मेरी कोरोना डायरी (एक)

Woman at writing desk by Lesser Ury

मेरी कोरोना डायरी (एक)

कोरोना महामारी ने विश्व को हिला डाला है। पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी है। लोग दहशत में हैं और मास्क लगाना ‘न्यू नोर्मल’ बन गया है तो जरूरी इस बीमारी के बचाव के साथ साथ यह जानने की–कि कोरोना हो जाने के बाद इससे बिना अस्पताल में भर्ती हुए आप घर पर भी कैसे ठीक हो सकते हैं। इन दिनों दक्षिण अफ्रीका में कोरोना का भयानक प्रकोप है। हर तीसरा व्यक्ति कोविड पॉजिटिव निकल जाता है। भारत से आए जो यात्री यहाँ फँस गए थे, वे रिक्वेस्ट कर रहे थे कि हमें भारत सरकार किसी भी तरह वापस मेरे वतन पहुँचाए!

अगर मरना ही है, तो अपने देश में मरें।

भारत सरकार ने भी मानवीय कदम उठाए और विदेशों में फँसे भारतीय लोगों को वापस बुलाने के लिए ‘वंदे भारत’ फ्लाइट्स भेजे। दक्षिण अफ्रीका से करीब दो हजार लोगों को भारत वापस भेजा गया।

यह प्रक्रिया अत्यंत श्रमसाध्य थी। पहले एक विज्ञापन देना पड़ता था कि जो भारतीय वापस जाने के इच्छुक हैं, वे भारतीय दूतावास या कॉन्सल्ट को दिए गए फोरमेट में डिटेल भेजें। फिर इस लिस्ट को भारत और दक्षिण अफ्रिका की सरकार से अप्रूव कराया जाता और तब फ्लाइट के स्केजूल हमें मिलता था।

फिर स्थानीय नियमों का पालन करते हुए फ्लाइट वाले दिन एक असेंबली पोईंट तय किया जाता था। सारे यात्री वहाँ इकट्ठा होते और सबका मेडिकल चेक अप होता, उन्हें ढेर सारे फार्म भराए जाते और तब उन्हें स्पेशल बसों में भरकर एयरपोर्ट छोड़ा जाता था। वहाँ भी बहुत ऐहतियातों और चेक अप के बाद उन्हें फ्लाइट बोर्ड कराया जाता था। भारत पहुँचने पर दस दिन का क्वॉरंटीन अनिवार्य था।

इन सबका इंतजाम हमें करना पड़ता था और मैं बहुत थक जाती थी। ऊपर से बच्चे घर पर ही बैठे थे। उनको ऑनलाइन क्लास करवाना और सुबह-सुबह कंप्यूटर के पास बिठाना अपने आप में एक चैलेंज था। बाजार बंद था। ऐसे में प्लान करके सब्जी लेने हम सब ऐसे निकलते थे कि कहीं मोर्चे पर जा रहे हैं। कोरोना ने सबको बेहद डरा दिया था। स्थानीय सरकार ने शाम से सुबह तक चौदह घंटे का अनिश्चितकालीन कर्फ्यू घोषित कर दिया था। मास्क और हेड गियर पहनना अनिवार्य कर दिया गया था। सारी दुकाने, होटेल, रेस्टोरेंट स्कूल और कॉलेज बंद।

सुबह हम स्वयं को तसल्ली देने के लिए घर से बाहर निकलते तो रास्ते और सड़कों के सन्नाटे दिल दहशत से भर देते और ऐसे में हम जिससे डरते थे वही बात हो गयी। हमें कोरोना हो गया! बच्चों को भी मुझसे संक्रमण फैल गया। मेरे सहयोगियों में कई लोग बीमार थे। इस कठिन समय के अनुभव को साझा करना चाह रही हूँ। इसमें यह भाव भी शामिल है कि कोविड को हराने की जरूरत है–इससे डरने की नहीं। कोविड संक्रमण में पहले के तीन दिन बहुत महत्त्वपूर्ण हैं अगर आप ये तीन दिन अपना बहुत ख्याल रखते हैं और ये कोशिश करते हैं कि इंफेक्शन अंदर फेफड़े और हार्ट में न पहुँचे तो समझिये कि आपने आधी जंग जीत ली है। अगर आपका इंफेक्शन सतही है तो बुखार उतरने के बाद बस आपको अपनी इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाना है।

अब कोरोना वायरस कमजोर हो चुका है। सामान्य बुखार और लक्षणों के होने पर पैनिक होने की जरूरत नहीं। हॉस्पिटल भी जाने की जरूरत नहीं है–हाँ, पर सारी दवाइयाँ और एहतियात बरतने की जरूरत है।

यह डायरी महीनों तक रोज लिखी गयी है–उसी दौरान मैं कोरोना से ग्रसित हुई थी और मैंने अपना इलाज खुद किया था–अपने ऑफिस के लोगों का भी इलाज मैंने ही किया। उनका हौसला बनाए रखा। और हम सब ठीक हो गए। तो प्रस्तुत है–मेरी कोरोना डायरी।

पहला दिन (22 जुलाई, 2020)

मुझे बाइस जुलाई को बुखार आया। यह बुखार कुछ अलग तरह का था। शरीर में बहुत दर्द वाला। नाक भी जम गया था। मुझे थोड़ा बहुत शक तो हुआ कि कोरोना हो सकता है, पर सिंपटम इतने कन्फ्यूजिंग थे कि लगा कि साधारण फ्लू भी हो सकता है।

इधर मैं प्रतिदिन दस बारह कि.मी. टहलने जाया करती थी।

उस दिन थर्सडे था–हमने बारह कि.मी. वॉक किया। रास्ते में कचनार का एक पेड़ फूलों से लदा मिला उसे तोड़कर घर लायी कि इससे पकौड़े बनाऊँगी। तब तक मेरी एक कुलीग ‘लिली मिश्रा’ का फोन आया कि वे टेस्ट में कोरोना पॉजिटिव आ चुकी हैं और उनको बहुत हाई फीवर है। पर अभी तक तो मुझे कुछ ऐसा वैसा नहीं महसूस हो रहा था।

मैंने चावल को पटिया पर पीसकर कचनार के फूलों से बचका बनाया। थोड़ा सा पैक कर लिली जी को भी भिजवा दिया।

मैंने चावल दाल और बचका खूब खाया।

शाम तक शरीर थोड़ा-थोड़ा दुःख रहा था। नाक बहुत जमा हुआ सा प्रतीत हो रहा था। मैंने एंटी एलर्जेंट खाया और सोने का प्रयास किया पर मुझे हिस्टमिन के दौरे पड़ जाते थे और छींककर हाल बेहाल हुआ जाता था। फिर भी मैंने जैसे-तैसे डिनर बनाया–आलू और गोभी की सब्जी और भिंडी का भुजिया। साढ़े सात बजे बच्चों को खाना खिलाकर खुद खाया और टीवी रूम में नेटफलिक्स खोल लिया। कोई बकवास सी सेरीस ‘मैचमकिंग’ आ रहा था–‘आई ऐम सीमा तपारिया फ्रोम मुंबई!’

वह लेडी इतनी उबाऊ थी कि मैंने आठ बजे ही टीवी बंद कर दी। अब मुझे जबरदस्त शिवरिंग होने लगी थी। बाँहों पर के रोयें उठ-उठ जाते थे–मुझे विश्वास हो गया कि यह आम बुखार नहीं है, पर मैंने धैर्य बनाए रखा। एक पैरासीटामॉल और एंटी एलर्जेंट लेकर मैं सो गयी।

रात को एक बजे होंगे, जब मेरी नींद खुली। शरीर बुखार से तप रहा था। जोड़ों में बेहद दर्द था और मुँह सुख रहा था। मैंने फिर से पैरासीटामॉल और एंटी अलर्जेंट खाया, ढेर सारा पानी पिया, एक एक्स्ट्रा मिंक बलांकेट ओढ़ लिया और सोने का प्रयास करने लगी।

क्या मुझे भी कोविड हो गया है? बच्चों का क्या होगा–अगर मुझे हॉस्पिटल में भर्ती होना पड़ा तो? मेड भी भाग जाएगी और आयसोलेशन में बच्चे बेहाल हो जाएँगे।

हे भगवान! मुझे कोविड मत देना और मजबूत बनाए रखना!

मैंने प्रार्थना की और सो गयी।

दूसरा दिन (23 जुलाई, 2020)

सुबह बुखार नहीं था, पर पूरे शरीर में कमजोरी व्याप रही थी।

आज शुक्रवार था, ऑफिस का अंतिम दिन। मैंने ऑफिस में फोन से बता दिया कि अगर जरूरी काम हो तो घर भेजें, आज ऑफिस नहीं आ पाऊँगी। वैसे भी हर शुक्रवार को ऑफिस प्रांगण को कोरोना-काल में सेनिटीज किया जाता है और जरूरी काम अपने निजी कंप्यूटर पर निपटा लिया जाता है। इसी सप्ताह एक लोकल स्टाफ कोरोना पॉजिटिव पायी गयी थी, इसलिए भी तैंतीस प्रतिशत स्टाफ ही ऑफिस बुलाए जा रहे थे। मेरा अनुमान था कि अगर मुझे कोरोना भी होगा तो वीकएंड में आराम करने पर बहुत हद तक ठीक हो जाएगा।

शुक्रवार को मेरी एक और ऑफिसर–तारा पाठक कोविड पॉजिटिव पायी गयी। वह नर्वस थी क्योंकि बेचारी को पहले कैंसर हो चुका था। दो साल पहले ही उसने कैंसर को हराया था। वह बहुत डर रही थी कि कहीं उसे कोरोना न हो जाए। और अब उसे भी कोरोना हो गया।

मैंने तारा को सांत्वना दिया और कहा कि कोरोना साधारण फ्लू जैसा ही है। बस ढेर सारा विटामिन और सप्लमेंट लेती रहो। तारा मायूस थी, लिली मिश्रा परेशान थीं। लिली जी भी जाँच में कोविड पॉजिटिव आयी थीं।

लिली जी अपने पापा माँ की दुलारी बेटी हैं और जैसे ही भागलपुर में उनके पिताजी को खबर पहुँची–वहाँ रोना-पीटना शुरू हो गया। बड़ी मुश्किल से उनके पिताजी को चुप करवाया गया। उनकी माँ को तो बहुत दिनों तक बताया भी नहीं गया कि लिली जी को कोविड हो गया है।

तारा और लिली जी को लग रहा था कि मुझे भी कोरोना है और जाँच करवा लेनी चाहिए। पर वे मेरा लिहाज करके नहीं बोल पा रही थीं। मैं समय के साथ तोल-मोल कर रही थी कि ऑफिस में ही सबकी जाँच के साथ-साथ मेरी भी जाँच हो जाय तो उससे सबका मनोबल भी बढ़ेगा और मुझे अनावश्यक हॉस्पिटल के चक्कर नहीं लगाने पड़ेंगे। मेरे परिवार में सबको पता है कि हॉस्पिटल जाने के नाम से ही मुझे चक्कर आते हैं।

मैंने अपने डरबन कॉन्सल जनरल ऑफिस से पूछा कि क्या सबको एक साथ जाँच करवाने के नियम हैं? तब पता चला कि ऐसा किया जा सकता है। हमारे पैनल डॉक्टर–लैब टेक्निशियन और नर्स को भेज कर सबका सैंपल एक साथ ले जाएँगे और कल तक लैब वाले सबके रिजल्ट मेल कर देंगे।

‘वाह! यह तो बहुत ही बढ़िया होगा।’ मैंने सहर्ष सहमति दे दी।

तब मैंने सबके लिए डॉक्टर से सोमवार के लिए समय ले लिया।

सब लोग मुझे मन ही मन और फुसफुसा कर कोस रहे थे कि क्यों नहीं मैडम अपना टेस्ट पहले करवा लेती हैं। यही सबको कोरोना फैला रही हैं!

