सत्यनारायण शर्मा : स्मृति एक असंभव संभव की

सत्यनारायण शर्मा : स्मृति एक असंभव संभव की

यह उन दिनों की बात है जब मैं मारवाड़ी उच्च विद्यालय, राँची का एक छात्र था। हमारे विद्यालय में एक सुदर्शन शिक्षक थे मुरारिलाल शर्मा। वह हमारी कक्षा में पढ़ाने के लिए तो कभी नहीं आते थे, मगर उनके संबंध में मैंने जो सुन रखा था, उसके कारण उनके लिए मेरे मन में आदर भाव था। मैं जब-जब उन्हें देखता तो उनसे बात करने की इच्छा होती। पर उन दिनों किसी शिक्षक से यों ही अचानक बात करने की हिम्मत छात्र नहीं जुटा पाते थे। मेरा भी वही हाल था। मुरारिलाल जी दिन के समय हमारे विद्यालय में पढ़ाते थे और शाम को स्वयं संत जेवियर कॉलेज में वाणिज्य का अध्ययन करते थे। उनके इसी परिश्रमी व्यक्तित्व का मैं प्रशंसक था। उन्हीं दिनों यह पता चला कि संत जेवियर कॉलेज के छात्रों ने अपने यहाँ ‘शाहजहाँ’ नामक नाटक का मंचन किया था। मुरारिलाल शर्मा ने उस नाटक में ‘शाहजहाँ’ की भूमिका अदा की थी। नाटक में उनका अभिनय अत्यंत प्रभावशाली हुआ था, फलत: उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान कर पुरस्कृत किया गया था। इस समाचार ने मुरारिलाल शर्मा को तब मेरी दृष्टि में ‘हीरो’ बना दिया था। उस समय तक उनसे मेरा कोई परिचय नहीं हो सका था। फिर भी मैं उनका प्रशंसक तो बन ही चुका था। कुछ दिनों के बाद उनके बारे में एक नयी बात मालूम हुई कि उनके बड़े भाई जर्मनी में प्रोफेसर हैं और उनका नाम सत्यनारायण शर्मा है। सत्यनारायण शर्मा राँची के ही हैं। वह पश्चिम जर्मनी में प्रोफेसर हैं। इन दोनों ही सूचनाओं का मुझ पर जादू जैसा प्रभाव पड़ा। उस समय तक मुझे केवल इतना ही पता था कि राँची में एक लेखक हैं, जिनका नाम राधाकृष्ण है, जिनकी कहानी ‘वरदान का फेर’ हम छात्रों को उस समय पढ़ाई भी जाती थी। राधाकृष्ण ‘घोष बोस बनर्जी चटर्जी’ के नाम से भी लिखा करते थे। अब मेरी जानकारी में यह वृद्धि भी हो गई कि सत्यनारायण शर्मा भी राँची के एक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। उनकी कहानियों, कविताओं आदि को उस समय की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में सम्मान के साथ प्रकाशित किया जाता था। बाद में यह जानकर घोर आश्चर्य हुआ कि सत्यनारायण शर्मा केवल मैट्रिक पास थे फिर भी उन्होंने संत जेवियर कॉलेज, राँची में हिंदी के व्याख्याता के रूप में सन् 1948 से 1951 तक कार्य किया था। बहुत दिनों तक इस बात को एक गप ही मानता रह गया था।

उन दिनों बिहार में केवल एक ही विश्वविद्यालय था–पटना विश्वविद्यालय। पटना विश्वविद्यालय के सिंडिकेट ने एक विशेष प्रस्ताव पारित किया था। उस प्रस्ताव के अनुसार शिवपूजन सहाय, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ तथा सत्यनारायण शर्मा उस समय के विशिष्ट साहित्यकार माने गये थे। इन तीनों ही व्यक्तियों के पास एम.ए. की उपाधि नहीं थी। दिनकर जी बी.ए. थे। शिवपूजन सहाय तथा सत्यनारायण शर्मा केवल मैट्रिक पास थे। सिंडिकेट ने अपने प्रस्ताव में कहा कि इन तीनों ही व्यक्तियों के पास मास्टर डिग्री तो नहीं है, परंतु ये तीनों हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध साहित्यकार तथा इतने सुयोग्य हैं कि इन्हें कॉलेज में अध्यापन के लिए नियुक्त किया जा सकता है। इसी आधार पर सत्यनारायण शर्मा को संत जेवियर कॉलेज राँची में नियुक्ति मिली थी। पटना विश्वविद्यालय के उक्त निर्णय के आलोक में ही शिवपूजन सहाय की नियुक्ति राजेंद्र कॉलेज, छपरा तथा दिनकर जी की नियुक्ति लंगट सिंह कॉलेज, मुजफ्फरपुर में हुई थी।

