शरतचंद्र संबंधी मेरे संस्मरण (पाँचवीं कड़ी)
- 1 January, 1954
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- 1 January, 1954
शरतचंद्र संबंधी मेरे संस्मरण (पाँचवीं कड़ी)
(5)
जब शरतचंद्र बरमा से कलकत्ते आए थे तब अपने साथ वह एक कुत्ता भी लाए थे। जब लाए थे तब वह बहुत छोटा था, ऐसा उन्होंने मुझे बताया था। पर बाद में वह बहुत बड़ा हो गया था और एक खूँखार–किंतु बहुत ही बदसूरत–भेड़िए की तरह दिखाई देता था। उसका नाम भी उन्होंने बहुत ही विचित्र रखा था : भेलू। मैं जब पहले दिन उनसे मिलने गया था तब वह मुझ पर इस बुरी तरह बिगड़ा था कि लगता था जैसे मुझे फाड़कर खा जाना चाहता हो। शरतचंद्र ने जब बार-बार उसका नाम लेकर आवाज से और आँखों से उसे डाँटा तब वह कुछ शांत हुआ। उस दिन मैंने कुत्ते के संबंध में उनसे कुछ नहीं कहा। उसके बाद कई बार शरतचंद्र के यहाँ मेरा आना-जाना हुआ। कुछ दिनों तक तो भेलू मुझ पर उसी भयंकर रूप से गुर्राता रहा, बाद में उसने गुर्राना छोड़ दिया, किंतु भूँकना फिर भी बंद नहीं किया।
1923 के क्रिसमस सप्ताह में एक दिन जब मैं फिर शरतचंद्र के यहाँ उपस्थित हुआ तब फिर भेलू भूँकने लगा। उस दिन वह कुछ अधिक शक्ति खर्च करके भूँक रहा था। शरत् को उस दिन भी उसे शांत करना पड़ा। जब हम दोनों भीतर इतमीनान से बैठ गए तब मैंने तनिक खीझ के-से स्वर में कहा : “ऐसा खूँखार कुत्ता अपने पास रखने में आपको क्या मजा आता है? आपके पास कुछ ऐसी विशेष संपत्ति भी नहीं है कि चोरों से अपनी रक्षा करने की आवश्यकता आपको आ पड़ी हो! इसकी उपयोगिता तो मैं केवल इतनी ही देखता हूँ कि कोई भला आदमी यदि आपसे मिलना चाहे तो बेचारे को इस कुत्ते के कारण व्यर्थ में परेशान होना पड़ता है!”
मेरी खीझ देखकर शरतचंद्र के मुँह पर एक दुष्टता-भरी मुस्कान फैल गयी। उस मुस्कान को बरबस दबाने का प्रयत्न करते हुए, उसमें तनिक गंभीरता का पुट मिलाते हुए उन्होंने कहा : “भले आदमियों को तो यह कुत्ता तनिक भी परेशान नहीं करता!”
मैं मन-ही-मन कुछ कट-सा गया। फिर भी बाहर से अपने को शांत बनाए रखने का कृत्रिम प्रयत्न करता हुआ बोला : “तो आपकी नजर में मैं कोई भला आदमी नहीं हूँ! अर्थात् आप यह नहीं चाहते कि मैं अक्सर आपके पास आकर आपका अमूल्य समय नष्ट करूँ! और संभवत: मेरे ही जैसे लोगों को दूर ही से टरकाने के उद्देश्य से ही आपने यह कुत्ता पाला है!”
“अरे, तुम तो सचमुच नाराज हो गए!” बड़े प्रेम से मुस्कुराते हुए शरत् ने कहा। “जरा शांत हो जाओ तो तुम मेरी बात का ठीक आशय समझ जाओगे।”
मैं प्रश्न-भरी दृष्टि से उनकी ओर देखता रहा। वह कहते गए : “तुमने जो अनुमान लगाया उसमें आधी सच्चाई है। वास्तव में इस कुत्ते से मेरा इतना काम तो सध ही जाता है कि बहुत से ऐसे लोगों का मेरे पास आना रुक जाता है जो मुझे किसी भी हालत में प्रिय नहीं लग सकते और जो सचमुच में मेरा समय नष्ट कर सकते हैं और व्यर्थ में मेरा दिमाग चाटने के सिवा और कोई कृपा मुझ पर नहीं कर सकते। पर तुम ऐसे लोगों में नहीं हो। भेलू भी इतना जानता है। वर्ना जो नकली रूप उसने तुम्हें दिखाया–जिसे देखकर तुम सचमुच डर गए–वह यदि उसका सच्चा रूप होता तो मेरे लाख मना करने पर भी वह तुम्हें न छोड़ता, और उसके न छोड़ने का अर्थ यह है कि तुम इस समय यहाँ मेरे पास न होते। तुम्हें सीधे अस्पताल पहुँचाना पड़ता और वहाँ भगवान ही तुम्हारा सहायक होता!”
