कार्यक्षेत्र में नौकरीपेशा नारी
- 1 February, 2019
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- 1 February, 2019
कार्यक्षेत्र में नौकरीपेशा नारी
नारी का नौकरीपेशा होना आज के युग की जरूरत भी है और सच्चाई भी। भौतिकतावाद के बढ़ते दायरे ने जहाँ हमारी जरूरतें बढ़ाई हैं, वहीं अधिक सुख-सुविधा की चाह एवं स्वतंत्रता-समानता के बढ़ते आयामों ने स्त्री-पुरुष के बीच की सदियों पुरानी मान्यताओं और दूरियों को ध्वस्त भी किया है। आज की नारी पुरुषों के समकक्ष जीवन के हर पहलू पर खड़ी है। समता, स्वतंत्रता उसके मूलभूत अधिकार बन गए हैं। आज वह हर क्षेत्र में पुरुषों के समान आगे बढ़ रही है। यहाँ तक कि गैर पारंपरिक क्षेत्र यानी सालों पुराने वर्जित क्षेत्र में अपनी उपस्थिति से लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। इंजीनियरिंग, पत्रकारिता, राजनीति, विज्ञान, प्रशासनिक, कानून, रेलवे एवं सेना हर क्षेत्र में नारी अपना योगदान दे रही है। प्रत्येक कार्यक्षेत्र की समस्यायें अलग-अलग हैं। विश्वविद्यालय में काम करने वाली नारी की समस्या, राजनीति या विज्ञापन में काम करने वाली नारी से अलग होती है। कार्यक्षेत्र में कर्मचारियों या बॉस का असहयोगात्मक व्यवहार, तालमेल में कमी, भेदभाव, शोषण आदि कई ऐसे मुद्दे हैं जिनका सामना प्रत्येक कामकाजी नारी को चाहे वह किसी भी पद पर क्यों न हो करना पड़ता है। आधुनिक उपन्यासकारों ने नौकरीपेशा नारी के कार्यक्षेत्र में उत्पन्न होने वाली समस्याओं और उसके परिणामों को अपने उपन्यासों में गंभीरतापूर्वक चित्रित किया है।
शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली नारियों की संख्या अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक होती है। यहाँ काम करने वाली नारी घर-परिवार और नौकरी दोनों जगह संतुलन बना कर रख सकती है क्योंकि इनका और बच्चों के कार्य का समय एक ही होता है। परंतु यहाँ भी स्त्री-पुरुष के बीच या स्त्री-स्त्री के बीच आपसी ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वंद्विता का भाव इस कदर हावी हो जाता है कि वे एक-दूसरे को उचित सम्मान देने की बजाय नीचा दिखाने की ताक में लगे रहते हैं। कभी-कभी तो पुरुष मर्यादा की सीमा भी पार कर जाते हैं। अपनी गरिमा और पद की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए नारी अपमान का घूँट पीकर रह जाती है। ‘ठीकरे की मंगनी’ में नासिरा शर्मा ने महरुख़ के माध्यम से ऐसी ही समस्या से जूझती एक नौकरीपेशा नारी का चित्रण किया है। महरुख़ गाँव के स्कूल में अध्यापिका है। उसके सहकर्मी न केवल उसके कार्य में बाधा पहुँचाते हैं बल्कि उसे गलत साबित करने के लिए तरह-तरह के षड्यंत्र रचते हैं। अभद्र टीका-टिप्पणी करते हैं कि: “साऽऽऽली !” “ऐसी औरतों को तो…” “ऐसा नहीं है कि यह बातें महरुख़ के कान तक पहुँची नहीं। कही भी इतनी ऊँची आवाज में गई थीं कि महरुख़ फट पड़े और कुछ पलट कर जवाब दे, मगर उसने तो हर बदतमीज़ी पर लहू के घूँट पीकर गरिमा बनाए रखने की क़सम खा रखी थी ।’
