स्वर्गीय ‘मीर’ साहब की पत्नी
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- 1 July, 1953
स्वर्गीय ‘मीर’ साहब की पत्नी
मार्च 1953 ईस्वी. की ‘अवंतिका’ में स्वर्गीय सैयद अमीर अली साहब ‘मीर’ के विषय में मेरा एक संस्मरणात्मक लेख प्रकाशित हुआ था, जो मैंने निम्नलिखित शब्दों के साथ समाप्त किया था–
‘मीर’ साहब ने सन् 1873 ईस्वी में सागर में जन्म धारण किया था और सन् 1937 ईस्वी में भाटापारा में रेल से कट कर यह संसार छोड़ा था। वे निस्संतान थे। केवल दो भतीजे उनके वंश-भूषण थे। पता नहीं, अब उनका क्या हाल है। हाँ, ‘मीर’ साहब ने हिंदी-सेवा का अखंड व्रत लेकर जो घोर पाप किया था, उसका प्रायश्चित उनकी अनाथा वृद्ध पत्नी कर रही हैं। सुन है, वह बेचारी हैदराबाद के किसी रईस के यहाँ जूठे बर्तन धोकर अपने पेट पाल रही हैं ! क्या अब भी उन जर्जर माता जी के प्रति हिंदी-संसार का कोई उत्तर-दायित्व नहीं है ? क्या कोई धनी-मानी हिंदी-प्रेमी श्रीमती ‘मीर’ का पता लगाकर और उनकी सहायता कर हिंदी संसार की ओर से इस संताप-जन्य उपेक्षा का प्रायश्चित करेगा ?
इस लेख पर हिंदी संसार के अनेक गण्यमान्य लेखकों ने श्रीमती ‘मीर’ के विषय में गहरी चिंता प्रकट की। ‘दक्खिनी हिंद’ के संपादक पं. रामानंद जी शर्मा ने मुझे अपने सोहल मार्च के पत्र में लिखा–
“मार्च की ‘अवंतिका’ में ‘मीर’ साहब के ऊपर आपका लेख पढ़कर मेरा हृदय तड़प उठा। हम इस दूर-दक्षिण में हिंदी और उसके साहित्य का यत्किंचित् प्रचार कर रहे हैं। ‘मीर’ साहब की अन्योक्तियों का प्रभाव अब भी दिल पर डेरा डाले हुए है। हम लघुजन हैं और खुद विपन्नावस्था में हैं, परंतु ‘मीर’ साहब वाली आग को लेकर चल रहे हैं। आपके अक्षर-अक्षर से मैं सहमत हूँ। आप ‘माताजी’ के लिए अवश्य कुछ कीजिए। उसमें हम भी अपना पत्र-पुष्प समर्पित करेंगे। आप इस दिशा में अवश्य कुछ सतर्कता दिखाइए। हैदराबाद की हिंदी-प्रचार-सभा से पत्र-व्यवहार कीजिए।”
इसके साथ-साथ शर्माजी ने अप्रैल के ‘दक्खिनी हिंद’ में ‘अकृतज्ञ हिंदी संसार’ शीर्षक देकर एक ओजस्वी टिप्पणी भी प्रकाशित की, जिसका कुछ अंश इस प्रकार है–
“हम हैदराबाद के हिंदी-प्रेमियों तथा प्रचारकों से अनुरोध करते हैं कि वे श्रीमती ‘मीर’ का पता लगाएँ और उनके भरण-पोषण के लिए एक ‘निधि’ की स्थापना कर हिंदी-संसार को चुल्लूभर पानी में डूबने से उबार लें। हिंदी के प्राणवान् लेखक अपनी सूखी हड्डियों में से भी रक्त की कुछ बूँदें निकालकर उस जरा-जर्जर बूढ़ी माता के चरणों में भेंट करें और उसको ‘हिंदी के सपूतों की माँ’ होने का गर्व अनुभव करते अंतिम साँस लेने दें।”
