स्त्री सशक्तिकरण : दशा, दिशा एवं संभावनाएँ

स्त्री सशक्तिकरण : दशा, दिशा एवं संभावनाएँ

विकास के लिए महिलाओं के सशक्तिकरण से अधिक प्रभावी तरीका कुछ नहीं है। इस बयान से अधिक सटीक तरीके से महिलाओं की क्षमता का परिचय और कोई नहीं हो सकता। भूमिका चाहे पारंपरिक हो या आधुनिक, बहुत कुछ नहीं है, जो महिलाएँ हासिल नहीं कर सकी हैं। माँ के रूप में वे अनंत काल से ही दुनिया के भावी नागरिकों को जन्म देने और पालने-पोसने का काम खूबसूरती के साथ करती आई हैं। बहनों, बेटियों और पत्नियों के रूप में उन्होंने  कई तरह से पुरुषों का साथ दिया है। अधिक आधुनिक भूमिकाओं में वे शिक्षक, प्रबंधक, राजनेता आदि रही हैं। पिछले कुछ समय में तो उन्होंने लैंगिक बाधाएँ भी लाँघी हैं और पर्वतारोही, पायलट बनने के साथ सशस्त्र सेनाओं में लड़ती हुई नजर आई हैं। किंतु महिलाओं के लिए स्थितियाँ हमेशा ऐसी नहीं थीं। अतीत में महिला को पुरुष के बगैर कुछ नहीं माना जाता था, वह केवल बेटी, पत्नी या माँ ही हो सकती थी। वह नेतृत्व नहीं कर सकती थी, हमेशा अपने जीवन में मौजूद ‘पुरुष’ (चाहे पिता हो, या बेटा पति) की छाया तले रहती थी। निर्णय लेने में उसकी कोई भूमिका नहीं होती थी। यह नजरिया पश्चिम समाज में भी था, जहाँ महिलाओं को मताधिकार बहुत देर में हासिल हुआ। भारत में भी महिलाओं को संपत्ति में अधिकार, मताधिकार और विवाह तथा रोजगार के मामले में समान नागरिक अधिकार सदी भर में संघर्ष करने के बाद ही हासिल हो सके। भारत की आजादी के बाद संविधान निर्माताओं और राष्ट्रीय नेताओं ने महिलाओं को पुरुषों के समान स्थान दे दिया। एक के बाद एक सरकारों ने महिलाओं को आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र में समान दर्जा देने के लिए कई उपाय किये। उन्हें अपनी प्रतिभा दर्शाने तथा राष्ट्रीय गतिविधियों में सहभागिता की भावना महसूस करने के लिए नए अवसर दिये गये। पिछले कुछ दशकों में संसद द्वारा बनाये गए कई कानूनों तथा केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा शुरू की गयी विभिन्न योजनाओं ने महिलाओं को कानूनी, राजनीतिक और सामाजिक मुक्ति प्रदान करने की दिशा में बहुत कुछ किया है।

शिक्षा ने महिलाओं को बहुत सशक्त बनाया है और महिलाएँ जहाँ शिक्षित हुई हैं, वहाँ सबसे तेज गति से सशक्तीकरण हुआ है। इससे महिलाओं को विवाह, मातृत्व और कैरियर के बारे में फैसले लेने का अधिकार प्राप्त हुआ है। शिक्षा ने विवाह से इतर अवसरों के बारे में जागरूकता उत्पन्न की है, स्त्री को आर्थिक स्वतंत्रता दी है और उसके जीवन में मौजूद पुरुष (चाहे पिता हो या पति) पर उसकी निर्भरता भी कम की है। अब उसे घर पर घरेलू हिंसा अथवा मानसिकता प्रताड़ना का शिकार नहीं होना पड़ता है। इससे उसे गर्भधारण करने के बारे में फैसला करने अथवा अनचाही संतान की सूरत में गर्भपात करने का अधिकार भी मिल गया है। स्वास्थ्य के मामले में भी महिलाओं को कष्ट सहना पड़ता है। अधिकतर महिलाओं के पास सेहत की देखभाल करने का ना तो समय होता है, न सोच होती है और न ही सुविधाएँ होती हैं। विशेषकर ग्रामीण महिलाओं के पास तो घरों में शौचालय जैसी मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाएँ तक नहीं होती। इसलिए महिलाओं के स्वास्थ्य का सरकारी नीतियों में प्राथमिकता मिली है और सरकार ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ और ‘जननी शिशु