भींगी हुई लड़की : स्त्री विमर्श का अभिनव प्रयोग

भींगी हुई लड़की : स्त्री विमर्श का अभिनव प्रयोग

हिंदी उपन्यास ने अपने जीवन के 146 साल पूरे कर लिये। 1870 में रचित पं. गौरीदत्त के पहले उपन्यास ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ से लेकर 2016 में लिखित-प्रकाशित डॉ. मधुकर गंगाधर के उपन्यास ‘भींगी हुई लड़की’ के बीच हिंदी उपन्यास को कई पड़ावों से होकर गुजरना पड़ा। इस बीच उसने परिपक्वता का परिचय देते हुए कथ्य और शिल्प की दृष्टि से कई प्रयोग किए। कथ्य की दृष्टि से सामाजिक, सांस्कृतिक, जासूसी-तिलस्मी, ऐतिहासिक, राजनैतिक, सांप्रदायिक, मनोवैज्ञानिक उपन्यास ग्रामीण तथा नगरीय-दोनों पृष्ठभूमियों पर लिखे गए तो शैली व शिल्प की दृष्टि से आत्मकथात्मक, पत्रात्मक, व्यंग्यात्मक, चेतना प्रवाही अथवा पूर्व दीप्तिपरक, दृश्यात्मक-परिदृश्यात्मक, फंतासीमूलक- जैसे उपन्यास। कुछ उपन्यासकारों ने किसान को केंद्र में रखकर अपने कथ्य का ताना-बाना बुना तो कुछ ने राजनेता को, कुछ ने स्त्री को केंद्र में रखा तो कुछ ने दलित और अल्पसंख्यक को। कुल मिलाकर लब्बो-लुबाब यह कि हिंदी उपन्यास का श्रीगणेश स्त्री-विमर्श से हुआ। मेरा संकेत ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ की ओर है । 

स्वतंत्रता-पूर्वकालीन उपन्यासों में किसानों के बाद नारी-समस्याओं को ही केंद्रीय स्थान मिला है। पर, नवजागरण की चेतना से प्रभावित तद्युगीन पुरुष-उपन्यासकारों ने परंपरित नारी-संहिता के दायरे में ही नारी-उपकार की बात की थी। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद ‘हिंदू कोड बिल’ पारित होते ही नारी की स्थिति में किंचित् सकारात्मक परिवर्तन आया। फलस्वरूप, दांपत्य-जीवन की विफलता के कारण नारी को पति से संबंध-विच्छेद का अधिकार प्राप्त हुआ। किंतु, उसकी यह अधिकार-प्राप्ति कई तरह की समस्याएँ भी पैदा कर गई। मन्नू भंडारी का उपन्यास ‘आपका बंटी’ इसका सटीक उदाहरण है। सिमोन द बोउवार, वर्जीनिया बुल्फ, जूलिया क्रीस्तीवा–जैसी पश्चिमी नारीवादी विचारिकाओं और लेखिकाओं, पुन: प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, चित्रा मुद्गल, नासिरा शर्मा, क्षमा शर्मा, अनामिका–जैसी भारतीय लेखिकाओं ने पितृसत्तात्मक समाज में नारी की बद से बदतर दशा का करुणाव्यंजक वर्णन ही नहीं किया, अपितु उनके वाजिब अधिकारों की पुरजोर वकालत भी की। अपनी विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक ‘दि सेकेंड सेक्स’ में सिमोन बिना किसी लाग-लपेट के कहती हैं–“हर औरत पैदा तो होती है आजाद, पर आगे चलकर गुलाम बना दी जाती है। औरत की यौन शुचिता की बात तो हर कोई करता है, पर पुरुष की नहीं।” यही बात प्रभा खेतान अपने दो उपन्यासों–‘आओ पेपे घर चलें’ (1990) तथा ‘छिन्नमस्ता’ (1993) में क्रमशः ‘आइलिन’ और ‘प्रिया’ के द्वारा कहलवाती हैं–“औरत कहाँ नहीं रोती और कब नहीं रोती?” (‘आओ पेपे घर चलें’ से) तथा ‘औरत कहाँ नहीं रोती? सड़क पर झाड़ू लगाते हुए, खेतों में काम करते हुए, एयरपोर्ट पर बाथरूम साफ करते हुए या फिर सारे भोग-ऐश्वर्य के बावजूद…पलंग पर रात भर अकेले करवटें बदलते हुए।…हजारों सालों से उनके ये आँसू बहते आ रहे हैं।’ (छिन्नमस्ता’ से)