स्पष्ट है कि सत्यनारायण शर्मा ने अपनी योग्यता से ‘असंभव’ को भी ‘संभव’ कर दिखाया था। अब मैं शर्मा जी से मिलने को व्याकुल हो उठा। पर, उनसे मिलना कहाँ संभव था। शर्मा जी तो पश्चिम जर्मनी में रहते हैं। वहाँ रहते हुए उन्होंने अब पी.एच.डी. तथा डी.लिट् की उपाधियाँ भी प्राप्त कर ली हैं। उनसे मेरे जैसे स्कूल के एक साधारण छात्र की भेंट हो भी कैसे सकती थी।

सन् 1954 में मैट्रिक पास कर मैं राँची कॉलेज का छात्र बन गया। गोपाल दास मुंजाल उन दिनों बहुत तेजी से एक कहानीकार तथा मोपासां की कहानियों के अनुवादक के रूप में ख्यात हो रहे थे। मैं प्राय: उनसे मिलने के लिए जाया करता था। उन दिनों एस.एन. गांगुली रोड में मुंजाल जी की शराब की एक दुकान थी–अपराजिता। इसके पहले भी वह शराब की एक दुकान उस जगह पर खोल चुके थे, जहाँ अभी पंजाब स्वीट हाउस आदि दुकानें हैं। इस दुकान का नाम था–मधुशाला।

‘अपराजिता’ के पीछे ही सीढ़ी घर था, जिसके साथ बने हुए कमरे में मुंजाल जी का कार्यालय या यों कहें कि अध्ययन कक्ष था। वह कमरा राँची के साहित्यकार का एक प्रकार से अड्डा भी था। प्राय: हर दिन शाम को राँची के कुछ साहित्यकार वहाँ अवश्य आ पहुँचते थे। संभवत: 1956 का वर्ष रहा होगा। एक दिन शाम को मैं मुंजाल जी से मिलने के लिए गया हुआ था। मैंने देखा कि कमरे में रखे तख्त पर धोती-कुरता पहने एक अपरिचित व्यक्ति लेटा हुआ है। मुझे देखते ही मुंजाल जी ने उनसे मेरा परिचय करवाया। जिस व्यक्ति के दर्शन के लिए मैं कब से व्याकुल था, वही डॉ. सत्यनारायण शर्मा मुझे इतनी आसानी और नाटकीय ढंग से कभी मिल जायेंगे, इसकी तो मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। पर एक बात सच कहना चाहता हूँ कि उस दिन डॉ. सत्यनारायण शर्मा को उस रूप में देखकर मैं काफी देर तक अविश्वास के भँवर-जाल में फँसा रह गया था। मैंने डॉ. शर्मा की तस्वीर देख रही थी। फोटो में तो वह ‘साहब’ लगते थे, पर मेरे सामने जो व्यक्ति था, वह उस साहब का प्रतिलोम लग रहा था। मुंजाल जी मुझसे झूठ नहीं बोलेंगे, बस इसी विश्वास ने मुझे यह विश्वास दिला दिया कि यही है डॉ. सत्यनारायण शर्मा।