सुरक्षा’ जैसे कार्यक्रम चला रही है। अकेली महिलाओं चाहे विधवा हो, तलाकशुदा हो या अविवाहित हो उनसे जो सामाजिक लांछन जुड़ा होता था, वह भी भारत में महिलाओं के निचले दर्जे का एक कारण रहा है। अकेली महिला को हमेशा ताने दिये जाते हैं अथवा सामाजिक रूप से बहिष्कृत माना जाता है लेकिन धीरे ही सही, अब यह सब बदल रहा है। आज की महिला वास्तव में पुराने जमाने से काफी आगे निकल आई है। उसने कई क्षेत्रों में भेदभाव की बाधा लाँघ ली है। सबसे शक्तिशाली लोगों में आज कई महिलाएँ हैं, जिनमें इंद्रा नूयी, किरण मजूमदार शॉ और चंदा कोचर के नाम हैं। भावना कंठ, अवनि चतुर्वेदी और मोहना सिंह को हाल ही में भारतीय वायुसेना में शामिल किया गया है और स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार 2015 के गणतंत्र दिवस पर सेना के तीनों अंगों, थल सेना, वायु सेना और नौ सेना से पूरी तरह महिलाओं की टुकड़ी राजपथ पर निकली। महिलाएँ अपनी शक्ति से यह हासिल कर सकती हैं। ये महिलाएँ ‘महिला विकास’ से परे सोचने और ‘महिलाओं के नेतृत्व में विकास’ की ओर बढ़ने की प्रधानमंत्री श्री मोदी की कल्पना को चरितार्थ  कर रही हैं। दुनिया की 50 प्रतिशत आबादी महिलाओं की है, इसलिए उन्हें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के समान माने जाने का अधिकार है। इस बात का महत्त्व इसी से रेखांकित होता है कि ‘महिला सशक्तीकरण’ को आठवें सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों में प्रमुख लक्ष्य के रूप में शामिल किया गया है। स्वामी विवेकानंद की उक्ति, ‘जब तक महिलाओं की स्थिति नहीं सुधरती तब तक विश्व के कल्याण की कोई संभावना नहीं है। पक्षी के लिए एक ही पंख से उड़ना संभव नहीं है’, परिवार ही नहीं बल्कि राष्ट्र और विश्व को भी नेतृत्व प्रदान करने की महिलाओं की क्षमता की सुंदरता से व्याख्या करती है।

भारतीय संविधान निर्माताओं पर मानवीय अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा का बहुत अधिक प्रभाव था। संविधान में प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों पर इसकी छाप स्पष्ट परिलक्षित होती है। संविधान में महिलाओं के अधिकारों और प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए कई प्रावधान किए गए हैं। धारा 14 व 15 में कानून के समक्ष समानता और बिना किसी भेदभाव के कानून के संरक्षण की बात कही गई है। धारा  51 (1) (म) के अनुसार प्रत्येक नागरिक का यह संवैधानिक कर्त्तव्य है कि वह महिलाओं की प्रतिष्ठा के विरुद्ध कोई कार्य नहीं करे। संविधान की धारा 21 में भी सभी नागरिकों को मानवीय प्रतिष्ठा के साथ जीवित रहने का अधिकार दिया गया है। अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में संवैधानिक उपचारों से संबंधित धारा 32 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय और धारा 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय से संरक्षण पाया जा सकता है। अभी तक महिलोत्थान, महिला सशक्तिकरण, महिला आरक्षण जैसे महिलाओं से जुड़े अनगिन शब्द सिर्फ नारों और भाषणों की शोभा तथा शब्दजाल की सुंदरता से ज्यादा परिणाम नहीं दे सके हैं। यदि लिंग आधारित बजट बने तथा उनके प्रावधानों को पूरी पारदर्शिता के साथ लागू करने की इच्छाशक्ति सरकार दिखाये तो तस्वीर बदल सकती है। महिलाओं के लिए अलग बजट बनाने की जरूरत नहीं है लेकिन बजट के खर्चो को स्पष्ट रूप