डॉ. मधुकर गंगाधर के आलोच्य उपन्यास ‘भींगी हुई लड़की’ की नायिका स्वर्णकांता मजुमदार भी ‘खून से, पानी से और अब आँसुओं से भींगकर अपनी विनाश-कथा बाँच रही है।’ (पृ.-94)

नारी की विनाश-कथा बाँचने या बँचवाने वाले उपन्यासकारों की लंबी-चौड़ी सूची है। इसमें ‘प्रतिज्ञा’, ‘निर्मला’ और ‘सेवासदन’ के उपन्यासकार प्रेमचंद, ‘माँ और मनोरमा’ के विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, ‘वैशाली की नगरवधू’ के चतुरसेन शास्त्री, ‘कंकाल’ के जयशंकर प्रसाद, ‘पुरुष और नारी’ तथा चुंबन ओर चाँटा’ के राजा राधिकारमण प्रसाद, ‘मुर्दाघर’ के जगदंबा प्रसाद दीक्षित, ‘ये कोठेवालियाँ’ के अमृतलाल नागर, ‘दशार्क’ के जैनेन्द्र कुमार, ‘बड़ी चंपा’, ‘छोटी चंपा’ के लक्ष्मीनारायण लाल, ‘मछली मरी हुई’ के राजकमल चौधरी, ‘कुरु कुरु स्वाहा’ के मनोहरश्याम जोशी, ‘योषाग्नि’ के आचार्य निशांतकेतु और अब ‘भींगी हुई लड़की’ के कथाकार डॉ. मधुकर गंगाधर।

‘भींगी हुई लड़की’ स्त्री की त्रासद स्थिति को केंद्र में रखकर लिखा गया समस्यामूलक उपन्यास है। अन्य उपन्यासकार जहाँ समस्यामूलक उपन्यासों में प्रत्यक्षतः या परोक्षतः समस्या का कोई-न-कोई समाधान सुझाते दिखते हैं, वहाँ डॉ. मधुकर का उपन्यासकार इसके लिए पूरी तरह अपने पाठकों पर निर्भर है। संक्षेप में, इसकी कथा बता दूँ।

