पूर्वोत्तर में कौवे

Wheatfield-with-Crows-by-Vincent-van-Gogh--WikiArt

पूर्वोत्तर में कौवे

मैं दुनिया-जहान के उन कपूतों में सबसे शीर्ष पर हूँ, जिन्होंने माँ के लिए कुछ नहीं किया। मैंने जब-जब कुछ करना चाहा, माँ ने हंसकर मेरा हाथ झटक दिया कि तू कहाँ से मेरा बेटा है? बचपन में मैंने तुम्हें अपनी गोद से बाहर खदेड़ दिया। अब शहरी बाबू होकर मेरा कर्ज चुकाने चला है। कर्ज तो तेरा मुझ पर है, बेटा। तुझे ठीक से पाल-पास भी नहीं पाई।

मैं आठवें दर्जे के बाद पढ़ने बाहर आ गया था।

माँ सन् 2000 में गो-लोकवासी हुई। पिता जी उनके पीछे 2001 में चले गए। पारंपरिक रस्में निभाने के बाद उनकी पहली बरसी पर मेरे परिवारिक पुरोहित ने कहा कि पितृपक्ष (पता नहीं यह माताओं का पक्ष क्यों नहीं होता) में सारे कर्मकांड, जब तक जीवित हैं, बड़े भाई को करना हैं अंतिम दिन तुम्हें पूर्वजों को ग्रास देकर स्वयं ग्रास ग्रहण करना है। पूर्वजों में काग, गौ, श्वान, नाग, बिल्ली वगैरह-वगैरह। पंडित जी ने कहा था कि नौ पत्तलों पर ग्रास रखकर पुरखों को चढ़ा दो। प्रार्थना करो कि वे तुम्हारा ग्रास ग्रहण करें। ध्यान रखों कि असली पूर्वज पक्षियों, बल्कि कौवों के रूप में ग्रास करने आते हैं। जब तक वे न आएँ, ग्रास पूर्ण नहीं होता।

दूरदर्शन की नौकरी में मैंने 9 जनवरी 2003 को पूर्वोत्तर में बांग्लादेश बॉर्डर पर, असम में सिलचर केंद्र के निदेशक का पद-भार ग्रहण किया। पता चला कि कौवों, कुत्ते-बिल्लियों से पूर्वोत्तर खाली पड़ा है। वे वहाँ के आम और सभ्रांत लोगों का मन-पसंद भोजन हैं। पर माँ-पिता की उस बरसी पर ग्रास देते ही जहाँ ढेरों कौवे मेरे लंबे चौड़े आवासीय परिसर के पेड़ों पर काँव-काँव कर अपने होने का प्रमाण देने लगे, वहीं जाने कहाँ से एक गौ-माता भी चली आई। बिल्ली तो रोज सुबह-शाम घर का दूध पी जाने को पाँव दबाकर बचती-फिरती चली आती थी।

सुना तो यह भी था कि पूर्वोत्तर में नागों-साँपों का अगला-पिछला भाग काटकर उन्हें मछली की तरह पकाया-खाया जाता है। लेकिन मैं जिस इलाके में था, बांग्लादेश से भारत में भागे-बसे हुए, सिलेटी बंगालियों का इलाका था। शायद इसीलिए उस इलाके में कौवे, बिल्ली, गौ-माता और नाग देवता सही-सलामत थे। अचानक क्या देखता हूँ कि बड़ी दूर से फनफनाती आवाज में कोई नौ-दस फुट का एक काला भयानक नाग आकर मेरी बाँस की बाउंड्री से लिपटकर आराम करने लगा। मैंने नाग के नाम मिट्टी के दीए में दूध भरकर वहाँ पहले से ही रख दिया था।

थोड़ी देर तक तो मैं उस नाग को मुग्ध आँखों से देखता रहा। फिर यह कहकर सोने चला गया कि पूर्वज, मेरी तपस्या सफल हुई। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि आप भी आएँगे। कृपया आप ग्रास ग्रहण कर विश्राम करें और मुझे भी विश्राम की इजाजत दें। आप ग्रास ग्रहण करेंगे तो सोकर उठने के बाद मैं भी भोजन ले लूँगा!