से वह दिशा देनी होगी जो महिलाओं से जुड़े क्षेत्रों में घरेलू एवं महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा, यौन अपराध रोकने के लिए, सामाजिक सेवा क्षेत्र-शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण तथा आर्थिक मामलों में स्वरोजगार, समान कार्य समान भुगतान, प्रशिक्षण कार्यक्रम स्वयं सहायता समूह बनाने तथा ऐसे ही महिलाओं से जुड़े विभिन्न मदों में बजटीय खर्चों का स्पष्ट निर्धारण आवश्यक है। श्रीलंका, दक्षिण अफ्रीका में महिलाओं को ध्यान में रखकर बजट बनाने का कार्य पहले से जारी है। ऑस्ट्रेलिया में तो यह प्रणाली दो दशक पुरानी हो चुकी है। फिलहाल सरकार को चाहिए कि वह लक्ष्य प्राप्ति के लिए महिलाओं से संबंधित संवेदनशील तथा प्राथमिकता वाले क्षेत्रों का चयन करे, बिखरे हुए आँकड़ों को इकट्ठा करे, योजनाओं, प्रावधानों को जाँचे, वर्गीकृत करे तथा व्यय वितरण के अनुपात का निर्धारण कर लिंग आधारित बजटीय प्रावधानों को प्रभावी और उचित दिशा दे।

महिलाएँ हमारे दश की आबादी का लगभग आधा हिस्सा है इसलिए राष्ट्र विकास के महान कार्य में महिलाओं की भूमिका तथा योगदान को पूरी तरह सही परिप्रेक्ष्य में रखकर ही राष्ट्र निर्माण के कार्य को समझा जा सकता है। दुनिया में ऐसा कोई भी देश नहीं है जहाँ महिलाओं को हाशिये पर रखकर आर्थिक विकास संभव हुआ हो। महिलाओं को विकास की मुख्यधारा से जोड़े बिना किसी समाज, राज्य एवं देश के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जब हम महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य पुरुषों की बराबरी करना न होकर महिलाओं को सशक्त करने से है; आर्थिक-सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रत्येक स्तर पर कार्य करने में महिलाओं की सशक्त भागीदारी से है। आज महिलाएँ हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। सत्ता के सर्वोच्च शिखर से लेकर आम जनजीवन में महिलाएँ अपने संघर्ष के बूते अपनी क्षमताएँ दिखा रही हैं। ग्रामीण महिलाओं की दशा भी पहले से काफी सुधरी है। ग्रामीण महिलाओं में साक्षरता बढ़ी है और वे स्वरोजगार के जरिए आत्मनिर्भरता की ओर अपने कदम बढ़ा रही हैं। वे गाँवों में पंचायत स्तर पर भी नेतृत्व प्रदान कर रही हैं। इसमें दो राय नहीं है कि महिलाओं की आर्थिक स्थिति सुधरी है जिसके बूते उनकी सामाजिक स्थिति में भी अपेक्षाकृत सुधार हुआ है। वे बड़े पैमाने पर रसोईघर की दहलीज से बाहर निकल सामाजिक दायित्व भी निभाती दिख रही है। महिलाएँ शहरी हों या ग्रामीण, उनकी सामाजिक स्थिति बदलने में उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता महत्त्वपूर्ण योगदान करती है। सरकार भी इस बात को अच्छी तरह जानती-समझती है। इसी के मद्देनजर भारत सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को सशक्त करने के लिए विभिन्न योजनाओं के द्वारा पर्याप्त वित्त व्यवस्था के साथ-साथ स्वयंसहायता समूहों के माध्यम से रोजगार प्रदान कर उन्हें आत्मनिर्भर बना रही है जिसका स्वरूप आर्थिक विकास के सभी क्षेत्रों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, बैंकिंग, संचार, उद्योग, व्यवस्था, कानून, मनोरंजन, प्रशासनिक आदि क्षेत्रों में देखने को मिल रहा है। सरकारी प्रयास के साथ-साथ महिलाएँ स्वयं भी आज काफी जागरूक हो रही हैं जिससे संचार क्रांति का बहुत बड़ा योगदान है। महिलाएँ स्वयं भी