मुझे लगा कि मान लिया जाय कि अगर मुझे कोरोना है तब भी तो वही दवाइयाँ खानी है मुझे। जब कोरोना का कोई वैकसिन ही नहीं है, कोई स्पेशल एंटीबायोटिक भी नहीं–तो पहले टेस्ट करवाओ या बाद में क्या फर्क पड़ता है! पर बाकी लोगों को काफी फर्क पड़ रहा था। वे डर रहे थे कि मैं आस पास कोरोना फैलाऊँगी। मेरे तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं। बड़ी वाली बेटी सोलह साल की होने वाली है। छोटी बेटी पाँच साल की और बेटा जो औटिस्टिक है–सात साल का है। लोगों को बच्चों की ही अधिक चिंता हो रही थी क्योंकि वे छोटे हैं। हरेक देश में सारे अस्पताल खचाखच भरे हैं। कहीं भी भर्ती होने के लिये मारा मारी है। सो मुझे अगर कोरोना है भी तो कोई बात नहीं, पर बच्चों को नहीं होना चाहिए! जैसे साहस देखने से साहस बढ़ता है वैसे ही डर से डर पैदा होता है। अब मुझे भी थोड़ा सा डर लगने लगा था।

लिली जी और तारा ने मुझे फोन करके जल्दी टेस्ट करवाने को दुबारा कहा। मैंने उन्हें समझाया कि अब सप्ताहांत में हॉस्पिटल में भी टेस्ट करवाने में मुश्किल होगी। क्योंकि वहाँ इतनी लंबी लाइन होती है कि अकेले जाकर लाइन में लगकर टेस्ट करवाना काफी श्रमसाध्य हो सकता है। मुझे चक्कर भी आ सकता है। वे दोनों फिर भी असंतुष्ट दिखीं, पर मैं क्या कर सकती थी–सोमवार के इंतजार के अलावा!

शाम होते होते मुझे शिवरिंग और बुखार ने धर दबोचा। करीब सौ डीग्री बुखार था। मैंने फिर से पैरासीटामॉल और एंटीअलर्जेंट खाया, विटामिन सी की लगभग दो हजार एमजी डोज लिया और जल्दी ही सो गयी।

तीसरा दिन (24 जुलाई 2020)

सुबह उठी तो बदन बेतरह टूट रहा था। मुँह सूखा और गले में खराश थी। मुँह का टेस्ट चला गया था और स्मेल भी।

आज शनिवार था। अभी तो अड़तालीस घंटे शेष थे जब मेरा टेस्ट होगा। मेरे मित्र तो कह रहे थे कि पहले ही टेस्ट करवा लो! मैंने अपनी जिद ठान ली थी कि सबके साथ ऑफिस में ही टेस्टिंग हो जाएगा।

वास्तव में मुझे अस्पताल जाने के नाम से ही डर लगता है, जब से मेरे बाबूजी का देहांत अस्पताल में हुआ है–किसी भी काम के लिए अस्पताल जाने की सोचना भी मुझे बीमार बना देता है। इसलिए मैं हरदम इसे टालती रहती हूँ।

खैर मैंने अपने टूटते मनोबल को इकट्ठा किया। बच्चे मेरी ओर जिज्ञासा और आशा से देख रहे थे। अगर मुझे और इन्हें कोरोना हो जाता है तब भी एक लंबी लड़ाई हम चारों को लड़नी पड़ेगी! और एक माँ के रूप में मैं अपने आप को कमजोर नहीं दिखा सकती। मैंने सिक्योरिटी गार्ड और ड्राइवर को एससेनसीयल आइटम–सब्जियाँ, फल, केक, बिस्कुट, आइसक्रीम, चॉकलेट, विटामिन सी, बी, डी और जिनकोविट लाने के लिए भेज दिया।

मेड को बोलकर बच्चों के लिए रसम सूप बनवाया। मुझे खाने का मन नहीं हो रहा था, फिर भी थोड़ा सा सूप पिया। बाजार से सारा प्रविजन मँगाकर सैनिटायज करवाकर फ्रिज में रखवाया।

शाम को फिर से फीवर का दौरा आया। मेरे दाँत कटकटाने लगे। मैंने फिर से पैरासीटामॉल खाया, स्टीम लिया और मोटा कंबल लेकर सोने का प्रयास करने लगी। परंतु, मेरी साँस छोटी होती प्रतीत हो रही थी। लगता था कि छाती पर बहुत दर्द भरा बोझ हो। मैं घबरा गयी। बच्चे मेरे निर्देशानुसार बाहर टीवी रूम में सो रहे थे। वहाँ हीटिंग भी नहीं थी। मुझे लगा कि शायद यह मेरी आखिरी रात है, अपने तीनों मासूम–देवदूत से बच्चों को सोता हुआ निहार रही थी मैं! मेरी आँखों से आँसू झरने लगे।

शनिवार को हम सब हनुमान चालीसा और संकट मोचक सुनते हैं। मैंने अगरबत्ती जलायी और हनुमान जी की तस्वीर के आगे मेरे हाथ प्रार्थना में अपने आप जुड़ गए।

मैं बिलखने लगी।

‘हे संकट मोचक हनुमान जी, मेरे बच्चों की रक्षा करो! मेरी रक्षा करो। इस संकट और चरम रोग से विश्व को निजात दिलाओ। अभी मुझे अपने बच्चों की जिम्मेदारी उठानी है। मेरे सिवा उनका कोई नहीं है–देखभाल करने को। आदि को तो बोलना भी नहीं आता। उसे कुछ होगा तो बहुत मुश्किल हो जाएगी।’ मैं आयसोलेशन भुलाकर वहीं बच्चों के बीच जगह बनाकर सोने की कोशिश करने लगी। तब लगा कि मुझे इन बच्चों की अधिक जरूरत है। ये मेरी ताकत हैं। मैं इनकी पालनहार तो हूँ ही अब इनकी ताकत बनूँगी। हम एक दूसरे के लिए ताकत बनेंगे!

मुझे दुबारा बच्चों से बहुत प्यार हो गया।

अभी डिनर बनाना बाकी था।

मोना और आदि का मुँह सूखा हुआ था। आदि-मोना को खुश करने के लिए मैं नीचे कीचेन में इडली बनाने गयी कि पता चला–आदि को उल्टी हुई है और पतले दस्त लग गए हैं। मैंने तुरंत उसे ओंडेम दिया और अपने मन से एक एंटी एलर्जेंट दिया। वह बिना खाये ही सो गया। मुझे तो भूख लग ही नहीं रही थी। बड़ी बेटी–बुबु को साम्भर-चावल दे दिया और शाम के आठ बजते ही बच्चों के बीच जगह बनाकर सोने का प्रयास करने लगी।

चौथा दिन (25 जुलाई, 2020)

जब सुबह आँख खुली तो घर में अफरा-तफरी मची हुई थी। छोटी बेटी को सुबह से दो बार उलटियाँ हो चुकी थी। वह गंदगी में लिथड़ी हुई तो रही थी और पामेला (मेड) उसे जबरदस्ती नहला रही थी।

‘हे भगवान! लगता है कि मोना को भी कोरोना हो गया?’

‘अब क्या होगा?’ मेरे तो हाथ पाँव फूल गए।

अब क्या करूँ! मैंने तुरंत डॉक्टर को मैसेज किया कि मेरी पाँच साल की बच्ची भी उलटियाँ कर रही है। कल आदि भी उल्टी कर रहा था। क्या उन्हें कोरोना हो गया है? मदद करें।

डॉक्टर का उत्तर आया–‘क्या आपका कोरोना टेस्ट हुआ है?’