इसके पश्चात् पाँच मई के दिन प्रात:काल दस बजे बिलकुल औपन्यासिक घटना के समान एक अस्सी वर्षीया माता ने मुझे दर्शन देने की कृपा की–जरा-जर्जर काया, झुकी हुई कमर और तन पर लज्जा-निवारणार्थ पर्याप्त वस्त्र भी नहीं ! ये ही थीं–स्वर्गीय सैयद अमीर अली ‘मीर’ साहब की धर्म-पत्नी असूर्यम्पश्या माता शर्फुन्निसा बेगम, जिनका पता लगाने के लिए मैं बहुत दिनो से सचेष्ट था। उनमें अवसाद और अश्रुओं का कुछ ऐसा समन्वय था कि मैं स्वयं अवसाद-मग्न तथा साश्रुनयन हो उठा और एक बार फिर मेरे हृदय ने पुकार-पुकार कर साक्षी दी–“देख, यह है स्वर्गीय ‘मीर’ साहब की पैंतालीस वर्षीया निस्पृह हिंदी-सेवा का परिणाम ! उन्होंने हिंदी-सेवा का व्रत क्या लिया था, एक ऐसा भीषण पार किया था, जो परमात्मा की ही नहीं, हिंदी-संसार की दृष्टि में भी अक्षम्य है और फलस्वरूप आज यह वृद्धा अहर्निश रक्त के आँसू बहा रही है। जरा सोच, अपनी पत्नी की यह दुरवस्था देख देख कर स्वर्ग में ‘मीर’ साहब की आत्मा कितनी पीड़ित–कितनी व्यथित होती होगी !”
अस्तु। निश्शक्त माताजी हाँफ-काँप रही थीं, धूप की प्रखरता से पसीने-पसीने हो रही थीं, उनकी फटी-पुरानी मैली-कुचैली धोती धूलि धूसरित हो गई थी, जैसे वे मार्ग में कहीं गिर पड़ी थीं, और मैं उनके सामने मूक भाव से खड़ा था–अवसन्न सा, अपने आप में खोया हुआ सा। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किस प्रकार उनसे वार्तालाप प्रारंभ करूँ और किस प्रकार उनके रोते हुए हृदय को धैर्य बँधाऊँ ! यह भी एक बड़ी कठिनाई थी कि माता जी स्वयं अवाक् थीं; बस, विक्षिप्त के समान इधर-उधर देख रही थीं, जैसे उनके निष्प्रभ नेत्रों में कोई भावना ही शेष नहीं रह गई थी।
मुझे निष्क्रिय-सा देखा, तो मेरी धर्मपत्नी शबनम जी क्षुब्ध हो उठीं। वे तत्काल आगे बढ़ीं और अपनी बेटी मुबारकजहाँ की सहायता से तत्परता पूर्वक माता जी की सार-सँभाल करने लगीं। जब ठंढी-ठंढी हवा पाकर और हाथ-मुँह धोकर माता जी कुछ प्रकृतिस्थ हुईं, तो क्षीण करुण स्वर में बोलीं–“एक ग्लास पानी दीजिए।”
जल जीवन-प्रदाता होता है–यह मैंने उस दिन प्रत्यक्ष देखा। जल पीते ही माता जी में शक्ति का आविर्भाव हुआ और उन्होंने शबनम जी, मुबारकजहाँ आदि का परिचय प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। फिर संतोष की एक साँस ली, मुबारकजहाँ के सिर पर अपना ममतापूर्ण हाथ रखा और संकोच के द्वंद्व में उलझे हुए रुद्ध स्वर का संक्षिप्त-सा उपयोग किया–“तीन दिन से अनाज का दाना भी नहीं देखा ! अल्लाह के वास्ते मुझे रोटी का एक टुकड़ा दिलवा दो बेटी !”