इसके बाद तो साहित्य-चर्चा शुरू हो गई। ऐसा लगा कि पता नहीं हम दोनों कितने पुराने परिचित हैं। सामान्यत: ऐसी पहली मुलाकात में बातचीत के क्रम में ‘उम्र’ दो अपरिचितों को सहज नहीं होने देती। मगर, हम दोनों के बीच उम्र की दीवार कब ढह गयी, इसका पता भी नहीं चल सका। डॉ. शर्मा मुझसे इस रीति से बातचीत करने लग गये मानो उनके सामने उनका कोई पूर्वपरिचित एवं समवयस्क मित्र बैठा हो। बातचीत के अंत में उन्होंने मुझसे कहा–“आपने जो नयी कहानी लिखी है, उसे लेकर कल आइए न। मैं अपकी कहानी पढ़ना चाहता हूँ।”

अगले दिन मैंने डॉ. शर्मा को अपनी ‘लखना’ शीर्षक कहानी सुनायी, जो बाद में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई। उस कहानी की डॉ. शर्मा ने खूब प्रशंसा की थी।

राँची जैसी एक छोटी-सी नगरी में रहते हुए भी सत्यनारायण शर्मा बहुत तेजी से हिंदी साहित्य में एक कथाकार, कवि तथा विचारक के रूप में अपनी पहचान बनाते जा रहे थे। उनकी रचनाएँ उस समय की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित हो रही थीं। उन पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुख हैं–सरस्वती (प्रयाग), माधुरी (लखनऊ़), विशाल भारत (कलकत्ता), विश्वामित्र (कलकत्ता), संगम (इलाहाबाद), विजय (कलकत्ता), पारिजात (पटना), नवरस (पटना), नवशक्ति (पटना), अप्सरा (बनारस), योगी (पटना), चिनगारी (बनारस) आदि।

डॉ. सत्यनारायण शर्मा की प्रकाशित कृतियाँ हैं–

1. इन्कलाब जिन्दाबाद (निबंध संग्रह), 1939, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, कलकत्ता।

2. आत्महत्या (पत्र-शैली में लिखित गद्य काव्यात्मक उपन्यास), 1942 में किरण बेला प्रकाशन, राँची से प्रकाशित।

3. टूटती हुई जंजीरें (गद्य काव्यात्मक उपन्यास), बनारस से प्रकाशित।

4. जीवन-यात्रा (दर्शन), बंबई पुस्तकालय, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित।

5. आँसुओं का देश (दर्शन), हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, कलकत्ता।

6. दुनिया मेरी दृष्टि में (दर्शन), हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, कलकत्ता।

7. तूफान (कविता-संग्रह), किरण बेला प्रकाशन, राँची।

8. मरुपथ (कहानी-संग्रह), 1964 परमार्थ ट्रस्ट, मुड़हू, राँची।

9. निर्वास-द्वीप (कविता-संग्रह), 1965, परमार्थ ट्रस्ट, मुड़हू, राँची।

10. चिन्तना के पश्चिमी पंख (बारह पाश्चात्य दार्शनिकों तथा विचारकों का परिचय एवं मूल्यांकन), 1981, किरण बेला प्रकाशन, राँची।

11. काँटों की राह का प्रेमी (संत फ्रांसिस की जीवनी पर आधारित फेलिक्स तिमिरमांस के फ्रेंच उपन्यास का अनुवाद)

12. रोमा रोलां का भारत (दो भागों में), 1984, पूर्वोदय प्रकाशन, नई दिल्ली-110002।

हिंदी में साधारणत: यूरोपीय भाषाओं के साहित्य का जो अनुवाद उपलब्ध है, वह मूल भाषा से अनूदित न होकर अँग्रेजी से अनूदित है। कहा जाना चाहिए कि हमें अनुवाद के अनुवाद पर संतोष करना पड़ता है, फलत: मूल रचना के स्वाद से हम बहुधा वंचित ही रहते हैं। डॉ. सत्यनारायण शर्मा ने दो ग्रंथों का अनुवाद किया–‘काँटों की राह का प्रेमी’ तथा ‘रोमा रोलां का भारत’। ये दोनों ग्रंथ सीधे फ्रेंच से अनूदित हैं। इस प्रकार मूल भाषा से हिंदी में अनुवाद की परंपरा शुरू करनेवालों में डॉ. सत्यनारायण शर्मा का योगदान उल्लेखनीय है।