‘अभी नहीं! कल होगा।’

‘तब घबरायें नहीं, आप अपने पूरे परिवार का कोरोना टेस्ट करवा लें, तब तक उसे थोड़ा सा ओंडेम दे दें, और डीहायड्रेशन से बचाने के लिए ओआरएक्स घोल पिलाते रहें।’

‘ओके, धन्यवाद।’

मैंने तब इंटरनेट पर कोरोना होने पर हर संभव इलाज और दवाइयों को खोजने की कोशिश की।

गनीमत थी कि छोटी बेटी की उलटियाँ शाम तक थम गयी। मैंने सबको पैरासीटामॉल, एंटी अलर्जेंट, विटामिन और जिंक सप्लमेंट दिया और खुद भी खाया और सो गयी।

कल हमारा कोविड टेस्ट होना था।

पाँचवा दिन (26 जुलाई, 2020)

सुबह मुझे नहाने का एकदम मन नहीं कर रहा था। शरीर बेतरह टूट रहा था। अभी भी मुझे बुखार आ रहा था। सुबह किसी तरह नहाकर पूजा किया। सावन का तीसरा सोमवार था। हमें ग्यारह बजे कोरोना टेस्ट के लिए सैंपल देने ऑफिस जाना था। मैंने तीनों बच्चों और मेड तथा गार्ड्नर को लिया और वक्त से पहले ही ऑफिस चली गयी। डॉक्टर की टीम एक घंटे बाद आयी वह भी मेरे रिक्वेस्ट करने पर कि थोड़ी जल्दी आ जायें।

मेरा ऐड्मिन तो एकदम बकलोल था। वह किसी भी पैनल डॉक्टर के संपर्क में नहीं था। किसी को ऑफिस बुलाकर सबका सैंपल एक साथ देना उसे आकाशकुसुम सा असंभव लक्ष्य लग रहा था। तब मैंने एक इंडियन कम्युनिटी लीडर की मदद से अपने पैनल डॉक्टर मंडल का विस्तार किया और डॉक्टर हीरा को एक समेकित टीम भेजने के लिए मना लिया।

मेरे बारे में नर्स को पहले ही बता दिया गया था कि एक संदिग्ध संभावित कोरोना पेशेंट मौजूद है–इसलिए सबसे पहले मेरा सैंपल लिया गया। नकबसा में एक तार-सा अंदर तक ठूँसकर! मुझे बेतरह दर्द हुआ और नाक से खून गिरने लगा। बच्चे मुझसे अधिक संयत थे। हम सबको सैंपल देकर ही बेहद राहत लग रहा था।

मुझे पूरा यकीन हो चला था कि मुझे फ्लू ही है–कोविड नहीं! पर ऑफिस वाले बहुत डरे हुए थे और उनमें कानाफूसी जारी थी कि मैडम को अवश्य ही कोरोना होगा! क्योंकि सप्ताह भर पूर्व ही मैंने घर में रुद्राभिषेक करवाया था जिसमें ऑफिस के काफी लोगों ने भाग लिया था, लिली जी और तारा पाठक उनमें से एक थीं और दोनों को कोरोना डाइग्नोस हो चुका था!

खैर, हमने सैंपल दिया और फिर घर का राशन-सब्जी खरीदने ‘पिक न पे’ चले गए। घर लौटकर बेहद थकान हो चली थी, इसलिये हम सब सो गए। सोमवार का मेरा व्रत भी था। सबने मना किया कि व्रत नहीं रखो–खासकर मेरे पति ने। उसने उन दिनों मुझे इतना नर्वस करने की कोशिश की कि मैंने उसका फोन उठाना बंद कर दिया था।

मैंने शाम को संध्या पूजन करके व्रत खोला–थोड़ा सा खाना खाया। शरीर बुखार से तप रहा था। पैरासीटामॉल खा खाकर मेरा पेट फूँक गया था। जीभ में ढेर से छाले पड़ गए थे। पिछले चार दिनों से बुखार लगभग बना हुआ ही था। ऊपर से नाक बंद और गले में दर्द और खराश थी। रात में मैंने फिर से पैरासीटामॉल और एंटी अलर्जेंट का ओवरडोज लिया और सो गयी।

अगर आपको नींद नहीं आ रही है तो आप एक पैरासीटामॉल और एंटी अलर्जेंट लेते हैं तो आपको जल्दी नींद आ सकती है। मेरे साथ यह कॉम्बिनेशन हमेशा काम करता है। मैं बहुत थकान वाले दिनों में भी ये दवाएँ ले लेती हूँ और सो जाती हूँ।

सोने से पहले मैंने अच्छी कल्पना करके एक कविता भी लिखी।

–कोरोना–

इस सुनसान शहर की
पतझड़ भरी पगडंडियों पर
जब रास्ते चिनार के लाल-पीले
पत्तों से भर गए हैं,
तूफानों के हु-हु से
टकराकर उकठी डालियाँ,
उनके सर्वथा सुख जाने का संदेह पैदा करती हैं
तब भी मैं सिर्फ बसंत के बारे में सोचती हूँ
मेरे मन में खिले रहते हैं
स्नो ड्यू, डैफडिल, चेरी बलोसम
सफेद सेमंती और रंग-बिरंगे गुलदाउदीय
इस तनहा अकेलेपन से गुजर जाने का
यही एक रास्ता है–
पतझड़ से बाहर की ओर।
शीत से बसंत
और कोरोना से आरोग्य की ओर।
इक्का-दुक्का आर्मी-वैन और ऐंबुलेंस की
कर्कश सायरन के मध्य मैं कल्पना करना नहीं भूलती
कि अबकि मधुमास अति मधुमय होगा
जब बीमारी से मनुष्य विजयी होगा
फूलों से भरी बीथियों में उसका अभिषेक होगा
मैं कोरोना जैसे वाइरस के बारे में क्यों सोचूँ!
अगर, फूलों के बारे में सोच सकती हूँ
मैं हार क्यों मान लूँ जब मैं लड़ सकती हूँ
मैं क्षणिक दुःख में क्यों रोऊँ
जब मैं अंततः जीत सकती हूँ!
मैं मरने के लिए क्यों मरूँ,
जब मैं जी भरकर जी सकती हूँ!

छठा दिन (27 जुलाई, 2020)

सुबह के नौ बजे होंगे कि डॉक्टर का फोन आया। फोन सुनने से पहले मेरा दिल धड़का और मुझे बुरी खबर के बारे में पूरा आभास था।

‘यू एंड योर किड्ज आर पॉजिटिव!’

डॉक्टर के ये शब्द डेस्टिनी की तरह मेरे कानों में बज रहे थे।

मुझे खुद से अधिक बच्चों की चिंता हो रही थी।

मेरा ऑटिस्टिक बेटा तो मुझे छोड़कर एक पल भी अकेले नहीं रहता। छोटी बेटी बस पाँच साल की है, वह कैसे सोशल डिस्टेंसिंग समझ पाएगी?

बड़ी वाली बेटी डरपोक और मासूम है। अभी तक हमलोग क्वीन साइज बेड में चार लोग सो रहे थे क्योंकि कोई भी ममा को छोड़कर अकेले सोने को राजी न था! तब बड़ी मुश्किल से एक एक्स्ट्रा सिंगल बेड कमरे में ठूँसा गया। कमरे का कलेवर विकृत हुआ पर बड़ी बेटी बुबु बड़ी मुश्किल से उस पर सोने को राजी हुई।

अब क्या होगा? कैसे उनसे सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करवा पाऊँगी। मैंने बुबु को धैर्य से समझाया!

वह इस बात के लिए राजी हुई कि वह और मोना सिर्फ रात को सोने टीवी रूम में चले जाएँगे, और आदि ममा के साथ ही सोएगा!

तब उससे क्या फायदा?

इसमें तो पंद्रह मिनट से अधिक एक साथ और नजदीक नहीं रहना है। और जो बच्चे दिन रात मेरे साथ रहेंगे या सिर्फ रात को सोने दूसरे कमरे में जाएँगे तो कैसे बचाव हो पाएगा?

आदि तो लिपट कर ही सोता है। पता नहीं उसे क्या इनसिक्योरिटी है कि रात में सोते में भी ममा को जकड़कर पकड़े रहता है!

हे भगवान! अब क्या करूँ? तुम ही कोई रास्ता सुझाओ!

मैंने लिली और तारा को फोन किया तो उन लोगों ने भी अलग कमरे और सोशल डिस्टेंस मेनटेंन करने की बात कही।

तारा ने बताया कि वह स्वयं मास्टर बेडरूम में अपने को लॉक कर लिया है। लिली जी ने भी बताया कि वे भी अपने बेड रूम में बंद हैं क्योंकि उनके पति और बेटा नेगेटिव आए हैं।

(तारा कह रही थी, कि वे लोग फॉल्स नेगेटिव बता रहे हैं!)

तब मैंने तारा से पूछा कि जेनेलिया जो हमारी लोकल स्टाफ है और पॉजिटिव आयी है–वह एक कमरे के घर में कैसे सोशल डिस्टेंस फॉलो कर रही है, जबकि उसका चौदह साल का एक गेस्ट भी है। तारा ने बताया कि वह डॉक्टर के निर्देशानुसर दिन रात मास्क और ग्लब्ज पहनकर रहती है।

मैंने तब डॉक्टर से पूछना बेहतर समझा कि हो सकता है कि कोई स्पेशल मास्क और ग्लब्ज हों–जिससे बच्चों का बचाव हो सके! डॉक्टर हीरा ने बताया कि आजतक के आँकड़े में बच्चों को बहुत कम कोरोना संक्रमण हुआ है। आप अगर ग्लब्ज और मास्क पहने थोड़ा भी अलग रहती हैं तो उन्हें संक्रमण के कम चांसेज होंगे!

ठीक है, मैं मास्क और ग्लब्ज पहनकर रहूँगी! मैंने निश्चय किया!

दूसरे दिन बच्चों का रिपोर्ट आया। मेरी बड़ी बेटी बुबु पॉजिटिव थी और दोनों छोटे बच्चे उस वक्त नेगेटिव थे। बुबु का उसी दिन थर्ड टर्म परीक्षा शुरू होने वाली थी। वह नाक-मुँह पोंछती हुई कंप्यूटर के सामने ऑनलाइन परीक्षा में बैठ रही थी। रिपोर्ट देखकर मेरे मुँह से चीख निकलते-निकलते रह गयी।

‘अभी नहीं! अभी पॉजिटिव बताकर मैं उसका मनोबल नहीं तोड़ सकती।’ मैंने बाथरूम में सोचा और बाहर निकल कर चेहरे पर बडा सा मुस्कान चिपकाते हुए उसे बताया–‘बुबु तुम तीनों नेगेटिव आयी हो। अब तुम तीनों एक साथ सोना। ममा को आराम करने देना।’

‘ममा! पर मुझे नाक और गले में बहुत दर्द है। बॉडी में भी बहुत टूटन है।’ बुबु ने नाक पोंछते हुए कहा।

‘अरे! फ्लू का भी तो यही सिम्प्टम है। हो सकता है तुम्हें भयंकर फ्लू हो रखा हो। पर क्या फर्क पड़ता है? फ्लू और कोरोना का दवा तो एक ही है। इन फैक्ट, फ्लू में तो अजेथरोमयसिन एंटीबायोटिक खा ली तो गले और नाक दर्द से तुरंत राहत मिलेगा।

