सेवाग्राम

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सुबह का वक्त था। पूर्व में से काली कंबली वाले साधुओं की एक कतार, काले बादलों के रूप में, तारों की ज्योति में अपना रास्ता टटोलती हुई, पश्चिम की तरफ जाती दिखाई दी। उस समय की घोर शांति में इन साधुओं के चलने की आहट सुनाई दे रही थी।

यकायक तारे गायब हो गए। साधुओं ने शोर मचाना शुरू किया–“अब हमको रास्ता कौन दिखाएगा? हम तो इस अंधकार में रास्ता ही खो बैठे हैं।”

उसी मुहूर्त दूर से युवक और युवतियों, बच्चों और बूढ़ों का एक समूह आता दिखलाई दिया। वह “राम राम” रटते हुए एक झोपड़ी की दिशा में जा रहा था।

उस झोपड़ी के पास पहुँच कर सब ने अपना सिर बड़ी प्रेम-मयी नम्रता से झुकाया। फिर वे सब अपने-अपने कामों पर लग गए। एक ने झाड़ू लगाना शुरू किया, दूसरा चक्की चलाने लगा, तीसरा खेती करने लगा, चौथा चरखा चलाने लगा, पाँचवाँ तेल का कोल्हू चलाने लगा। हर एक अपना काम करता जाता था और दिल में “राम राम” जपता जाता था। उनके मुख पर पसीना एक महाराजा के गले की माला के मोतियों की तरह चमकता था। उनकी पेशानी स्वतंत्र मानवता की प्रतीक थी, उनके शरीर से सुख की सुगंध निकलती थी। उस वक्त तक सूरज निकल आया था और उसने हर एक पसीना बहाने वाले को एक सुनहरी पोशाक पहना दी थी, जिस से ऐसा मालूम होने लगा कि जहाँ वह लोग काम कर रह थे वह स्थान एक महाराज का शानदार दरबार बन गया है। जब काम करने वाले थक कर बिलकुल चूर हो गए, वे आराम करने के लिए वृक्षों की मातृवत छाया में बैठ गए।

उसी वक्त झोपड़ी से किसी की आवाज सुनाई दी–“जहाँ सच्चा कर्म है, वहाँ सत् करतार है। जहाँ राम है, वहाँ सेवा है। मगर सेवा पहले होनी चाहिए, फिर, राम मिलेगा सेवा–अग्र–राम–सेवाग्राम!”


Image: Landscape with hut
Image Source: WikiArt
Artist: Aleksey Savrasov
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