विरल व्यक्तित्व : शिवजी

विरल व्यक्तित्व : शिवजी

आचार्य शिवपूजन सहाय, जिन्हें शिवजी के नाम से भी लोग जानते रहे हैं, साहित्य-जगत के यथानाम शिव और सत्य-सुंदर के मध्य में सुशोभित-समवेत, संगम की भाँति ही स्वच्छ-निर्मल–‘सत्य-शिव-सुंदर’ की प्रत्यक्ष परिभाषा थे। भारतेंदु, द्विवेदी, शुक्ल, प्रसाद, प्रेमचंद, निराला आदि कतिपय मूर्धन्य कृतिकारों की तरह ही शिवजी भी एक युग विशेष के अधिकारी थे, प्रवर्त्तक थे। अपनी अपूर्व विद्वता के कारण ही उन्होंने राजेंद्र कॉलेज, छपरा में लम्बे अरसे तक हिंदी विभागाध्यक्ष का पद सुशोभित किया। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के निर्देशक-संचालक के रूप में भी उन्होंने राष्ट्र-भारती की अनन्य सेवा की तथा अपने बहुमूल्य निर्देशन द्वारा बहुतेरे अनुसंधायकों का मार्ग प्रशस्त किया। साहित्य-निर्माता के रूप में उनकी जितनी ख्याति रही, साहित्यकार निर्माता के रूप में उससे कुछ कम योग उनका नहीं रहा। उनके इन गुण विशेष के कारण ही उन्हें ‘पद्मभूषण’ और ‘डाक्टरेट’ आदि से सम्मानित-विभूषित किया गया। पर इन पदकों ने ही उन्हें कुछ महिमा-मंडित किया हो, ऐसी बात नहीं, बल्कि स्वयं उनके व्यक्तित्व विशेष ने उन पदकों में प्राण डालकर उनमें चार चाँद लगा दिए।

वैसे तो जब कभी किसी कार्यवश घर से चलकर पटना आता और कदमकुआँ स्थित बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन में जाने का मौका मिलता तो प्राय: शिवजी से क्षण को ही सही, भेंट हो जाती, मगर खुलकर बातचीत करने और परिचय प्राप्त करने का तबतक कोई संयोग सुलभ नहीं हो पाया था। इसके मूल में मेरी स्वाभाविक संकोचवृत्ति ही थी जो मेरे इस पुण्य कार्य में प्राय: व्यवधान डालती। तब मैंने कुछ लिखना प्रारंभ ही किया था। डेगाडेगी की बात थी और मामूली जोड़तोड़ कर लिया करता था। शिवजी के संबंध में बहुतेरे संगी-साथियों से तथा इधर-उधर के लोगों से काफी कुछ सुन रखा था। उनकी प्रगाढ़ विद्वत्ता तथा अतिशय सरलता-उदारता के संबंध में भी बहुत सारी चर्चा चल चुकी थी, पर हिम्मत नहीं होती उस महामनीषी के समक्ष खडेत हो दो बातें करने की। कभी साहस करता भी तो कुछ दूर से ही उन्हें अनवरत अध्ययनशील और कर्मरत देखकर आगे बढ़ने के बजाय पीछे ही मुड़ आता उल्टे पाँव।

मई 1957 में जब मैं नालंदा कॉलेज बिहारशरीफ का छात्र था, गर्मी की छुट्टी में पटना आया और समय पाकर चला गया सीधे कदमकुआँ स्थित बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् में आचार्य शिवपूजन सहाय जी के दर्शनार्थ। तब बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् और बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन दोनों साथ ही थे। शिवजी संचालक थे उसके और निवास भी शायद वहीं था उनका। देखा, पाँव में खड़ाऊँ पहने, जनेऊ धारण किए, घुटने तक की धोती लपेटे, खुले बदन, सरलता की साकार प्रतिमूर्ति शिवजी वहीं बरामदे में बिछी चौकी की बगल में खड़े हैं। उन्हें प्रणाम करने को हमने दोनों हाथ जोड़े ही, कि देखता हूँ आचार्य जी के दोनों हाथ पहले से ही जुड़े हैं। फिर मुझे चौकी पर बैठने को कहा और स्वयं भी पास बैठकर कुशल-क्षेम, घर-परिवार, काम-धाम संबंधी मेरी संपूर्ण गतिविधि को गहराई से आँकने की अपनी स्वाभाविक उत्सुकता कुछ इस प्रकार प्रकट करने लगे जैसे उनका कोई अपना ही सगा-संबंधी चिरकाल बाद उनसे मिलने आया हो।