अपने उत्थान के प्रति संकल्पित है। महिलाओं ने स्वयं सहायता समूहों के जरिए एकजुट कार्य करते हुए अपनी सफलता के झंडे तकरीबन हर गाँव-हर कस्बे में गाढ़ दिये हैं। सरकार प्रायोजित विविध कार्यक्रमों जैसे नाबार्ड, राष्ट्रीय महिला कोश, केयर, यूएनडीपी आदि के जरिए सहायता उपलब्ध करायी जाती है। महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना ने भी महिलाओं की दशा बदलने में महत्त्वपूर्ण भमिका निभायी है। महिलाएँ घर-गृहस्थी का काम निबटाने के बाद गाँव में ही काम कर रही हैं और उन्हें पुरुषों के बराबर मजदूरी भी मिल रही है। महिला रोजगार की दिशा में मनरेगा मील का पत्थर साबित हुआ है।

महिलाओं तथा बालिकाओं के प्रति हमारे रूख में बदलाव की जरूरत है। पिछले दो दशकों के दौरान महिलाओं को अधिकार संपन्न बनाने के लिये महत्त्वपूर्ण उपाय किए गए हैं, फिर भी और अधिक उपायों की जरूरत है। महिला अधिकारिता के स्तंभों में साक्षरता, शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ तथा माँ और बच्चों के लिये पौष्टिकता, राजनीतिक प्रतिनिधित्व तथा स्वरोजगार के सुअवसर सहित वित्तीय सुरक्षा शामिल हैं ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें। ये सारे काम महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने, उन्हें महिला होने का गर्व होने, प्रेरक माहौल बनाने तथा गरिमापूर्ण जीवन जीने का सुअवसर प्रदान करने पर ही पूरे हो सकेंगे। अक्सर यह देखा जाता है कि महिलाओं को कम मजदूरी वाले काम दिये जाते हैं और विकास के जैसे अवसर पुरुषों को मिलते हैं उन्हें नहीं मिल पाते। जब कभी भारतीय महिलाओं को अनुकूल माहौल और सही सुविधाएँ मिली हैं वे सफल हुई हैं और इंजीनियर, डॉक्टर, प्रशासक, उद्योगपति, पुलिस बल तथा सशस्त्र बल के सदस्य, यहाँ तक कि आंतरिक्ष यात्री बन गयी हैं। महिलाओं की शिक्षा तथा अधिकारिता विकास एवं गरीबी उन्मूलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। राज्य सरकारों को ऐसी योजनाएँ लागू करनी चाहिए जो बालिका शिक्षा को प्रोत्साहित करे। इससे स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ने वाली बालिकाओं की संख्या में भी कमी आएगी। घरेलू हिंसा तथा सामाजिक भेदभाव कम करने के लिये एक समुचित सामाजिक एवं कानूनी माहौल बनाने की जरूरत है जिसके लिये समाज के सभी वर्गो, सामाजिक संगठनों, मीडिया तथा सरकार को मिलकर कोशिश करनी चाहिये। हमारी नीतियाँ तथा कार्यक्रम भी ऐसे होने चाहिए, जो महिलाओं की जरूरतों तथा हितों को ध्यान में रखकर तैयार हों। महिलाओं को स्वयं सहायता समूहों द्वारा ऋण सुविधा देकर अपना कारोबार शुरू करने के लिये मदद दी जानी चाहिये। ये उपाय महिलाओं को आर्थिक स्वाबलंबन प्राप्त करने में मदद पहुँचायेंगे तथा उनकी अधिकारिता में योगदान करेंगे। हमारा मकसद होना चाहिए कि महिलाओं को काम करने का सुअवसर दें तथा ऐसा माहौल बनायें जिसमें महिलाएँ सम्मान एवं गरिमा के साथ रह सकें। एक राष्ट्र के रूप में हमारी पूरी क्षमता का उपयोग तभी हो सकेगा जब महिलाएँ, जो हमारी आबादी का करीब आधा हिस्सा हैं, अपनी पूरी क्षमता का उपयोग कर सकें। जबतक ऐसा नहीं होता है, प्रतिभा का आधा हिस्सा, प्रगति का आधा भाग, बर्बाद होता रहेगा। एक राष्ट्र के रूप में हमलोग इस बर्बादी को बर्दाश्त नहीं कर सकते। जिस तरह एक रथ के आगे बढ़ने के लिये उसके दोनों पहियों के आगे चलने की जरूरत होती है उसी तरह पुरुषों और महिलाओं को संयुक्त रूप से मजबूत होने और आगे बढ़ने की जरूरत होती है।