राजी सेठ के ‘तत्-सत’ उपन्यास की वसुधा की स्थिति भी महरुख़ की जैसी ही है। वसुधा महाविद्यालय में प्राध्यापिका है। समान्यतः महाविद्यालय का माहौल अनुशासित और मर्यादित माना जाता है। वहाँ भी उसका सहकर्मी मित्रता के बहाने उससे बेतकल्लुफ होने लगता है। वसुधा द्वारा प्रतिकार किए जाने पर, उसकी शिकायत विभागाध्यक्ष से करके, उसके समय सारणी में परिवर्तन करवा देता है जिससे व्यर्थ ही वसुधा को सुबह से शाम तक वहाँ बैठना पड़ता है। उसकी स्थिति का लेखिका इस प्रकार बयान करती है कि ‘एक घंटा सुबह। दूसरा दोपहर। तीसरा शाम। बीच में मक्खियाँ मारता भिनभिनाता टुकड़े-टुकड़े समय। न घर जा सकने की संभावना न यहाँ काम करने की सुविधा।’
चाटुकारिता, जी हुजूरी और हाँ में हाँ मिलाने की प्रवृत्ति शिक्षा के क्षेत्र में अधिक देखी जाती है। विद्यार्थी तो डर कर अपने प्राध्यापकों की झूठी प्रशंसा करते रहते हैं, लेकिन चंद वरिष्ठ अधिकारी भी चाहते हैं कि वहाँ काम करने वाली प्राध्यापिकायें उनकी प्रशंसा करें, यह स्थिति एक पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा नारी के लिए असहनीय हो जाती है। अगर वह इसका प्रतिकार करती है तो उसके लिए समस्याओं का पहाड़ खड़ा कर दिया जाता है। नमिता सिंह ने अपने उपन्यास ‘अपनी सलीबें’ में प्राध्यापकों की इसी समस्या का चित्रण किया है। जब मिसेज अग्रवाल कहती हैं कि प्रिंसिपल बिना बात के शक करती है, तब कुसुम मित्तल कहती हैं “आप भी इनके दरबार में बैठना शुरू कर दीजिए। इनकी हर बात में हाँ में हाँ मिलाइए। आप इनके चहेतों में हो जाएँगी।”
चिकित्सा का क्षेत्र बहुत ही पवित्र माना जाता है। शुरू से ही नारी के लिए यह क्षेत्र बहुत सम्मानजनक माना जाता रहा है। इस पेशे में काम करने वाले डॉक्टरों में मरीज के प्रति अत्यधिक सहनशीलता और स्नेह की भावना होनी चाहिए। नारी स्वभाव से कोमल होती है, अतः मरीजों के दुख-दर्द को अधिक समझती है । इस पेशे को नारी अपने कैरियर के रूप में चुनना अधिक पसंद करती है। परंतु, आज इस क्षेत्र में भी नारी के लिए काम करना इतना आसान नहीं है। पवित्र माने जाने वाले चिकित्सा के क्षेत्र में भी अन्य पेशों की तरह भाई-भतीजावाद चलता है। योग्यता और गुणों की परख बहुत कम होती है। नारी योग्य और गुणवान हो तो भी उसकी उपेक्षा की जाती है। यह माना जाता है कि नारी अकेली बेचारी होती है और उसमें अपने अधिकारों के लिए लड़ने की ताकत नहीं होती है। वह आसानी से, चुपचाप परिस्थितियों से समझौता कर लेती है। ऐसी समस्या से घिरी एक डॉक्टर नारी आभा की समस्याओं का चित्रण मैत्रेयी पुष्पा ने ‘विज़न’ उपन्यास में किया है। आभा एक ऐसी प्रतिभाशाली डॉक्टर है जो योग्य होते हुए भी उस पद तक नहीं पहुँच पाती है क्योंकि उसके एच.