इसी क्रम में जब मैंने उन्हें अपना मंतव्य बताया कि मैं भी कुछ लिखता-पढ़ता हूँ तथा आपके स्नेह-आशीर्वाद और प्रोत्साहन की कामना से ही आया हूँ, तो बड़े गद्गद हुए और मेरा उत्साहवर्द्धन करते हुए कोई एक रचना सुनाने का स्नेहसिक्त आदेश दिया। मैंने 1957 की ही ‘नई धारा’ में प्रकाशित अपना एक गीत सुनाया जिसकी प्रथम पंक्ति थी–

‘मिल रहीं जिससे नई अनुभूतियाँ नित
आह भी मेरे हृदय का गान ही है!’

सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। बोले–कविता तो बहुत अच्छी उतरी है, भाव भी सुंदर है। अच्छा इसी को यदि इस तरह पढ़ें तो कैसा रहे–

‘मिल रहीं जिससे नई अनुभूतियाँ नित
आह भी मेरे हृदय की, गान ही ही है।’

मुझे बात जँच गई और पुलकित होते हुए कहा–‘यह तो और अच्छा रहा। पहले की अपेक्षा इसमें कहीं अधिक काव्यात्मकता टपकती है।’ और, उन्होंने पुन: सहज विनम्रता के साथ कहा–‘ऐसा मत समझिएगा कि मैंने कोई संशोधन किया है। शुद्ध तो अपनी-अपनी जगह दोनों हैं, मगर मुझे ऐसा लगता है कि इस तरह यदि रचना पढ़ी जाए तो कैसा रहे? मैंने केवल सुझाव दिया है, कोई दबाव नहीं डाला है। आपको स्वयं जो रुचे वह कीजिए।’

मगर मुझे तो अब भी उन्हीं की बात जँचती है और जब कभी इन पंक्तियों को गुनगुनाता हूँ, शिवजी का वह भोला-भाला व्यक्तित्व उभर कर सामने आ जाता है। और, तब गर्व होता है अपनी इन पंक्तियों पर भी जो किसी पारस के परस मात्र से कंचन बन निखर आई हैं।

दूसरी बार उनसे मेरी मुलाकात हुई अगस्त 1960 में, उनके भगवान रोड, मीठापुर स्थित निवास स्थान पर जहाँ वे अपने अवकाश काल में रह रहे थे और मृत्युपर्यंत रहे। तब मैं पटने के आलोक प्रकाशन द्वारा प्रकाशित स्वरचित बाल साहित्य की दो पुस्तकें–‘चुहिया रानी’ (पद्य) और ‘नन्हें राजकुमार’ (गद्य) लेकर उन्हें सादर भेंट करने तथा अगले संस्करण के लिए उक्त पुस्तकों पर उनकी शुभ सम्मति प्राप्त करने के ख्याल से गया था। पुस्तक देखकर अपनी सम्मति लिख दी। फिर तुरत अंदर जाकर अपने हाथों तश्तरी में कुछ जलपान लाकर मेरे आगे रखा और खाने को कहा। उनके इस सहज स्नेह को सहसा देखकर मेरा मन-प्राण उमड़ आया और दो वर्ष पूर्व दिवंगत अपने पूज्य पिताजी की पुण्य स्मृति सजग हो गई जो मुझे बचपन से ही मातृहीन हो जाने के कारण तथा एकमात्र पुत्र होने के नाते भी इसी प्रकार अपने हाथों इच्छित वस्तुएँ खाने को देते।

