प्रसाद की याद
- 1 April, 1951
शेयर करे close
शेयर करे close
शेयर करे close
- 1 April, 1951
प्रसाद की याद
अनुदिन हमारे घंटों पर घंटे साथ बीता करते फिर भी मन न अघाता। प्रसाद जी कितने ही विषयों के आकर, जो प्रसंग चल पड़ता उसी में स्वाद मिलता। तिस पर छलकता हुआ स्नेह और अमायिक ममता। घर का काम-काज राम आसरे चल रहा था; दूकान वे भूले-भटके ही जाते। हाँ, दूकान के लिए जो माल तैयार होता उसे अवश्य अपनी देखरेख में–जैसा कि परंपरागत नियम था–बनवा देते। उसका भार उन्होंने दूसरों पर न छोड़ा था और यही मुख्य कारण था कि इतनी लापरवाही में भी, व्यापार मरता-जीता चल रहा था।
कभी-कभी कवित्व में मौलिकता का भी विचार हुआ करता क्योंकि वह ऐसी उमर होती है कि कहीं भी कोई सुंदर भाव दीख पड़ा–प्रांजल रचना सामने आई–तो मन में यही तड़पन होती है कि हाय यह मेरी लेखनी से क्यों न निकली और उसे किसी न किसी रूप में आत्मसात् करने के लिए कृती विकल हो उठता है। प्रसाद जी इस प्रलोभन से बराबर बचे, अत:–
‘कवि अनुहरतिच्छायां
कुकवि: भावं पदानिचाप्यधम:।
सकलपदावलिहर्त्रे
साहसकर्त्रे नम: पित्रे।’
की, जिसे इस संबंध में वे सिद्धांत वाक्य मानते थे, व्याख्या वे इस प्रकार करते कि ‘छाया’ से यहाँ प्रतिबिंब का तात्पर्य नहीं है। ‘छाया’ से तात्पर्य उन नए-नए भावों का है जो किसी पूर्व रचना के आस्वादन स्वरूप कवि के मन में समुदित हों।
इस श्लोक का ‘नम: पित्रे’ प्रसाद जी का संशोधन है। मूल रूप है ‘नमस्तमै’। वे कहते, “चोर किस गिनती में! ऐसा अपहर्ता-तो…बाप रे बाप!!”–और इस पर बड़ी हँसी हुआ करती।
बीच-बीच में तात्विक विमर्श भी हुआ करता। ऊपर कह चुका हूँ कि इस ओर उनका रुझान था। फलत: ऐसी चर्चा भी वे बहुत डूब कर करते। इस निमग्नता में एक नवीनता रहा करती, क्योंकि वे केवल लोकवाली व्याख्या न करते, उसमें अनुशीलन की पैनी दृष्टि भी रहती। भारतीय अनुशीलन ने हमारी तात्विक विचारधारा के क्रम-विकास पर जो प्रकाश डाला है उसका वे पूरा ध्यान रखते। इसी दृष्टिकोण से उन्होंने गीता के कुछ श्लोकों की, जिनके अर्थ में विशेष सांप्रदायिक खींचतान हुई है, बिलकुल स्पष्ट तथा संगत, फलत: ग्राह्य व्याख्या, एकदिन की थी।
गीता के तीसरे अध्याय के कई श्लोकों में कृष्ण ने अर्जुन को यह बताकर कि किसी अन्य सिद्धांत को न मानने वाले वेद-वाद-रत मूर्ख खूब पल्लवित वाणी से कहा करते हैं कि ‘कर्मकांड के व्यवसाय (कर्म-कलाप) में लगी हुई बुद्धि ही एकाग्र रहती है; जो ऐसे कर्मों को छोड़ बैठे हैं, उनकी बुद्धि तो इधर-उधर दौड़ा करती है–भला वे स्थितिप्रज्ञ क्यों कर हो सकते हैं।’ इस मत का खंडन किया है और समझाया है कि ऐसे भोग-ऐश्वर्य प्रसक्तों की बुद्धि कहीं समाहित हुई है! उलटे इस आसक्ति से तो उनकी बुद्धि लुट जाती है।
इस अर्थ के प्रतिकूल, पुराने व्याख्याता उक्त वेद-वाद-रतों के मत को ही कृष्ण का मत मानकर घपला कर बैठे हैं।