मैं उनकी बात सुनकर आतंकित हो उठा। पर सच तो यह है कि अभी तक उनकी बात मेरी समझ में ठीक से आई भी नहीं थी। मैंने कहा : “अगर यह उसका नकली रूप था तो असली रूप उसका क्या हो सकता है उसकी कल्पना करने में भी मुझे भय मालूम होता है!”
“हाँ, सच, यह उसका नकली रूप था,” इस बार पूरी गंभीरता के साथ, बिना तनिक भी व्यंग के शरत् ने कहा, “अभी तक तुमने कोई कुत्ता पाला नहीं, इसीलिए तुम्हें मेरी बात सुनकर कुछ अविश्वास और कुछ आश्चर्य हो रहा है। कोई भी अच्छी जात का पालतू कुत्ता एक नकली मुखड़ा रखता है। बहुत बड़ी आवश्यकता–बड़ा संकट–आने पर ही वह अपने उस मुखड़े को उतारता है। कुत्ता प्यार में भी क्रोध का भाव जताता हुआ भूँकता है, इस सत्य से केवन वे ही लोग परिचित होते हैं जो कुत्ते को प्यार कर चुके हैं और उसका प्यार पा चुके हैं। तुमसे भेलू नाराज नहीं था–नाराज हो नहीं सकता था। मैं जानता हूँ, मेरी इस बात पर विश्वास करने में तुम्हें अभी काफी कठिनाई महसूस होगी। पर है यह बात पक्की–प्रमाण-सिद्ध और अनुभव-सिद्ध। तुमसे वह केवल खेल रहा था। भला तुम जैसे दुबले-पतले, गोरे-उजले, निरीह नवयुवक से वह क्या नाराज होता! कुत्ता आदमी को आदमी से अधिक पहचानता है, मेरी यह बात तुम गाँठ बाँध लो। यह न समझना कि मैं जिस तरह अपनी कहानियों और उपन्यासों में मनुष्य के मन की बातें जानने और उनका ठीक-ठीक विश्लेषण करने का ‘ढोंग रचता’ हूँ (मेरे कुछ विरोधी आलोचकों ने इसी तरह की बात मेरे संबंध में कही है) उसी तरह मैं कुत्ते के मनोविज्ञान का ज्ञान बघार रहा हूँ। पर यदि मैं यह ‘पोज’ भी करूँ कि मैं कुत्ते के मन की बातें बता सकता हूँ तो ऐसा करने का मुझे अधिकार तो है ही। यह अधिकार मुझे इसलिए प्राप्त है कि मैं इतने वर्षों तक एक कुत्ते के निकटतम संसर्ग में रहा हूँ, उसे मैंने प्यार किया है और उसका प्यार पाया है। और प्यार ही किसी के मन के निगूढ़ रहस्यों को उघाड़ने की कुंजी है। मैं पागल प्यार की बात नहीं कहता, बल्कि उस सहज प्यार से मेरा आशय है जिसमें ‘सह-अनुभूति’ और ‘संवेदना’ वास्तविक–शाब्दिक–अर्थ में निहित रहती है। यह बात सदा के लिए जान लो कि कोरे वैज्ञानिक विवेचन से तुम किसी के मन के एक कण का भी यथार्थ ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकोगे, पूरे मन की थाह पाना तो बहुत दूर की बात रही। हाँ, तो मैं कह रहा था कि भेलू तुमसे नाराज नहीं था, वह केवल तुम्हें बना रहा था–मेरी इस बात पर विश्वास करो चाहे न करो। जिस ढंग से और जिस स्वर में वह तुम पर भूँक रहा था उसे देखते ही मेरे मन में तनिक भी संशय नहीं रह गया था कि वह तुम्हें बना रहा है। केवल आज ही नहीं, पहले भी तुम जब-जब आए तब-तब मैंने गौर किया है कि तुम्हें देखते ही तुम्हें बनाने की अदम्य प्रवृत्ति उसमें बरबस जग उठी है। और तुम जैसे निरीह लड़के को बनाने में क्या सुख है यह मैं स्वयं अपने अनुभव से जानता हूँ!” कहकर शरतचंद्र सहसा खुलकर हँस पड़े। ऐसे हँसे कि उनकी आँखों की पलकें गीली हो आईं। मैं मूर्खों की तरह उनकी ओर चुपचाप देखता ही रह गया। भीतर-ही-भीतर बुरी तरह झेंप रहा था और मेरी खीझ भी बढ़ती जाती थी। आज शरतचंद्र एक विचित्र ही ‘मूड’ में थे, जिसे मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा था। जब उनकी हँसी का दौर समाप्त हुआ तब वह आँखें पोछते हुए बोले : “माफ करना भाई, कहीं फिर नाराज न हो जाना। मेरी हँसी को ध्यान में न लाना (कहकर वह फिर हँसने ही जा रहे थे कि उन्होंने बरबस अपने को रोका–ऐसा मुझे लगा)। सचमुच तुम बहुत ही भोले और भले हो–‘प्युअर गोल्ड’ मैं कहूँगा।” और यह कहते हुए एक स्नेह-सजल भाव उनकी आँखों में आ गया। इस बार उनके मुख पर परिहास का लेशमात्र चिह्न भी नहीं था।