फिर तो परिचय बढ़ता गया और प्राय: उनका सान्निध्य सुलभ होता रहा। कितनी बार साथ ही रिक्शे से सम्मेलन भवन गया और निवास स्थान आए। बीच में मुझे अपनी नौकरी के सिलसिले में स्थानांतरित हो कुछ महीने के लिए किशनगंज (पूर्णियाँ) जाना पड़ा। मगर पुन: छ: महीने बाद जब पटना लौटा और डेरे की तलाश करनी पड़ी तो योग से भगवान रोड में ही शिवजी के निवास से सटे अखौरी वासुदेव नारायण जी के मकान में ऊपर एक कमरा मिल गया। अब प्रतिदिन उनके दर्शन होते और प्राय: उन्हें शिव की तरह समाधिस्थ अखंड साधना में ही संलग्न पाता। जब-तब मौका देखकर कुछ बातें कर लेता, कुशल-क्षेम पूछ आता। स्वास्थ्य के संबंध में कुछ पूछताछ करने पर बस एक ही उत्तर होता, ‘अब तो दिन गिन रहा हूँ, और क्या?’

उनकी सरलता, भोलेपन, सादगी और स्वरूप का सर्वथा महात्मा गाँधी के व्यक्तित्व के साम्य दीखता। प्राय: लोगों की ऐसी धारणा है कि कम-से-कम अपने बिहार में अतिशय विनम्रता के दो ही प्रतीक हैं–आचार्य शिवपूजन सहाय और पूज्य राजेंद्र बाबू। क्या निर्धन क्या धनी, क्या छोटे क्या बड़े, क्या अपढ़, क्या विद्वान सबके साथ वही निश्छल व्यवहार! सबके साथ वही विशाल हृदयता!! सबके साथ वही अपनापन, भोलापन!!!

दो दिन की छुट्टी के बाद जब घर से लौटा तो खबर मिली, शिवजी सख्त बीमार हैं और हथवा वार्ड में अचेत-रुग्ण पड़े हैं। दफ्तर से सीधे हॉस्पिटल गया। देखा, बिल्कुल संज्ञाहीन-से पड़े हैं, ऑक्सीजन दिया जा रहा है, पास में स्वजन-परिजन तथा हर तबके के लोग गंभीर, स्तब्ध तथा अश्रुविगलित-से खड़े एकटक उन्हें निहार रहे हैं। हालत इतनी नाजुक कि किसी क्षण भी दम घुट जा सकता है। और, मन-ही-मन उस महापुरुष को प्रणाम कर मैं अपने दफ्तर लौट आया।

बीच में पुन: दो एक दिन के लिए बाहर जाना पड़ा एक देहात में और वहीं 21 जनवरी को रेडियो और अखबार दोनों के सुनने-पढ़ने से मालूम हुआ–हिंदी के आधार-स्तम्भ शिवजी सदा-सदा के लिए हमसे बिछुड़कर उस महाशून्य में समाहित हो गए। संपूर्ण हिंदी संसार पर एक अनभ्र वज्रपात!

अब, जब अपने डेरे से निकलता हूँ और पास ही शिवजी के डेरे को शून्य पाता हूँ तो क्षण भर के लिए भीतर-ही-भीतर एक गहरी टीस और हूक-सी उठने लगती है। और, तब बरामदे के कोने में पड़ी एकांत उस चौकी पर नजर जाती है, जहाँ वह ऋषि-मनीषी अनवरत बैठकर चिंतन-मनन करता था। कभी-कभी ऐसा एहसास होता है कि यह चौकी खाली नहीं रहेगी और वह अवढरदानी, विषकंठ तुरत यहाँ विराजमान हो पुन: जन-मन को अपनी स्नेह-करुणा के सुधा-स्रोत से आप्यायित करेगा। मगर तुरंत यह भ्रम-आवरण हटने लगता है, स्वप्न टूटता-सा नजर आता है और किसी का अनुभूत यह दृढ़ विश्वास जड़ कर जाता है कि–

“अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुक़फ्फ़ल कर लो
अब यहाँ कोई नहीं, कोई नहीं आएगा।”


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