विशाल भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी के धुरंधर लेखक और प्रकृत कवि स्वर्गीय ‘मीर’ साहब की धर्म-पत्नी आज तन ढँकने के लिए दो हाथ वस्त्र नहीं पातीं और तीन-तीन दिन तक अन्न के अभाव में–क्षुधा की ज्वाला में छटपटाती रह जाती हैं ! विधि की यह लीला कितनी कठोर–कितनी निर्मम है ! मेरा हृदय जैसे वृश्चिक दर्शन की दारुण यंत्रणा से चीत्सार कर उठा। परंतु शबनम जी ने तत्काल अपने कर्त्तव्य का पालन किया और माता जी के सामने दाल, भात, रोटी, तरकारी आदि खाद्य-सामग्री परोस दी। उफ़, कितना मर्म-वेधक दृश्य था वह ! माता जी भोजन कर रही थीं, सिसकियों के साथ लगातार आँसू बहा रही थीं, शबनम जी मधुर स्वर में उन्हें सांत्वना दिए जा रही थीं और मैं सामने खड़ा था–थका-सा, ठगा-सा, खोया-सा, अपलक नेत्रों से वह दैन्य दृश्य देख रहा था !
भोजन करते ही माता जी लेट रहीं । जब कुछ समय पश्चात् उनमें नूतन स्फूर्ति का संचार हुआ, तो वे उठकर बैठ गईं मैंने देखा कि अब परिस्थिति वार्तालाप के अनुकूल हो चुकी है, तो उनसे प्रश्न किया–“आपको मेरा पता किस प्रकार चला ?”
माता जी ने उत्तर दिया–“मैं आपको वर्षों पहले से जानती थी। ‘मीर’ साहब बहुधा आपकी चर्चा करते रहते थे। परंतु मुझे यह पता नहीं था कि आजकल आप कहाँ रहते और क्या करते हैं। जब इधर कुछ दिन पहले आपने किसी पत्रिका में ‘मीर’ साहब पर कोई लेख प्रकाशित करवाया, तो जैसे हैदराबाद-राज्य हिंदी-प्रचार सभा मेरे विषय में चौकन्नी हुई। उसके द्वारा प्रकाशित होने वाले ‘अजंता’ मासिक पत्र के संपादक श्री वंशीधर जी विद्यालंकार ने मेरे पास पाँच रुपए भिजवाए और मुझे आश्वासन दिया–‘घबराइए नहीं, आपके सहायतार्थ पूर्ण उद्योग किया जाएगा।’ परंतु वह आश्वासन–वह उद्योग पाँच रुपए के दान में ही समाप्त हो गया ! यद्यपि मेरे नवासे मुहम्मद गयासुद्दीन अंसारी ने बार-बार सभा का द्वार खटखटाया, तथापि वहाँ किसी ने उसकी पुकार पर कोई ध्यान नहीं दिया। इसी दौड़-धूप में मुझे आपका पता चला और मैं नाना प्रकार के कष्ट झेलती हुई यहाँ चली आई–केवल इस आशा से कि आप मेरे लिए दो रोटियों की व्यवस्था करा देंगे।”
माता जी के इस कथन से स्पष्ट विदित होता है कि ‘हैदराबाद राज्य हिंदी प्रचार सभा’ उनकी दयनीय स्थिति से पूर्णतया अवगत थी। फिर भी आश्चर्य है कि वह उनके विषय में उपेक्षा से ऊपर उठने में असमर्थ रही। उसकी यह मनोवृत्ति भली-भाँति प्रमाणित करती है कि हिंदी कल्याण का ढिंढोरा पीटने वाली बड़ी-बड़ी संस्थाएँ भी इस युग में हिंदी के अनन्य सेवकों को किस प्रकार तड़प-तड़प कर मरने के लिए छोड़ देती हैं। विशेष दु:ख की बात तो यह है कि हिंदी के लेखक भी एक दूसरे की सुधि लेने की दिशा में उदासीन रहते हैं। वास्तव में माता जी की यह समस्या उन दरिद्र हिंदी-लेखकों की अपनी समस्या है, जो केवल हिंदीसेवार्थ ही जीवन की साँसें लिया करते हैं। परंतु जीवन की साँसें अन्न-वस्त्र की समस्या से एकांत संबंध रखती हैं, और हिंदी के अकिंचन लेखक चाहें, तो पारस्परिक सहयोग द्वारा ही इस कठोर समस्या का समुचित समाधान कर सकते हैं।
जो हो, ‘अवंतिक’ में प्रकाशित लेख ने इतना तो किया कि वह माता जी को मेरे पास खींच लाया–यह जानकर मुझे किंचित् संतोष हुआ और मैंने उनसे दूसरा प्रश्न किया–‘मीर’ साहब का स्वर्गवास किस प्रकार हुआ था ?