प्रसाद की बड़ी इच्छा थी कि कृष्ण चरित पर एक सुंदर काव्य हिंदी में तैयार किया जाए, जिसमें उनके जीवन और दर्शन का वह रूप उपस्थित किया जाए जो इतिहास-संगत है। बंगला के नवीनचंद्र की, जो ब्राह्म थे, रचनाएँ इस दिशा में एक प्रयत्न हैं। इन्हें प्रसाद जी बहुत पसंद करते फिर भी सांप्रदायिकता की गंध उन्हें असह्य थी। ऐसी रचनाओं के लिए अतुक छंदों की ही आवश्यकता पड़ती है। प्रसाद जी उसी की खोज में थे। हिंदी में तुकांतरहित कविता की आवश्यकता भारतेंदु-काल से ही महसूस हो रही थी। भारतेंदु ने अपनी कुछ रचनाओं में केवल स्वरों का ही अनुप्रास मिलाया है। उनके अनुवर्ती पथिकृतों ने संस्कृत गणवृत्तों में कितनी ही अतुकांत रचनाएँ की। फिर भी केवल इतने से काम नहीं चलने का था। तुक उड़ जाने के साथ-साथ ऐसी रचनाओं में गति की एक ढरक आवश्यक थी जो तुक के प्रभाव को ही दूर न कर दें अपितु रचना को एक नया स्पंदन प्रदान करे।
अँग्रेजी के टेनिसन के आख्यान-काव्य में इसी प्रकार की कविता है, उसकी छंदोरचना का भी वे मनन कर रहे थे। सबके परिणाम स्वरूप उन्होंने अरिल्ल छंद का प्रयोग आरंभ किया। इस छंद में जो एक झटका पड़ता है उससे उसकी गति आगे की ओर उन्मुख हो जाती है। पहले उन्होंने इसमें सानुप्रास रचनाएँ कीं। मैंने जब पहली रचना देखी तो उनसे कहा कि किस चौपटहे छंद में लिखना आरंभ किया है तुमने! मैंने उसका नाम ही चौपटहा छंद रख दिया। किंतु उन्होंने बताया, आगे चलकर इसी छंद को मैं तुकरहित कर दूँगा। उनकी बात मेरी समझ में आ गई और मैं उसकी विशेषता से अवगत हुआ। किंतु अतुक छंद का आरंभ वे कर नहीं रहे थे; मैं बेचैन हो रहा था।
फिर मेरी गति तुकभंग तक ही थी। अतुक छंद में जो प्रवाह अभीष्ट है–गद्य न होते हुए भी गद्य की जो निरंतरता अपेक्षित है–उसे मैं समझ ही न पाया था। अतएव एक, किसी भी, मात्रिक छंद को लेकर, जिसमें प्रति चरण विराम ले लेता है, मैंने एक अँग्रेजी कविता का भावानुवाद ‘इंदु’ में दे ही डाला। इससे इतना अवश्य हुआ कि प्रसाद जी झिझक छोड़कर अपने सिद्धांत के प्रवर्तन में सक्रिय हो उठे और उन्होंने अतुक अरिल्ल लिखना आरंभ कर दिया। फिर तो अरिल्ल छंद की धूम मच गई। जिस प्रकार उस समय भाई मैथिलीशरण हरिगीतिका के कवि थे उसी प्रकार प्रसाद जी अरिल्ल के, साथ ही हिंदी में अतुकांत के प्रवर्तक भी। अरिल्ल का यह रूप यद्यपि वे ही और उनका अनुगमन करता मैं ही लिखता फिर भी हिंदी के प्राय: सभी कवियों ने इसे सतुकांत अपनाकर इसका स्वागत किया।
… …
