भारत की प्रथम शिक्षिका

भारत की प्रथम शिक्षिका

जियालाल आर्य हमारे समय के उल्लेखनीय वरिष्ठ साहित्यिक हस्ताक्षरों में से हैं, जो प्रचलित विमर्शों और चर्चाओं में हमेशा प्रधान तत्व रहे। दर्जनों पुस्तकों के रययिता जियालाल आर्य का सद्यः प्रकाशित उपन्यास ‘क्रांतिजोती सावित्री फुले’ देश की प्रथम महिला शिक्षिका सावित्री फुले के चरित्र को औपन्यासिक शिल्प में ढालने का सफल प्रयास है। समीक्ष्य उपन्यास में ब्राह्मणों का शूद्रों और महिलाओं के लिए तालिबानी रूप दिखाया गया है। उन्नीसवीं शताब्दी में तथाकथित ब्राह्मणों का आतंक कुछ ऐसा ही था। तथाकथित इसलिए कि ब्राह्मण जो सही में होगा और वेद-शास्त्र पढ़ा होगा, वह कभी किसी पर अत्याचार कर ही नहीं सकता, क्योंकि प्राणि मात्र में जीव तो शिव के रूप में विद्यमान होते हैं, तो फिर ईश्वर से कोई घृणा कैसे कर सकता है? इसी पुस्तक में लेखक ने लिखा है कि ‘गुजरात के स्वामी दयानंद ने आर्य समाज को स्थापित किया। उन्होंने वेदों का गहन अध्ययन किया था और वैदिक ज्ञान को आधार मानकर लोकमानस को अवगत कराया। उन्होंने कहा कि अस्पृश्यता, जाति-वर्ण-भेद, जनमत, ऊँच-नीच, पुनर्विवाह विरोध जैसी दकियानूसी मान्यताएँ वेद सम्मत नहीं हैं। उन्होंने ब्राह्मणों एवं पंडितों द्वारा प्रचारित भ्रांति का खंडन किया कि स्त्रियों और शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं है।’ इसलिए कि वर्णव्यवस्था प्राचीनकाल में कर्मणा थी, इसीलिए ब्राह्मणों का लड़का कर्म से शूद्र होता था और शूद्र का लड़का ब्राह्मण होता था। कर्म के चलते ही मातंग ऋषि, श्रृंगी ऋषि, नारद, विश्वामित्र, पराशर, कौशिक, महर्षि वशिष्ठ, गौतम, वेदव्यास जन्मना ब्राह्मण नहीं होते हुए भी कर्म से ब्राह्मण हुए। जब से स्वार्थ पूर्ति के लिए वर्णव्यवस्था को जन्मना मान लिया गया, तथाकथित ब्राह्मणों की बाढ़ आ गई। और वे सुविधा भोगी हो गए तथा तरह-तरह के हथकंडे अपनाने लगे। उन हथकंडों में सबसे कारगर और प्रभावी हथकंडा श्राप था, जिससे अन्य लोग और खासकर शिक्षा से वंचित शूद्र जाति के लोग गुलाम बनते गए और तथाकथित ब्राह्मणों की चाँदी कटने लगी।

