जब जब देखा लोहा देखा

जब जब देखा लोहा देखा

बाबूजी (स्वर्गीय प्रो. गोपाल राय) के पंचतत्व में विलीन होने के उपरांत उनकी अस्थियाँ बिनते समय एक कठोर तप्त वस्तु के हाथ से स्पर्श होते ही माथा ठनका। इसके कड़ेपन को देखकर यह अनुमान लगाना कठिन नहीं था कि यह कोई धातु ही थी क्योंकि ईश्वर प्रदत्त शरीरांग का कोई हिस्सा इतना सौलिड नहीं हो सकता कि वह अग्नि देवता की ताकत को भी झेल ले। अग्नि तो सबकुछ भस्म कर देती है, जो कुछ अस्थियाँ बचती हैं वे भी अपने अस्तित्व हेतु गिड़गिड़ाती सी ही प्रतीत होती हैं। लाजिम है उत्सुकता हुई। जब उस धातु को धो पोंछकर साफ किया गया तो पता चला कि वह प्लैटिनम की वह अद्भुत छड़ थी जिसे चिकित्सकों नें बाबूजी के पैर की हड्डी टूट जानें के उपरांत उसके ऑपरेशन के क्रम में लगाई थी जिससे कि उन्हें अपनी क्रियाविधि में कोई परेशानी न हो। बाबूजी अक्सर मजाक-मजाक में कहा करते थे कि जब उनकी मृत्यु होगी तब उनके शरीर में लगे प्लैटिनम के सहारे हम लोगों को उनकी अस्थियों की पहचान में सहूलियत होगी। बाबूजी अपनी मृत्यु को लेकर कितने सहज थे इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसने उन्हें कभी असहज नहीं होने दिया। इसका कारण बहुत कुछ वह जीवटता थी जिसकी झलक उनके पैर में लगे उस लोहे की छड़ में दिखाई पड़ रही थी जो एक तरह से अग्नि देवता को भी मुँह बिराती सी प्रतीत हो रही थी। बाबूजी जीवट वाले तो थे ही। उन्होंने जो भी चाहा वह कर लिया। बाधाओं और विघ्नों की तो उन्होंने कभी परवाह ही नहीं की।

बाबूजी की जीवटता का एक प्रसंग याद आ रहा है। अपनी प्राध्यापकीय नौकरी के आरंभिक दिनों में जब मैं कटनी में था, बाबूजी अक्सर दिल्ली की भागदौड़ से दूर कटनी आकर छोटे शहर का आनंद लिया करते थे। वैसे उन्होंने यह तय कर लिया था कि वे अपने पोते पोतियों के जन्मदिवस को वहीं रहकर मनाएँगे। इसी क्रम में वे एक बार कटनी आए पर दुर्भाग्यवश गुसलखानें से बाहर निकलते समय उनका पैर फिसला और वे गिर पड़े। उनकी मर्मांतक पीड़ा को देखकर समझते देर न लगी कि चोट गंभीर है। एक्सरे के बाद पता चला कि उनके कूल्हे की हड्डी कई जगह से टूट गई है। कटनी के डाक्टरों पर मुझे पूरा भरोसा नहीं था इस कारण मैं उन्हें लेकर तत्काल दिल्ली आ गया। यहाँ उन्हें मैक्स अस्पताल में भरती कराया गया। पोलियोग्रस्त पैर और ऊपर से चैथेपन में कूल्हे की हड्डी का लगभग चूर सा हो जाना डॉ. साधु जैसे माहिर हड्डी रोग विशेषज्ञ के लिए भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं था। पर जहाँ रोगी और वैद्य एक ही तरह के हों वहां भला चुनौतियों का क्या काम! जस दूलह तस बनी बराता। डॉ. ने इस विश्वास के साथ कि अगले 24 घंटे में उनके साहित्य का डाक्टर न केवल अपने पैरों पर खड़ा हो जाएगा बल्कि चलने के काबिल भी हो जाएगा, बाबूजी के टूटे कूल्हे का ऑपरेशन करने का निर्णय ले लिया। ऑपरेशन भी लगभग चार पाँच घंटे तक चला। ऑपरेशन के बाद नर्भसियाये डाक्टर साहब का आत्मविश्वास कुछ हिलता सा नजर आया। कहा ऑपरेशन तो लगभग सफल रहा आगे सब ईश्वर के हाथ में है। बाबूजी को ऑपरेशन थियेटर से उनके कक्ष में स्थानांतरित कर दिया गया। ठीक चैबीस घंटे के उपरांत अपने वादे के अनुसार डॉ. साधु अपनी मुस्कुराहट के साथ अवतरित हुए। बाबूजी ने भी उनका चवनियां मुस्कान के साथ स्वागत किया। अभी डॉ. कुछ कहते इससे पहले ही बाबूजी ने अपने बेड से लगे वाकर के सहारे खड़े होने का प्रयास किया। पहले तो वे लड़खड़ाए फिर अपनी चिरपरिचित जीवटता