गोलबाड़ी, चौबीस परगना, प. बंगाल के पौरोहित्य-कर्मी ब्राह्मण फणीभूषण मजूमदार की तीन क्वाँरी बेटियों में सबसे छोटी ‘स्वर्णकांता’ को औरतों की खरीद-फरोख्त करने वाला अनवर खान नामक युवक अमिय चक्रवर्ती बनकर वृंदावन से ही अपना लक्ष्य बनाता है। अपने को जयपुर का कारोबारी बताकर वह न केवल स्वर्णकांता, बल्कि पूरे परिवार का विश्वास जीत लेता है। फिर उसे अपनी विवाहिता पत्नी बनाकर आगरा ले जाता है। होटल में दो-तीन रातें गुजारने के बाद वह गुजरे जमाने के नवाब-परिवार से ताल्लुक रखने वाले उम्रदराज व्यक्ति काजी नवाब इम्तियाज चौधरी के हाथों सवा चार लाख रुपयों में बेच  देता है। चार स्वस्थ बेटियों के बाप काजी साहब को खानदान चलाने के लिए एक अदद बेटा जो चाहिए। किंतु, बकौल बेगम परवीन–“बेटा तो बहाना है, उसको एक जवान औरत चाहिए नोचने-खसोटने के लिए।” (पृ.-62) निकाह पढ़वाने के पहले वह नकली शराफत का परिचय देते हुए स्वर्णा की बातचीत उसके पिता से करवाता है। “कल ही तुम्हारा श्राद्ध करा दूँगा । अब हमारे लिये मर चुकी हो।”–पिता की यह बात सुनकर वह परकटे परिंदे की तरह निढाल हो गिर पड़ती है। काजी साहब की बेगम को उससे पूरी हमदर्दी है या फिर अपने वजूद की रक्षा के लिए ऐसा कर रही हो। पत्नी द्वारा विरोध किए जाने पर काजी उसे तलाक की धमकी देता है–“मैंने उस लड़के से इसे खरीद लिया है, अब इसपर मेरी मलकीयत है। हमारे शरीयत में दूसरा-तीसरा निकाह की इजाजत है। अगर तुम इन्हें मेरी बेगम के तौर पर कबूल नहीं करोगी तो मैं तुम्हें तलाक दे दूँगा–अभी के अभी…यहीं, खड़े-खड़े ।” (पृ.-53) उधर काजी मौलवी के इंतजाम में मथुरा के लिए निकलता है (क्योंकि स्थानीय मौलवी हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगे के डर से निकाह पढ़वाने से इंकार करता है।) उधर बेगम परवीन पड़ोस में रहने वाली परमेसर की माँ को बुलाकर किसी हिंदू यूवक से ब्याह करवाने का अनुरोध कराती है। परमेसर की माँ अपने भांजे सुरेश से स्वर्णा की शादी करने के लिए तैयार हो जाती है, परंतु भांजा आनाकानी करने लगता है। इस पर उसकी मामी समझाती हुई कहती है–“देखो, सुरेश औरत बहती नदी है, वह कभी अपवित्र नहीं होती।” (पृ.-64) आखिरकार मामी की जिद्द के सामने झुकता है और उसे लेकर अपने दोस्त रघुनाथ पंडित (मूलतः गड़ेरिया) के पास छतरपुर, दिल्ली के लिए प्रस्थान करता है। रघुनाथ खंडेलवाल–फार्म हाउस का केअरटेकर है और वहीं आउट हाउस में अकेला रहता है। वहाँ वह दूसरे दोस्त शाकिर को भी बुला लेता है। तीनों दोस्त मिलकर शराब पीते हैं। इसी दौरान वे लड़की से छुटकारे की योजना भी बनाते हैं । यह योजना मूलतः शाकिर के शातिर दिमाग की उपज है, जिसमें बेगम परवीन से पैसे ऐंठने से लेकर स्वर्णा को जी.बी. रोड स्थित वेश्या-मंडी में बेचने तक शामिल है। सुनिए शाकिर क्या बोलता है–“सुरेश को एक लाख रुपये बेगम से दिला देते हैं और एक लाख हम जी.बी. रोड के पान बेचने वाले दुकानदार (वेश्या-मंडी की भाषा में खरीददार को पान बेचने वाला दुकानदार कहते है।) से दिला देंगे। कई हजार बेगम ने दिये ही हैं। यह दो-चार दिन हमारे साथ रहकर मौज-मस्ती कर ले, फिर घर जाये या मामी के पास और  कहे कि लड़की चालू थी, दगा दे गई।” (पृ.-83)

आड़ में खड़ी स्वर्णा तीनों की बातचीत सुनकर सहम जाती है–‘आसमान से गिरा खजूर में अटका’। तभी रघुनाथ पंडित स्वर्णा से गोभी के पकौड़े तलवाने के लिए अनुरोध के साथ किचेन में घुसता है। बस, क्या था! पकौड़े में धतुरे के बीज मिलाकर वह तीनों का काम तमाम कर देती है।