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है जहाँ 50 करोड़ से अधिक महिलायें हैं, ऐसे में सभी राजनीतिक दलों और लोगों की संवैधानिक, नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है कि उन्हें समान अधिकार का अवसर दिया जिससे उनकी तरक्की सुनिश्चित हो सके। संसद ने महिलाओं की रक्षा एवं उनके कल्याण के लिए अनेक कानून बनाये हैं, लेकिन उन्हें प्रभावी बनाने के लिए पूरी तरह लागू करना जरूरी है। इसके लिए सभी राजनीतिक दलों एवं समाज को अपनी मानसिकता बदलनी होगी। महिलाओं के हितों की रक्षा एवं उनका सशक्तिकरण समाज की सामूहिक जिम्मेवारी है। इसके सौहार्द्रपूर्ण माहौल बनाना चाहिए जिससे कि महिलाओं को अपनी क्षमता का इस्तेमाल और जिंदगी जीने की आजादी मिल सके। यह सच्चाई है कि भारतीय महिला विरोधों और विपरीत परिस्थिति के बीच अपनी पहचान तेजी से बना रही है। उन्हें रोका नहीं जा सकता। इसलिए बेहतर है कि उन्हें उनका हक देने में विलंब नहीं किया जाए। परंतु यह विस्मयकारी है कि अभी भी कुछ राजनीतिक पार्टियाँ लोकसभा एवं विधानसभा में महिला आरक्षण का विरोध कर रही है। कानून के जरिये पंचायतों में महिलाओं को 50 प्रतिशत की भागीदारी सुनिश्चित की जा चुकी है तो लोकसभा और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण का विरोध क्यों किया जा रहा है? महिलाओं को राजनीतिक अधिकार देकर राजनीतिक तंत्र और समाज का काम समाप्त नहीं होगा। इसे एक शुरुआत की तरह देखा जाना चाहिये। यह ठीक है कि महिलाओं में जागरूकता आयी है लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि शिक्षा-स्वास्थ्य को लेकर हर स्तर पर पुरुषों और महिलाओं के बीच विषमता मौजूद है। महिलाओं का बड़ा वर्ग अशिक्षित है, इसलिये देश को तार्किक राजनीतिक पर ले जाना है तो महिलाओं को हर स्तर पर आगे बढ़ने का अवसर उपयुक्त करना होगा। सभी राजनीतिक दलों को संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर आपसी भेदभाव भुलाकर महिलाओं के पक्ष में संकल्प लेना चाहिये। जैसा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15 एवं 16 में कहा गया है कि पुरुषों और महिलाओं को हर क्षेत्र में समानता का अधिकार प्राप्त है। मौजूदा भारतीय समाज की त्रासदी यह है कि उसके पास कानून बनाने और बने हुए कानून में बदलाव लाने का तंत्र तो है लेकिन वह तंत्र गायब है जो लोगों की मानसिकता में बदलाव लाता है या किसी कानून की आत्मा को समाज की आत्मा बनाता है।

बिहार के असंगठित क्षेत्र की 1.3 करोड़ महिलाएँ मेहनती, साहसी, जोखिम उठाने वाली व आत्म परित्यागी हैं। सामाजिक विकास व आर्थिक समृद्धि में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है फिर भी नीति निर्माताओं व मीडिया दोनों की नजर से वे ओझल हैं। उन्हें घर की चहारदीवारी के भीतर रखकर उनके पूरे जीवन को कुछ निश्चित व सीमित भूमिकाओं में बाँध दिया गया। अधिकतर समाजों में पितृसत्ता ही वह प्रमुख तत्व था जिसने महिलाओं को उनके शिक्षा, संपत्ति और यहाँ तक कि उनके मानवाधिकारों तक से वंचित कर दिया पर पिछले कुछ दशकों से महिलाओं के सशक्तिकरण पर जोर दिया जा रहा है और पिछले कुछ साल से तो विकास की प्रक्रिया व लक्ष्य दोनों ही महिलाओं के सशक्तिकरण पर निर्भर है। बिहार में बड़ी संख्या