का परिचय देते हुए न केवल संभले बल्कि ‘अरबराई कर पानि गहावत डगमगाई धरनी धरै पैयां’ की तर्ज पर वाकर के सहारे कमरे में ही कुछ दूर चलकर फिर बिस्तर पर वापस लौट आए। साधु महाराज समझ चुके थे कि उनका ऑपरेशन सफल हुआ। वे एकदम से यूरेका कहकर उछल पड़े। उनकी आँखों की चमक को देखकर उनकी आश्चर्यजनित खुशी का सहज अंदाज लगाया जा सकता था। अब डाक्टर और मरीज दोनों गले मिल रहे थे। मैं आश्चर्यचकित-सा इस महामिलन का साक्षी सोच रहा था बड़े मियां तो बड़े मियां छोटे मियां सुभान अल्ला।

बाबूजी पुस्तकों के जमावड़े के बड़े शौकीन थे। हमारे यहाँ पटना के राजेंद्र नगर स्थित प्रोफेसर्स क्वार्टर वाले मकान का कोई भी कोना ऐसा नहीं था जहाँ पर किताबें न रखी हों। किताबों के इस जमावड़े की भी अजब कहानी है। इसकी चर्चा मैं कई बार बाबूजी के मुख से सुन चुका हूँ। बाबूजी ने जब अपनी डी. लिट की उपाधि अर्जित की तब उनके सामने अपने शोध प्रबंध को प्रकाशित करवाने का प्रश्न खड़ा हुआ। आरंभ में उन्हीं ने इसकी कुछ कोशिश भी की पर प्रकाशकों से मिली उपेक्षा से उन्हें बहुत निराशा हुई। पर बाबूजी तो बाबूजी थे। भला प्रकाशकों की उन्हें क्या परवाह? उन्होंने ‘ग्रंथ निकेतन’ नामक स्वयं के प्रकाशन की नींव डाल दी और उनका शोध प्रबंध‘ हिंदी कथा साहित्य के विकास पर पाठकों की रुचि का प्रभाव’ नामक शीर्षक से प्रकाशित हो गया। ग्रंथ निकेतन से प्रकाशित होने वाली यह पहली पुस्तक थी। इसके बाद यहीं से उनकी दूसरी पुस्तक ‘हिंदी का पहला उपन्यास’ का प्रकाशन हुआ। इसके बाद हिंदी उपन्यास कोश दो खंडों में और फिर ‘हिंदी साहित्याब्दकोश’ आठ खंडों में ग्रंथ निकेतन से ही प्रकाशित हुआ। इन बृहतकाय आलोचनात्मक पुस्तकों का प्रकाशन तो हो गया। अब प्रकाशित प्रतियों को संभाल कर रखने, उनका प्रचार-प्रसार करने और फिर उन्हें बेचने की बात आई। किताबों को तो उन्होंने सहेज कर रखने की व्यवस्था घर में ही कर ली। घर में खूब सुंदर रैक्स बनाए गए। यहाँ तक कि गुसलखाने और भंसाघर को भी इससे बरजा नहीं गया। इसी बीच पुस्तकों को सहेज कर रखने के क्रम में उनके दो जातीय दुश्मन भी पैदा हो गए। एक था दीमक और दूसरा चूहा। खैर, दीमक की व्यवस्था तो गैमेक्सीन के छिड़काव से कर दी जाती थी पर गणेश जी की सवारी नें उन्हें खूब छकाया। मैंने बाबूजी को मूषक मर्दन में जितना चुश्त पाया है वह अकल्पनीय है। हाँ, इस कार्य में बिकिया, हमारी पालतु श्वान उनका खूब साथ देती थी। अक्सर हमारे घर में रात को ही चूहों का आक्रमण होता था और बिकिया एक सजग प्रहरी की तरह अपने मालिक की सेवा में लगी रहती थी। जैसे ही कोई मूस उसे दिखाई पड़ता, वह बड़ी सावधानी से बिना आवाज किए हुए बाबूजी की धोती खींचकर उन्हें उठाती। बाबूजी भी अपने इस बेजुबां सेवक के इशारे को समझ झट डंडा लेकर उसके पीछे चल पड़ते। अब बाबूजी का काम होता था ऊपर रैक पर किताबों के बीच छुपे चूहे महाराज को नीचे गिराना। चूहे के नीचे गिरत ही बिकिया झट उसे लपक लेती और फिर दोनों का मल्लयुद्व शुरू हो जाता। वैसे तो बिकिया एक शिकारी कुत्ते की तरह अधिकांशतः चूहे महाराज को स्वर्ग का रास्ता दिखा देती थी पर हर बार यह काम बहुत आसान नहीं हुआ करता था। जब कभी किसी बृहतकाय मूस से उनका सामना होता था तब वह उन्हें छठी के दूध की याद ताजा करा देता था। उस युद्ध को मैंने भी अपनी आखों से देखा है। कभी-कभी बिकिया इस मूष युद्ध में धायल भी हो जाती थी पर अंत में उसपर विजय प्राप्त कर अपने मालिक की कायल भी बन जाती थी। माँ से