ओ.डी. अपने बेटे को ऊँचा पद देना चाहते हैं। यह स्थिति एक प्रतिभाशाली नारी के मनोबल को कमजोर करती है। ऐसे स्थिति का चित्रण लेखिका ने इस प्रकार किया है कि ‘इस बेचारी आभा ने कम जलालतें नहीं सहीं। सेंटर के चीफ ने मनमाना कहर ढाया है इस औरत पर, जैसे वह चीफ न हो जहाँपनाह अकबर हो कि सलीम को राजगद्दी सौंपे बिना रिटायर होगा नहीं। सारे डिपार्टमेंट्स में एडहोक अपाइंटमेंट्स हुए, नेत्र विभाग इकलौता अपने वारिस सलीम की राह देखता रहा। डॉ. आभा के चार साल बेकार गए। बाद में भी पोस्ट नहीं दी, क्योंकि आभा आगे चलकर पुत्रश्री पर भारी पड़ जायेंगी।’
चिकित्सा के क्षेत्र में इंसानियत और नैतिकता सर्वोपरि होती है। मरीज के लिए डॉक्टर भगवान होता है। जब डॉक्टर मरीज के साथ धोखाधड़ी करता है, तब पढ़ी-लिखी ईमानदार डॉक्टर नारी को यह सहन नहीं होता है। वह इसके विरुद्ध आवाज उठाती है तो पूरा का पूरा अस्पताल व प्रशासन उसका विरोधी बन जाता है। नारी को गलत साबित करने में तथा उसकी सही आवाज़ को दबाने में लग जाता है। इस स्थिति का चित्रण मैत्रेयी पुष्पा ने ‘विज़न’ उपन्यास में इस प्रकार किया है कि : ‘सारी सुविधाएँ छीन ली गईं। नजर टेस्ट से ज्यादा कुछ नहीं करेंगी। चालीस वर्ष से ज्यादा का मरीज डॉक्टर आभा के केबिन की ओर जाना नहीं चाहिए, फोर्थ क्लास कर्मचारियों को ताकीद कर दी गई। बच्चों की कॉम्प्लीकेटेड केस डॉ. चोपड़ा लेंगे। स्टोर विभाग भी छीन लिया गया।’
पत्रकारिता एक ऐसा कार्यक्षेत्र है जो पुरुष प्रधान माना जाता है। परंतु, आजादी के उपरांत समान शिक्षा व्यवस्था के कारण महिला पत्रकारों की इस क्षेत्र में दिनोंदिन वृद्धि हो रही है। अपनी बौद्धिक और रचनात्मक क्षमता के बल पर महिलाएँ भी अब पत्रकारिता को कैरियर के रूप में चुने लगी हैं। लेकिन यहाँ भी जब वे अपने पुरुष सहकर्मी या बॉस के इच्छानुसार काम नहीं करती हैं तो उनके काम में कमी निकाल कर उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित और निरुत्साहित किया जाता है। पत्रकारिता के कार्यक्षेत्र में नारी का शारीरिक शोषण होना आम बात है।
सामान्यतः कोई पत्रकार जब सफलता के उच्च शिखर पर होता है तो उसके अधीन कई पत्रकार काम करना चाहते हैं। उनसे काम सीख कर उनके जैसा प्रसिद्ध होना चाहते हैं। महिला पत्रकारों में यह चाह जब जरूरत से ज्यादा बढ़ जाती है तो पुरुष इस कमजोरी का फायदा उठाना चाहते हैं। उनके नजदीक जाने की कोशिश करते हैं। यदि महिला पत्रकार अपने खूबसूरत व्यक्तित्व के दुरुपयोग का प्रतिकार करती हैं तो उसे कदम-कदम पर मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। मजबूर होकर उसे नौकरी तक छोड़नी पड़ती है। मधु भादुड़ी ने ‘ज्वार’ उपन्यास में ऐसी ही सिद्धांतपरस्त नारी सुषमा का चित्रण किया है ‘विद्या को यह भी अहसास था कि सुषमा ने अपने अनुकूल व्यक्तित्व से उन्हें लुभाने की कोशिश नहीं की थी। आमतौर पर तरक्की के लालच में लोग घटिया तौर-तरीके अपनाने लगते हैं। सुषमा ने ऐसा नहीं किया था।’