में पुरुष बेहतर रोजगार के लिये अन्य स्थानों पर चले गए हैं, पर महिलाएँ घरों पर ही हैं और खेत, पशु और परिवार सभी को संभालती हैं। ऐसे में आज राज्य में ग्रामीण अर्थव्यवस्था खास तौर पर महिलाओं के कंधे पर निर्भर है। बिहार के लिये आर्थिक विकास काफी अहम है। युवा महिलाओं में से करीब 50 प्रतिशत का इसकी आय में योगदान रहता है। पर इस योगदान को हमेशा अनदेखा कर दिया जाता है। अब भारत में महिलाओं के बहुआयामी विकास एवं सशक्तिकरण पर जोर है। योजना आयोग ने लैंगिक न्याय के लिए पाँच तरह के सशक्तिकरण पर जोर दिया है– (क) आर्थिक सशक्तिकरण सुनिश्चित करना (ख) सामाजिक सशक्तिकरण को समर्थ बनाना (ग) राजनैतिक सशक्तिकरण को समर्थ बनाना (घ) महिलाओं से संबंधित कानूनों का प्रभावकारी कार्यान्वयन (ड़) मुख्य धारा में लैंगिक न्याय लाने एवं कार्यान्वयन तंत्र को सुदृढ़ करने हेतु संवैधानिक तंत्र सृजित करना। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर 2010 को राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण मिशन की स्थापना की गयी जिसका उद्देश्य महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक और विधिक सशक्तिकरण हेतु विकास लक्ष्यों में अंतरालों की पहचान करना तथा उचित संस्थागत ढाँचों के जरिये अवरोधों को दूर करना है। राज्य की आर्थिक वृद्धि में महिलाओं का योगदान उनके काम, बचत व निवेश के रूप में रहता है। स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रूप में वे अपने परिवार व समाज का स्वास्थ्य सुधारती हैं। शिक्षिका के रूप में वे अपने बच्चों और स्कूल व कॉलेज में छात्रों को पढ़ाकर शिक्षा विस्तार में सहयोग देती हैं। अपने गीत-संगीत, कला-शिल्प, भोजन और वस्त्र के जरिये वे देश की संस्कृति का संरक्षण-संवर्द्धन करती हैं। बुजुर्ग, बच्चों व बीमारों की देखभाल करके वे न केवल इकॉनामी में अपना योगदान देती हैं। समुदाय को बनाने व सार्वजनिक जीवन में भी वे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। सबसे बड़ी बात, अगली पीढ़ी के माध्यम से एक स्वस्थ व समृद्ध समाज बनाने की जिम्मेदारी उन्हीं की हैं।

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है जहाँ 50 करोड़ से अधिक महिलायें हैं, ऐसे में सभी राजनीतिक दलों और लोगों की संवैधानिक, नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है कि उन्हें समान अधिकार का अवसर दिया जाए जिससे उनकी तरक्की सुनिश्चित हो सके। संसद ने महिला की रक्षा एवं कल्याण के लिए अनेक कानून बनाये हैं लेकिन उन्हें प्रभावी बनाने के लिए पूरी तरह लागू करना जरूरी है। इसके लिए सभी राजनीतिक दलों एवं समाज को अपनी मानसिकता बदलनी होगी। महिलाओं के हितों की रक्षा एवं उनका सशक्तिकरण समाज की सामूहिक जिम्मेवारी है। इसके लिए सौहार्द्रपूर्ण माहौल बनाना चाहिए जिससे कि महिलाओं को अपनी क्षमता का इस्तेमाल और जिंदगी जीने की आजादी मिल सके। लोकसभा एवं विधानसभा में महिलाओं की व्यापक उपस्थिति देश की करोड़ों महिलाओं को आजादी का अहसास कराएगी और अपने हक के लिए लड़ने की प्रेरणा देगी। यह सच्चाई है कि भारतीय महिला विरोधों और विपरीत परिस्थितियों के बीच अपनी पहचान तेजी से बना रही है। उन्हें रोका नहीं जा सकता। इसलिए बेहतर है कि उन्हें उनका हक देने में बिलंब नहीं किया जाए। परंतु यह विस्मयकारी है कि अभी भी कुछ राजनीतिक पार्टियाँ महिला आरक्षण का विरोध कर रही हैं।