मैं विस्तर पर चला गया। छुट्टी का दिन था। खूब-खूब सोया। उठकर देखता हूँ तो नाग, श्वान, बिल्ली, गौ सब जा चुके हैं। मगर काग देवता, झुंड-के-झुंड अब भी मुझसे ग्रास लेने को उन पेड़ों पर प्रतीक्षातुर हैं।

रात के साढ़े छह बजे थे। पूर्वोत्तर में भोर में साढ़े चार बजे दिन निकल आता है और अपराह्न साढ़े चार बजे शाम हो जाती है। देखा तो यह भी है कि पक्षी शाम होते ही अपने घोसलों में चले जाते हैं। मगर वह साढ़े चार बजे वाली शाम की साढ़े छह वाली रात। पूर्वज अब भी मेरी प्रतीक्षा में काँव-काँव किए बैठे थे। मैंने बेचैनी में पूरा घर टटोल मारा। जो भी मिला, उसे उस परिसर में दिया। पूर्वज अब भी वह ग्रास ले रहे थे। यहाँ तक कि उसके बाद भी उनकी काँव-काँव बंद नहीं हुई। रात दस बजे भोजन के बाद मैंने रोटियों के छोटे-छोटे टुकड़े वहाँ बिखेर दिए तो पूर्वज फिर सादर ग्रास ग्रहण करने आ पहुँचे।

कई दिनों तक यही क्रम रहा।

मैं चिंता में पड़ गया कि पूर्वज तो ‘पितरख’ के बाद भी मेरा साथ नहीं छोड़ रहे हैं। कई दिनों तक घर के कोनों से ढूँढ़-ढाँढ कर जुटाए गए ग्रास के बाद मैंने निर्णय लिया कि क्यों न पूर्वजों को नियमित ग्रास दिया जाए। मैंने सोचा कि इतना पैसा प्रति माह मैं अपने परिवार के लिए खर्च करता हूँ, क्यों न हजार रुपए पुरखों के नाम अर्पित किए जाएँ।

मैंने दस रुपए की बड़ी ब्रेड, दस की मूढ़ी और दस रुपए का नमकीन खरीदकर, ब्रेड और नमकीन को बहुत छोटे टुकड़ों में तोड़कर, मूढ़ी में मिलाया और तीस रुपयों का यह भोजन तीन भागों में बाँटकर, प्रतिदिन एक भाग पूर्वजों को अर्पित करने लगा। हिसाब किफायती था कि हजार के बदले केवल तीन सौ रुपये में महीने भर पुरखों से छुट्टी पा लूँगा। पर तीन सौ रुपए महीने का वह ग्रास पूर्वजों को इतना पसंद आया कि वे मेरी देहरी से जाने को तैयार नहीं थे।

सुबह चार बजे उठकर टहलने जाता तो पूर्वज मीलों मेरा पीछा करते। घर लौटने पर वह पेड़ों पर पूरा मुश्तैद मिलते। और जिस वक्त मैं परात (थाल के चौगुने आकार का बर्तन) लेकर परिसर में अपनी कुर्सी पर आ बैठता, पूर्वज मुझे चारों ओर से घेर लेते। कभी-कभी तो उन्हें इतनी जल्दी होती थी कि वे झपट्टा मारने पर भी उतर आते। और जैसे ही खीझकर वह परात मैं उनके बीच रख देता, पूर्वज चौंककर दूर हट जाते थे। क्या मजाल कि कोई उसमें से एक टुकड़ा भी ग्रहण कर ले। अंततः वह परात हाथ में लेकर मुझे ही चारों ओर पुरखों को ग्रास परोसना होता था।

और जिस समय ग्रास देने लगता था, किसी को जल्दी-जल्दी अपनी चोंच से बीनना होता था, तो कोई ग्रास बीनते हुए पूर्वज को, अपना ग्रास छोड़कर चोंच मार देता था। और कई-कई पूर्वज तो ग्रास देते ही बाउंड्री और छत्त पर जा पहुँचते थे, जहाँ उसे इधर-उधर सिर झटककर मटकी मारते हुए वे चिंतित होते थे कि सब ग्रास खत्म हुआ जा रहा है। देखा, ये कैसे लूटे जा रहे हैं!… मैं हैरान था कि उन्हें अपने ग्रास की चिंता नहीं है। चिंता है कि दूसरे क्यों ग्रास ले रहे हैं!

मैं चुपचाप पूर्वजों को निहारता चला जाता। मैंने उन पक्षियों के चेहरों में इतने-इतने चेहरे देखे कि दुनिया के सारे चेहरे वहाँ एक साथ साकार हो उठते थे। वहाँ ऋषि-मुनि, आम आदमी, अफसर, नेता लुच्चे-लफंगे-एक साथ दिखते थे। मैं हर चेहरे को देखता-ताकता हुआ उसे ग्रास देता था। और हर ग्रास के पीछे मैंने जिस काग-लीला के दर्शन किए, वह अद्भुत, अपूर्व, दुर्लभ जैसे शब्दों से भी परे, अकल्पनीय है।