मेरी झेंप बढ़ती ही चली जा रही थी–यद्यपि सारी खीझ धुल गई थी। इस अनावश्यक झेंप को झाड़ने के उद्देश्य से मैंने विषय को बदलना चाहा और मनोविज्ञान के संबंध में उनकी अधूरी बात का सूत्र पकड़ता हुआ बोला : “अभी आप कह रहे थे कि कोरे वैज्ञानिक विवेचन से किसी के मन के एक कण का भी यथार्थ ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। तब क्या आपकी राय में मनस्तत्त्व के क्षेत्र में उन नए खोजियों द्वारा उपलब्ध ज्ञान का कोई महत्त्व नहीं है, जो तथाकथित वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा अवचेतना के निगूढ़ रहस्यों का पता लगा रहे हैं?”
“जैसे?”
“जैसे फ्रायड को ही लीजिए, मनुष्य की अवचेतना और उसके चक्रजालों के संबंध में वह जिस निष्कर्ष पर पहुँचा है उसके बारे में आपका क्या मत है?”
“मैं अभी फ्रायड (शरतचंद्र ने उस समय उसका उच्चारण ‘फ्रूड’ किया था) के सिद्धांतों का अध्ययन ठीक से नहीं कर पाया हूँ” इस बार काफी गंभीर होकर शरतचंद्र ने कहा, “अध्ययन करने की बड़ी इच्छा है, क्योंकि मैंने उसके नए सिद्धांतों की चर्चा कई तुस्तकों में पढ़ी है। पर अभी तक मुझे उसकी अपनी लिखी कोई पुस्तक–अँग्रेजी अनुवाद के रूप में प्राप्त नहीं हो सकी है। कॉलेज स्क्कायर में अपने परिचित पुस्तक-विक्रेताओं से मैंने पूछा था, उनका कहना है कि उनके यहाँ भी अभी तक फ्रायड की कोई पुस्तक नहीं आई।1”
मैंने उनसे कहा कि वे विशेष ऑर्डर देकर विलायत से मँगाएँ।
“तुम्हारे पास कोई किताब है क्या इस विषय की?”
मैंने कहा, “किताबें तो मेरे पास इस विषय की बहुत-सी हैं, जिनमें फ्रायड के सिद्धांतों की केवल चर्चा ही नहीं की गई है, बल्कि किसी हद तक उन पर विवेचन भी किया गया है। पर स्वयं फ्रायड की लिखी किताबें मेरे पास भी नहीं हैं–केवल एक को छोड़कर, जो फ्रेंच अनुवाद है और गुदड़ी में मुझे संयोग से मिल गई थी।”
“तुम क्या फ्रेंच समझ लेते हो?” कुछ आश्चर्य से शरत् ने पूछा।
“अभी थोड़ा-सा अभ्यास किया है। फ्रायड को समझने के लिए बार-बार कोष की सहायता लेनी पड़ती है। पर इस बहाने मेरा फ्रेंच ज्ञान कुछ-न-कुछ बढ़ता ही जाता है।”
“अच्छा है। तुम्हें यह अच्छी सुविधा मिल गई है। कुछ पुस्तकें मेरे पास भी हैं, जिनमें फ्रायड के सिद्धांतों की चर्चा की गई है। पर उनसे विशेष सहायता नहीं मिलती। तुम अपनी कुछ पुस्तकें मुझे देते जाना, मैं अभी हेवलाक एलिस तक ही पहुँचा हूँ। सेक्स संबंधी बहुत-सी नई बातें उसने बतायी हैं–कुछ ऐसे नए सिद्धांत खोज निकाले हैं जिन पर आज तक प्रकाश नहीं पड़ा था। मैंने सुना है कि फ्रायड पर भी हेवलाक एलिस का प्रभाव पड़ा है।”
“हाँ, स्वयं फ्रायड ने यह बात स्वीकार की है।”
“पर सच पूछो तो मुझे तो यह सारा चक्कर बड़ा गंदा लगता है। ये नए सेक्स-शास्त्रीगण केवल कीचड़ और गंदगी को उलीच-उलीचकर कौन-सा नया ज्ञान संसार को दे देंगे!”