सरकार की मुख्य चिंता हमेशा यही रहती है कि आर्थिक वृद्धि दर को कैसे  बढ़ाया जाए। इस पर विचार करते हुए वह भूल ही जाती है कि इसमें महिलाओं की भी कोई भूमिका है। विकासपटल से वे पूरी तरह अदृश्य हो जाती हैं। सरकार की निगाह में वे केवल विकास की लाभ प्राप्तकर्ता हैं। विकास में उनकी भागीदारी पर उसकी नजर नहीं जाती, जबकि सच्चाई यह है कि महिलाओं ने अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में काम करते हुए विकास में हर तरह से योगदान दिया है। राज्य के सकल घरेलू उत्पाद का 21 प्रतिशत कृषि क्षेत्र से आता है और इस क्षेत्र में ज्यादा काम महिलाएँ ही करती हैं। सेवा क्षेत्र का योगदान करीब 75 प्रतिशत है। इसका ज्यादा बड़ा भाग शिक्षा वा स्वास्थ्य सेवाओं से आता है और इन दोनों में ही महिलाएँ बड़ी संख्या में हैं। सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि का तीसरा बड़ा क्षेत्र निर्माण है। निर्माण कार्यों व ईंट भट्ठों में मजदूरों के पूरे के पूरे परिवार ही लगे रहते हैं और यहाँ भी महिलाएँ ही कठोर शारीरिक श्रम करती पायी जाती हैं। अधिसंख्य महिलाएँ आज भी शोषित और पीड़ित हैं तथा बिना मानव अधिकारों और मूलभूत स्वतंत्रताओं के अपना जीवन व्यतीत कर रही हैं। जब तक महिलाओं पर होने वाले असंख्य और असीमित अत्याचारों और क्रूरताओं का अंत नहीं होता, उनके साथ किया जानेवाला भेदभावपूर्ण व्यवहार समाप्त नहीं होता, एक स्वस्थ एवं न्यायपूर्ण समाज की संरचना नहीं हो सकती। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मानव अधिकारों की प्राप्ति की दिशा में सशक्त कदम उठाए गए। चार्टर की प्रस्तावना में लिखा गया कि ‘संयुक्त राष्ट्र के हम लोग यह विश्वास करते हैं एवं निश्चय करते हैं कि हम भावी पीढ़ियों को युद्ध की विभीषिका से, जिसने हमारे समय में दो बार समस्त मानव समाज को अत्यधिक पीड़ा पहुँचाई है, बचाने का प्रयास करेंगे। हम मानव के मौलिक अधिकारों, मानव व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा एवं मूल्य, स्त्री तथा पुरुषों के समान अधिकारों में तथा छोटे एवं बड़े राष्ट्रों की समानता में विश्वास प्रकट करते हैं।’ संयुक्त राष्ट्र आरंभ से ही महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए प्रतिबद्ध है।

आर्थिक वृद्धि में योगदान के बावजूद कार्य स्थलों व सार्वजनिक स्थलों पर और राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की उपेक्षा की जाती है। सबसे बड़ी बाधा तो उनके घर में ही है जहाँ से उन्हें बाहर जाने की अनुमति नहीं हो रही है। पुरुष जहाँ ‘बिंदास’ घर से बाहर घूमते हैं वहीं महिलाओं को घर से बाहर कदम रखने के लिए पुरुषों से इजाजत लेनी होती है। घर से बाहर भी रोजगार पर जाते, स्कूल जाते-आते, या फिर किसी सार्वजनिक समारोह में भाग लेते हुए उन पर फब्तियाँ कसी जाती हैं, दूर तक पीछा करके परेशान किया जाता है और कभी-कभी वह यौन हिंसा का शिकार तक हो जाती हैं। यौन हिंसा व उसके विभिन्न स्वरूप बताती है कि कैसे यह हिंसा महिलाओं को विकास में उनकी पूर्ण भागीदारी से रोकती है और उन्हें उसके लाभों से वंचित भी करती हैं। जरूरत है कि सबसे पहले तो वे खुद अपने काम को काम मानें। फिर उनके परिवार, समाज और सरकार के हर स्तर पर उस काम को माना व सराहा जाए। एक बार जब उनके काम को मान्यता मिला जाती है तो उन्हें जरूरत होगी अवसरों की