कभी मनुहार, कभी फटकार!
- 1 January, 1991
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- 1 January, 1991
कभी मनुहार, कभी फटकार!
पं. जवाहर लाल नेहरू के पहलेपहल दर्शन मुझे 1937 के चुनाव में आरा में हुए थे। मैं स्कूल का छात्र था और घर में सबसे छोटा था, इसलिए साइकिल से अकेला सड़क पर जाना या किसी सभा-सोसाइटी में जाना बुजुर्गों ने मना कर रखा था। एक दिन मेरे शिक्षक राधा बाबू ने मुझसे धीरे से कहा कि वह आरा गाँगी पर जा रहे हैं नेहरू जी का चुनाव भाषण सुनने क्योंकि आरा रमना मैदान में चुनाव सभा को अँग्रेज कलक्टर ने रोक लगा दी है। मैं भी उनके साथ वहाँ जाने को उतावला हो उठा मगर राधा बाबू ने कहा–“यदि आप जाने को हल्ला करेंगे तो आपकी माँ और नानी मुझे भी रोक देंगी। राजा साहब यहाँ हैं नहीं। फिर लाखों की भीड़ में वहाँ आपको ले जाना खतरे से खाली नहीं। सरकारी प्रत्याशी कोई भी तूफान बदतमीजी कर देंगे।”
उस समय तो मैं मन मसोसकर रह गया मगर मन ने फिर भी नहीं माना। जैसे ही मेरी माँ और नानी दोपहर का भोजन समाप्त कर धूप में झपकी लेने लगीं, मैं साइकिल लेकर आरा सर्किट हाउस के रास्ते से आरा-सासाराम सड़क की ओर भागा।
उसी रास्ते से जवाहर लाल जी विक्रमगंज से आ रहे थे, यह सीधे आरा गुमटी पारकर गाँगी की ओर चले जाना था। मैं उनकी मोटर आने की प्रतीक्षा में बहुत पहले ही उस सड़क पर पहुँच गया और पंडित जी के दर्शनार्थ खड़ा हो गया। वहाँ भीड़ एकदम ना थी, सभी तो गाँगी पुल पर ही भाग गए थे। इतनी दूर मैं अकेला वहाँ खड़ा था और बहुत प्रतीक्षा के बाद जब उनकी गाड़ी वहाँ पहुंची तो मैंने बड़े उत्साह से उन्हें प्रणाम किया और चिल्लाने लगा–पं. नेहरू की जय, पं. नेहरू की जय। नेहरू जी ने गाड़ी धीमी करा दी–मेरा प्रणाम स्वीकार कर गेंदे की माला मेरी ओर फेंक दी और हँसते हुए आगे निकल गए। जब तक गाड़ी अनाइठ पहुँचकर मेरी आँखों से ओझल ना हुई, मैं बराबर जयजयकार करता ही रहा।
घर लौटकर जब रात में सारा किस्सा राधा बाबू शिक्षक को सगर्व सुनाया तो वह मुझसे रश्क करने लगे–“उफ, इतनी भीड़ थी कि मैं तो बहुत दूर फेंका गया–लाउडस्पीकर भी पीछे सुनाई नहीं पड़ रहा था और इसी शोर-शराबे में कब वह चले गए–इसकी मुझे कोई खबर ही नहीं मिली। आपने तो बड़े करीब से उन्हें देखा और वह भी हँसते हुए और फिर आपको प्रसाद स्वरूप माला भी मिल गई।” मैंने फूलों के सूख जाने पर भी उस माला को सालों अपने पास संजो कर रखा।
सन् ’38 में हाईस्कूल बिहार से पास कर मैं उच्च शिक्षा पाने इलाहाबाद पहुँचा। वर्धा की तरह वह शहर भी उन दिनों भारत स्नायुकेंद्र था। जवाहर लाल जी तो सचमुच नवयुवक-हृदय सम्राट थे ही और उनका निवास-स्थान आनंद भवन हम विद्यार्थियों के लिए तीर्थस्थल जैसा था। दिन या रात हर दूसरे-तीसरे दिन वहाँ यों ही पहुँच जाते। कभी जवाहर लाल जी के दर्शन हो जाते, कभी उनके प्यार पाते, कभी उनकी झिड़कियाँ भी पा जाते। ये दोनों हमारे लिए अमूल्य निधियाँ थीं और विद्यार्थियों के घरों या होस्टल के कमरों में चर्चा का विषय भी।
1939 में भैया (श्री राजेंद्र प्रताप सिंह, भू. पू. सांसद) जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय युनियन के सभापति चुने गए तो नेहरू जी को युनियन के उस सत्र के उद्घाटन के लिए बुला लाए। उनके स्वागत में भैया ‘शेक्सपीयर रोट’ कह कर इतने जोर से लाउडस्पीकर पर बोले कि ‘शेक्सपियर रोट’ सारे हॉल में इस तरह गूँजा कि सभी ने कान बंद कर लिए और पंडित जी के ठहाके लगाते ही सारा हॉल ठहाकों से गूँज उठा और तब भैया ने अपनी गलती महसूस की।