मैंने अपनी मेड–पामेला को बुलाया और खुद से सबके लिए दवा का डोज बनाया। सुबह–पैरासीटामॉल, एंटी एलर्जेंट, विटामिन्स, बी, डी। दुपहर–जिंक, आइरन फालिक, एफ्फेरऐक्सेंट फ्लूटेक टैब्लेट। रात–पैरासीटामॉल, एंटी एलर्जेंट, ओमेगा, मल्टी विटामिन, नेजल ड्रॉप! और खाँसी का सिरप! मैंने पामेला को निर्देश दिया कि सबको तीन बार यह सारे टैब्लेट खाने हैं। पामेला को भी! मैंने उसे बिठाकर समझाया कि मुझे कोरोना पॉजिटिव निकला है–और बच्चे और वह स्वयं नेगेटिव आए हैं। अब दो सप्ताह तक मैं घर में ही यथासंभव अलग रहूँगी और पामेला को सबका अधिक ध्यान रखना पड़ेगा।

पर पामेला डर गयी। वैसे भी कोरोना से विश्व के देशों के प्रधान मंत्री, राष्ट्रपति और सारे महानायक डर चुके हैं। लॉकडाउन खुलने की जगह पर और अपने शिकंजे कसते चले जा रहे हैं। कोरोना हो जाने पर तो परिवार वाले तक मरीजों को छोड़कर भाग जाते हैं तो बेचारी मेरी निरीह मेड –पामेला क्या चीज है। उसके पास तो कोई स्थायी ठिकाना भी नहीं है। वह जिम्बाब्वे से यहाँ अपने दुधमुँहे बच्चे को अपनी बहन के भरोसे छोड़कर और अपने निकम्मे पति को तलाक देकर दक्षिण अफ्रीका बेहतर जीवन की तलाश में आयी है, ताकि अपना पेट काटकर अपने बच्चे को खिला-पिला सके और उसे बेहतर इंसान बना सके।

वह चुपचाप मशीन की तरह बस काम करती रहती है। कभी भी उसने फालतू बात नहीं की–कभी मेरे साथ ठठाकर नहीं हँसी। शायद उसका कारण उसकी अनुशासित ट्रेनिंग है। उसने अन्य लड़कियों की तरह बस मेड बनने की ट्रेनिंग ली है। वह अपनी औकात जानती है। मेरे लाख कहने पर भी वह मेरे साथ बराबर की कुर्सी पर नहीं बैठती।

वह बच्चों और मुझसे अधिक जुड़ाव महसूस नहीं करती। अच्छा काम करने पर या मेरे घर पार्टी अच्छी तरह संपन्न हो जाने पर जब मैं खुश होकर उसे टिप देती हूँ तब भी मैंने उसे मुस्कुराते हुए नहीं पाया। वह झाडन से हाथ पोंछकर मुझसे दोनों हाथ बढ़ाकर पैसे ले लेती है और रोबोट की तरह ‘थैंक यू’ बोलकर पुनः तन्मयता से अपने काम में लग जाती है।

आज जब मैंने बुलाकर उसे संयत स्वर में बताया कि मैं कोरोना पॉजिटिव हूँ तब भी उसके पोकर फेस पर कोई भाव नहीं उतरा। पर दस मिनट बाद वह वापस आयी और कहा–मैं एक तारीख से दस दिन के लिए छुट्टी लेना चाहती हूँ।’

‘कहाँ जाना चाहती हो?’

‘पता नहीं! पर अपनी सहेली के साथ जाऊँगी।’ फिर थोड़ी देर रुककर कहा, ‘आई नीड अ ब्रेक’

‘स्योर!’ मैंने अपना मोबाइल देखते हुए उससे कहा।

मेरे सिर में भयंकर पीड़ा हो रही थी, पर मैंने चीजों को तारतम्य से सोचने का प्रयास किया।

फ्राइडे तो परसों ही है और एक तारीख भी! तो यह काम छोड़ना चाह रही है। मैंने अपने भीतर एक टूटा हुआ अलगाव महसूस किया!

मैं सचमुच ही लोअर मिडल क्लास हूँ, जहाँ जाती हूँ–सबसे परिवार की तरह जुड़ जाती हूँ। नौकरानियों से भी। और ये कामवालियाँ!

ट्रूली प्रोफेशनल!

सातवाँ दिन (28 जुलाई, 2020)

जिम्बाब्वे के बारे में मैंने पढ़ा है कि वहाँ के लोग बेहद जिद्दी और कट्टर होते हैं। आखिर अँग्रेजी हुकूमत को उन्होंने खूनी संघर्ष में पराजित किया और जिम्बाब्वे से मार भगाया। कितनी किलिंग! कितना खून-खराबा! अँग्रेजों को चुन चुन कर कहीं जिंदा जला दिया गया तो कहीं घर के सभी लोगों को बच्चों सहित मार डाला गया! इसके बावजूद जिम्बाब्वे के लोगों को लेश मात्र भी अफसोस नहीं है। वे अँग्रेजों को आततायी मानते हैं और स्वयं को भूमिपुत्र! वे स्वयं को दक्षिण अफ्रीकियों से बेहतर मानते हैं, क्योंकि दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला ने गाँधी जी के अहिंसावादी विचारधारा को मानते हुए यह ऐलान किया कि किसी को भी देश (दक्षिण अफ्रीका) छोड़कर जाने की जरूरत नहीं है। सारे दक्षिण अफ्रीका के निवासियों को नागरिकता दी जाएगी और वे सब मिलकर एक ‘इंद्रधनुषी देश’ (रेनबो नेशन) का पुनर्निर्माण करेंगे!!

वहीं जिम्बाब्वे ने आत्मनिर्भरता को चुना और देश की सभी संसाधनों पर भूमिपुत्रों को अधिकार दिया। पर भ्रष्टाचार और बेरोजगारी से निजात पाना इतना आसान है क्या! इसलिए पामेला जैसी जवाँ लड़के-लड़कियाँ अवैधानिक तरीके से बॉर्डर पार कर दक्षिण अफ्रीका में मेड या गार्ड्नर की नौकरी पाने के लिए वर्षों प्रतीक्षा करते हैं–पासपोर्ट और वीजा पर अजेंटो से लूट-पीट जाते हैं–कई तो सब कुछ दाँव पर लगाकर ठगे भी जाते हैं–बड़ी मुश्किल से तब कहीं जाकर उन्हें दक्षिण अफ्रीका में प्रवेश मिल पाता है और अपने हमवतनों की मदद से जॉब!

पामेला को भी ऐसे ही किसी ने मेरा घर सुझाया था। फीफी भी मेरी सहेली अल्पना के यहाँ काम करती थी।

पामेला का तलाक हो चुका था। पाँच साल के बच्चे की कस्टडी भी पूर्ण हो चुकी थी। माँ और बहन थीं पर वे खुद ही बेरोजगार थीं। माँ ड्रग्स इंडिक्ट थीं और उन्हें डायबिटीज की बीमारी थी। ऐसे में पामेला ने दक्षिण अफ्रीका आकर काम करना चाहा।

अपनी पूरी जमा पूँजी दाँव पर लगाकर उसने जिम्बाब्वे का पासपोर्ट और दक्षिण अफ्रीका का कामगार वीजा हासिल कर लिया। पर दक्षिण अफ्रीका में भी तो बेरोजगारी चरम पर है! ऊपर से वह एम्प्लॉमेंट एजेंसी के माध्यम से भी नहीं आयी है तो ऐसे में काम मिलने में मुश्किल आ सकती है।

पर जितनी एकता इन गरीब लड़कियों में मैंने देखी उतनी आज तक भारत में देखने को न मिली।

पामेला को लेकर फीफी मेरे घर आ गयी और जिद करने लगी कि आज ही इसे काम पर रख लिया जाय क्योंकि इसके पास रहने को भी कोई ठिकाना नहीं है। मैंने अल्पना को पूछा। वह भी संशय में थी। पहली बार में ही किसी को रख लेना। मुझे दूसरे दिन भारत जाना था। ऐसे में नयी मेड! कैसे रहेगी!

मेरे पास पहले से ही कूक और गार्ड्नर थे! मैंने तो सोचा था कि कोई चुस्त-सी लड़की होगी तो ठोक बजाकर पहले डेली वेज पर रखूँगी, फिर परमानेंट करूँगी। ये आज आ रही है, जब मुझे कल दो सप्ताह के लिए सरकारी और कुछ निजी काम से भारत जाना है। भारत से लौटकर रखना बेहतर रहेगा।

मैंने अल्पना को अपनी शंका बता दी। तब तक इसका पुलिस वेरिफिकेशन भी करवा लूँगी। अभी अचानक कैसे रख सकती हूँ? पर अल्पना भी चाहती थी कि मैं अभी ही फैसला कर लूँ। पामेला को मेरा घर और उसका सर्वेंट क्वॉर्टर बहुत पसंद आ गया था इसलिए वह भी गिड़गिड़ाने लगी।

इतना बड़ा रिस्क लेकर मैंने उसे रख लिया।

वह कभी भारतीय परिवार के आस पास भी नहीं फटकी थी। इसलिए उसे कुछ भी भारतीय पकाना नहीं आता था। ऊपर से वह बेहद सुस्त थी। धीरे-धीरे एक ही काम में लगी रहती।

भारत से आने के बाद सबसे पहले कूक ने उसकी शिकायत लगायी।

‘मैम! ये बहुत सुस्त है। यहाँ नहीं काम कर पाएगी! इसे निकाल दीजिए।’

मैंने भी गौर किया कि वह पानी लेकर भी आती तो नीचे से ऊपर आने में दस से पंद्रह मिनट लगा देती। बच्चों को शावर देती तो कपड़े और तौलिया रखना भूल जाती!

क्या करूँ! लगता है इसे बाहर निकलना ही पड़ेगा! परंतु, धीरे-धीरे पामेला मेरी और मुझे पामेला की आदत पड़ गयी। हम एक दूसरे की कमियों और खूबियों से वाकिफ हो गए। मैं जितनी जल्दी और हड़बड़ी में रहने वाली–पामेला उतनी ही शांत और धीरे-धीरे काम करने वाली!

मैं किचन में जाती तो कुछ न कुछ तोड़ ही डालती, पामेला बिना कुछ कहे उसे साफ कर देती और मुझे वहाँ से हटा देती। बिना एक दूसरे की भाषा और संस्कृति के ज्ञान के भी हम बस स्त्रीत्व की डोर से एक दूसरे से मजबूती से बँधते जा रहे थे।

पर उसकी शिकायतें करने को दूसरे कर्मचारी और नौकर तत्पर रहते।

एक लड़का था–दाऊद! वह मेरे पहले वाले सी.जी. के जमाने से ही इस घर में रह रहा था। वह नौकरों का सरदार था। उसने भी पामेला की शिकायत लगायी थी। वह अक्सर कहता था कि पामेला बहुत ढीली, सुस्त और कामचोर है।

मुझे भी ऐसा विश्वास होने लगा था। जब भी मैं मदद को बुलाती, दाऊद ही आता पामेला बस रोबोट जैसा कहती ‘हेल्लो।’

मैं और भी कुढ़ जाती, पर जब दाऊद ने बार-बार शिकायत लगायी तो मैंने दाऊद को ही निकाला। ऐसी ही हूँ मैं!