डॉ. सत्यनारायण शर्मा की संस्कृत वार्ताएँ जर्मनी रेडियो से बराबर प्रसारित होती रहती थीं। ये संस्कृत वार्ताएँ चार अलग-अलग ग्रंथों में संगृहीत हैं। इन ग्रंथों के नाम हैं–1. प्रवचन पारिजात 2. प्रबंध चिंतामणि 3. प्रवचन पराग तथा 4. प्रवचन प्रसूनांजलि। ये चारों ग्रंथ सार्वभौम संस्कृत प्रतिष्ठान, हौज कटोरा, वाराणसी के द्वारा प्रकाशित हैं। राँची से जर्मनी पहुँचकर सत्यनारायण शर्मा ने बेलजिया से पी-एच.डी. तथा हॉलैंड से डी.लिट् की उपाधियाँ भी प्राप्त कर लीं। डॉ. शर्मा ने जर्मनी के गोटिंगन तथा मिंस्तर के विश्वविद्यालयों में भारत विद्या (इंडोलॉजी) का अध्यापन किया। सेवानिवृत हो जाने पर भी डॉ. शर्मा का जर्मनी के विश्वविद्यालयों से अंत-अंत तक संबंध बना रहा।

डॉ. सत्यनारायण शर्मा ने साहित्य तथा अध्यापन के क्षेत्र में जो कीर्तिमान स्थापित किये, वे आज असंभव लग सकते हैं। पर यही तो डॉ. शर्मा के व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य है कि उन्होंने अपने अध्यवसाय, स्वास्थ्य तथा संकल्प के सहारे असंभव को भी संभव कर दिखाया। आचार्य चाणक्य की उक्ति ‘स्वदेशे पूज्यते राजा विद्ववान् सर्वत्र पूज्यते’ डॉ. सत्यनारायण शर्मा पर पूरी तरह लागू होती है। यह कौन जानता था कि अपर बाजार, राँची के एक मध्यवर्गीय राजस्थानी ब्राह्मण परिवार में 22 अप्रैल 1919 को जन्म लेनेवाले सत्यनारायण शर्मा भारतीय वाङ्मय के ऐसे प्रकांड विद्ववान् तथा हिंदी के अप्रतिम साहित्यकार होंगे।

डॉ. सत्यनारायण शर्मा जर्मनी से जब भी राँची आते, उनके आगमन की सूचना मुझे अवश्य मिल जाती थी। कभी वह राज होटल में ठहरते, तो कभी आरोग्य भवन में। कभी वह सोहनलाल बहल के मुड़हू स्थित लाह के कारखाने में रुकते, तो कभी उनकी ही राँची की अतिथिशाला में। सोहनलाल बहल डॉ. शर्मा को अपना गुरु मानते थे और बराबर चरण-स्पर्श कर ही उनका अभिवादन किया करते थे। मुड़हू के लाह कारखाने में उन्होंने डॉ. शर्मा के लिए एक बड़ी कुटिया बनवा दी थी, जिसमें राँची आने पर डॉ. शर्मा कभी-कभी रहा करते थे। डॉ. शर्मा को इस कुटिया में रहना अत्यंत प्रिय था। कारखाने की चिमनी से जो धुआँ निकलता था, वह हवा के रुख के कारण बराबर अपनी दिशा बदल दिया करता था और डॉ. शर्मा धुएँ से अप्रभावित रहने के लिए अपने-बैठने-सोने की व्यवस्था भी बदलवा लिया करते थे। इस सुविधा के कारण ही वह मुड़हू में भी पक्के मकान में रहना पसंद नहीं करते थे। डॉ. शर्मा को कुएँ पर स्नान करने का बेहद शौक था। जर्मनी में घर के भीतर बंद रहने की पद्धति से ऊबे डॉ. शर्मा को इस प्रकार के खुले स्थान में रहना बड़ा सुखद लगता था। वह कहते भी थे यदि स्वर्ग कहीं है तो वह भारत में ही है। यूरोप के पास संपन्नता तो है, मगर वहाँ प्रकृतिप्रदत्त सुविधाओं का भारत की तरह नि:शुल्क लाभ नहीं उठाया जा सकता। भारत में प्रकृति अपने को लुटाती है जबकि यूरोप में प्रकृति एक प्रकार से लूटती है। बाद में डॉ. सत्यनारायण शर्मा ने काँके रोड में एक स्थायी फ्लैट ही खरीद लिया। अब वह जब भी जर्मनी से भारत आते तो अपने अनुज स्वर्गीय मुरारिलाल शर्मा के परिवार के साथ ही रहते।