“यह ठीक है”, मैंने कुछ और अधिक गहराई में सोचने की-सी मुद्रा में कहा।
“गंदगी में केवल गंदगी के लिए रस लेने के समान विकृति कोई दूसरी नहीं हो सकती। पर दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो गंदगी जीवन के स्वस्थ बीजों के लिए पोषक खाद भी सिद्ध हो सकती है।”
“पर ऐसा भी तो संभव है,” जैसे किसी अज्ञान आशंका से प्रेरित होकर शरतचंद्र ने कहा, “कि खाद इतनी अधिक जमा हो जाए कि बीज को ही दबा बैठे!”
“हो सकता है। यह स्थिति बहुत ही खतरनाक सिद्ध होगी।” कहकर मैं क्षण-भर के लिए मौन रहा। उसके बाद सहसा एक प्रश्न कर बैठा :
“क्या भावी साहित्य फ्रायड के सिद्धांतों से किस कदर प्रभावित होगा? आपका क्या ख्याल है?”
“मेरा तो ऐसा ख्याल है कि पाश्चात्य साहित्य पर उसका प्रभाव किसी हद तक पड़ भी चुका है।”
“ऐसे साहित्य से आप क्या किसी कल्याण की आशा नहीं करते?”
“मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ कि अभी तक मैं फ्रायड के सिद्धांतों का अध्ययन ही ठीक से नहीं कर पाया हूँ। पर जो आभास उनके संबंध में मेरी अंत: प्रज्ञा को मिला है उसमें कुछ ऐसा लगता है कि जीवन की समस्याओं को सुलझाने में कोई बड़ी सहायता उनसे नहीं मिलेगी।”
“आपको तो आलोचकों ने मनस्तत्त्व-संबंधी सिद्धांतों का विशेषज्ञ बताया है। आपके उपन्यासों की एक बहुत बड़ी विशेषता यह बताई जाती है कि मनोवैज्ञानिक सत्यों का जैसा उद्घाटन आपने उनमें किया है वैसा आज तक के किसी दूसरे भारतीय उपन्यासकार ने नहीं किया है। तब यदि फ्रायड मनोविज्ञान को कुछ कदम और आगे बढ़ा ले जाता है तो आप ऐसा क्यों नहीं सोचते कि उसके अध्ययन से आपको मानव-जीवन के विवेचन और विश्लेषण में और अधिक सुविधा प्राप्त होगी?”
शरतचंद्र के मुख पर अविश्वास-भरी मुसकान झलक कर तत्काल विलीन भी हो गई। “तुम क्या सचमुच यह समझते हो,” उन्होंने दया-भरी दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए कहा, “कि मैंने अपने उन्यासों में मनुष्य के मन के जिन रहस्यों का थोड़ा-बहुत उद्घाटन किया है वह मनोविज्ञान-संबंधी पुस्तकों के सहारे किया है?”
“न, मैं किसी भी हालत में, इस तरह की बात नहीं सोच सकता। मैं आप ही के कथनानुसार ‘भोला’ (अर्थात् मूर्ख, कहते हुए मैं दुष्टतापूर्वक मुस्कराया) अवश्य हूँ, पर इस हद तक नहीं कि इतनी मोटी बात भी न समझ सकूँ कि कोई भी कवि या कथाकार जीवन के रहस्यों का उद्घाटन किसी ‘गाइड बुक’ की सहायता से नहीं, बल्कि अपने अंतदृष्टि से प्रेरित होकर करता है।”
“तब यह जानते हुए भी, तुम ऐसा क्यों सोचते हो कि फ्रायड या और किसी मनोविज्ञानवेत्ता के सिद्धांतों के अध्ययन से मुझे या किसी दूसरे कथाकार की मानव-जीवन के विवेचन और विश्लेषण में अधिक सुविधा प्राप्त हो सकेगी?”