विज्ञापन के क्षेत्र में प्रतिभा के साथ-साथ शारीरिक सुंदरता भी देखी जाती है। यहाँ प्रतिस्पर्धा बहुत अधिक होती है और नौकरी से निकाल दिये जाने का खतरा हमेशा बना रहता है। यहाँ वे लोग अधिक देखे जाते हैं जो सिर्फ चापलूसी या सिफारिश करके सफलता पाना चाहते हैं। जब नारी अपनी प्रतिभा के बल पर वहाँ पहुँचती है तो अन्य सहकर्मी ईर्ष्या वश उसे तंग करने के लिए प्रतिदिन नए-नए हथकंडे अपनाने लगते हैं। उसकी झूठी शिकायत एवं बॉस के कान भरके उसके लिए समस्या खड़ी कर देते हैं। ऐसी ही समस्या से जूझती अंकिता का चित्रण चित्रा मुद्गल ने ‘एक जमीन अपनी’ उपन्यास में किया है कि, ‘उसने स्पष्ट महसूस किया कि वहाँ के नियमित फ्रीलांसर्स को उसका आना फूटी आँख नहीं सुहाया…काम वितरित करने वाले हेड क्लर्क वर्मा ने तो टुच्चेपन हद कर दी। जिस दिन भी वह पाँच-दस मिनट विलंब से पहुँचती, वर्मा गुर्राए स्वर में टका-सा जवाब थमा देता, ‘मैडम, हमने सोचा…आज आप आएँगी ही नहीं, इसलिए आपका काम सिन्हा को सौंप दिया…सक्सेना को दे दिया…।’
परंपरागत विचारों को मान्यता देने वाली नारियों को इस क्षेत्र में अपने पैर जमाने में अत्यधिक कठिनाई होती है। विज्ञापन के क्षेत्र में मॉडल के अलावा विज्ञापन लेखन, कॉपी राइटर जैसे अन्य क्षेत्र भी होते हैं, जहाँ एक रचनात्मक गुणों वाली नारी बहुत आसानी से अपने गुणों का प्रदर्शन करके अपने पेशे में प्रसिद्धि पा सकती है, परंतु विज्ञापन जगत में एक नारी होने के नाते उससे उम्मीद की जाती है कि वह बेबाक, खुला और स्वच्छंद व्यवहार करे। यदि, वह ऐसा नहीं करती है, तब उसे समस्याओं का सामना करना पड़ता है। प्रतिभा की बजाय दैहिकता को प्रश्रय देने वाली घटनाएँ आए दिन हम अखबार में पढ़ते हैं, जिसका कुशल चित्रांकन समकालीन उपन्यासकारों ने किया है। ‘एक जमीन अपनी’ में चित्रा मुद्गल ने अंकिता की समस्या का चित्रण किया है। नीता अपने बॉस के इशारे पर चलती है, इसके विपरीत अंकिता अपने सिद्धांतों और उसूलों पर चलती है, जिसके कारण उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है और नीता को रख लिया जाता है। मैथ्यू नीता से कहता है कि, ‘एक समस्या है, निजी तौर पर तुमसे बाँटना चाहता हूँ…अंकिता को मैं एजेंसी से निकालने के लिए बाध्य हूँ…संशय नहीं है कि वह बड़ी अच्छी कॉपी-लेखक है और शी हैज डन ट्रीमेंडस जॉब फॉर अस…लेकिन हमें कार्यकुशल एवं चुस्त लड़की की जरूरत है छुई-मुई की नहीं।’
राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी आजादी के पहले से ही देखी जाती है, पर इस क्षेत्र में आने वाली नारियों की संख्या कम ही होती थी और जो आती भी थीं उनमें से ज्यादातर प्रतिष्ठित घराने की होती थीं। उनका मकसद समाज की उन्नति में योगदान देना होता था लेकिन आधुनिक युग में राजनीति में नारियाँ पद और पैसे की चमक-दमक से प्रभावित होकर आने लगी हैं। राजनीति पुरुष प्रधान क्षेत्र माना जाता है। इसे कैरियर के रूप में चुनने का साहस आज भले ही नारी करती है, लेकिन राजनीति में काम करनेवाली नारियों के प्रति पुरुषों की मानसिकता उसे प्रयोज्य वस्तु, कठपुतली या गुलदस्ते के रूप में ही देखने की होती हैं। उन्हें लगता है कि उसे बड़ी आसानी से हासिल किया जा सकता है । राजनीति का क्षेत्र आज भी नारी के लिए असुरक्षित और चुनौतीपूर्ण व जोखिमों से भरा है। नारी को हर समय उसके दामन पर दाग लगने की चिंता लगी रहती है। ऐसे माहौल में काम करना एक पढ़ी-लिखी चरित्रवान् नारी के लिए बड़ी ही कठिन होता है। ‘ये आम रास्ता नहीं’ उपन्यास में रजनी गुप्त ने ऐसी ही समस्या से घिरी मृदु का चित्रण किया है। कार्यक्षेत्र में अध्यक्ष महोदय की ओछी और गिरी हुई बातें सुनकर या नापाक इरादे सुनकर मृदु सन्न रह जाती है। उसे तनावग्रस्त देखकर अध्यक्ष महोदय कहता है कि, ‘ऐ मृदु, क्या हुआ तुझे? माई स्वीटहार्ट, मेरी बातों को अदरवाइज मत लेन। नशे की झोंक में कभी-कभार जुबान लटपटा जाती है मेरी तो। न जाने क्या-क्या बकवास कर डालता हूँ, तू गलत मतलब मत निकाल लेना। तेरे वास्ते तो मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता। तू तो सबसे कीमती नग है आज की इस पॉलिटिक्स में।’
यह समस्या केवल उच्च या मध्यम वर्ग की नौकरीपेशा नारी की ही नहीं है, अपितु, ये समस्याएँ निम्न वर्ग की नारियों के कार्यक्षेत्र में भी विभिन्न रूपों में देखी जाती हैं। चाहे वह बलदेव वैद की ‘एक नौकरानी की डायरी’ हो, मृदुला गर्ग का ‘कठ गुलाब’ हो या भगवानदास मोरवाल का ‘बाबुल तेरा देस में’। समस्याएँ अभी भी वैसी की वैसी ही हैं। आज जरूरत इस बात की है कि नारी को एक संवेदनशील मनुष्य के रूप में पहचाना जाए।
समासतः कहा जा सकता है कि हमारे देश की आधी दुनिया का प्रतिनिधित्व करने वाली स्त्रियों के साथ, खास तौर पर कार्यस्थल पर पक्षपातपूर्ण व्यवहार करते देखा जाता है। कार्यस्थल पर नौकरीपेशा नारियों की प्रतिभा, कार्यक्षमता, कार्यकुशलता और सामर्थ्य को नकारने की प्रवृत्ति पुरुषसत्ता के अंदर सालों से रही है। पुरुषसत्ता आज 21वीं सदी में भी महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक समझता है। उसका यह पूर्वाग्रह कब दूर होगा? यह सवाल आज भी प्रासंगिक बना हुआ है। जरूरत इस बात की है कि सही मायने में लोकतांत्रिक देश में स्त्री और पुरुष गाड़ी के दो पहियों के रूप में घर से बाहर तक समान अधिकार का प्रयोग कर सके। स्त्री का मूल्यांकन उसकी प्रतिभा, सामर्थ्य और योग्यता के आधार पर किया जाए, न कि महज लिंग के आधार पर। पुरुष के बराबरी का दर्जा प्राप्त होने पर ही वह स्वतंत्रता और समानता जैसे बुनियादी अधिकारों का सही मायने में प्रयोग कर पाएगी और तभी देश के हर क्षेत्र में उसका योगदान अविस्मरणीय रूप में दर्ज होगा।