वसंत में प्रसाद जी के यहाँ दो उत्सव बड़ी धूमधाम से होते–एक तो शिवरात्रि का, दूसरा होली का। वे कुलगत शैव थे और अपने संप्रदाय पर उन्हें पूर्ण आस्था थी। दार्शनिकता उनमें पहले से थी ही अत: आगे चलकर उनके सांप्रदायिक विचार बहुत उदार हो गए थे। शैव कश्मीर-दर्शन, जिसका नाम प्रत्यभिज्ञान दर्शन है, और जिसमें आनंद-स्वरूप शिव-परमात्मा का प्रतिपादन है–जिसका अंश अविनाशी जीव है–उन्हें अत्यंत रुचिकर हुआ। यहाँ तक कि कामायनी की व्यंजना में उनका प्रतिपाद्य यही दर्शन है। इस सम्मान के कारण ही उन्हें उपनिषदों से विशेष प्रेम हो गया था और वे उनका नित्यप्रति कुछ न कुछ पाठ किया करते। किंतु जिन दिनों की चर्चा चल रही है उन दिनों उनमें सगुणोपासना का ही पक्ष प्रमुख था। यहाँ तक कि नागरी प्रचारिणी सभा में एक साहित्यिक महानुभाव से, जो उन दिनों पं. रामावतार शर्मा के भौतिक ‘परमार्थ दर्शन’ के बहुत बड़े हामी और प्रचारक बनते थे और उसको लेकर लोगों से उलझा करते थे, प्रसाद जी की बहस होने लगी। बात यहाँ तक बढ़ी कि उन महाशय ने जब कहा, “तुम्हारा शिव क्या कर सकता है” तो प्रसाद जी, जिन्हें मैंने जीवन में शायद दो बार और कोप करते देखा–अपने को न सम्हाल सके। नौ मुस्लिम महाशय को उन्होंने एक लप्पड़ जमा ही दिया, “मेरा शिव यह कर सकता है।” नौ-मुस्लिम साहब का सारा बलबला काफूर हो गया और वे सिर झुका कर उनसे कहने लगे, “और मार लीजिए…”। बात वहीं समाप्त हो गई। और आगे भी उनलोगों में कोई मनमुटाव न रह गया किंतु प्रसाद जी को अपनी सांप्रदायिक संकीर्णता पर ग्लानि हुई। उन्होंने ‘परमार्थ दर्शन’ का मनन किया। यद्यपि रामावतार जी के भौतिक अनात्मवाद से वे सर्वथा विमुख रहे फिर भी उसके मुक्तिवाले इस सिद्धांत को उनसे प्राय: सुना करता–
ममता तिरोभवति हन्त यदा
सकलात्मता च समुदेति शिवा।
चितिशक्ति प्रतिहताथ तदा प्रथते
प्रमादविगमादमला॥1॥
अखिलात्मिका चितिरियं सततं
परिणामिनी च निजसाक्षितया।
समवस्थिता च तदिमामवुधा:
क्षणिकामथापरिणतिं च बिदु:॥2॥
शिवरात्रि के पारंपरीण उत्सव में कितने ही लोग आमंत्रित होते, नगर के ही नहीं–आसपास के देहातों के भी। ब्रजभाषा के रीति परंपरावाले सुकवि मुकु दीलाल का, जो काशी के निकटवर्ती मोहन सराय गाँव में रहते थे, परिचय उनके यहाँ ऐसे ही अवसर पर हुआ था। मिर्जापुर जिले के एक और पुराने कवि शिवदास भी आया करते और भी भाँति-भाँति के कितने ही लोग…। घर के सामने ही एक छोटी सी बगीची में, ऊँची कुर्सी वाला, बड़ों का बनवाया हुआ भव्य शिवमंदिर है। फूल-पत्ती, बंदनवार, कदली-स्तंभ और झाड़-फानूस से उसकी सजावट होती। नौबत झरती। रात्रि में जागरण और नाच भी। भंग भी बनती। प्रसाद जी की भी तबीयतदारी उसमें काम करती। वे बँधे हुए नुसखों पर ही संतोष करने वाले न थे। नई-नई उद्भावना किया करते। कोरी हाँडी में नारंगी के फूल भिगवाकर और संध्या को उस पानी को निथरवाकर ऐसी सौरभित ठंढई वे बनवाया करते कि वह कभी बिसर नहीं सकती।
शिवरात्रि के नृत्य समाज की एक बात अकसर याद आती है। गायिका जो गज़ल गा रही थी उसकी एक तुक थी ‘बेकार आँखें हो गईं।’ प्रमुख आमंत्रित व्यक्तियों में एक शुक्राचार्य भी थे। नर्तकी जब-जब इस तुक को दुहराती, सबकी आँखें उनकी ओर चली जातीं और सब लोग हँस पड़ते। वे भी बड़े मौजी जीव थे; खूब पग रहे थे।