“आपके प्रश्न के उत्तर में पहली बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि मैं स्वयं ऐसा सोचता नहीं; मैंने केवल एक संभावना की ओर संकेत किया था और उसके संबंध में आपका क्या अनुमान है यह जानना चाहा था। अभी तो यही प्रमाणित नहीं हो पाया है कि फ्रायड ने प्रचलित मनोविज्ञान को कुछ कदम आगे बढ़ाया है या पीछे हटाया है। तर्क के लिए यह मान लिया जाए कि वह कुछ ऐसे मनोवैज्ञानिक सत्यों का आविष्कार कर चुका है या कर रहा है जो आज तक प्रकाश में नहीं आए थे। तब उस हालत में क्या वह संभव नहीं है कि नए युग के कथाकारों को जीवन के रहस्यों पर प्रकाश डालने, मत की गुत्थियों को सुलझाने के उद्देश्य से एक नया दृष्टिकोण, एक नया ‘एप्रोच’ प्राप्त हो जाए? अपने पात्रों की भावनाओं और मानसिक क्रिया-प्रतिक्रिया का विश्लेषण तो प्रत्येक प्रतिभाशाली कवि, नाटककार या कथाकार अपनी अंतर्दृष्टि और अंतज्ञान के प्रकाश में करता ही रहता है। बहुत प्राचीन काल से ऐसा होता आया है। मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कोई आज ही युग की चीज नहीं है। शेक्सपीयर ने अपने पात्रों का जैसा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है वैसा दूसरा कोई क्या करेगा? पर प्रश्न है दृष्टिकोण, ‘पर्सपेक्शन’ और ‘एप्रोच’ का। मानव-मन के रहस्यों का बहुत बड़ा ज्ञाता होने पर भी शेक्सपीयर ने जीवन को समझने के लिए जो दृष्टिकोण या ‘एप्रोच’ हमारे सामने रखा यदि उसी को हम जीवन का चरम सत्य मान लें तो जीवन विध्वंस, विनाश, विद्वेष, भय, घृणा के तत्त्वों के एक विराट स्तूप के अतिरिक्त और कुछ नहीं मालूम होगा, जिसके नीचे प्रेम और शांति के अति स्वल्प परमाणु अत्यंत उपेक्षित रूप में दबे या बिखरे पड़े हैं, जिनके उद्धार की कोई संभावना नहीं है। पर आज यह दृष्टिकोण न आपका है, न कोई दूसरा जीवन-द्रष्टा इस तरह की बात सोच सकता है। किंतु साथ ही इस तथ्य को भी आप अस्वीकार नहीं कर सकते–आपने कभी किया नहीं–कि प्रेम, शांति और कल्याण के बीज विद्वेष, घृणा, भय और विनाश के प्रकट या सुप्त तत्त्वों के भीतर बुरी तरह दबे या छिपे पड़े हैं। प्राचीन काल से लेकर आज तक सभी भारतीय ऋषियों, कवियों और कलाकारों का यह विश्वास रहा है कि मानवता के भीतर निहित प्रेम के तत्त्वों का उद्धार एक-न-एक दिन अवश्य होकर रहेगा और जीवन की प्रगति का वास्तविक लक्ष्य ही यही है। पर वह विश्वास अभी तक कार्यरूप में परिणत नहीं हो पाया है। गाँधी जी के प्रेम और अहिंसा संबंधी प्रयोगों का कोई प्रभाव उन ‘महाशक्तियों’ पर नहीं पड़ रहा है जिसकी रक्त की प्यास प्रथम महायुद्ध की विश्वव्यापी दानव-लीला के बाद भी नहीं बुझी है और जो नि:शस्त्रीकरण के प्रस्ताव पर युद्ध की समाप्ति के बाद से बहस करते रहने पर भी अपनी सैनिक शक्ति निरंतर बढ़ाते चले जा रहे हैं। उनका श्मशान वैराग्य समाप्त हो चुका है। स्वयं हमारे ही देश में गाँधी जी के अहिंसात्मक असहयोग के उत्तर में ब्रिटिश राजसत्ता की बर्बरता घटने के बजाए और अधिक प्रचंड होती चली जा रही है। यह तो हुई सामूहिक प्रवृत्तियों की बात। व्यक्तिगत जीवन में मानव-मन