यह सुनते ही माता जी के हृदय पर जैसे एक कठोर आघात पड़ा और नेत्रों से टप-टप अश्रु-विंदु पतित होने लगे। जब शोकावेग कुछ शिथिल हुआ, तो उन्होंने बताया–“भाटापारा में जिन जमींदार महोदय ने हमलोगों को आश्रय दे रखा था, वे उदार थे। ‘मीर’ साहब उनकी जमींदारी सँभालते थे, और बदले में उनसे पैंसठ रुपए मासिक के अतिरिक्त अनाज, दूध, घी आदि भोज्य पदार्थ भी यथेष्ट परिमाण में पाते थे। इस प्रकार हम लोगों के दिन सुख-पूर्वक व्यतीत हो रहे थे। परंतु जब मनुष्य का दुर्भाग्य कोप करता है, तो उसका सौभाग्य छाया के समान तिरोहित हो जाता है। एक दिन जमींदार महोदय यात्रा से लौटकर आने वाले थे। ‘मीर’ साहब उन्हें लेने के लिए स्टेशन की ओर चल दिए। गाड़ी आने में विशेष विलंब नहीं था। ‘मीर’ साहब शीघ्र प्लैटफार्म पर पहुँचने के विचार से पटरियाँ लाँघते हुए आगे बढ़े। पटरियों पर एक मालगाड़ी पहले से ही खड़ी थी। ‘मीर’ साहब उसके निकट से निकल ही रहे थे कि वह वेग-पूर्वक पीछे हटी। इसके साथ ही एक डब्बे में उनका ओवरकोट उलझ गया। बस, वे झटके से पटरी पर जा गिरे और पहियों ने उनका शरीर कुचल कर रख दिया। इस प्रकार दुर्भाग्य ने मेरा सौभाग्य लूट लिया और मुझे जीवित ही क़ब्र में दफ़ना दिया।”
मैंने कहा–“ ‘मीर’ साहब के दो भतीजे थे–सैयद मुमताज अली और सैयद फ़ैयाद अली। उनका क्या हाल है ? क्या उनसे आपको कोई सहायता नहीं मिलती ?”
यह सुनते ही उनका मातृत्व उमड़कर नेत्रों के मार्ग से प्रवाहित हो चला और उन्होंने हिचकियाँ लेते-लेते बताया–“हाय, वे भी इस वृद्धावस्था में मुझे दग़ा दे गए ! यदि आज वे इस संसार में होते, तो मैं इस प्रकार अनाथ और निराश्रित क्यों कहलाती–मेरी जीवन-नौका आँसुओं की धार में क्यों थपेड़े खाती फिरती ? छोटा फ़ैयाद अली शक्ति-राज्य में नौकरी-चाकरी से लग चुका था। परंतु दस-बारह वर्ष हुए, वह केवल सप्ताह-भर ही रुग्ण रहकर चल बसा। बड़ा मुमताज अली मुझे सहारा दे रहा था। परंतु वह क्षय-ग्रस्त हुआ और तीन-चार वर्ष पूर्व रायपुर अस्पताल में इस संसार से विदा हो गया। मैं तो निस्संतान थी परंतु मेरे मातृत्व को प्रफुल्लित करने के लिए मेरी गोद में ये बच्चे आ पहुँचे और जब कुछ समर्थ हुए तो मुझे यों रोती-विलखती छोड़कर चल दिए। क्या कहूँ, उनकी स्मृति धधकते हुए अंगारे के समान मेरे हृदय में दबी पड़ी है और मैं उनके वियोग में दिन-रात माथा धुनती रहती हूँ।”
मैं नहीं जानता था कि इस प्रकार ‘मीर’ साहब का वंश भी नाम शेष हो चुका है। हृदय में एक हूक-सी उठी, फिर भी मुझे विवश होकर आगे बढ़ना पड़ा–“आप भाटापारा से हैदराबाद कैसे पहुँचीं ?”