यह समाज मंदिर के जगमोहन या सभामंडप में जमता। प्रसाद जी पूजावेश में पीतांबर पहने हुए, निज-मंदिर में रहते जहाँ रुद्री तथा विस्तृत पूजाकलाप हुआ करता। बीच-बीच में हम लोगों के पास भी आ जाते। रात्रि का अखंड जागरण चलता और प्रसाद जी का अहर्निश उपवास भी।
होली यों तो वसंत पंचमी से ही आ जाती है किंतु शिवरात्रि के बाद तो वह मुखर हो उठती है। काशी का यह वसंतोत्सव अब मर चुका है; उन दिनों अंतिम साँस तोड़ रहा था। फिर भी जिसने बीती बयार नहीं देखा था उसके लिए वही बहुत था। फाल्गुन में ही नागर ब्राह्मणों का एक दल पंचकोशी के लिए रामघाट से निकलता। वहाँ ‘प्रेमरंग’ उपनाम वाले एक अच्छे कवि हुए हैं। होली उन्हें बहुत प्रिय थी और वे राम-भक्त भी थे। उनका एक गान समाज था, जो उनकी भिन्न-भिन्न रागों में बँधी फागें गाया करता। अर्थ और स्वर दोनों की दृष्टि से इन रचनाओं में मनोहरता है। यही मंडली तभी से राम-लक्ष्मण-जानकी के स्वरूप बना कर रामघाट से चल के पंचक्रोशी करती हुई पुन: रामघाट लौट आती है। नियत स्थानों पर जो-जो होलियाँ जिन-जिन रागों में बँधी हैं, गाता-बजाता आगे बढ़ता है। आमोद-प्रमोद और अबीर-गुलाल की धूम रहती है। गान समाज में गाने के साथ-साथ सितार, मुरचंग सारंगी, तबला और मजीरा भी बड़ी मस्ती से संगत करता जाता है। सारा समाज इसमें डूबा रहता है और श्रोता भी मुग्ध हो जाते हैं। प्रसाद जी इस यात्रा में बड़ा रस लेते और कई-कई मंजिलों पर जा-जाकर इसका संगीत सुनते।
फाल्गुन सुदी एकादशी को यहाँ रंग भरी एकादशी कहते हैं। उस दिन विश्वनाथ जी को पंचमुख मुखौटा पहनाया जाता है और उनका खूब शृंगार होता है। दर्शनार्थियों की भीड़ उन्हें अबीर गुलाल आदि वासंतिक मंडन चढ़ाती है और स्थान-स्थान पर गाने होते हैं। प्रसाद जी इसमें भी बड़ा रस लेते। हम प्राय: यह मेला देखने जाते। घर से ही इसका उत्साह और तैयारी आरंभ होती। एक इसी एकादशी को उन्होंने कहा कि यदि ईख के साथ आम का मौर पेर दिया जाय तो उस रस में मादकता आ जाती है और अनुपम गंध भी। इसका अनुभव किया गया और एक महाशय तो नशे में ऐसे गड़-गप्प हुए कि उन्हें सम्हाल न रह गया।
परंतु सबसे बढ़ कर तो प्रसाद जी की दूकान पर घुरड्डी की साँझ होती। घुरड्डी को दोपहर तक रंग खेलखाल कर लोग स्नान कर के स्वच्छ होते हैं और तब गुलाल का पर्व आरंभ होता है। तीसरे पहर लोग सफेद बुर्राक कपड़े पहन कर गुलाल की झोली लिए हुए यतु: षष्ठी देवी के दर्शन को जाते है। सारा नगर उमड़ पड़ता है। बीच में इष्टमित्र, परिचितों को, और छेड़-छाड़ के लिए दूसरों को भी गुलाल पोतते जाते हैं। कई जातियाँ उक्त वेश-भूषा में, गान समाज बनाकर निकलती हैं। संग में शहनाई दुक्कड़ बजा करता है और वे उसी पर ऊँचे स्वर में गाते हैं। मार्ग में खास-खास जगहों और दूकानों पर रुकते जाते हैं।