सुबह फार्महाउस के मालिक सी.एच. खंडेवाल को घटना का पता चलता है। वह स्वर्णा को अपने घर ले जाकर पुलिस-केस के डर से पत्नी और नौकरानी को गाँव भेज देता है। एकांत पाकर वह शराब पीता है। चखने के तौर पर स्वर्णा को नमक और सेब काटकर लाने कहता है। उसकी नीयत डगमगाती है और उसे दबोच लेता हैं तभी किसी तरह सेव काटने वाल छुरी उसके बाएँ पिंजर में घोंपकर वह निकल जाती है। अपने कपड़ों पर खून के छींटे देखकर बुदबुदाती है–“अब तो मौत निश्चित है। पुलिस के हाथों या लोगों के हाथों…क्यों न किसी बस या ट्रक के नीचे कूदकर जान दे दूँ…।” (पृ.-92) इसी बीच बंगलाभाषिणी फुलवासी से भेंट होती है, जो कॉफी के लिए बगल की दुकान से दूध लेकर लौट रही होती है। 5 जनवरी, 2015 बारिश वाली रात में वह फुलवासी से ‘माँ, आमार रक्खा करो।’ कहकर लिपट जाती है। वह उसे घर लाती है। उसकी पूरी आपबीती सुनकर लेखक किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाता है। वह पाठकों से पूछता है–“आप मुझे बताइए, मैं क्या करूँ? मेरी उम्र चौरासी वर्ष पार कर चुकी है। अपने फ्लैट में रख नहीं सकता। इसे पुलिस के हवाले कर दूँ…आप दिल्ली की पुलिस से परिचित हैं। नारी संरक्षण गृह वालों को सौंप दूँ–फिर भी पुलिस आदि का केस लगेगा ही । मैं घर भी नहीं भेज सकता, घर वाले लेने को तैयार नहीं। इस भावुक बंगाली लड़की का क्या करूँ, जो कई बार गिद्धों द्वारा नोची-खसोटी गई है।”

और यहीं औपन्यासिक कथा का औपचारिक अवसान हो जाता है । उपन्यास भले ही समाप्त हो जाए, पर यह कहानी तो आज भी जिंदा है। शायद कल भी रहे; क्योंकि यह मात्र स्वर्णकांता मजुमदार की कहानी नहीं है। ऐसी अनगिनत स्वर्णकांताएँ भारत के गाँव-गाँव, नगर-नगर में हैं। जब तक फणीभूषण मजूमदार जैसे गैरजिम्मेदार पिता, झूमा दी–जैसी विलासी लोग, सुरेश-रघुनाथ-शकिर जैसे शातिर लोग और खंडेवाल जैसे जवान औरतों के तलबगार, इस धरती पर रहेंगे, तब तक स्वर्णकांता मजुमदार पैदा होती रहेगी–तथाकथित ‘मानुष’ कहलाने वाले गिद्धों द्वारा नोची-खसोटी जाने के लिए, अपनी अस्मत और अस्मिता को बार-बार दाँव पर चढ़ाने के लिए। इन तमाम लोगों के पापों के प्रक्षालन का भार 84 वर्षीय अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति के काँपते कंधों पर है, जो संयोग से लेखक भी है। इस हालत में वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ नहीं होगा तो कौन होगा? इस उपन्यास में दो-तीन पात्रों को छोड़ सब-के-सब नकारात्मक हैं। 21वीं सदी का समाज कैसे अपने को सभ्य कहेगा ? कहा न, यह सिर्फ एक स्वर्णकांता का सवाल नहीं है, आचार्य निशांतकेतु के ‘योषाग्नि’ उपन्यास की नायिक ‘अपर्णा’, अर्थात् पन्नाबाई का भी सवाल है। जो गलती ‘भींगी हुई लड़की’ का फणीभूषण मजुमदार करता है, वही गलती ‘अपर्णा’ की  माँ भी करती है। वह हजारी महाजन पर हर तरह से निर्भर है–शरीर, मन और दो जून की रोटी के लिए। हजारी मनुष्य-वेश में पिशाच है। अपर्णा, वास्तव में, उसी की बेटी है । वह पहले माँ को, बाद में बेटी को हवस का शिकार बनाता है । दस हजार लेकर ‘विश्वनाथ’ नामक वेश्या-मंडी के वेतनभोगी दलाल को बेच देता है–उसकी तथाकथित पत्नी बनाकर। फिर नारकीय यात्रा प्रारंभ हो जाती है–गाँव से पटना, पटने से दिल्ली, दिल्ली से मुम्बई, मुम्बई से कोलकाता। अंत में, प्रेमचंद के ‘सेवासदन’ की ‘सुमन’ की तरह वह ‘स्वस्ति-सिद्धाश्रम’ नामक स्वावलंबन-उद्यम की स्थापना कर उसकी संचालिका बन जाती है और जयंत नामक मूर्ति-शिल्पकार से ब्याहकर एक प्यारे-से पुत्र की माँ बनती है।