बिकिया को बहुत लगाव था। जब मेरे अनुज सत्यजित, जो अभी भारतीय खेल प्राधिकरण’, नई दिल्ली में निदेशक के पद पर कार्यरत हैं, अपने किसी मित्र के यहाँ से बिकिया को लेकर आए थे तो इसका सबसे ज्यादा मुखर विरोध माँ ने ही किया था और उसको लेकर जो कोहराम मचाया था वह मुझे अभी तक याद है। हम सभी के बहुत अनुनय विनय के बाद उसे घर के एक कोने में पड़े रहने की अनुमति प्रदान की गई। पर धीरे-धीरे उस पिल्ले से माँ को और पिल्लें को माँ से इतना लगाव हो गया कि दोनों की जान एक दूसरे में बसने-सी प्रतीत होने लगीं। उस पिल्लें का विकी नामकरण, जो बाद में चलकर बिहारी तर्ज पर बिकिया हो गया, माँ का ही किया हुआ था। बिकिया हमेशा माँ के साथ चिपकी रहती। यहाँ तक कि माता जी जब सोने जातीं तब वह उनके साथ ही सोती और क्या मजाल कि कोई उनके शयन में किसी तरह का विघ्न पैदा कर दे। उस समय मैं बिकिया का वह रौद्र रूप देख चुका हूँ जिसे यदा कदा अन्य अवसरों पर भी देखकर अच्छों-अच्छों के पसीनें छूट जाते थे। जब तक बिकिया रही तब तक चैर्य कला में निपुण किसी महानुभाव की इतनी हिम्मत नहीं हुई कि वह हमारे घर की तरफ मुँह उठाकर भी देखे। हाँ, यह बात अलग है कि अब हमारे यहाँ की मेहमानबाजी भी कुछ कम हो गई थी क्योंकि तबतक बिकिया का आतंक उन लोगों के बीच व्याप्त हो चुका था। हमारे यहाँ नियमित आने वाले कुछ मेहमान तो बिकिया द्वारा घायल होने के कारण आतंकित हो उठे थे और कुछ उसके आतंक की कहानी सुनकर ही यह कहने को मजबूर हो गए थे कि ‘तेरी गलियों में ना रखेंगे कदम आज के बाद।’ खैर, मैं तो इस बात का साक्षी ही रहा हूँ कि बिकिया माँ के प्रति कितनी वफादार थी। माँ और उनकी बिकिया दोनों एक दूसरे पर अपनी जान न्यौछावर करते थे। बिकिया ने तो इसका प्रमाण भी दे दिया। माँ के निधन के कुछ ही दिनों के बाद उनकी बिकिया ने भी प्राण त्याग दिए और बाबूजी की पुस्तकों की एक सजग प्रहरी सदा के लिए उनसे दूर हो गई। हमारे परिवार में घटी इस अप्रत्याशित घटना ने निश्चित ही बाबूजी को हिला कर रख दिया, पर विपत्तियों में धैर्य रखकर उनका सामना करना वे बखूबी जानते थे। जिसने पुस्तकों को अपनी संगिनी बना लिया हो उसे अकेलापन बहुत दिनों तक नहीं सालता। बाबूजी भी अपनी इस प्रवृत्ति के कारण जल्द ही अपनी किताबी दुनिया में लौट आए और उनके लिखने पढ़ने का काम फिर से शुरू हो गया। पढ़ने लिखने के साथ-साथ घर में संग्रहीत पुस्तकों की सुरक्षा का कार्य भी निर्बाध गति से चलता रहा। अपनी किताबों के प्रकाशन के उपरांत उनकी सुरक्षा के कार्य में तो वे निश्चित ही सफल हो गए पर अब उनके प्रचार प्रसार और बेचने का प्रश्न आया। इस कार्य में बाबूजी निश्चित ही फिसड्डी साबित हुए। व्यावसायिकता वाला उनका पक्ष शुरू से ही कमजोर रहा है। कुछ किताबें तो बिकीं अवश्य, पर जो नहीं बिकीं वे घर की ही शोभा बढ़ाती रहीं। पर बाबूजी को इसकी कहाँ परवाह थी। उनका काम तो हो गया था।

बाबूजी ने तो गौतम बुद्ध के इस कथन को अपने जीवन का आदर्श ही बना लिया था कि जब नदी पार कर जाओ तब नाव को अपने सिर पर ढोने के बजाए उसे वहीं छोड़कर आगे बढ़ जाओ। बाबूजी ने भी ग्रंथ निकेतन को बंद कर दिया। पर कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। वर्ष 1967 में पटना से ‘समीक्षा’ पत्रिका निकलनी शुरू हुई। आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा (प्रधान संपादक), डा. रामचंद्र प्रसाद, और डा. गोपाल राय (संयोजक) की देख रेख में इसका प्रकाशन आरंभ हुआ। इसका पहला अंक तो पटना