कमला नेहरू महिला अस्पताल का गाँधी जी द्वारा शिलान्यास तथा इंदिरा जी और फिरोज गाँधी का विवाह मेरे इलाहाबाद प्रवास की आनंद भवन में संपन्न, और यह जाना भी कि शुष्क राजनीति में व्यस्त तथा जेलों के सींखचों के अंदर वर्षों बंद रहने के बावजूद उनकी छाती में पत्नी-वियोग का अपार दुःख तथा अपनी एकलौती बेटी के लिए अक्षय प्रेम की लौ सदा प्रदीप्त रही है। बाहर से वह कभी-कभी जितने ही उदासीन दिखते–एक शांत विरागी की शून्य आँखों से कुछ खोजते हुए–वह अंदर से उतने ही रस-लवलीन रहे–करुणा तथा प्रेम के अजस्त्र स्त्रोत जैसे।
1947 में भारत आजाद हुआ। देश में एक नई रोशनी, एक नया उत्साह आया। मैंने भी इलाहाबाद से अपनी शिक्षा समाप्त कर पटना में अशोक प्रेस नाम से एक प्रेस तथा प्रकाशन संस्था की नींव रखी। 1947 में मुझे सेलम (तमिलनाडु) में छह महीने रहना पड़ा–भैया का कारखाना चलाने के सिलसिले में–और वहीं मुझे केरल के युवक वी. आर. सुब्रह्मण्यम् से परिचय हुआ जो अँग्रेजी के बड़े अच्छे विद्वान थे तथा पत्रकारिता की ओर उन्हें विशेष रुझान थी। मेरी उनसे मित्रता बढ़ी और हम एक ही मकान में एक साथ रहने लगे। उसी प्रवास के दौरान मैंने उनसे अपनी प्रकाशन संस्था की बात चलाई और यह भी कहा कि मैं चाहता हूँ कि मेरी प्रकाशन संख्या की पहली पुस्तक पं. जवाहर लाल नेहरू पर हो। इस योजना में मैंने उनका सहयोग माँगा क्योंकि पत्रकारों तथा दक्षिण के अँग्रेजी लेखकों से उनका बड़ा अच्छा संपर्क था। सुब्रह्मण्यम् साहब भी जवान ही थे और वे बड़े जोश-खरोश से इस योजना के कार्यान्वियन में कूद गए। वे ही इस ग्रन्थ के संपादक बने और उन्होंने देश तथा विदेश के शीर्षस्थ नेताओं तथा विद्वानों से चिट्ठी-पत्री शुरू कर दी।
1947 तक प्रधानमंत्री बनने के बाद नेहरू की गणना अंतर्राष्ट्रीय स्तर के महापुरुषों में होने लगी थी और उनपर कलम उठाने के पहिले सभी उत्साहित भी होते और कुछ झिझकते भी। इधर मैंने और सुब्रह्मण्यमम् साहब ने गाड़ी बड़े जोर से चला दी। मैंने राजेंद्र बाबू से वर्धा में तथा जगजीवन बाबू और बा. सत्यनारायण बाबू तो इतने जोश में आ गए कि अपने विदेशी मित्रों तथा राजदूतों को रचनाएँ उपलब्ध कराने के लिए पत्र भी भेजने लगे। उधर सुब्रह्मण्यम् साहब–ग्रन्थ के संपादक–ने रायटर्स के लंदन के विशेष पदाधिकारी स्टैनली क्लार्क द्वारा भी राजनायकों तथा शीर्षस्थ लेखकों को लेख के लिए आग्रह करना शुरू करा दिया।
हमने गाड़ी इतनी तेजी से दौड़ा दी और कुछ गलत तरीके से भी कि इसकी खबर नेहरू जी को मिल गई। फिर क्या था–नेहरू जी बिगड़ उठे और उन्होंने झट अपने कार्यालय से संपादक के नाम से एक बड़ा फटकार भरा पत्र भेजा। और इस योजना को झट बंद कर देने का आदेश दिया। फिर हम क्या करते। आज उनकी फटकार पाते हो जो बात जहाँ रही वहीं छोड़ दी गई। सुब्रह्मण्यम् साहब इस फटकार के बाद भी हतोत्साहित नहीं हुए थे–नेहरू जी की गलतफहमी को दूर कराने की योजना बनाने लगे, मगर मैंने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया क्योंकि मैं समझ गया कि हमारी पहली गलती यह हुई कि हमें राजदूतों को ऐसा पत्र नहीं भेजवाना चाहिए था। राजेंद्र बाबू ने हमें वर्धा में ही कहा था–“नेहरू हीरक जयंती समारोह पर नेहरू को अभिनंदन ग्रन्थ देने की योजना तथा एक समिति बन गई है और हिंदी की ओर से अज्ञेय जी उसमें लिए गए हैं। सर राधाकृष्णन् भी उस कमिटी में हैं। उन्हें संदेह था कि उस ग्रन्थ से इसकी टक्कर हो जाएगी। इस समय इस योजना को स्थगित कर देना उचित होगा।” हमें पू. राजेंद्र बाबू की बात मान लेनी चाहिए थी।
Image: Jawaharlal Nehru with Villagers in Rajasthan
Image Source: Wikimedia Commons
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