मैंने भी बहुत दुनिया देखी है। दाऊद बच्चों के लिए लाए बेबी फूड, चॉक्लेट, बिस्कुट, दूध, योगर्ट सब चट कर जाता था और पूछने पर कहता कि खत्म हो गए या खराब हो गए।

और दाऊद सभी पड़ोसियों का अजीज था। मेरी पड़ोसन शाईमा को तो उसने बाकायदा बहन बना रखा था। दूसरा ऐंगल धर्म का भी था। दाऊद से मुस्लिम पड़ोसियों की बड़ी सहानुभूति थी। एक दिन जब मैंने उसे बिना बताए देर तक बाहर रहने के लिए डाँटा तो उसने शाईमा से शिकायत कर दी। शाईमा ने मुझे मेसिज किया कि वह दाऊद के असंतोष को डिस्कस करने के लिए मेरे यहाँ आना चाहती है–कब आए?

शाईमा या अन्य पड़ोसियों से मेरा परिचय सामान्य ही था। प्लस भारत के कॉन्सल जनरल होने और सम्मानित ‘इंडिया हाउस’ में रहने के कारण मैंने खुद को थोड़ा रिजर्व रखा था जो समय और मेरे पेशे की माँग भी थी। पर दाऊद! वह तो मेरी इज्जत का फालूदा करने पर तुला हुआ था! उस पर शाईमा की हिम्मत कि वह मेरे और दाऊद के बीच में समझौता कराए! मैंने उसे डिप्लमैटिक्ली ‘ना’ कहा कि इस सप्ताह मैं बहुत व्यस्त हूँ। जब फुर्सत होगी तो खूबसूरत पड़ोसन से मिलकर मुझे बेहद प्रसन्नता होंगी। शाईमा ने फिर मुझे संदेश भेजने की हिम्मत न की।

दाऊद भी मेरी नजरों में खटक रहा था।

पर सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि बुबु ने एकाध बार दबे स्वरों में शिकायत लगायी थी कि दाऊद उससे एक्स्ट्रा फ्रेंडली बनने की कोशिश करता है–जैसे स्कूल से आने पर हाई-फाई देना, या बुबु के हाथ पकड़कर गाड़ी से उतारना आदि।

मेरा माथा उसी समय उनका था। मैं उसे कैसे सबक सिखाऊँ, सोचती रहती थी। अब मैंने इन सब फीड्बैक का इस्तेमाल करते हुए दाऊद को निकाला।

पामेला पर इसका अनुकूल प्रभाव पड़ा। वह मेरी अनुगता हो गयी। वह स्लॉथ की तरह स्लो थी पर वफादार थी। बच्चों का बेहद ख्याल रखती। आदि तो उसका प्रिय था। पर वह भारतीय खाना बनाना नहीं जानती थी।

कितनी बार समझाने-सिखाने के बावजूद उसने डिजैस्टर किया। जैसे एक दिन मुझे लॉकउन में अचानक किसी काम से ऑफिस जाना पड़ा। लॉकडाउन के तीन दिन ही हुए थे। उन तीन दिन के लेथर्जी से बिस्तर ही मेरी जिंदगी हो गयी थी। बिस्तर पर सोने के अलावा सब काम होते थे–पढ़ना, खाना, इंटर्नेट सर्फिंग, लिखना, वीडियो कॉल आदि।

सोना तो सोफे में होता है न! अचानक ऑफिस से फोन आया तो मैं सोते से जाग उठी। सोफे के सामने लगी टीवी पर आड़ी-तिरछी लकीरें आ रही थीं। तो क्या टीवी रात भर चलता रहा!

तीन दिन ही आराम करके लगा कि ऑफिस तो पिछले जन्म की बात थी। हाय! लॉकडाउन में कितना मजा आ रहा था। ऊपर से सरकार को कोसो और बोर होने का बहाना करो पर भीतर भीतर मैं बहुत खुश थी।

जिम भी बंद था सो वहाँ भी जाने से बची।

बस खाना और पचाना। पचाने के लिए फोन पर गप्प करना, वॉटसप और फेसबुक पर लिखना और उल्लू की तरह देर रात एकाध हॉट वीडियो देख लेना। इस चक्कर में रात के तीन-चार बज जाते। इराटिक वीडियो देखकर नींद उड़ जाती, गला सूख जाता, जीभ तालु से चिपक जाती। फिर उठकर पानी पीकर दुबारा टीवी के आगे बैठ जाती!

हर रात संकल्प लेती हूँ कि कल से पूरे रूटीन फॉलो करुँगी–सुबह एक घंटा योगा करूँगी, फिर वॉक। तब बच्चों के लिए नाश्ता बनाऊँगी और फिर कुछ लिखूँगी या अपने उपन्यास पर ही काम कर लूँगी। लंच में कुछ मेड को सीखा दूँगी। हर रोज कोई नयी रेसिपी ताकि बाद में वह पार्टी में बिना मेरी मदद के खाना बना सके। सबसे पहले दाल क्योंकि यह आसान भी है, और उस दिन मैंने उसे दाल फ्राई बनाना सिखाना था।

मैंने उसे प्रॉसेस बताया।

मैंने उसे दिखाकर चने की दाल को पानी में भिगो दिया और बाकी मसाले तैयार करने लगी। खड़ा गरम मसाला, हल्दी और नमक आदि मिला ही रही थी कि ऑफिस से फोन आ गया। वीडियो कॉल विथ हाईकमिशनर सर! अरे हाँ, मैं भूल गयी थी कि आज सारे सी.जी. के साथ उनका वीडियो कॉन्फरेन्स है।

‘अच्छा! सुनो पामेला! मैंने दाल को भिगो दिया है। हल्दी, नमक और गरम मसाला मिला दिया है। कुकर में चार सिटी लगाने तक रखना!’

‘सिटी में कितना टाइम लगेगा।’

‘अरे यार अराउंड फिफ्टीन मिनट’ मैंने झुँझलाते हुए कहा।

‘देन’

‘फिर उसे ढेर सारा जीरा (करीब एक चम्मच), एक प्याज और एक टमाटर को घी में भूनकर दाल में मिला देना। धनिया पत्ता से गार्निश करना। ओके? मेरे साथ दो और लोग आएँगे, उनका भी प्लेट लगाना।’

‘समझ गयी।’ उसने सहमति में दायें-बायें जोर से मूँड़ी हिलाया।

मुझे बिलकुल भी समय नहीं था। पहले ही देर हो गयी थी।

वापस आयी तो खाना मेज पर लगा हुआ था।

चावल, नान, दम आलू और दाल फ्राई।

मैंने मेरे सहकर्मियों को खाने के लिए मेज पर बैठने को कहा। वे प्लेट खिंचकर बैठ गए। मैंने दाल से ढक्कन हटाया और सर्व करने के लिए कलछुल से कटोरी में डाला।

यह क्या? दाल बिलकुल भी नहीं पकी थी। डोंगे में हल्दी और खड़े गरम मसाले अलग तैर रहे थे। प्याज और जीरा भूनकर उसमें मिलाया जरूर गया था पर वह भी बहुत हास्यास्पद लग रहा था, जैसे किसी ने हल्दी पानी में प्याज घोल दिया हो।

‘तुमने दाल को नहीं पकाया?’

‘नहीं!’

‘नहीं! क्यों?’

‘आपने तो पकाने कहा ही नहीं था। बस पंद्रह मिनट्स कुकर में रखने कहा था। मैंने वैसा ही किया। फिर उसे जीरा और प्याज से छौंक दिया।’

मेरे मेहमान मुस्कुरा रहे थे। और मैं भूख, गुस्से और क्षोभ से खीज रही थी।

लगता है इसके साथ मेरी दाल बिलकुल नहीं गलेगी। मैंने अपना बाल नोचा और पामेला के बारे में सोचा।

पामेला जिंदाबाद! लॉकडाउन दाल फ्राई मुर्दाबाद!

मैं ऑफिस में व्यस्त रहती। तब तक पामेला दाल-चावल पका लेती। घर आकर मैं आमलेट या आलू भुजिया जैसा कुछ झटपट बनाती और खा लेती। उस समय दाऊद की बड़ी याद आती। दाऊद खाना बनाने में एक्स्पर्ट हो गया था।

पर क्या फायदा! मैंने अपने जीवन को और भी साधारण बनाने को सोचा। काम चल ही रहा था कि पामेला ने घोषणा की कि वह एक ब्रेक लेगी।

मतलब? अब वह यहाँ काम नहीं करेगी। अभी तो मुझे कोविड से ग्रसित हुए सिर्फ पाँच दिन ही हुए हैं–और वह छुट्टी ले लेगी!

मैं कैसे सब कुछ सँभालूँगी। मुझे तो चक्कर आते हैं। सुबह शाम बुखार आ रहा है, सिरदर्द बना रहता है। इससे तो अच्छा रहता कि मैंने इसी को निकाला होता। दाऊद को रख लिया होता। वह कम से कम काम तो करता था। हाय, बेचारा जाना नहीं चाहता था, मैंने जबरन उसे निकाला। और ये पामेला कितनी अहसान फरामोश निकली! जिम्बाब्वे से जब यह बिना किसी पूर्वनिर्धारित वर्क वीजा के आ गयी थी और अल्पना ने इसकी पुरजोर शिफारिश करके मेरे मत्थे मढ़ दिया था, तब मैंने बिना किसी वेरिफिकेशन के इसको अपने यहाँ रख लिया था, कितना बड़ा रिस्क था वो?

और अब जब मुझपर मुसीबत आन पड़ी है, तब इसे हमारी जरा भी परवाह नहीं? ये अपने बचाव के लिए जाना चाह रही है। हम चारों कोरोना से ग्रसित हैं और ये जाना चाहती है?