स्थित लक्ष्मी पुस्तकालय के मालिक परमेश्वर बाबू के सौजन्य से उन्हीं के प्रेस से प्रकाशित हो गया। इसका दूसरा और तीसरा अंक भी लक्ष्मी पुस्तकालय से ही प्रकाशित हुआ। पर पत्रिका निकालना वह भी बिना किसी बाहरी आर्थिक सहायता के कितना कठिन कार्य है इसका अहसास समीक्षा से जुड़े लोगो को धीरे धीरे होने लगा और समय के साथ-साथ इससे जुड़े सभी वीर इससे अलग होते गए। पर गोपाल राय कहाँ हार मानने वाले थे। उन्होंनें पत्रिका को अकेले संभाला और उनके कुशल संपादन में यह पत्रिका न केवल अपनी राह पर निकल पड़ी बल्कि समय के साथ-साथ दिन दूनी रात चैगुनी प्रगति भी करती गई। दरअसल यह पत्रिका एक मिशन के तहत् शुरू की गई थी। इसके प्रवेशांक में ही यह उद्घोषणा की गई थी कि ‘समीक्षा’ एक निश्चित लक्ष्य को लेकर उपस्थित हुई है। वार्षिक से लेकर दैनिक तक जो भी पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं उनमें पुस्तक-समीक्षा का भी एक स्तंभ सामान्यतः रहता ही है। पर केवल पुस्तक समीक्षा को अपना ध्येय बनाकर निकलने वाली यह हिंदी की शायद पहली पत्रिका है। भविष्य की बात तो हम नहीं कह सकते पर इसका आरंभ ही ऐतिहासिक महत्व का अधिकारी हो गया, इससे किसी को असहमति नहीं होगी। इसी बीच इसके मुद्रण को लेकर भी बखेड़ा शुरू हुआ सो अपने स्वभाव के अनुरूप किसी से चिरोरी करने की बजाय बाबूजी ने एक प्रेस ही खोलने का निर्णय ले लिया। यहीं से ‘रचना प्रेस’ अस्तित्व में आया और ‘समीक्षा’ का मुद्रण इसी प्रेस से आरंभ हो गया। जब ‘समीक्षा’ अस्तित्व में आई तब पुस्तक समीक्षा की सम्भवतः यह एकमात्र पत्रिका थी। इसने जल्दी ही लोकप्रियता भी हासिल कर ली। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका होने के कारण प्रकाशकों द्वारा पुस्तकें भी भेजी जाने लगीं। जो भी नई पुस्तक प्रकाशित होती वह ‘समीक्षा’ हेतु संपादकीय कार्यालय यानी हमारे घर पर ही आने लगीं। प्रकाशक हमेशा ‘समीक्षा’ के लिए पुस्तकों की दो दो प्रतियाँ भेजा करता था। एक प्रति तो समीक्षक के पास भेज दी जाती थी पर दूसरी प्रति घर में ही रहती। धीरे-धीरे इस मासिक पत्रिका के लिए भेजी जाने वाली पुस्तकों का अंबार लगना शुरू हो गया। पहले से ही सैच्यूरेशन प्वाइंट पर पहुँच घर में अब कहाँ जगह थी जो इनको रखा जाता। खैर, शुरू में तो दीवालादि में कुछ नए रैक्स बनवा कर पुस्तकों को रखने की व्यवस्था हो गई। पर जब ‘समीक्षा’ को हर महीने निकलना था तो उसके लिए हर माह बीस पच्चीस पुस्तकें तो आ ही जाती थीं। अंत में यह तय हुआ कि जो पुरानी किताबे हैं खासकर ग्रंथ निकेतन से प्रकाशित हुई किताबों को रचना प्रेस के लिए आरक्षित जगह पर स्थानांतरित कर दिया जाए। इस तरह ग्रंथ निकेतन से प्रकाशित बाबूजी की पुस्तकों की प्रतियाँ रचना प्रेस में पुनः रैक्स बनवाकर सुरक्षित रख दी गईं। घर में खाली पुनः मूषकः भव की तर्ज पर रैक्स शनैः शनैः समीक्षार्थ, कभी-कभी सादर आमंत्रित तो कभी जबरन भेजी गईं, पुस्तकों से भरते गए और जरूरत के मुताबिक नए रैक्स अस्तित्व में आते गए। हमारे घर में एक इंच भी ऐसी जगह नहीं बची थी जहाँ किताबें न हों। इसी के बीच मेरा जन्म हुआ, मैं पला और इनको पढ़ता हुआ बड़ा हुआ। किताबें तों हमारी जिंदगी ही हो गई थी। मुझे याद है हम लोग बचपन में जब किसी के यहाँ जन्म दिन पर जाते थे तो उसके लिए उपहार में किताब ही ले जाते थे। ‘समीक्षा’ के लिए तो बाल साहित्य यहाँ तक कि क्रिकेट कैसे खेलें जैसी किताबें भी खूब आती थीं। हम लोग इन्हीं सब किताबों का उपयोग उपहारादि के लिए किया करते थे। बाबूजी के एक डाकटर मित्र उनसे हमेशा मजाक किया करते थे कि काश मेरा बच्चा भी ऐसे अवसरों पर फीजिशियन सैंपल से काम चला लेता तो कितना अच्छा होता। पर उनकी यह हसरत कभी पूरी नहीं हो पाईं। आखिर किताबें तो किताबें ही होती हैं। उसका स्थानापन्न न तब संभव था न अब है।