डॉ. शर्मा जब भारत आते तो यहाँ की स्थिति देखकर वह अपने भीतर के क्षोभ तथा विचार को छिपा नहीं पाते थे। उनसे बातचीत तो अनेक विषयों पर हुआ करती थी, लेकिन घूम-फिर कर वह भारत की वर्तमान स्थिति पर ही आ जाते थे। वह बताते थे कि यूरोप के लोग किस प्रकार स्वभाषा का सम्मान करते हैं। भारत में अँग्रेजी के बढ़ते हुए प्रयोग एवं प्रभाव को वह भारत के लिए घातक मानते थे। वह बताते थे कि पूरी जर्मनी से अँग्रेजी का एक अखबार भी प्रकाशित नहीं होता है जबकि भारत के हर बड़े नगर से अँग्रेजी के अनेक अखबार छपते हैं। यहाँ के सभी शिक्षित लोग क्या अनपढ़ व्यक्ति भी यही माने बैठे हैं कि अँग्रेजी एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। ऐसे लोगों को जर्मनी जाकर देखना चाहिए। जर्मनी की धरती पर पैर रखते ही उन्हें मालूम हो जायेगा कि जर्मन भाषा के ज्ञान के अभाव में वहाँ वे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। भारत में कहने को हिंदी यहाँ की राजभाषा है, मगर यहाँ चारों ओर अँग्रेजी ही नजर आती है। दिल्ली का सबसे बुरा हाल है। यहाँ अगर आप किसी कार्यालय में जाकर अँग्रेजी बोलते हैं तो लोग आपकी ओर तुरंत ध्यान देंगे। यदि आपने उनसे हिंदी में बातचीत की तो आप पर कोई ध्यान नहीं देगा। दिल्ली के बड़े-बड़े होटलों के संबंध में वह प्राय: कहा करते थे, जब वह किसी से कोई बात हिंदी में बोलते थे तो उन्हें कर्मचारी का उत्तर अँग्रेजी में मिलता था। जब वह स्पष्ट रूप से यह बताते थे कि वह भारत के निवासी हैं, तभी वह अपनी बातचीत को हिंदी में आगे बढ़ा पाते थे। अपनी ही मातृभूमि में अपनी मातृभाषा हिंदी की उपेक्षा देखकर वह बहुत पीड़ित होते थे। वह यह भी बताते थे कि जर्मनी में जो लोग एक विदेशी भाषा के रूप में अँग्रेजी पढ़ना चाहते थे, उन्हें जर्मन भाषा के माध्यम से ही अँग्रेजी पढ़ाई जाती है जबकि भारत के लोग अपने ढाई-तीन साल के बच्चे को भी सीधे इंग्लिश मीडियम के स्कूल में भेज देते हैं। डॉ. शर्मा बहुत जोर देकर यह कहा करते थे कि भारत की स्वतंत्रता उस समय तक निरर्थक बनी रहेगी जब तक यहाँ अँग्रेजी इसी प्रकार चलती रहेगी। यहीं पर मैं यह बता देना उचित मानता हूँ कि मैंने अपनी आँखों से डॉ. शर्मा को राँची में कभी भी सूट तथा टाई पहनते हुए नहीं देखा। वह राँची पहुँचते ही केवल धोती और कुरता पहनना प्रारंभ कर देते थे। वह समारोहों तथा बैठकों में भी इसी परिधान में जाया करते थे। राँची की धरती पर वह राँची के सामान्य निवासी ही बन जाते थे, एक ठेठ राजस्थानी पंडित।

