपने प्रिय बंधु की चर्चा से भरा रहता है।
श्याम वर्ण और उलझी दाढ़ी में अंधकार और आलोक के संगम बने हुए बड़े मियाँ इसी बैठक में तब तक घर की हिफाजत के लिए रहे थे जब तक गुप्त-बंधु जेल के आतिथ्य से मुक्ति न पा सके।
सब की समस्याएँ सुनने का गुप्त जी को अवकाश है और सब के काम आने की उन्हें इच्छा रहती है। रास्ते भर वे ‘दद्दा’ जै राम जी, सुनते, ‘जै राम जी भइया अच्छे तो हो’ पूछते जाते हैं। संभवत: उनके कारण ही चिरगाँव में राम का नाम-स्मरण अभिवादन बन गया है।
किसी का बनता हुआ मकान देखना, किसी की नई दुकान का निरीक्षण करना, किसी के छप्पर के संबंध में सलाह देना, किसी के खेत की बात पूछना आदि कार्य वे सहज भाव से करते चलते हैं।
बंग दर्शन के प्रकाशन के अवसर पर मुझे उनकी तत्परता का जो परिचय मिला था उसका क्रम अब तक अटूट है। जब अन्य कवियों को अस्वीकृति पाने के लिए भी कई कई पत्र लिखने पड़े थे तब मेरे पहले ही पत्र के उत्तर में गुप्त जी का तार आया–‘कविता भेजता हूँ’।
साहित्यकार संसद की कल्पना भी एक मनोव्यथा का परिणाम थी। ऐसी संस्था का अभाव खटकता था जो लेखकों के हित की चिंता कर सके और अवसर पड़ने पर उन्हें पारिवारिक संरक्षण दे सके। पर व्यक्ति अकेला चल सकता है और संस्था समूह के चलने का परिणाम होती है। कर्मशील होने के कारण गुप्त जी से वह सहायता सहज ही मिल गई जिसके लिए दूसरे वाद-विवाद करते रहे। वे किसी सभा-समिति की अध्यक्षता नहीं करते हैं, पर हमारे हठ की रक्षा में उनका वह नियम भी टूट गया। जब संस्था बन गई और उसे चलाने के साधनों की आवश्यकता हुई तब अध्यक्ष महोदय ने अपना प्रेस दे डालने का विचार प्रकट किया। लेखकों की सहायता के लिए लेखकों को साधन-हीन बनाना हम में से किसी को नहीं भाया अन्यथा यह अध्यक्षता बहुत महँगी पड़ती।
अंत में राय कृष्णदास जी द्वारा आयोजित उनकी हीरक-जयंती के समारोह ने ऐसा सुयोग उपस्थित कर ही दिया कि गुप्त जी दस हजार की थैली साहित्यकार-संसद को देकर कुछ आश्वस्त हो सके। उनकी आत्मीयता साहित्यिक वर्ग की विविधता से न सीमित होती है और न घटती-बढ़ती है। चाहे कोई सुकुमार हो, चाहे उग्र; चाहे रहस्यवादी, चाहे स्पष्टवादी–उनकी आत्मीयता सब पर बादल की तरह बरस जाती है। जिसे उसकी आवश्यकता न हो वह चाहे छाता ताने, चाहे मोमजामा ओढ़े।
उनकी आस्था उस गहराई तक पहुँच चुकी है जहाँ उसे दूसरों के विरोध की आँधी का भय नहीं रहा। परिणामत: उनमें उस सतर्कता का अभाव मिलेगा जो दो भिन्न विचार वालों को नहीं मिलने देती।
जीवन और साहित्य की दृष्टि से गुप्त जी और निराला एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। एक दिन अस्त-व्यस्त रहने वाले निराला जी से उन्होंने सहज भाव से कह दिया–‘हम इस बार आपके पास ठहरेंगे’। तब अपने लिए असावधान निराला में नया घड़ा मँगवा कर गंगा-जल लाने की सावधानी आ गई। थोड़ी देर बात करने वाले भी जिनका रुख देखते रहते हैं, उन्हीं निराला से गुप्त जी आधी रात तक सुख-दु:ख की कथा सुनते रहे और उन्हें समझाते-बुझाते रहे।
उनमें हीनता या उच्चता की कोई ऐसी उलझनभरी ग्रंथि नहीं है जिससे वे अपनी प्रतिष्ठा को लेकर व्यस्त रहें। अपने विशेष सम्मान के अवसर पर भी वे कह देते हैं–‘अरे महराज, हमारा तो कभी आपने अपमान नहीं किया जो अब सम्मान की आवश्यकता हो। हमें बहुत सम्मान मिल चुका है, अब किसी नए का सम्मान होना चाहिए।’ उनके काव्य की समीक्षा करते-करते एक समीक्षक ने उनके संबंध में ऐसे आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग किया जो मानहानि के अपराध के अंतर्गत आ सकते हैं। इससे भी संतुष्ट न होकर आलोचक ने गुप्त जी की सम्मति चाही। उन्होंने उत्तर में लिखा–‘आपके निकट हमारे साहित्य और व्यक्तित्व का जो मूल्य है उसके लिए हम कृतज्ञ हैं।’
यदि अपने आप अत्यंत साधारण जीवन व्यतीत करने वाले पुत्र के लिए पूर्वजों के ऋण की छाया कष्ट है तो गुप्त जी इस कष्ट के अंगारपथ को पार कर चुके हैं। यदि अपनी नौ-नौ संतानों को अपने हाथ से मिट्टी को लौटा देना पिता का दु:ख है तो गुप्त जी इस दु:ख के समुद्र को तैर आए हैं।
यदि अपनी परीक्षाओं में अविचलित रहना भक्त का वरदान है तो गुप्त जी पूर्णकाम हैं। यदि अपने अहं को समष्टि में मिला देना कवि की मुक्ति है तो गुप्त जी मुक्त कवि हैं। वे विश्वास के साथ कहते हैं–
‘अर्पित हो मेरा मनुज काय, बहु जन हिताय बहु जन सुखाय।’
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