क्या करूँ कैसे इसे रोकूँ? सोचते सोचते मेरा बीपी बढ़ गया। मैंने यथासंभव अपने को सामान्य बनाए रखा और अल्पना से बात करने की सोची। अल्पना ही तो इसे यहाँ लायी थी। वही इसे समझा सकेगी कि अभी मत जाओ, अभी पूरे परिवार को तुम्हारी जरूरत है।

अल्पना तो पहले ही भरी बैठी थी। उसकी मेड फीफी ने भी उसको छोड़ने की धमकी दे रखी थी।

‘क्यों, अचानक क्या हुआ?’ मैंने पूछा।

‘अरे यहाँ की सामाजिक संरचना बहुत बेकार है। परिवार का कोई कॉन्सेप्ट है ही नहीं। ये मेडें जवान होती हैं और इनकी शारीरिक जरूरतें होती हैं। इसलिए ये साप्ताहिक छुट्टियों में अपने दोस्तों के साथ मजे करने चली जाया करती थीं। दुर्भाग्यवश, कोरोना के कारण लॉकडाउन हो गया और ये बाहर नहीं जा सकीं। अब घर में रहना इनके लिए असंभव होता जा रहा है। मेरी मेड फीफी ने तो कहा है कि अगर वह बाहर नहीं गयी तो घुटन से मर ही जाएगी!’

मैं अजीब जुगुप्सा और वितृष्णा से भर गयी। कैसी लड़कियाँ हैं ये? कैसा अजीब सा है अफ्रीका का सामाजिक ढाँचा? क्या नैतिकता से कोई लेना-देना नहीं है इनका? पर कुछ ही समय बाद लगा कि चलो इनके ऊपर समाज की मोरालिटी का कोई बोझ तो नहीं। ये स्त्रियाँ हमसे कहीं बेहतर हैं, जो अपने शरीर की माँगों को खुलेआम स्वीकार करती हैं। और समाज की स्वीकृति की मोहताज नहीं।

अगर छह महीने बिना शारीरिक संबंध के पुरुष पागल हो सकता है तो ये औरतें क्यों नहीं। इनके बंदी जैसे जीवन के आखरी सप्ताहांत के थोड़े से पल ही इनके लिए संजीवनी हैं।

मैंने फिर भी अल्पना से विनती की कि वो पामेला को समझाए कि परसों के बजाय दस-पंद्रह दिन बाद छुट्टी पर जाए। साथ ही मैंने उसे कह दिया कि समझाने के बावजूद अगर पामेला जाती है तो मैं दूसरी मेड रख लूँगी। जाती है तो जाय पामेला–परवाह नहीं मुझे। इधर उसने घर से बाहर कदम रखा नहीं कि उधर मैंने दूसरी मेड रखी नहीं।

भात छींटने से कौवों का अकाल है क्या?

पर भीतर ही भीतर मैं डर गयी थी। शरीर में बेहद कमजोरी घुस गयी थी। इतना बात करने पर ही मुझे चक्कर आ रहे थे।

अल्पना ने पामेला को फोन किया। मैं अपने कमरे में सो रही थी। पता नहीं क्या बात हुई कि दो घंटे बाद ही हिचकियाँ भरकर रोती हुई पामेला ने मुझे जगाया। ‘क्या हुआ!’ मैंने अलसायी आवाज में उससे पूछा।

‘आई ऐम डन विथ यू मैडम!’

उसने रोते हुए कहा–‘मैं जा रही हूँ, आज ही जाऊँगी।’

‘ऐं’ मैं चौकन्नी होकर बिस्तर से उछल कर उसके सामने जा पहुँची। कोमलता से कंधे से पकड़कर उसे अपनी तरफ मोड़ा–‘क्या हुआ पामेला? व्हाट हैपेंड?’

‘अल्पना ने मुझे फोन करके बहुत डाँटा। मुझे धमकाया कि अगर मैंने घर के बाहर कदम भी रखा तो मैडम तुरंत दूसरी मेड रख लेंगी। तुम जरा से मजे के लिए लगी-लगायी नौकरी से हाथ धो बैठोगी। मुझे अल्पना क्यों डाँटेंगी? क्या मैं उसके लिए काम करती हूँ? अगर नौकरी से निकालना है तो आप मुझे कहिए, वो क्यों? उसे तो मेरे लिए एकदम रेस्पेक्ट नहीं है। वह मेरे बारे में गंदी बातें फैलाती रहती है कि हमलोग पुरुषों से मजे लेने के लिए छुट्टियाँ लेती हैं। आप भी तो मुझे बोल सकती थीं–उसे क्यों कहा। वह बड़ी बदजुबान औरत है, इसलिए उसकी मेड उसे छोड़कर जा रही है, मैं आपको बता दूँ कि वह अब वापस नहीं आएगी।’

तब मैंने झूठी कसम खायी–भगवान की कसम।

हाँ, झूठी कसम–पामेला शायद इससे रुक जाए! क्योंकि भगवान तो अमर हैं–मेरे कसम खाने से उनका कोई नुकसान नहीं होगा, यह मुझे पता था।

‘पामेला मैं भगवान की कसम खाती हूँ कि मैंने अल्पना को तुमसे बात करने के लिए कहा होगा! वह तो अपने मेड के जाने से बौखलायी हुई थी और उसने मुझे फोन किया था। मैंने तो उसे बताया भी नहीं कि तुम जाना चाहती हो!’

सफेद झूठ बोलने के लिए मुझे उसकी तरफ से मुड़ जाना पड़ा था और मैं खिड़की की छड़ पकड़कर बाहर पिकन के पेड़ की ओर देख रही थी। मैं आम तौर पर झूठ नहीं बोलती–इसलिए मेरी धड़कन बढ़ गयी थी–मेरा चेहरा आरक्त हो गया था।

अगर अब भी पामेला नहीं मानी तो? क्योंकि, पामेला सच्ची जिंबाब्वेयन की तरह जाने की जिद पर अड़ी हुई थी

‘मैडम, पर मैं डर गयी हूँ। अगर मुझे कोरोना हुआ तो मेरे बेटे का क्या होगा? मैं मर गयी तो कौन उसको पलेगा?

‘तुम ऐसा क्यों सोचती हो कि तुम्हें कोरोना होगा ही! अफ्रीका के लोग अच्छे इम्यून वाले हैं। उन्हें कोरोना अधिक क्षति नहीं पहुँचाता।’

‘पर मैं क्यों आपलोग के कारण बीमार पड़ूँ, मैं चली जाऊँगी।’

‘देखो पामेला’ मैंने फिर से अंतिम कोशिश की।

‘तुम अब तक मेरे घर में हो और आयसोलेशन का पालन नहीं कर रही हो तो अगर तुम्हें कोरोना होने वाला होगा तो हो संक्रमण हो चुका होगा क्योंकि आज छठा दिन है। तुम यहाँ रहोगी तो मैं तुम्हारे पूरे इलाज का जिम्मा लेती हूँ। पर अगर तुम बाहर जाओगी तो मुझे नहीं लगता कि तुम इतनी अच्छी तरह अपना इलाज करवा पाओगी या अपना ख्याल रख पाओगी। पर मैं तुम्हें फिर भी बाध्य नहीं करूँगी। तुम अपना फैसला खुद लो। बस, ये जरूर ध्यान रखना कि अधिक प्रिकॉशन के चक्कर कहीं अपना ही नुकसान न कर लेना। अगर तुम यहाँ रहोगी तो अब से मैं और तुम और भी सावधानियाँ बरतेंगे।

तुम्हें ऊपर आने की जरूरत नहीं। पानी और खाना तुम सीढ़ी पर रख देना, हम वहीं से उठा लेंगे और खाकर बर्तन वहीं रख देंगे। तुम घर में भी मास्क और ग्लोब्ज पहने रहना, मैं मँगवा दूँगी। तुमको भी सारे सप्लमेंट और दवाएँ प्रिकॉशन के तौर पर खाने को दूँगी।

बच्चों को मैं ही नहलाऊँगी।

कपड़े ऑटमैटिक मशीन में ही धो लूँगी। तुम्हें मेरे लिए स्टीम व काढ़ा बनाने की जरूरत नहीं है।

पामेला बिना बोले नीचे चली गयी।

इतना अधिक बोलने से मुझे कमजोरी और चक्कर सा आने लगा था। मैं निढाल सी बिस्तर पर पड़ गयी। लगभग दो घंटे बाद अपने (पुरुष?) मित्रों से सलाह करने के बाद पामेला आयी और कहा ‘ओके! मैं अभी नहीं जाऊँगी, पर पंद्रह अगस्त को पूरे पंद्रह दिन की छुट्टी लूँगी, वह भी ‘पेड हॉलिडेज!’ इज इट ओके विथ यू?

मेरी आँखों में राहत के आँसू छलक आए।

मैंने सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए भरभराए स्वर में कहा, ‘थैंक यू पामेला, यू आर माई एंजल। गॉड ब्लेस यू।’

एक औरत दूसरे औरत की मनोदशा बहुत अधिक समझती है–जानती है।

पामेला और हम दोनों जानते थे कि हम दोनों झूठ बोल रहे हैं–एक दूसरे से अपनी असलियत छिपा रहे हैं–मैं पामेला को अभी नहीं जाने देना चाहती थी–पामेला भी कॉन्सल जनरल जैसे प्रतिष्ठित घर से हाथ नहीं धोना चाहती थी–भले ही थोड़ा सा रिस्क था–कोरोना का रिस्क। वह रुक गयी।

पामेला ने भी सोचा होगा–मरी हुई भैंस की पूँछ उमेठने से क्या फायदा!