पुस्तकों से तो बाबूजी को अद्भुत लगाव रहा। वे पुस्तकों का केवल संचयन ही नहीं करते थे उन्हें खूब संभाल कर भी रखते थे। पुस्तकें किसी भी तरह से खराब न होने पाए इसके प्रति वे बड़े सचेत रचेत रहे हैं। बाबूजी के पुस्तक प्रेम से संबंधित एक बड़ी रोचक घटना है जिसे सुनाने के लोभ का संवरण मैं यहाँ नहीं कर पा रहा हूँ। राजेंद्र नगर के सबसे निचले इलाके में होने के कारण अकसर बरसात का पानी रचना प्रेस में घुस जाया करता था। बाबूजी अकेले ही प्रेस में घुस जाते और नीचे रखी पुस्तकों को प्रेस में रखे एक बड़े से टेबुल पर रख देते थे। एक बार पटना में जबरदस्त बारिश हुई और इसमें रचना प्रेस पूरी तरह जलमग्न हो गया। बाबूजी को जैसे ही सूचना मिली वे बदहवास रचना प्रेस की ओर भागे (मेरे पीछे मोटरसाइकिल पर बैठकर)। वहाँ तमाशबीनों की भीड़ लगी थी। कुछ लोग मजा भी ले रहे थे। अभी हम लोग कुछ निर्णय ले पाते कि तभी एक छपाक सी आवाज हुई। हुआ यह कि बाबूजी ने न आव देखा न ताव झट अपना कुर्ता उतारा और गंजी लुंगी में ही डुबाऊ पानी में छलांग लगा दी। तैरना तो वे जानते ही थे सो पलक झपकते ही वे अपनी रचना के पास पहुँच गए। हम लोगों ने कई साँप बिच्छुओं को उस पानी में तैरते हुए देखा था। पर बाबूजी को इसकी क्या परवाह। उन्हें तो बस अपनी किताबों को बचाना था। सो वे तैरते हुए वहाँ पहुँच गए और जितनी किताबों को वे बचा सकते थे उन्हें छज्जे पर रखकर बचा लिया। इस दुष्कर कार्य में वे थोड़े घायल भी हो गए, पर वे इस बात से संतुष्ट नजर आए कि उनसे जितना हो सकता था उतना उन्होंने अपनी पुस्तकों को बचाने के लिए कर दिया।

खैर, ‘समीक्षा’ जिस मिशन के तहत शुरू की गई थी वह बाबूजी के कुशल संपादन में अपने मार्ग पर निकल पड़ी। पीछे मुड़कर देखना तो मानो उन्होंने सीखा ही नहीं था। इस दरम्यिान बहुत सारे लागों ने उससे जुड़ने की कोशिश की पर उसकी आँधी में किसी के पैर टिक न पाए। बाबूजी अकेले ‘समीक्षा’ का झंडा लेकर निकल पड़े। अपने बलबूते पत्रिका निकालना निश्चित ही एक असंभवप्राय कार्य है। पर बाबूजी ने तो मानों गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की इस अमर पंक्ति ‘जोदी तोर डाक शुने केउ ना आशे तोबे एकला चलो रे’ को ही अपने जीवन का आदर्श बना लिया था। ‘समीक्षा’ निकली ही नहीं बल्कि उसने अपनी राह भी पकड़ ली और अकेला चना भांड़ नहीं फोड़ सकता है वाली कहावत को धता बताते हुए बाबूजी ने उसमें अपने आप को झोंक दिया। वे इसका सारा काम अकेले ही करते थे। समीक्षार्थ आई पुस्तकों की सूची बनाना, समीक्षकों के यहाँ पुस्तकों को भेजना, उसके लिए पैकेट बनाना, फिर समीक्षकों को समय पर समीक्षा भेजने के लिए तकादा करना, प्रेषित समीक्षाओं की प्रूफ रीडिंग करना, ‘समीक्षा’ प्रकाशित हो जाने पर उसे उसके ग्राहकों तक समय पर भेजना, ‘समीक्षा’ के प्रकाशनार्थ कुछ अपने मित्रों के मार्फत कभी-कभी मिल जाने वाले विज्ञापनों की जुगाड़ के लिए दौड़ धूप करना। बाबूजी अकसर चटकारा लेते हुए कहते थे कि इस ‘समीक्षा’ का तो पीर, बाबर्ची, भिश्ती, खर सब मैं ही हॅूं। पर ऐसा भी नहीं था कि ‘समीक्षा’ के संचालन में बाबूजी को किसी तरह की कोई सहायता नहीं