शुरुआत में चिंता से उपजा मेरा यह कागोद्योग, एक खेल-सा बन गया। मगर धीरे-धीरे ये पूर्वज मेरी जिम्मेदारी बनते गए। सत्तर-पचहत्तर कौवों की वह जमात अंततः डेढ़-दो सौ में बदल गई। और मेरा वह तीन सौ रुपयों का ग्रास कम पड़ने लगा तो मैंने वह ग्रास माहवार दोगुना कर दिया। सुबह के उस ग्रास के बाद मौसी तीन-चार रोटियाँ उनके लिए अलग से बना देती थी। दोपहर में भी, भोजन के बाद मैं उन्हें सैकड़ों टुकड़ों में बाँटकर अर्पित कर देता। और रात को भी यही क्रम जारी रहता। यहाँ तक कि जिस रात मैं शहर से बाहर होता, मौसी तीनों पहर बड़ी जिम्मेदारी से यह काम स्वयं करती थी। अगर मैं अपने गृह-नगर चला गया तो दिनों के हिसाब से मौसी को पैसे दे आता था। आने में मुझे देर हुई तो पास की दुकान वाला मौसी को तब तक वह ग्रास देता रहता था, जब तक कि मैं लौटकर, उसका हिसाब न कर दूँ।
वहाँ मैं अकेला था और मौसी, जो मेरा खाना बनाने वाली बांग्लादेशीय महिला थी मेरे घर की मालकिन थी। मेरी उपस्थिति में भी चाबियों का एक गुच्छा उसके पास होता था। मौसी और राजू ड्राइवर ही उस घर की देखभाल, खरीद-फरोख्त का पूरा इंतजाम करते थे। मेरा ठिकाना नहीं था कि कब, कहाँ, कितने वक्त होऊँगा? कितने बजे तक कार्यालय में बैठूँगा? मेरी अनुपस्थिति में मौसी सब सँभालती थी। यहाँ तक कि मेरे पूर्वजों को भी।

इस बीच एक घटना हो गई। हुआ यह कि सुबह में उठकर टहलने निकला तो कौवे गायब थे। उन्होंने मेरा पीछा नहीं किया। लौटा तो भी कौवे नदारद थे। और अब ग्रास लेकर बाहर निकला तो क्या देखता हूँ कि कौवे बिजली के तार, खंभों और छतों पर बैठे कागारोर कर रहे हैं। मैंने बहुत-बहुत ग्रास परोसा। पर पूर्वज आए न उन्होंने मेरा ग्रास ग्रहण किया। फिर थोड़ी देर बाद वे उड़कर जाने कहाँ चले गए। ग्रास अब भी परिसर में प्रतीक्षारत था। फिर मौसी ने बताया कि वो नहीं आएगा बाबू, पिछली शाम किसी ने एक कौवे को गोली मार दी।

नहीं, उस दिन कोई भी कौवा दिनभर और रात के दस बजे भी मेरा ग्रास लेने नहीं आया। मैं सोचता रहा कि यह आदमियों की दुनिया में होता है कि आपका कुछ बिगड़ा तो मेरा क्या? मैं क्यों आपके पीछे रहूँ। मैं तो उसी के पीछे जाऊँगा, जिसने आपको बिगाड़ा। शायद इस ‘गमन’ पर कुछ ज्याद ही मिले। लेकिन उन बेजुबान कौवों, उन पूर्वजों ने, जो सतत तीन प्रहर मेरे ग्रास के लिए प्रतीक्षित रहते थे, अपने एक निजी बंधु के अवसान पर सारी दुनिया छोड़ दी। दुनिया के सारे ग्रास छोड़ दिए। अचरज, बहुत अचरज हुआ। लेकिन अच्छा लगा कि वे पूर्वज हैं। उन्हें ग्रास की क्या चिंता, क्या लालच? वे ग्रास के बहाने हमें देखने, तारने, आशीष ने और हमारे दरवाजे के शुभ-अशुभ पर निगाह रखने आते हैं। अगली सुबह पूर्वज फिर प्रातः भ्रमण से लेकर, मेरे दिनभर के ग्रास के साथ थे। पर वे चुप, निःशब्द थे। दुःख उनके साथ था। पर वे मेरे साथ थे। उनका विरोध, अंशतः पूरा हो चुका था।