प्रसाद जी संध्या को अपनी दूकान पर सदलबल जमते। मैं भी पहुँचता–सच पूछिए तो जब से वे चले गए, मेरी होली सीठी हो गई–मेरे संग मेरी मंडली रहती। हम सब घंटों दूकान पर डटते और छेड़-छाड़-गाली-गुप्ता, हँसी, दिल्लगी, होरी-कबीर के साथ-साथ इतनी गुलाल उड़ती कि उजले कपड़े ही नहीं, काले बाल तक लाल गुलाल हो जाते–उड़त गुलाल, लाल भए बादर। समूची मंडली में भेदभाव न रहता। बीच-बीच में गान समाज आते। एक-एक फाग सुनाते और बँधी विदाई पाकर आगे बढ़ते। आनंद की एक अविरल धारा बहा करती।
उन दिनों की एक होली पर मेरे दल में एक स्वामी जी थे। वे मेरे ही अतिथि थे; सब रंग में रंग जाते। वे भी दूकान पर खुल खेले। उनकी रागद्वेष रहित वह मस्ती सचमुच अवधूतों के योग्य थी।
वे स्वामी जी मेरे ननिहाल, इलाहाबाद में कुंभ और अर्ध कुंभी के अवसर पर पंजाब से आया करते। उन्हें हठ योग के कुछ लटके याद थे। श्वास खींच कर दोनों नासापुट चिपका लेते, जिससे नासारंध्र बिलकुल बंद हो जाते। श्वास से ही जननेंद्रिय को बिलकुल भीतर खींच लेते। इन प्रदर्शनों से अपनी भक्त मंडली बनाने में उन्हें देर न लगती। यों भी उन्हें ख्याति के अतिरिक्त विशेष ईहा न थी। बातें बड़े प्रभावक ढंग से करते। बीच-बीच में अनुगतों को वे ‘देव’ ‘भगवन्’, ‘प्रभो’ पद से संबोधित किया करते। मैं उनसे विशेष आकृष्ट हुआ था सो वे प्रयाग से काशी भी आ जाते और महीनों बने रहते। उनके संबोधन हम लोगों को बहुत भले लगते अत: हम उनका प्रयोग करने लगे।
इनमें से ‘प्रभो’ सबोंधन प्रसाद जी को विशेष रुचा और बातचीत में वे इसका लगातार व्यवहार करने लगे, यहाँ तक कि हम लोगों ने उनका नाम ही ‘प्रभो’ रख दिया। मेरे मामा जी, मैथिली शरण, मैं तथा मेरे कुछ पार्षद उन्हें बहुत इधर तक प्रभो कहते रहे। इस नाम से स्वयं वे भी बहुत ही पगते। ‘प्रभो’ के प्रति उनका ममत्व इसी से समझ लीजिए कि प्रभो शीर्षक से ईश्वर पर एक कविता उन दिनों इंदु में लिखी और उसी के अनुकरण पर दो और कवियों ने भी इंदु में प्रभो शीर्षक दो कविताएँ दीं।
इस ‘प्रभो’ वाली कविता से यह भी पता चलता है कि प्रसाद की बिंबग्राहिता की विशदता और विशालता अब मुखरित हो चली है–
तुम्हारा स्मित हो जिसे निरखना
वो देख सकता है चंद्रिका को।
तुम्हारे हँसने की धुन में नदियाँ
निनाद करती ही जा रही हैं।
… … …
प्रभो प्रेममय प्रकाश तुम हो
प्रकृति पद्मिनी के अंशुमाली।
असीम उपवन के तुम हो माली
धरा बराबर जता रही है।
इन पंक्तियों को जब हम इंदु के उसी अंक में प्रकाशित उनकी देवमंदिर कविता के संग पढ़ते हैं तो यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है–
जब मानते हैं व्यापी
जल भूमि में अनित में,
तरा शशांक में भी
आकाश में अनल में।
फिर क्यों ये हठ है प्यारे
मंदिर में वह नहीं है?