मिलती थी। मुझे याद है कि हमारे पटना वाले मकान में ‘समीक्षा’ जब छपकर आती थी तो वह समय एक उत्सव के रूप में मनाया जाता था। परिवार का कोई सदस्य लिफाफे पर टिकट साटता था तो कोई पता चिपकाता था। किसी ग्राहक का पता अगर टंकित न हो तो कभी कभी उसे पता लिखना भी पड़ता था। अंत में लिफाफे में पत्रिका को डालकर उसे डाकखाने तक पहुँचाने का काम भी परिवार के सदस्यगण द्वारा ही किया जाता था। यह सब काम हम सभी परिजन मिलकर करते थे। इसमें जो आनंद आता था वह वर्णनातीत है। इस कार्य में अनुशासन सर्वोपरि होता था। बाबूजी द्वारा दिए गए निर्देशों का अक्षरशः पालन होता था। डाक टिकट को चिपकाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था कि वह बिलकुल सीधी रहे। इसके थोड़ी सी भी आड़ी तिरछी होने पर बाबूजी की भृकुटी तन जाती थी। वे अकसर अपने पथ प्रदर्शक आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा का हवाला देते हुए कहते थे कि आचार्य महोदय इस प्रकार की हीला हवाली पर बहुत नाराज होते थे। वे कहते थे कि अगर जीवन में कुछ करना है तो छोटी छोटी बातों पर ध्यान देना जरूरी है और यही बातें बहुत चीजों की ओर इशारा भी कर देती हैं। बाबूजी ने तो इस सूत्र को अपना आदर्श ही बना लिया। यही कारण है कि साहित्यिक जगत में उन तमाम पहलुओं पर उन्होंने अपनी बेबाक टिप्पणी की है जिसको छोटी, ओछी और गैरवाजिब समझ कर लोगों नें छोड़ दी है। उनकी यह आवाज ‘समीक्षा’ के संपादकीय में सहज सुनी जा सकती है। इसमें इन्होंने साहित्यिक दंगलबाजियों के साथ-साथ उन तमाम बातों पर अपनी नाराजगी जताई है जिनपर शायद ही किसी संपादक की नजर गई हो। इनमें से एक है सरकार द्वारा डाक टिकटों में की गई मूल्य वृद्धि के विरूद्ध प्रदर्शित उनकी नाराजगी। हुआ यह कि पहले से ही अर्थाभाव से जूझ रही ‘समीक्षा’ को जब डाक टिकट में हुई मूल्य वृद्धि का सामना करना पड़ा तो इसका संपादक चीत्कार उठा और अपने संपादकीय में उसने सरकार की धज्जियाँ उड़ा कर रख दीं। इसका परिणाम क्या हुआ यह तो कहना मुश्किल है पर अपनी नाराजगी और सरकारी नीतियों से अपनी असहमति तो उन्होंने व्यक्त कर ही दी।

अब जब डाक विभाग की बात चल ही रही है तो इससे संबंधित एक मजेदार वाक्या का जिक्र यहाँ कर ही दूँ। मैंने जब से होश संभाला और जब तक पटना में रहा तब तक प्रत्येक दिन मैंने डाकिया नामक उस प्राणी का दीदार किया जो आज निश्चत ही जुगुप्सा की चीज बन गया है। डाकिया महोदय अपने दर्शनार्थ प्रत्येक दिन हमारे घर उपस्थित हो जाया करते थे। ऐसा कोई दिन न था जिस दिन डाकिया हमारे घर न आता हो। कभी प्रकाशकों द्वारा प्रेषित समीक्षार्थ पुस्तकें तो कभी ‘समीक्षा’ के किसी अंकविशेष के समय पर न प्राप्त होंने की उलाहना या उसके संपादकीय की प्रशंसा से संबधित पत्र तो बिना नागा के हर कार्यदिवस पर आ ही जाते थे। बाबूजी भी उन पत्रों का उत्तर बड़ी तत्परता से देते थे। पर उनके पत्रोत्तर प्रेषित करने का समय हम लोगों के लिए महा कष्टदाई था। वे ठीक तीन बजे अपना पत्रोत्तर समाप्त करते और चाहते कि दोपहर सवा तीन बजे लेटर बाक्स खुलने के पहले उनके पत्र उसके शरणागत हो जाएं और यह काम हम लोगों को ही करना पड़ता था। दोपहर में और विशेषकर जेठ की दुपहरी में तो भोजनोपरांत शयन का अपना ही मजा है। शिक्षक पुत्र होने के कारण दोपहर में भोजन के उपरांत सोने का अधिकार वंशानुगत रूप से तो प्राप्त था ही। वैसे भोजन के बाद सोते तो बाबूजी भी थे,पर वे ‘अल्पहारी, स्वान निद्रा’ वाली कहावत को भी