जिनसे वे अपने काम व आजीविका के संसाधनों को बढ़ा सकेंगी। वित्तीय सहायता, बाजार व कार्य-कौशल उनमें से कुछ हैं। इसके अलावा घर के भीतर व बाहर हिंसा रहित सुरक्षित माहौल और सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन भी जरूरी है। हाल के सालों में ऊँची आर्थिक वृद्धि दर के बावजूद बिहार एक पिछड़ा राज्य ही माना जाता है। इसी आधार पर विशेष राज्य का दर्जा देने की माँग केंद्र से की जा रही है। ऐसा हो जाता है तो सरकार के लिए आर्थिक मानवीय व गरीबों के लिए हितकारी विकास के मार्ग को चुनना आसान होगा। बिहार की अर्थव्यवस्था कई मायनों में एकदम स्थानीय ही रही है। जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त उत्पादन होता है। स्थानीय कलाएँ और शिल्प आज भी जीवित हैं, ज्यादातर खाद्यान्न स्थानीय स्तर पर ही उपलब्ध है। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरों के अनुसार बिहार में पिछले दस साल में महिलाओं के प्रति अपराध लगातार बढ़े हैं। बिहार में होने वाले कुल अपराधों में महिलाओं संबंधी अपराधों का प्रतिशत 6.1 से बढ़कर 7.5 हो गया। इसी तरह देश भर के महिला अपराधों में बिहार का प्रतिशत भी लगातार बढ़ रहा है। यह 3.7 था जो अब 4.5 प्रतिशत हो गया है। बिहार के स्टेट क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़ों को देखें तो पता चलता है कि पिछले दस साल में महिलाओं के प्रति अपराधों की संख्या दोगुनी हो गयी है। स्टेट क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरों के आँकड़ों से महिलाओं के प्रति हिंसा की भयावह तस्वीर उभरती है। पिछले दस साल में अपहरण की वारदातों में छह गुना की वृद्धि हुई और यौन हिंसा 18 प्रतिशत बढ़ गई। घरेलू हिंसा की घटनाओं में 66 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। पति अथवा रिश्तेदारों द्वारा की जाने वाली यह ऐसी हिंसा है जो महिला को जल्द मौत की ओर ले जाती है। बिहार पारंपरिक रूप से राजनीति केंद्रित राज्य रहा है। यहाँ अलग-अलग समय में विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के नेतृत्व में व्यापक जन आंदोलनों ने अपनी उपस्थिति का अहसास कराया है। ये विचारधाराएँ गाँधीवादी से लेकर समाजवाद और पारंपरिक वामपंथ से लेकर उग्र वामपंथ की रही है। जन आंदोलन के समाजवादी रूप का विशिष्ट प्रकार 1970 के दशक के दौरान जे.पी. आंदोलन के माध्यम से भी देखा गया, जहाँ बिहार सर्वोदय और भूदान आंदोलनों के लिए जाना जाता है वहीं यह 1940 के दशक से (खासतौर पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में) उग्र वामपंथी आंदोलन का भी गढ़ रहा है।

महिला सशक्तिकरण से औरतों की राजनीति में आने से राजनीति ज्यादा संवेदनशील होगी और इससे हमारी संस्कृति भी बदलेगी। लोकसभा और विधानसभा में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित होती हैं तो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में उनका कारगर हस्तक्षेप होगा। कोई भी सरकार हो, महिलाओं के हितों का ख्याल रखने का दबाव उसपर बराबर बना रहेगा। दुनिया में लोकतंत्र का भविष्य सुनिश्चित करना है तो उसमें महिलाओं को बराबरी की भागीदारी देनी ही होगी।

(श्री अरविंद महिला कॉलेज, पटना में 15 नवंबर, 2016 को दिया गया प्रथम प्रो. उषा सिंह स्मारक व्याख्यान)


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जगन्नाथ मिश्र द्वारा भी