माता जी ने कहा–“स्वाधीनता के पश्चात् भारत में सांप्रदायिकता की जो बाढ़ आई, उसी में मैं अपने मुमताज से बिछुड़ गई और बहती-बहती हैदराबाद में जा पहुँची। वहीं लगभग चार वर्ष व्यतीत होने पर मुझे पता चला कि अब मेरा मुमताज इस संसार में नहीं है। मैं कितनी रोई-विलपी, परंतु बिछुड़ने के पश्चात् एक बार भी अपने लाल की सूरत न देख सकी।”
श्री गयासुद्दीन साहब लगभग पच्चीस वर्षीय सुशिक्षित, सुशील युवक हैं। अपने नाना के समान ही अनन्य हिंदी-प्रेमी हैं और यदा-कदा कहानियाँ आदि लिखते रहते हैं। परंतु वर्षों से दुर्भाग्य-पीड़ित हैं और बेकारी की अवस्था में मारे-मारे फिरते हैं !
यह कहकर वे पुन: रोने लगीं। जब उनके आँसू थमे, तो मैंने उनसे पूछा–“हैदराबाद में आपका निर्वाह किस प्रकार होता था ?”
उन्होंने उत्तर दिया–“आप जानते तो हैं। एक रईस के यहाँ जूठे बर्तन माँज-माँज कर और रूखे-सूखे टुकड़े खा-खाकर इस उदर की–इस नरक की ज्वाला बुझाती रही हूँ। लगभग चार वर्ष पश्चात् मुहम्मद गयासुद्दीन अंसारी मेरा पता लगाता हुआ हैदराबाद आ पहुँचा। वह मेरी बच्ची खातून बीवी का पुत्र है। खातून बीबी मुमताज और फ़ैयाद की बड़ी बहन थी, जो गयासुद्दीन को जन्म देने के छ: मास पश्चात् ही स्वर्ग-वासिनी हो गई थी। इसलिए मैंने ही गयासुद्दीन का पालन-पोषण किया था। अस्तु, प्रयत्न करने पर गयासुद्दीन को युवराज के कार्यालय में टाइपिस्ट का स्थान प्राप्त हो गया और मैं इसकी छाया में कुछ संतोष–कुछ शांति के साथ जीवन-यापन करने लगी। परंतु कुछ समय पश्चात् ही हैदराबाद में प्रांतीयता का उपद्रव-पूर्ण आंदोलन छिड़ा और अन्य प्रांतों के निवासी नौकरियों से निकाल बाहर किए गए। फलस्वरूप हम दोनों फिर भिक्षुओं की श्रेणी में जा पहुँचे और दाने-दाने के लिए फिर तरसने लगे। आश्चर्य है कि इतने दु:ख सहने–इतने आँसू बहाने के बाद भी मैं जीवित हूँ। मृत्यु जैसे मुझे देखकर भागती है।”
इसके पश्चात् मैंने प्रश्न किया–‘मीर’ साहब के पास पुस्तकों तथा हस्तलिखित लेखों आदि का एक बहुत अच्छा संग्रह था, वह कहाँ है ?
माता जी ने दुखइत स्वर में उत्तर दिया–“वह तो उन्होंने अपने जीवन-काल में ही भाटापारा की किसी गो-रक्षिणी सभा को प्रदान कर दिया था। मैं नहीं जानती कि फिर उसने उसका क्या उपयोग किया।”
इस उत्तर ने मुझे जैसे झकझोर डाला। ‘मीर’ साहब केवल हिंदी-सेवक ही नहीं थे, अनन्य गो-भक्त भी थे और गो-रक्षार्थ निरंतर यत्नशील रहते थे। परंतु बड़े परिताप की बात है कि उस गो-रक्षिणी सभा ने न तो उनकी कीर्ति रक्षार्थ ही कुछ ध्यान दिया; उलटे अपनी अक्षम्य उपेक्षा-वृत्ति से हिंदी की वह अमूल्य निधि नष्ट-भ्रष्ट कर डाली। यदि ‘मीर’ साहब ने इस अपूर्व दानशीलता के रूप में यह घोर अनर्थ न किया होता, तो कदाचित् हिंदी की श्रीवृद्धि करने वाली वह निधि बची रहती और आज माताजी को कदापि इस प्रकार दीन-हीन न रहने देती ! आह ! उस निधि में कैसे-कैसे आभा मूल्यवान् रत्न संग्रहीत किए गए थे !