की नीच प्रवृत्तियाँ परिष्कृत होने के बजाए निरंतर किस तरह अधिकाधिक वेग से उभरती चली जा रही हैं, इस तथ्य से आप स्वयं अपने व्यापक अनुभवों के कारण जिस हद तक परिचित हैं उस हद तक शायद ही कोई दूसरा व्यक्ति परिचित हो। उन नीच प्रवृत्तियों को दूर करने का उपदेश आपने भी दिया है, दूसरे लेखक या कवि भी बराबर देते चले आए हैं। पर क्या आप समझते हैं कि उपदेशों का कोई प्रभाव मानवता पर पड़ा है या पड़ रहा है? मुझे तो इस तरह के कोई लक्षण नहीं दिखाई देते। इसीलिए आज अत्यंत गंभीर रूप से यह सोचने की आवश्यकता आ पड़ी है कि हमारे मनीषियों की विचार-धारा में, कला में या कलात्मक ‘एप्रोच’ में त्रुटि कहाँ पर रह गई है। अपने बहुत ही छोटे जीवन के अनुभवों के फलस्वरूप मैंने इस विषय में जो कुछ सोचा है उससे मुझे लगता है जब तक तथाकथित ‘सभ्य’ मानव-जीवन की पिटी-पिटाई परंपरा के मूल में भीतर से और बाहर से आघात न किया जाए तब तक मानवता किसी वास्तविक और स्थाई परिवर्तन की ओर एक भी कदम नहीं उठा पाएगी। इस मूलगत आघात के दो रूप हमारे सामने आए हैं, जो अभी प्रारंभिक अवस्था में हैं और जिनकी दीर्घ परीक्षा अपेक्षित है…”
मैं अकस्मात् इस कदर मुखर हो उठा था कि मुझे स्वयं आश्चर्य हो रहा था। अपनी बहुत दिनों से सोची हुई बात का बाँध टूट जाने पर मैं उसके प्रवाह में इस तरह बह गया था कि किस व्यक्ति के आगे किस ढंग से और किस स्वर में बात कर रहा हूँ, यह एकदम भूल ही गया। अपनी दांभिकता-भरी बातों के लिए शरतचंद्र से इसके पहले दो-तीन बार मीठे व्यंग-भरी चुटकियाँ भी मैं पा चुका था, पर उनकी भी कोई याद उस समय मुझे न रही। उस दिन मैंने उनको जो कुछ कहा उसका एक-एक शब्द अग्नि के-से अक्षरों में अभी तक मेरे भीतर खुदा है, और जिस जोश-भरी मुद्रा में ये सब बातें मैंने उनसे कहीं उसकी याद करके आज लज्जित होने के साथ ही पुलकित भी हो उठता हूँ।’
शरत् अत्यंत गंभीर और मौन भाव से, एकांत ध्यानपूर्वक मेरे छोटे मुँह से निकली हुई बड़ी बातें सुन रहे थे। उनसे अच्छा श्रोता मुझे जीवन में फिर शायद ही कोई दूसरा मिला हो। जहाँ तक मुझे याद है, उस दिन किसी कारण से उनका हुक्का ठंडा पड़ा हुआ था और वह बार-बार ‘इंपीरियल’ सिगरेट के टिन से एक-एक सिगरेट निकालते हुए ‘चेन स्मोकिंग’ करते चले जा रहे थे।
जब मैंने दृढ़ता के साथ अंतिम बात कही और क्षण-भर के लिए दम लेने के इरादे से रुका तब उनका मुँह खुला :
“वे दो रूप क्या हैं, यह जानने के लिए मैं उत्सुक हूँ।” पता नहीं क्यों, मुझे लगा जैसे उनके प्रश्न के भीतर व्यंग का एक अत्यंत अस्पष्ट पुट निहित है। आज सोचता हूँ कि संभवत: मेरा ऐसा सोचना भ्रम था।
मैंने कहा : “एक रूप तो है मार्क्स प्रणोदित लेनिनवाद, जो संसार की शताब्दियों से प्रचलित अस्त-व्यस्त, असामंजस्यपूर्ण और स्वत:विरोधी व्यवस्थाओं पर बाहर से निर्मम हथौड़े चलाता हुआ, अपने मूलत: नये आदर्शों और सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप देता हुआ, एक विश्वव्यापी सम-व्यवस्था की स्थापना की ओर सचेष्ट है। दूसरा रूप है फ्रायड का नया मनोविश्लेषण-विज्ञान, जो भीतर से युग-युगव्यापी बूर्जवा