चरितार्थ करते थे। इधर हम सब ‘ठांस भोजनं चाप निद्रा’ वाले प्राणी थे। बाबूजी करीब आधा घंटा विश्राम करते और फिर उठकर अपना काम करने लगते। इसमें प्राथमिकता थी चिट्ठयों का जवाब देना। इधर घोड़ा बेचकर निद्रा देवी का आनंद लेते व्यक्ति को ठीक तीन बजे उठाया जाता और निर्देशित किया जाता कि अपनी साइकिल उठाइए और इस पत्रोत्तर को लेटर बॉक्स में डाल आइए। उस समय कितना कष्ट होता होगा, यह वही समझ सकता है जिसने दोपहर में भरदम भोजन के उपरांत सोने का आनंद लिया हो। पर वहाँ सुनने वाला कौन था। मैं उठता अपने सारे गुस्से को जप्त करता और मरता क्या न करता वाली स्थिति में लेटर बाँक्स की तरफ मन मसोस कर चल देता था क्योंकि महटियाने पर उसका जो परिणाम निकलता उससे मैं भलीभाँति परिचित था। बाबूजी के साथ में सदा एक डंडा होता था जिसकी सहायता से वे चला करते थे और इन परिस्थितियों में वे उसका प्रयोग करना भी भलीभांति जानते थे। एक दिन मैंने अपने एक मित्र से जब अपना दर्द सुनाया तब उसने इससे पार पाने का एक सुझाव दिया। उसके सुझाव के अनुसार बाबूजी द्वारा दी गई चिट्ठयों को मैं उस समय कहीं छुपा देता और फिर यह कहकर कि मैंने चिट्ठी छोड़ दी है और मस्त नींद का मजा लेने लगा। शाम को सैर सपाटे में निकलता तब पत्र को पत्र पेटी में डाल देता था। यह सिलसिला बहुत दिनों तक बदस्तूर जारी रहा। पर एक दिन चोरी पकड़ी गई। हुआ यह कि किताबों के बीच छुपा कर रखी गई मधुरेश जी की एक चिट्ठी को मैं लेटर बॉक्स में डालना भूल गया। मधुरेश जी का एक शिकायती पत्र बाबूजी के पास आया कि आजकल आप मेंरे पत्रों का समय पर जवाब नहीं देते हैं। बाबूजी ने जब मुझसे पूछा तो मैंने बड़ी सफाई से मिथ्याभाषण करते हुए उनके सारे पत्रों को लेटरबाँक्स में सही समय पर डाल देने की बात कहकर और डाक विभाग पर सारा दोषारोपण मढ़कर मैंने उससे छुटकारा पा लिया। पर प्रेम और चैर्य छुपाए कहाँ छुपता है। एक दिन बाबूजी को किताबों के बीच स्थापित वह चिट्ठी प्राप्त हो गई। मेरी चैर्य कला की कलई खुलते ही मेरी क्या दुर्गति हुई इसका बखान मैं अपनी जुबानी क्या करू! बस इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि उस दिन के बाद से बाबूजी के हाथ में मुझे मुँह बिराते हुई एक नई चमचमाती छड़ी दिखलाई पड़ने लगी जो निश्चित रूप से पहले वाली से ज्यादा मजबूत थी। खैर, इसके बाद से मैं चिट्ठियों को छिपाकर रखने की हिमाकत कभी नहीं कर पाया और चिट्ठियाँ सही समय पर लोगों को प्राप्त होने लगीं।

बाबूजी का जीवन संघर्षों से भरा पड़ा है। पर एक अवधूत की तरह उन्होंने अपने जीवन संधर्ष को जिस तरह से अपने विकास के रूप में रूपायित किया वह निश्चित ही काबिलेगौर है। मैंने पाया है कि विपरीत परिस्थितियों में उनमें एक गजब तरह की शक्ति उन्हें प्राप्त हो जाती थी और एक नई ऊर्जा के साथ वे अपने काम में लग जाते थे। यहाँ पर मैं उस प्रसंग की चर्चा करना चाहूँगा जिसे कई बार बाबूजी की जुबानी सुन चुका हूँ। उनके शोध निदेशक आचार्य नलिनविलोचन शर्मा ने उन्हें ‘हिंदी कथा साहित्य पर पाठकों की रुचि का प्रभाव’ विषय पर काम करने का निर्देश दिया। बाबूजी ने उसमें अपनी पूरी ताकत झोंक दी। खूब मेहनत से नई स्थापनाओं के साथ अपने कार्य का संपादन किया। तभी एक ऐसी घटना घटी जिसनें उन्हें लगभग तोड़ ही दिया था। एक दिन तड़के उन्हें नलिन जी के निधन की सूचना मिली। उनके सामने अँधेरा छा गया। वे किंकर्तव्यविमूढ़ वाली अवस्था में आ गए। उन्हें आगे का रास्ता नहीं दिख रहा था। पर परिस्थितियों से लड़ना तो कोई इनसे सीखे। जिस विषय पर उन्हें पीएच.डी की उपाधि मिलनी थी उसी पर उन्होंने स्वयं के निर्देशन में ही डी. लिट. की उपाधि प्राप्त कर ली। यह संभवतः उनकी जिद और कर्तव्यपरायणता का वह सोपान था जिसने उन्हें बेपरवाह बन आगे बढ़ने की सीख दी।