भारत में नेताओं, अभिनेताओं तथा क्रिकेट के खिलाड़ियों के पीछे लोगों को पागल की तरह भागते देखकर डॉ. शर्मा को लोगों के मानसिक पतन पर बड़ा आश्चर्य होता था। यहाँ की शिक्षा और शिक्षकों के सम्मान में बढ़ती जा रही गिरावट को लेकर भी वह अपना क्षोभ अक्सर प्रकट किया करते वह बताते थे कि जर्मनी में सबसे अधिक सम्मान शिक्षकों को ही दिया जाता है। वहाँ एक तरफ किसी नेता का भाषण हो रहा हो और दूसरी तरफ किसी अध्यापक का, तो लोग नेता का भाषण छोड़कर अध्यापक का भाषण सुनने के लिए आ जायेंगे। भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार के समाचार जब उन्हें जर्मनी में पढ़ने को मिलते थे, तब वह उन समाचारों पर सहसा विश्वास नहीं कर पाते थे। यहाँ आने पर वह अविश्वास के साथ उन समाचारों की चर्चा किया करते थे। जब उन्हें यह मालूम होता था कि जो उन्होंने पढ़ा है, वह उससे भी ज्यादा भयंकर है तो डॉ. शर्मा के मुखड़े पर चिंता की रेखाएँ साफ-साफ दिखाई देने लग जाती थीं।

डॉ. सत्यनारायण शर्मा ने जब भारत छोड़ा था, उस समय भारत की स्वतंत्रता अपनी शैशवावस्था में थी। उनके मन में यह दृढ़ विश्वास था कि स्वतंत्र भारत की आशातीत प्रगति होगी। उस समय देश के नेता ऐसे थे भी कि उन पर यह विश्वास किया गया। परंतु धीरे-धीरे भारत के प्रति डॉ. शर्मा का मोहभंग भी प्रारंभ हो गया। संभवत: यही कारण था कि भारत में अनेक आकर्षक सुअवसरों के मिलने पर भी उन्होंने भारत लौटने की अपनी इच्छा का दमन कर डाला था। वस्तुत: उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश जिस कार्य-संस्कृति के बीच व्यतीत किया था, वह उन्हें भारत के किसी भी कोने में नहीं मिल सकता था। उन्हें यह देखकर बेहद हैरानी होती थी कि भारत में अयोग्यता ही योग्यता मानी जाने लग गई है। योग्य लोगों की योग्यता ही उनके लिए अभिशाप साबित हो जाती है। योग्यता तथा प्रतिभा का ऐसा निरादर तथा अयोग्यता का ऐसा समान देखकर डॉ. शर्मा मर्माहत हो उठते थे। संभव है कि वह अपने मन में कभी ऐसा भी सोचते रहे हों कि यदि आज के इस स्वतंत्र भारत में उनका जन्म हुआ होता तो उनकी नियति क्या होती।

वह मुझसे कई बार कह चुके थे कि यदि आप राँची में न रहकर कहीं और रहते तो आपके लिए वह श्रेयस्कर होता। एक बार उन्होंने मेरे सामने एक आकर्षक प्रस्ताव भी रखा–‘आप कम-से-कम तीन वर्षों के लिए जर्मनी चलिए। सारी व्यवस्था मैं कर दूँगा।’ डॉ. शर्मा मुझसे तथा मेरे लेखन से तो परिचित थे, मगर उन्हें मेरी पारिवारिक समस्याओं की जानकारी नहीं थी। वस्तुस्थिति जानने पर वह इस प्रकार उदास हो गये थे, मानो उनका अपना ही कोई अहित हो गया हो। मुझे अपने जीवन में डॉ. शर्मा जैसा सच्चा आत्मीय तथा अहैतुक शुभचिंतक कोई और नहीं मिल सका।

डॉ. शर्मा जब भी जर्मनी से राँची आते, उनके यहाँ रहते हुए मैं उनसे कई बार मिल लिया करता था। जब वह जर्मनी में रहते तो उनसे मेरा पत्राचार होता रहता था। पत्रों के द्वारा भी हमारे बीच संवाद बना रहता था। उनके पत्रों में भी भारत की दुर्दशा के प्रति चिंता की झलक होती थी। सच तो यह है कि उनका शरीर भले ही जर्मनी में बसता था, लेकिन उनकी आत्मा तो भारत में ही घूमती रहती थी।