नैतिक आदर्शों की जमीन पर घन-घन फावड़े चलाता हुआ, उस पर एकदम नए मानसिक बीजों का रोपण करता हुआ, एकदम नयी खाद से उन बीजों का पोषण करने की ओर सचेष्ट है। इस प्रकार बाहर और भीतर से दो मूलत: नई चक्र-क्रियाएँ प्रगति के संबंध में एक नया ही दृष्टिकोण, एक नया ही मोड़ मानवता को देने का दावा भर रही हैं। अभी इन क्रांतिकारी प्रयोगों की अग्नि-परीक्षा नहीं हुई। मेरा ऐसा विश्वास है कि अपनी अंतिम अग्नि-परीक्षा देने के पूर्व, नए-नए अनुभव और नए-नए विरोधों और अवरोधों के संघर्ष में आने के फलस्वरूप, दोनों को नए-नए रंग बदलने होंगे; प्रतिवर्ष जो फसल तैयार होगी उसमें काट-छाँट करके नए-नए विकास-तत्त्व जोड़ने होंगे। और इस प्रकार कटते-छँटते, बदलते और बढ़ते हुए दोनों का एक व्यापक, विकसित और सम्मिलित रूप सामने आएगा। उस नवीन विकसित रूप में वे स्वस्थ और कल्याणकारी तत्त्व निश्चय ही निहित रहेंगे जिन्हें मानवता ने युगों की साधना द्वारा प्राप्त किया है! पर जिन झूठे, अकल्याणकारी और विष-रस-भरे नैतिक और मायाविक सिद्धांतों ने झाड़ और झंखाड़ की तरह मनुष्य के प्रगति पथ को युगों से छा रखा है वे सब साफ हो जाएँगे। और तब समग्र मानवता इधर-उधर भटकना छोड़कर, एक निश्चित, मांगलिक महामार्ग से होकर सामूहिक रूप से उस महालक्ष्य की ओर बढ़ सकेगी जहाँ इस पृथ्वी का युग-युगव्यापी नारकीय जीवन सुंदर स्वर्ग में परिणत हो पाएगा। मैं जानता हूँ, अभी यह मेरा एक स्वप्न-मात्र है–एक अनुभूतिशील और भावुक तरुण-हृदय में उत्पन्न होनेवाला कविजनोचित सुंदर, मनोरम और सुनहला रोमांटिक स्वप्न। पर मेरे अंतर्मन से यह विश्वास किसी तरह भी हटना नहीं चाहता कि यह स्वप्न एक दिन निश्चय ही सफल होकर रहेगा–इसे सफल होना ही होगा। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मेरे जीवन की सारी साधना इसी सुनहरे लक्ष्य को सामने रखते हुए अग्रसर होती रहेगी। अपनी सीमित शक्तियों के अनुसार मैं विश्व के सूक्ष्म सांस्कृतिक तत्त्वों के विकास की इसी महायोजना में हाथ बटाने का प्रयत्न करता रहूँगा। अभी रोमां रोलां से संबंधित मेरा एक लेख हिंदी के एक प्रमुख पत्र में छपा है। उसमें भी मैंने अपने इसी विश्वास पर जोर दिया है।”
मेरा चेहरा अति-प्राकृत उल्लास से निश्चय ही तमतमा उठा होगा। मेरी मुखरता जब शांत हुई तब शरतचंद्र का गंभीर रूप फिर एक मीठी मुसकान में परिणत हो गया। अत्यंत मृदु और स्नेह-सिक्त स्वर में वह धीरे से बोले : “तुम सचमुच बहुत ही भावुक हो। मैं भी किसी जमाने में सामूहिक जीवन की प्रगति के संबंध में कुछ विचित्र स्वप्न देखा करता था। उनका रूप तुम्हारे स्वप्न से भिन्न होता था, संदेह नहीं, पर थे वे भी इसी तरह की विचित्र भावुकता से रँगे हुए। पर यथार्थ जीवन के कठोर सामाजिक अनुभवों के कारण उन पर जैसे पाला पड़ गया है और वे मठर गये हैं। जो भी हो, मैं केवल एक बात का स्पष्टीकरण तुमसे चाहता हूँ। क्या तुम सचमुच फ्रायड के सिद्धांतों को इतना महत्त्व देते हो? क्या तुम सचमुच उन्हें इस कदर क्रांतिकारी मानते हो कि उनके द्वारा विश्व-चिंतन-धारा में इतने महान परिवर्तन की आशा की जा सके?”