बाबूजी जब जब अपने 61वें वसंत में प्रवेश करने का आनंद ले ही रहे थे कि तत्कालीन बिहार सरकार ने अपनी प्रकृति के अनुरूप एक अजब निर्णय के तहत बिहार के सैकड़ों प्राध्यापकों को अपने पिछलें नियमों का हवाला देते हुए अचानक सेवामुक्त कर दिया। उस समय बाबूजी पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे। सरकार के इस निर्णय का उनपर भी असर पड़ा और इस निर्णय के दूसरे दिन से वे भी कार्यमुक्त कर दिए गए। ऐसी विकट परिस्थिति में भी जब चहुँओर त्राहिमाम-त्राहिमाम का स्वर सुनाई पड़ रहा था बाबूजी लौह पुरुष की तरह अडिग रहे और यह कहकर कि चलो सरकार ने पदभार से मुक्त कर कुछ काम करने का अवसर प्रदान किया है, न केवल अपने को संभाले रखा बल्कि दूसरों के लिए भी प्रेरणस्रोत बन गए। बाबूजी ने अवकाश प्राप्त करने के बाद अपनी प्रकृति के अनुरूप ही खूब काम किया। बृहतकायी ‘हिंदी उपन्यास का इतिहास’ और फिर तीन खंडों में ‘हिंदी कहानी का इतिहास’ प्रस्तुत कर उन्होंने निश्चित ही अपने को प्रमाणित कर दिया। ऐसे समय में जब बड़े नामी गिरामी आलोचकों नें हताशा और निराशा में ‘हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन’ की आवश्यकता पर ही प्रश्नचिह्न लगाना शुरू कर दिया था अपने इक्कासीवें वर्ष में प्रवेश के साथ ही बाबूजी ने ‘हिंदी साहित्य के आधुनिक इतिहास’ पर अपनी नजरें इनायत कर दीं। चाहत तो शायद पूरा इतिहास लिखने की थी पर उन्हें तब तक लगने लगा था कि अब समय कम है और इतने समय में इससे ज्यादा काम नहीं किया जा सकता। वैसे पचहत्तर वर्ष के बाद बाबूजी से ही ईश्वर से हर पाँच वर्ष के बाद अगले पाँच वर्षों का एक्सटेसन माँग ही लेते थे और तब तक भगवान भी उसे थोडे़ नाज नखरे के साथ ही सही पर उसे स्वीकार करते आए थे। पर अस्सीवें वर्ष में प्रवेश के उपरांत बाबूजी का स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा। उन्हें लग गया था कि उनकी एक्सटेंशन वाली अर्जी अमान्य होने वाली है। समय की कमी को भाँपते हुए अपने हिंदी साहित्य के इतिहास वाले मिशन को थोड़ा छोटा करते हुए उन्नीसवीं शताब्दी के हिंदी साहित्य पर काम करना शुरू किया। पर लगातार गिरता स्वास्थ्य अब उनके लिए बोझिल हो चला था। उनके लिए कंप्यूटर पर बैठना कठिन होता जा रहा था। स्मरण शक्ति भी कुछ-कुछ कमजोर हो चली थी। पुस्तक अभी अधूरी थी। बाबूजी ने एक दिन मुझे बुलाकर उस अधूरी पुस्तक को पूर्ण करने का आदेश-सा दे डाला। मैं अपने सारे कार्य को स्थगित कर उस पुस्तक पर पिल पड़ा। पर बाबूजी जिस तरह से शोध केंद्रित कार्य करते थे वैसा कार्य करना किसी के बूते की बात नहीं थी। खैर, मैंने जो कुछ उनसे सीखा था उसके सहारे उस पुस्तक को पूर्ण करने का काम किया और पिछले दिनों वह पुस्तक वाणी प्रकाशन से छपकर भी आ गई है। मैं उस पुस्तक के माध्यम से बाबूजी को प्रणाम कर रहा हूँ। यही मेरी उनको श्रद्धांजलि है। सच मानिये इस पुस्तक का जो कमजोर अंश है वह मेरा है और जो कुछ भी तगड़ा है वह बाबूजी का।


Original Image: Magnolias On A Wooden Table
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Artist: Martin Johnson Heade
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