सन् 2002 के सितंबर महीने में डॉ. सत्यनारायण शर्मा अंतिम बार राँची आये। इसके बाद उनका जर्मनी लौटना संभव नहीं हो सका। उनसे मिलने के लिए मैंने कई बार उनसे समय लेने का प्रयास किया। दुर्भाग्यवश जब-जब मैंने फोन किया डॉ. शर्मा घर पर मुझे नहीं मिले। इस प्रकार उनसे मिलने का कार्यक्रम टलता ही चला गया। इस अवधि में मैं भी कुछ ऐसी व्यस्तता तथा भागदौड़ में फँसा रहा कि उनसे मिलना मुमकिन नहीं हो सका।

राँची एक्सप्रेस (27 सितंबर 2003) में प्रकाशित इस समाचार को पढ़कर मैं आहत हो उठा कि पिछली रात्रि को ही डॉ. सत्यनारायण शर्मा हम सबसे विदा ले चुके हैं। अंतिम दिनों में मैं उनसे नहीं मिल सका, यह बात जब-जब याद आती है तो मेरा हृदय रो पड़ता है।

आज बार-बार यह बात कही जाती है कि सूचना प्रौद्योगिकी ने सारे विश्व को एक गाँव के रूप में परिवतर्तित कर दिया है। जब-जब यह बात कोई मेरे सामने कहता है तो मुझे हँसी आ जाती है। गाँव तो ऐसा होता है, जहाँ का प्रत्येक निवासी एक-दूसरे को केवल जानता ही नहीं; बल्कि सभी एक-दूसरे के सुख-दु:ख के सहभागी भी होते हैं। लेकिन सूचना प्रौद्योगिकी ने संसार को एक ऐसा गाँव बना दिया है, जहाँ एक पड़ोसी दूसरे पड़ोसी का नाम तक नहीं जानता। इसी सूचना प्रौद्योगिकी का कमाल है कि आज राँची से अनेक दैनिक हिंदी, उर्दू तथा अँग्रेजी में प्रकाशित हो रहे हैं। इन दैनिकों में वैसे समाचार तो प्रमुखता के साथ प्रकाशित किये जाते हैं, जो हमारे जीवन मूल्यों को निरंतर तार-तार करते चले जा रहे हैं। संभवत: आज आपराधिक तथा घृणित घटनाएँ ही समाचार बनने के योग्य मानी जाती हैं। ऐसा लगता है कि मीडिया की इस खोटी कसौटी के कारण ही डॉ. सत्यनारायण शर्मा का निधन कोई महत्त्वपूर्ण समाचार नहीं बन सका। मुझे तो लगता है कि मीडिया को आज भी यह पता नहीं है कि डॉ. सत्यनारायण शर्मा किस हस्ती का नाम है। जिस व्यक्ति को हमारे समाज तथा युग के लिए प्रेरक मानकर उनके संबंध में आज की पीढ़ी के लाभार्थ बहुत कुछ प्रकाशित किया जाना चाहिए था, वैसा विलक्षण व्यक्तित्व भी मीडिया की उपेक्षा का शिकार बन गया। यही मीडिया अपनी शक्ति से अपराधियों, हत्यारों, बलात्कारियों, घोटालेबाजों, तस्करों, बाहुबली नेताओं आदि को तो क्षण भर में बहुचर्चित बना देती है और डॉ. सत्यनारायण शर्मा जैसी विरल प्रतिभा को हाशिए में डाल देती है। सूचना प्रौद्योगिकी ने सारे संसार को जो एक कथित गाँव बना दिया है, यह उस गाँव का एक ऐसा लक्ष्य है, जिसके कारण मीडिया की भूमिका तथा विश्वसनीयता अब प्राय: कठघरे में खड़ी नजर आने लगी है। यह मीडिया दूर की कौड़ी लाने में तो सफल हो जाती है, किंतु अपने सामने पड़े हीरे पर भी इसकी दृष्टि पड़ नहीं पाती।


Image: The Bouquet And The Book
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Artist : Edouard Vuillard
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