आठवाँ दिन (29 जुलाई, 2020)

बच्चे बीमार, मुझे बेहद सिर दर्द होता था, कमजोरी भी थी–हालाँकि बुखार नहीं था। कमजोरी के चलते सीढ़ियाँ उतरकर रसोई में जाना भी बेहद कठिन कार्य लगता था।

मुझे सबसे अधिक पसंद था–बिना खाये-पिये बिस्तर पर देर तक सोते रहना! परंतु बच्चों के कारण यह कहाँ संभव हो सकता था। छोटी बेटी बार-बार उल्टियाँ करती–किसी तरह काँपते पैरों को साधकर मैं उसका ड्रेस बदल देती–मुँह पोंछ देती। वह बेहद चिड़चिड़ी हो गयी थी–मम्मा-मम्मा रटती रहती–रोती हुई मेरे साथ चिपकी रहती। वह शुरू से अस्थमिक थी इसलिए उसे दिन में तीन बार पफ देना पड़ता था। बेटा भी सुस्त-सा पड़ा रहता था। उसे कभी बुखार रहता था तो कभी छूट जाता था। वह अलग रोता रहता और सामान फेंकता। वह नॉन-वर्बल ऑटिस्टिक है इसलिए बोलकर व्यक्त नहीं कर पाता कि उसे क्या चाहिए। बस इधर-उधर खुद को पटकता और चोट पहुँचाता था।

तभी पता चला कि मेरे घर में नीचे तीन चार लोग पीपीई किट पहनकर कुछ हलचल मचा रहे हैं–कौन हैं ये लोग! पामेला ग्रोस्सरी शॉपिंग गयी हुई थी–सिर्फ सिक्योरिटी गार्ड बाहर खड़ा था।

मैंने उसे आवाज लगायी पर उसने न सुनी। कमजोरी से मेरी आवाज भी क्षीण हो गयी थी–और वैक्यूम क्लीनर की घरघराहट में शायद उनलोग को कुछ सुनायी भी न पड़ रहा हो।

तमाम कोशिशों के बावजूद जब मैं किसी को मदद के लिए ऊपर न बुला सकी तो धीरे-धीरे सँभल कर सीढ़ियाँ उतरी और पाया कि चार लोग पीपीई कीट से लैस मेरे रसोई घर में घुसे हुए हैं और कुछ सेनिटीजेर सा छिड़क रहे हैं।

मास्क के भीतर से मैंने पूछा–‘कौन हैं आपलोग?’

उनसे कोई जवाब नहीं मिला पर उन्होंने मुझे हाथ से इशारा किया कि मैं वहाँ से हट जाऊँ। तभी मैंने देखा कि सेनिटाइजर के पाइप से साबुन और केमिकल के घोल का फब्बारा सा निकल रहा है और किचन के प्लाटफॉर्म पर रखे खाने फल और सब्जियों पर पड़ रहा है।

हे भगवान! आज ही माया ने पूड़ी, चने और आलू की सब्जी भेजी थी। पामेला ने उनको निकाल कर खुले डोंगे में रख दिया था, उस पर भी छींटे!

अब कुछ खाने लायक न रहा! किसने इन लोग को मेरा घर सेनिटायज करने कहा? सिक्योरिटी गार्ड बाहर खैनी खा रहा था। मैं गुस्से में आपे से बाहर हो गयी–‘किसने तुमलोग को यहाँ भेजा?’ मैं चिल्ला कर उनसे पूछा तो कोई जवाब नहीं! बाहर जाकर सिक्योरिटी गार्ड को पूछा?–‘श्याम सिंह! किसने उन्हें बुलाया है?’

‘मैडम, एचओसी साहब ने भेजा है–शायद कल आप से बात हो गयी थी।’

‘मुझसे तो नहीं पूछा किसी ने और अभी जब मेरे यहाँ चार ऐक्टिव कोविड के मरीज हैं–मैं खुद भी कोविड पॉजिटिव हूँ तो अभी घर सैनिटायज करने की क्या जरूरत है? कम से कम मुझसे पूछ तो लिया होता।’

‘मुझे पता नहीं मैडम, आप एचओसी से पूछिए।’

‘और तुम उनको मेरे घर में अंदर घुसा कर यहाँ खैनी फाँक रहे हो? तुमने क्यों नहीं फोन पर इत्तला की कि ये लोग घर को सैनिटायज करना चाहते हैं?’

‘मैंने सोचा आप आराम कर रहे होंगे?’

‘तो तुम उनके साथ क्यों नहीं खड़े हो? यहाँ बाहर धूप सेंक रहे हों? सारा खाना बर्बाद हो गया।’

श्याम सिंह तब भी ढीठ की तरह बाहर ही खड़ा रहा। मैं ही भीतर गयी।

किचन का फर्श चिपचिपा गिला हो चुका था। क्योंकि–वे कुछ साफ नहीं कर रहे थे बल्कि मच्छर मारने वाली मशीन से सनिटीजेर छिड़क रहे थे–साग, फल, सब्जियाँ, खाना, दूध, पानी सब कुछ पर डीडीटी छिड़का जा चुका था। मुझे बेहद गुस्सा आ रहा था। मैंने उन्हें बाहर निकलने को कहा। भीतर ही भीतर मुझे डर भी लग रहा था। बेचारा जवान मर्द और मैं कोरोना पीड़ित कमजोर औरत!

कहीं ये लोग अपराधी हुए तो? फिर भी मैंने दुबारा चिल्लाकर सबको बाहर निकलने को कहा।

उसकी सूपरवायजर एक गोरी लड़की थी–वह बाहर गाड़ी में बैठी थी। उसने मुझे डाँटा कि मैं उसे काम करने से मना नहीं कर सकती–और इस तरह चिल्लाकर बात नहीं कर सकती। मैंने तब अपना ब्रह्मास्त्र फेंका–‘मैं तो तुम्हारे भले के लिए कह रही हूँ। मुझे कोविड है और मेरे बच्चों को भी कोविड है–आज आठवाँ दिन है। मैं बस ये चाहती हूँ कि अभी घर को सैनिटायज करने का कोई तुक नहीं है–इसे कुछ समय बाद किया जाता तो उपयोगी हो सकता था। मेरा सारा खाना बर्बाद कर दिया तुम लोगों ने…।

मैं जोर-जोर से बोलती हाँफ रही थी–मेरा मास्क खुला हुआ था। वे लोग हालाँकि पीपीई किट पहने हुए थे–पर बेहद डर और क्षणाँश में ही भाग खड़े हुए। उतना बोलने और लड़ने से मुझे चक्कर सा आ गया और मैं वहीं गिर गयी। श्याम सिंह बड़बड़ाता अपने कमरे में जा चुका था। वैसे भी कोविड मरीज की वह क्या मदद कर सकता था। उस वक्त तक तो कोविड के मरीज एड्ज संक्रमित लोगों से अधिक भयावह लगते थे–लोग उन्हें छोड़ भाग खड़े होते थे।

नौवाँ दिन (30 जुलाई, 2020)

जब मैंने कल की सारी घटनाक्रम पर गौर किया तो समझ में आया कि इसके पीछे पुरुष मानसिकता काम करती है। एक बार आप भारत सरकार में आ जाते हैं तो मजाल है किसी के बाप की–जो आपको नौकरी से हटा सके। कई लोग बिना मानसिक, शारीरिक और शैक्षणिक योग्यता के भारत सरकार को पैंतीस-चालीस साल तक दीमक की तरह चाटते रहते हैं। वे सारी सुविधाएँ लेंगे क्योंकि भारत सरकार इसके लिए कटिबद्ध है–पर काम कोई न करेंगे।

एचओसी–यानी हेड ऑफ चांसरी–बाहर वालों को सुनने में बड़ा ही भारी पोस्ट लगता है–पर यह एक प्रशासनिक पद है जिसका काम होता है ऑफिस के लोगों की सैलरी बनवाना, उनके पर्क और भत्तों का भुगतान करना, कोई टूट-फूट या मरम्मत और सरकारी संपत्तियों की देख-भाल।

चूँकि जोहेन्सबर्ग में कॉन्सल जनरल का मकान भी सरकारी है–इसलिए इसके देखभाल की जिम्मेदारी ऑफिस की है। एचओसी उसका इंचार्ज है। यहाँ का एचओसी बहुत ही अजीब किस्म का आदमी है। वह स्वार्थी और मानसिक रूप से अन्स्टेबल है। उसको इस बात की भी बड़ी तकलीफ है कि हमलोग बस एक इग्जैम–यूपीएससी पास करके जल्दी-जल्दी प्रमोशन पा जाते हैं–और उनकी सालों की सेवा का कोई मूल्य नहीं आँका जाता। महिला अधिकारियों के लिए उसके विचार अत्यंत सामंतवादी हैं।

मेरे पहले वाले सी.जी. ने तो उसे साइड लाइन किया हुआ था और उसे कोई भी जिम्मेदारीपूर्ण काम करने को नहीं दिया जाता था। विदेश सेवा में और अन्य भारतीय सरकारी व्यवस्थाओं में पैसिवपनिश्मेंट का यह एक तरीक है। पर मेरा लीडरशीप स्टाइल अलग है। मैं सबका मूल्यांकन शून्य से शुरू करती हूँ। और सबको अपनी क्षमता साबित करने का पूरा मौका देती हूँ। मैंने आते ही उसे फिर से एचओसी बहाल किया।

कुछ दिनों तक तो वह ठीक रहा–मेरे कहे अनुसार करता रहा पर फिर धीरे-धीरे रंग बदलने लगा।

उसे एक महिला अधिकारी जो उम्र में उसकी बेटी के बराबर होगी–उससे ऑर्डर लेने में बेहद तकलीफ होने लगी। इसलिए मेरे घर में काम करवाने से पहले उसने मुझे सूचित करना भी उचित न समझा।

जब से मुझे कोविड हुआ है उसने झूठमूठ भी फोन करके हालचाल पूछने की कोशिश भी न की। मेरे घर पर उलुल-जलुल लोगों को भेज रहा है। ऑफिस के बाकी लोग भी शिकायत कर रहे हैं कि ये तो इन सब ऑर्डिनेशन का केस बना रहा है। अगर अभी इसे नहीं रोका गया तो और भी मुश्किलें खड़ी करेगा।

मुझे बहुत से लोगों ने कहा भी था कि इसे एचओसी न बनाओ–तुम्हें परेशान करेगा, पर मैंने उसे एक मौका देना चाहा था–‘बेनेफिट ओफ डाउट!’