काग-गाथा के उन्हीं दिनों मणिपुर के पहाड़ों पर बहुत बारिश हुई। वहाँ से बहकर बराक नदी (जो बांग्लादेश में जाकर पद्मा हो जाती है) में पानी उफना। उफनकर शहर में आया। अंततः दूरदर्शन परिसर को अपनी चपेट में ले लिया। मेरा घर छह फूट से अधिक डूबने को था कि मैंने दोनों बार अपने आवास से निकलकर, दूरदर्शन के अपने प्रथम तल के कार्यालय में पनाह ली। साथ ही आवासीय परिसर के ग्राउंड फ्लोर के तीस परिवारों को कार्यालय की उस छत पर कमरों में ले गया। उन कठिन परिस्थिति में मैं नौ-दस नावों से दूरदर्शन कॉलोनी और कार्यालय में टिके हुए अपने ही शरणार्थियों को रोज भोजन-पानी पहुँचाता था। उन्हीं नावों में बैठकर अपने उन पूर्वजों को ग्रास देने घर आता था। आवासीय परिसर में आगंतुकों के लिए चार कुर्सियाँ रखी होती थी। बाढ़ के पानी के साथ वे कुर्सियाँ ऊपर उठ जाती थी। उन दिनों, उन्हीं चार कुर्सियों पर मेरे पूर्वज ग्रास ग्रहण करते थे। और एक दिन बाढ़ के रेले में वे कुर्सियाँ भी गायब हो जाती थी। तब मैं निरूत्तर हो जाता था। पूर्वज भी जाने किस देश-दुनिया में उड़ जाते थे। लेकिन बाढ़ खत्म होने पर जिस दिन मैं अपने घर लौटता था, पूर्वज पेड़ों, छतों, बाउंड्री पर कागारोर करते मिल जाते थे। मगर वे उस दिन भी मेरा ग्रास रात तक ग्रहण नहीं करते थे। शायद उनका गुस्सा हो कि इतने दिनों तक मैंने उनकी चिंता क्यों नहीं की? अब मेरा उनका क्या रिश्ता?

लेकिन पूर्वज अगले दिन से फिर मेरे प्रातः भ्रमण में साथ-साथ होते थे। उसी कागारोर के साथ। उस दुर्घटना की तरह नहीं कि मेरा ग्रास नहीं लिया और अगले दिन लिया तो बस चुप, केवल चुप हैं। उन पूर्वजों के साथ मेरे अनंत किस्से हैं। लेकिन जो अंतिम किस्सा आपको बताना चाहूँगा, मेरा बेटा पार्थ, पत्नी कविता स्वयं देखकर हैरान थे। वे पहली बार पूर्वोत्तर आए थे। उस सुबह बेटे ने कहा–पापा मैं इन्हें ग्रास दे दूँ तो? मैंने कहा, दे दो। बेटा बैठ गया ग्रास देने। पूर्वजों ने ग्रास ले लिया। मैं पास खड़ा था। बेटे ने कहा कि पापा आप ग्रास दीजिए, मैं तस्वीर ले लेता हूँ। बेटा जैसे ही तस्वीर खींचने लगा, पूर्वज उड़ गए। उन्हें लगा कि यह आदमी उन्हें बंदूक मार रहा है। लेकिन जैसे ही मैं ग्रास देते हुए बेटे के चारों ओर उन पूर्वजों, उन कौवों की तस्वीर लेने लगा- पूर्वज बड़ी अदा से फोटो खिंचवाते रहे। उन्हीं ऋषि-मुनियों की तरह। पार्थ एक-एक पर उँगली उठाकर बताता रहा कि पापा, ये रहे दादा जी, ये परदादा जी होंगे। कविता बताती रही कि ये डैडी के चचेरे, ममेरे…वगैरह वगैरह।

उन कौवों की याद करता हूँ तो लगता है कि मेरे पूर्वज कहीं पूर्वोत्तर मूल के ही तो नहीं थे। कहीं मैं उन्हीं का, उन कागों का वंशज तो नहीं?
पूर्वोत्तर सुनते ही मेरे कान खड़े हो जाते हैं कि वे कौवे, वे पूर्वज अब भी मुझे पुकार रहे होंगे। वहीं कहीं एक श्वान, वह नागदेव। अब भी मुझे गुहार रहे होंगे कि बचवा को आँख भर देख लें तो जीवन-जगत से मुक्ति पाकर सुरधाम को चलें। पूर्वोत्तर में मेरी कार्यावधि केवल दो साल थी। और मैं समय से स्थानांतरित भी हो गया था। लेकिन मैंने स्वेच्छा से अपना कार्यकाल बढ़ा लिया। वे साढ़े चार वर्षों के दिन-रात जैसे गुजरे, पुकारने को तो पूरा पूर्वोत्तर मुझे पुकार रहा है। यह काग और नाग-गाथा उस पुकार की पहली कड़ी, मंगलाचरण और पूर्वाध्याय है। कभी पूर्वोत्तर जाकर बराक घाटी देखें, वे कौवे, वे पूर्वज और पूर्वजों के अनेक वंशज अब भी मेरी टोह में योजनों उड़कर लौट आते होंगे।


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Artist: Vincent-van-Gogh
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शैलेश पंडित द्वारा भी