यह शब्द जो ‘नहीं’ है
उसके लिए नहीं है।
… … …
हर एक पत्थरों में
वह मूरती छिपी है
शिल्पी ने स्वच्छ करके
दिखला दिया यही है
भाव की उदारता के साथ-साथ, इसे हम भारतीय मूर्तिकला की दो पंक्तियों में समूची व्याख्या भी कहें तो अनुचित न होगा। प्राचीन मूर्तियों को वे कितना पग कर देखते थे इसकी चर्चा कर चुका हूँ। इस निरीक्षण में उनकी क्या निगाह थी इसकी द्योतक ये पंक्तियाँ हैं।
उनके मन में भौतिकता से आगे के लिए कितनी तड़प थी, ऐहिक आस्वाद के ऊपर के आस्वाद के लिए वे कैसे पिपासित थे इसकी झाँकी उनकी उन्हीं दिनों वाली कविता ‘एकांत’ में मिलती है–
उत्तुंग जो यह शृंग है उस पर खड़ा तरुताज है।
शाखावली की है महा सुखमा सुपुष्प समाज है॥
होकर प्रमत्त खड़ा हुआ है यह प्रभंजन वेग में।
हाँ ! क्षमता है चित्त के आमोद के आवेग में॥
यह शून्यता बन की बनी बेजोड़ पूरी शांति से।
करुणा कलित कैसी कला कमनीय कोमल कांति से॥
चलचित्त चंचल वेग को तत्काल करता धीर है।
एकांत में विश्रांत मन पाता सुशीतल नीर है॥
निस्तब्धता संसार की उस पूर्ण से है मिल रही।
पर जड़ प्रकृति सब जीव में सब ओर ही अनमिल रही॥
ज्यों मूल से उस वृक्ष की शाखा सभी एकत्र हैं।
पर हैं सभी यह भिन्न अगणित डाल में जो पत्र हैं॥
पाता कहीं संसार में नर जब कभी एकांत है।
शैथिल्य आता है तभी होता हृदय भी क्लांत है॥
तब कल्पना लहरी दिखाती क्या अनोखे दृश्य है॥
संदिग्ध होकर तब तुरंत बनता पुरुष अविमृश्य है॥
होता अकेले जब कभी पार्थिव सुखों के बीच से।
खोता तुरंत निज शांति को कल्पित अनूदित नीच से॥
ऐसी दशा में देखता वह है अकेले आपको।
तृण से किया वह चाहता भ्रम से धरा के मापको॥
होकर अविद्या में अकेला देख अपने आपको॥
होता विकल वह खोजता है नाथ नर तब, आपको॥
… … …
यहाँ एकांत में बैठकर यह परम भावुक किसी प्रेयसी का चिंतन नहीं करता न किसी वासना से जलता है।
उनके परमात्म-चिंतन में विश्वजनीनता उस समय आरंभ हो चुकी थी–‘नमस्कार मेरा सदा, पूरे विश्वगृहस्थ को’ से समाप्त होकर उन दिनों उनके कई नमन इंदु में निकले।
दूसरी ओर उनकी इन्हीं दिनों वाली ‘रजनी गंधा’ में हम उस शैली का श्रीगणेश पाते हैं जो आगे ‘निराला’ की ‘जुही की कली’ होकर खिल उठी।
Image Courtesy: LOKATMA Folk Art Boutique
©Lokatma