शून्य से शुरू करने की मेरी आदत! पर वह फेल हो गया।

इसे एचओसी से अब हटाना ही होगा।

मैंने राजदूत महोदय को फोन करके सारी बातें बतायी। उन्होंने भी मुझे चेताया था कि मैं उस व्यक्ति को एचओसी न बनाऊँ। उन्होंने उसे हटाने के मेरे निर्णय का समर्थन किया और मेरे स्वास्थ्य पर चिंता जतायी।

नवें दिन सुबह-सुबह मैंने कॉन्सल्ट के ग्रुप पर सबको सूचित किया कि ‘जनहित में मिस्टर गुप्ता को एचओसी पद से हटाया जाता है और मिस्टर सैनी अब से एचओसी होंगे।’ एक और निर्णय से उस क्लीनिंग कंपनी के कॉट्रैक्ट को कैन्सल किया गया जो बिना बताए मेरे घर पर पेस्टिसायड छिड़क कर चली गयी थी।

श्याम सिंह को अरुणबा से प्रतिस्थापित करते हुए उसे अब ऑफिस में गेट पर पहरा देने का काम दिया गया। यह बदलाव श्याम सिंह को भी बहुत बुरा लगा। श्याम सिंह चटोरा और मुँहलगा हो गया था और मेरे यहाँ ही खाया-पिया करता था। मेड से भद्दे मजाक किया करता। पामेला ने भी दबे स्वरों में उसकी शिकायत की थी, परंतु मैंने उसे नहीं निकाला था, क्योंकि, श्याम सिंह मेरा जॉगिंग पार्टनर था। खैर, वह बाहर गया और मुँह फूला लिया। ऑफिस के लोगों से मेरी बुराइयाँ किया करता–कि मैडम ने मेरे अच्छे कार्यों का ये सिला दिया–मुझे घर से निकाल दिया, मैंने उनके लिए कितना किया–खाना बनाया, जॉगिंग पर लेकर गया आदि-आदि।

मेरा सूचना तंत्र बहुत मजबूत है और मुझे कोई फुसफुसाहट भी सुनायी दे जाती है। पर मेरी चमड़ी मोटी है। मैं बेकार की बुराइयों पर ध्यान नहीं देती और यथासंभव नजरअंदाज कर देती हूँ।

श्याम सिंह को पता नहीं कि उसके खिलाफ मेरे भीतर माहौल बहुत पहले से बनने लगा था। वह झूठ बोलता था और मुझे झूठ बोलने वालों से नफरत है।

एक बार मैंने उसे दूध खरीद कर लाने और मेरी एक सहेली के घर पहुँचाने को कहा था ताकि उसकी पनीर बन जाय। श्याम सिंह दूध तो लेने खुशी-खुशी चला गया क्योंकि जैग्वॉर में बैठकर अपने लिए और अपने मित्रों के लिए भी दूध ला सकता था। पर उसे सहेली के यहाँ जाने का मन नहीं था या शायद दूसरा इन्स्ट्रक्शन भूल गया होगा।

वापस आते ही फटाफट उसने केन उतरवाया और घर के फ्रिज में रखवा ही रहा था कि मैंने ऊपर से देख लिया और टोक दिया। ‘श्याम सिंह, दूध तो पारो के यहाँ भिजवाना था न, ताकि उसकी पनीर बन जाय।’

‘जी मैडम! मैं यही पूछ रहा था कि दूध का क्या करना है? तो अरुण (दूसरे सिक्योरिटी गार्ड) कुछ बता ही नहीं रहा था।’ अरुण वहीं खड़ा था। वह गुस्से से तमतमा गया। उसने कहा कि श्याम सिंह, तुमने तो ये पूछा कि पामेला को बुला दो, मैडम का तुमने नाम नहीं लिया।

अब श्याम सिंह भी जोर से चिल्लाया ‘मैं वही तो कहा था कि मैडम को बुलाओ। तुम्हें लगता है कि मैं झूठ बोल रहा हूँ?’

वे दोनों एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करने लगे। मैं भीतर से श्याम सिंह की प्रकृति से वाकिफ थी। झूठ बोलना और दूसरों पर चीजें थोप देना उसकी आदत थी। पर मैंने बात नहीं बढ़ायी, क्योंकि अभी दो दिन के बाद घर के एक बड़ी पार्टी होनी थी और इन दोनों का सहयोग और साथ लेकर चलना जरूरी था।

ऐसे ही एक बार जब हम जॉगिंग कर रहे थे तो किसी ने उसे फोन किया। श्याम सिंह हड़बड़ा गया। जल्दी-जल्दी दौड़ने लगा। मैं घबरायी। कदम तेज करते हुए मैंने पूछा–‘क्या हुआ श्याम सिंह? सब ठीक तो है न?’

‘मैडम, सोहन मिलने आ रहा है वह आप का सामान ला रहा है–खासकर कल की पूजा सामग्री–रुद्राभिषेक पूजा के लिए।’

हम घर के आस पास ही थे। ‘तो उसको बोलो कि घर के बाहर थोड़ी देर वेट करे हम बस दस मिनट में पहुँच जाते हैं।’

‘वह रुक नहीं सकता क्योंकि उसे एचओसी के घर ग्यारह बजे पहुँचना है। शायद उसके घर का बल्ब चेंज करना है।’

मुझे अब गुस्सा आने लगा था। ऐसा हरदम होता है कि पुरुष चाहे कितनी ही छोटी पजिशन पर रहे, वह अपने लेडी बॉस पर शासन करने लगता है। ये श्याम सिंह, जिसकी मुख्य जिम्मेदारी है मेरी सुरक्षा, यह मुझे छोड़ कर सोहन से सामान लेने भागा चला जा रहा है और वह सोहन मुझे–मैं जो भारत की कॉन्सल जनरल हूँ–इग्नोर करके सोहन और एचओसी के हुक्म बजाने में लगा हुआ है! पर तब भी मैंने जब्त किया और श्याम सिंह से कहा कि अगर सोहन को सुविधा हो तो जिम के पास आकर सामान देकर एचओसी के घर चला जाए।

जब हम जिम के पास पहुँचे तो सोहन वहीं खड़ा प्रतीक्षा कर रहा था। उसने पूछा कि लाइए मैडम मैं आपको गाड़ी में घर ड्रॉप कर दूँ।

अब मैं जब्त नहीं कर पायी और उसे डाँट दिया–‘अभी तुम्हें देर नहीं हो रही है–एचओसी के घर जाने के लिए। अगर समय था तो घर के पास ही प्रतीक्षा कर लेता। मुझे अपनी जॉगिंग तो कम नहीं करनी पड़ती!’

सोहन ने बताया–‘मैं तो वेट करने को तैयार था–श्याम सिंह ने ही मुझे यहाँ जबरदस्ती बुलाया।’

श्याम सिंह को अब अपना बचाव करना था क्योंकि वह इक्स्पोज हो चुका था। मेरे कुछ कहने से पहले ही चिल्लाने लगा। ‘मैडम, मैं आपका बर्ताव नहीं समझ पाता। आप इतना क्यों गुस्सा हो जाती हैं। मैं तो आपके लिए कुछ भी कर सकता हूँ पर आप मुझे हमेशा अपमानित करती रहती हैं। अब मैं आपके लिए कुछ भी नहीं करूँगा। सोहन मेरे चलते पूजा का सामान खरीद कर ला रहा था और आपने उसे डाँट दिया।’

और भी अलाय-बलाय बोलता रहा।

उसी दिन मैंने उसे अपने साथ जॉगिंग आने से मना किया। स्साला! यहाँ भलमनसाहत की तो पूछ ही नहीं है। मेरे सामने सोहन सिंह इसे इक्स्पोज कर रहा है और फिर भी यह मूर्ख अपनी ही हाँके जा रहा है। मेरे लिए उसे कुछ भी करने की जरूरत नहीं है और मेरी सुरक्षा का भार तो इसे भारत सरकार ने दिया है–वरना भारत में तो यह पियून था–जूठे गिलास कप धोता था। लल्लो-चप्पों करके इसने अपनी पोस्टिंग करवायी होगी और अब यहाँ बबूआनी झाड़ रहा है।

इसलिए श्याम सिंह को ऑफिस प्रतिस्थापित करने का फैसला जरूरी था।

दसवाँ दिन (31 जुलाई, 2020)

आज मुझे बेहतर महसूस हो रहा था। शरीर में थरथराहट और कमजोरी थी पर परसों की घटना ने हिला डाला था। दस दिनों से मैंने बाल नहीं धोया था। कल शाम को ही मैंने आँवला-रीठा और शिकाकाई भीगा दिया था। पीढ़े पर बैठकर मैंने शीतल जल से बाल धोए तो बेहद आराम महसूस किया। तुरंत एक फोटो फेसबुक पर डाला।

पर ऑफिस का कुचक्र! इसे कुचलना ही होगा। मैं भूल नहीं पा रही थी कि अधिक चिल्लाने से परसों मैं बेहोश हो गयी थी। मुझे एचओसी को हटाना ही होगा। सबको पता है दक्षिण अफ्रीका में सुरक्षा-व्यवस्था बहुत चौपट है। यहाँ की पुलिस फेल हो चुकी है इसलिए लोग निजी सुरक्षा कंपनी से गार्ड और अलार्म सिस्टम की व्यवस्था करते हैं। किसी के भी घर बाहर ‘शूट अट साइट, आर्म्डरेस्पॉन्स, ट्रेस्सपस्सर शैलबी एक्सेक्यूटेड’ आदि डरावने फ्रेज लिखे दिख जाते हैं।

एक महिला होने के कारण मेरी वल नेरिबिलिटी और भी बढ़ जाती है। चौबीस घंटे सेंसिटिव अलार्म के कारण कोर्टेक्स सिक्योरिटी मुझे फोन करके पूछता रहता है–‘मैडम, एव्रीथिंग ओके? वी गोट अलार्म।’

‘यस आल वेल’ मैं झुँझलाकर कहती रहती हूँ।

और बिना बताए एचओसी ने पाँच लोगों की पलटन मेरे घर में भेज दी–वह भी तब जब मेरे यहाँ मैं और बच्चे कोरोना के ऐक्टिव मरीज हैं! कोई भी मर्द घर में नहीं और ऑफिस के लोगों को आने से मैंने मना कर रखा है।

मैंने उसे फोन किया। पर उसे मेरे गुस्से का पूर्वानुमान था–फोन नहीं उठाया। तब मैंने कड़ा फैसला लिया और सीजीआई ग्रुप में लिखा। ‘आज आपने मेरी सिक्योरिटी और मेरे स्वास्थ्य से खिलवाड़ किया है। आप एचओसी का कर्तव्य निर्वहन ठीक से नहीं कर सके। मेरे फोन का भी जवाब नहीं दिया। इसलिए जनहित में आपको एचओसी के पद से हटाया जाता है। आज से श्री बलबीर सैनी एचओसी का कार्यभार सँभालेंगे।

तुरंत सैनी का उत्तर आया ‘मैडम आपकी आज्ञा का पालन होगा।’

श्याम सिंह को ऑफिस में और उसकी जगह अरुण को घर में रिपोर्ट करने कहो। ‘जो आदेश मैडम।’

अब थोड़ी राहत लगी। मैंने तप्त-भग्न हृदय पर शीतल स्पर्श महसूस किया।

(शेष अगले अंक में पढ़ें)


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