‘अपर्णा’ को एक मुकाम हासिल होता है। वह संतुष्ट जीवन जीती है। इसकी तुलना में ‘स्वर्णाकांता’ की नाव भँवर से निकल नहीं पाती है। ‘योषाग्नि’ के संवेदनशील पाठक आश्वस्त होकर शांतचित्त से विदा लेते हैं, जबकि ‘भींगी हुई लड़की’ के पाठक अशांत और उद्विग्न बने रहते हैं। इस तरह, तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर निष्कर्ष निकलता है कि निशांतकेतु की ‘अपर्णा’ बिहार के एक गाँव से होकर भी मजबूत किरदार की मालकिन है, जबकि कोलकाता जैसे महानगर से आनेवाली ‘स्वर्णा’ एक निहायत मजबूर किरदार। दोनों स्त्रियाँ प्रेम करती हैं। एक का प्रेम ताकतवर बनता है, दूसरी का धोखा, मक्कारी और बाजारवाद की स्याह रात में गुम हो जाता है।

शिल्प की दृष्टि से ‘भींगी हुई लड़की’ उपन्यास यात्रा-वृत्त, संस्मरण, आत्मकथा और रिपोर्ताज का संश्लिष्ट रूप है। ‘उपकथा’ उपन्यास की भूमिका है तो ‘अनुत्तरित प्रश्न’ उपसंहार। इन दोनों के बीच ‘अथ वृंदावन’, बंगाली ढाबा, मोबाइल नं.- 8000755078, मछली बाजार, उलूक ध्वनि, हावड़ा ब्रिज, ताज दर्शन, वर्दी का खौफ, पिंजड़ा और पंछी, सुरंग का मुहाना, अंधा सफर, बस और टैक्सी, सर्दी और रम की आग, कयामत की रात, सेब और छुरी नामक उपशीर्षकों में विभक्त तेरह परिच्छेद । पूरा उपन्यास 96 पृष्ठों में लिखित है, जो मौलिक ढंग से स्त्री-विमर्श करने वाला उत्तर–आधुनिक कालीन तथाकथित प्रगतिचेता समाज के कंगूरों पर सवालों के गोले बरसाने वाला जरूरी उपन्यास है। जरूरी उपन्यास इसलिए भी है कि यह न केवल हिंदू स्त्री स्वर्णकांता के निरीह जीवन को प्रामाणिकता के साथ उकेरता है, अपितु मुस्लिम स्त्री बेगम परवीन के जीवन को भी। बेगम के मुँह से कहलवाए गए ये शब्द इस पर बखूबी मुहर लगाते हैं–“हम मुसलमान औरतों की दुर्दशा देख रही हो–हम गुलाम हैं, गुलाम । स्वर्णा पवित्र ब्राह्मण-कुल में जन्मी थी। नहीं जानती थी मुसलमान क्या होता है? हिंदू-मुसलमान में क्या फर्क है–यह बेगम की पुकार से कुछ तो अंदाजा लगा। मगर पूरी बातों को समझ नहीं सकी।” (पृ.-66)

सनद रहे, हिंदी के चंद उपन्यासकारों ने ही एक साथ हिंदू और मुस्लिम स्त्रियों की पारिवारिक-सामाजिक विडंबनाओं को इतनी विश्वसनीयता के साथ मुखरता दी है, डॉ. मधुकर उन उपन्यासकारों में एक है। ‘भींगी हुई लड़की’ कथ्य और कथन-भंगिमा-दोनों ही दृष्टियों से हिंदी का महत्त्वपूर्ण उपन्यास है।


Image: Tribal Women
Image Source: WikiArts
Artist: Amrita Sher-Gil
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बहादुर मिश्र द्वारा भी