उनके इस प्रश्न से मेरा सारा जोश एकदम ठंडा पड़ा गया। मुझे लगा कि मैं अपनी बात उन्हें ठीक से समझा नहीं पाया और न समझा पाऊँगा। फिर भी स्पष्टीकरण का पूरा प्रयत्न करते हुए मैंने कहा : “मैं फ्रायड के सिद्धांतों को विशेष महत्त्व नहीं देता। जैसा कि मैं बता चुका हूँ, अभी उनका पूरा अध्ययन कर सकने की स्थिति में भी मैं नहीं हूँ। और जितना कुछ आभास उनके संबंध में मुझे मिला है उससे मैं पूर्णतया सहमत भी नहीं हूँ। मानव प्रकृति के भीतर निहित ‘गंदगी’ का मंथन करके फ्रायड किसी बड़े सत्य को उछाल कर ऊपर रख देगा, यह विश्वास भी मुझे नहीं है। पर जो एक नया दृष्टिकोण, जो नया ‘एप्रोच’ उसने व्यक्तिगत और सामूहिक मानव-मन के परिष्करण, मानवीय संस्कृति और मानव जीवन को समझने के लिए हम लोगों के आगे रखा है उसके महत्त्व को अस्वीकार करना एक बहुत बड़े सत्य के प्रति आँख मूँद लेना है। उस नए दृष्टिकोण से लाभ उठाकर, जो बीज उसने बिखेरे हैं उन्हें अधिक उन्नत, सुसंस्कृत और सुपरिष्कृत बनाकर उनके द्वारा पूर्णत: नए सांस्कृतिक तत्त्वों की सृष्टि की जा सकती है, जो जीवन को अधिक मंगलमय बनाने में सफल हो सकेंगे। उस नवजागृत सांस्कृतिक चेतना का जो विकास होगा उसके फलस्वरूप फ्रायडियन बीज या तो एकदम लुप्त हो जाएँगे या केवल खाद-रूप में शेष रह जाएँगे।”
“पर तुम चाहे जो कहो, मैं तुम्हें फिर एक बार सावधान कर देना चाहता हूँ और यह बता देना चाहता हूँ कि यह फ्रायडियन पथ मुझे बहुत ही संकटपूर्ण, कंटकाकीर्ण, भयंकर दलदलों और गहन गह्वरों से भरा हुआ लगता है।”
“ठीक है,” मैंने तनिक भी हतोत्साह न होते हुए कहा, “मैं स्वयं भी ऐसा ही मानता हूँ, पर रवींद्रनाथ के शब्दों में यह कहना चाहता हूँ कि ‘विपद आछे जानि विपद आछे, ताई जेने तो वक्षे पराण नाचे!’* यदि हमलोग नई पीढ़ी के लेखकगण फ्रायड द्वारा लगाए गए काँटों में कलम करके उन्हें सुंदर फूलों में न बदल सके, भयंकर दलदलों को सुखाकर उन्हें हरी-भरी और मानव-जीवन के सुंदर विकास योग्य भूमि में परिणत न कर सके और गहन गह्वरों को मिट्टी से पूर कर उन्हें महास्वप्नों की सफलता की ऊँची पहाड़ी चोटियों का रूप न दे सके तो हमारे उस निकम्मेपन से तो यही अच्छा होगा कि हम उस महावन में काँटों से छिदकर लहूलुहान हो जाएँ, दलदलों में फँसकर अतल में धँस जाए और गहन गह्वरों में एकदम विलीन हो जाएँ!”
“बेश! बेश! भेरी गुड!” शरतचंद्र ने मेरी पीठ ठोंकते हुए कहा, “तुम उतने निरीह और भोले नहीं हो, जितना कि मैं समझे बैठा था! तुम एक दिन बहुत दूर पहुँचोगे, यह भविष्यवाणी मैं करता हूँ, फिर चाहे उस दूरी पर पहुँचकर तुम्हें रबिंसन क्रूसो की तरह अकेले ही क्यों न रहना पड़े!”
“ऐसा अभिशाप न दीजिए!” मैंने हँसते हुए कहा। “यदि मैं आनेवाले युग के साहित्य के कर्णधारों के साथ अपने ह्विजन (vision) की चोटी तक न पहुँचा तो अपनी सारी साधना को ही व्यर्थ समझूँगा!”
“ठीक है, ठीक है! यू विल गो भेरी फार! भेरी फार!” जैसे अपने-आप से ही बात करते हुए शरतचंद्र ने अनमने भाव से कहा और टिन से एक नई सिगरेट निकालकर जलाने लगे।
काफी देर हो चुकी थी। मैं उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़ता हुआ बोला : “इस समय आज्ञा दीजिए। यदि मैंने अपनी ऊटपटाँग बातों से आपको कष्ट पहुँचाया हो या आपका समय नष्ट किया हो तो उसके लिए आंतरिक क्षमा चाहता हूँ!”
“ना हे ना! ऐसी कोई बात नहीं है। अपनी भावुकता को अब इस हद तक न बढ़ाओ कि अपने व्यर्थ के संदेह मुझ पर आरोपित करो! हाँ, एक बात मैं भूलने ही जा रहा था। मनोविज्ञान संबंधी जिन पुस्तकों की बात तुम बता रहे थे उन्हें जल्दी ही एक दिन मुझे देते जाना!”
“अवश्य!” कहकर मैंने फिर एक बार हाथ जोड़े और चल दिया!
1. यह बात सन् 1923 की है, इसकी याद फिर एक बार पाठकों को दिलाना चाहता हूँ।
Image: Still life. Vase with flowers on the window
Image Source: WikiArt
Artist: Paul Gauguin
Image in Public Domain