‘मीर’ साहब संतोष-निधान थे, आत्म-विज्ञापन की कला से दूर भागते थे; परंतु यह किसे पता था कि वे इतने भोले-भाले भी थे। उन्होंने ‘स्वांतःसुखाय’ उर्दू, फारसी और अरबी के कितने ही सुरभित-सुरभित पुष्प शुद्ध, सरल, प्रसाद-पूर्ण हिंदी में परिवर्तित कर रखे थे। मेरी प्रबल अभिलाषा थी कि वे हिंदी-स्तवक की शोभा-वृद्धि करने-योग्य हो जाते। परंतु कुछ तो प्रकाशकों की घृणित अर्थ लोलुपता और कुछ ‘मीर’ साहब की सहज संकोच-शीलतावश जहाँ-के-तहाँ पड़े रहे और अंतत: अनाड़ी हाथों में पहुँचकर विनष्ट हो गए। हिंदी का दुर्भाग्य, ‘मीर’ साहब का दुर्भाग्य–माता जी का दुर्भाग्य–तभी तो वह वैभव इस प्रकार उजड़ गया।
मैंने पश्चाताप से हाथ मलते-मलते माता जी के सामने अंतिम प्रश्न रखा–“बताइए, हिंदी-संसार को आपका क्या संदेश दिया जाए ?”
माता जी ने एक ठंढी साँस छोड़ कर कहा–“मैं बुद्धिहीन जर्जर बुढ़िया हूँ भला क्या मेरा अस्तित्व और क्या मेरा संदेश ! मेरे पतिदेव सदा हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित होने का स्वप्न देखा करते थे। अल्लाह की रहमत से उनका वह स्वप्न आज प्रत्यक्ष हो चुका है। वैसे तो मैं एक अयोग्य निकम्मी बुढ़िया हूँ; परंतु अपने पतिदेव के नाते करोड़ों हिंदी भाषा-भाषियों की माता भी हूँ। आप उनसे कह दीजिए कि वे एक बार तो अपनी अभागिनी माता पर दयादृष्टि करें। यदि मैं इसी प्रकार नंगी-भूखी मर जाऊँगी, तो हिंदी के उज्ज्वल इतिहास पर सदा के लिए एक सूक्ष्म-सी धूमिल रेखा खिंची रहेगी।”
मुझे आशा है कि माता जी ने इस मार्मिक संदेश में अपना जो अधिकार व्यक्त किया है, हिंदी-संसार उसका समुचित मान करेगा और अविलंब एक ऐसी निधि की स्थापना करेगा, जिसके द्वारा न केवल ‘मीर’ साहब की प्राप्य कृतियाँ सुंदर ग्रंथ के रूप में प्रकाशित होंगी; माता जी भी अपने जीवन के अंतिम क्षणों में सुखसंतोष की थोड़ी-सी साँसें ले सकेंगी।
परंतु तात्कालिक आवश्यकता तो इस बात की है कि माता जी के भोजन-वस्त्र की व्यवस्था तुरंत की जाए। यदि उनको तीस-चालीस रुपए मासिक भी बराबर मिलते रहें तो उनका निर्वाह भली-भाँति हो सकता है। यह नगण्य-सी व्यवस्था कर देना इस विशाल-हिंदी-संसार के लिए कोई बड़ा कार्य भी नहीं है। जो हिंदी-प्रेमी सज्जन चाहें, निम्नलिखित पते पर उनको अपनी सहायता पहुँचा सकते हैं–
श्रीमती शर्फून्निसा बेगम
द्वारा–श्रीहाजी ज़हूरबख्श साहब बगीचे वाले
पोस्ट–केवरी कलाँ
जिला–सागर, म. प्र.
स्मरण रहे, उक्त हाजी ज़हूरबख्श साहब मुझसे सर्वथा पृथक् व्यक्ति हैं। माता जी इस समय उनके निवास स्थल पर ठहरी हुई हैं ।
Original Image: Portrait of an old Woman
Image Source: WikiArt
Artist: Rembrand
Image in Public Domain
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