समीक्ष्य उपन्यास एक शोधपरक उपन्यास भी है, क्योंकि लेखक ने काफी शोध किया है और उन स्थानों का भ्रमण किया है, जो आज भी अतीत की तस्वीर है। जन्म से लेकर समस्त घटनाओं की तिथि तक का उपन्यास में उल्लेख होने से यह मात्र जीवनीपरक ही नहीं शोधपरक भी है। संपूर्ण उपन्यास घटना और कथनोपकथन से भरा हुआ है और पाठक को पढ़ने की नई ऊर्जा मिलती है। संघर्षशील व्यक्त्वि की कहानी लेखक ने इतनी रोचकता से लिखी है कि कहीं भी पाठक भटकता नहीं है, बल्कि जुड़ा रहता है और अंत तक पढ़ते रहने की उत्सुकता बनी रहती है। कथा का प्रारंभ, संघर्ष की दास्तान और ब्राह्मणों का प्रकोप कुछ इस कदर दर्शाया गया है कि बीच में उपन्यास को पढ़ने से छोड़ देना अपराध-सा लगता है। यही किसी लेखक की रचना की सबसे बड़ी सफलता होती है, जो इस समीक्ष्य उपन्यास में मिलती है। जोतीराव गोविन्दराव फुले उर्फ जोतिबा का स्वर्गवास हो गया है और उनके शुभचिंतकों की भीड़ जुट आई है। उनका पार्थिव शरीर अंतिम संस्कार के लिए जा रहा है, उसी समय लेखक ने बड़ी ही खूबसूरती से सावित्री फुले के कदम को रोक दिया है और फ्लैश बैक में उनकी स्मृति चली जाती है तथा यहीं से सावित्री की कहानी प्रारंभ होती है। सावित्री फुले के जन्म-स्थान नायगाँव से जोतिबा के जन्मस्थान खानबाड़ी ग्राम तक की यात्रा से लेकर पेशवाराज के अत्याचार से आतंकित शूद्र समाज की कहानी का अंदाज कुछ ऐसा है कि रोचकता बाँधे रखती है। पेशवाराज का आतंक कुछ इस प्रकार लेखक ने वर्णन किया है–“पेशवाराज में महार, माँग, चमार, वाल्मीकि जैसी अछूत मानी जानेवाली जातियों का जीवन नरक से भी बदतर था। सड़क पर चलने का समय निर्धारित था। दिन की तपती दोपहरी में ही बाहर निकल सकते थे। उस समय ब्राह्मण लोग अपने घरों में आराम करते रहते थे। उन्हें थूकने के लिए गले में हँड़िया बाँधना पड़ता, कमर में झाड़ू बाँधना पड़ता जिससे सड़क से उनकी पगधूलि साफ होती चले और किसी कारणवश यदि दिन के अन्य भागों में घर से निकलना हो, तो थाली पीटते चलना पड़ता था, जिससे भूदेव ब्राह्मण देवता अपने घर से बाहर नहीं निकले। सुबह-शाम तो अछूतों को बाहर निकलना प्रतिबंधित था क्योंकि उस समय मानवतन की परछाई लंबी रहती है और परछाई का स्पर्श होने पर ब्राह्मण देवता को स्नान करके पवित्र होना पड़ता था।” ऐसे वातावरण में अँग्रेजों का विस्तार अबाधगति से होता चला गया । अँग्रेज छूआछूत को नहीं मानते थे, जिससे धीरे-धीरे शूद्रों के दिल पर राज करने लगे। महात्मा जोतिबा फुले और सावित्री फुले भी अँग्रेज के समर्थक थे। इसी पुस्तक में लेखक ने उधृत किया है कि ‘फुले दंपति एवं तत्कालीन त्रस्त लोग गुलामी के पक्षधर नहीं थे परंतु पेशवा के शासन से मुक्ति मिलने से अँग्रेजी शासन को अपेक्षाकृत अच्छा मानते थे।’ इसीलिए फुले दंपति ने कभी अपना धर्म परिवर्तन नहीं किया। हिंदू में आपसी फूट के चलते ही अँग्रेजों को पाँव पसारने में काफी सहूलियत हुई। लेखक का कहना है कि ‘17 नवंबर 1817 को पेशवा बाजीराव के द्वितीय राज का सूर्य डूब गया और गरीब, पिछड़े, अछूत, अन्त्यजों के भाग्योदय की लालिमा के दर्शन होने लगे।’

समीक्ष्य उपन्यास में शूद्रों के उद्धार के लिए जोतिबा फुले और सावित्री फुले को अवतरित रूप में माना गया है और सावित्री को सत्यवती के रूप में प्रतिपादित किया गया है। ऐसा इसलिए भी कि दोनों की आपसी समझ काफी सुदृढ़ थी, जिसके चलते ही उनके दांपत्य-जीवन में कभी कठिनाई नहीं आई और दोनों ने साथ-साथ चलकर शूद्रों तथा महिलाओं के बीच शिक्षा और सभ्यता की ज्योति प्रज्ज्वलित की। सावित्री जब नौ वर्षों की थी, तो तेरह वर्षीय जोतीराव से शादी हो गई। शादी होने तक सावित्री कुछ भी पढ़ी-लिखी नहीं थी, क्योंकि ब्राह्मणों के प्रकोप से महिलाओं का पढ़ना काफी कठिन था। लेकिन जोतीराव फुले ने सावित्री को पढ़ाया। उनका मानना था कि विद्या अंधविश्वासों से दूर ले जाती है और अज्ञानता से मुक्ति दिलाती है। सावित्री फुले जब पढ़ना-लिखना सीख जाती है, तो एक पाठशाला खोली जाती है, जिसकी अध्यापिका सावित्री होती है और यहीं से सावित्री फुले को भारत की प्रथम महिला शिक्षिका होने का गौरव प्राप्त होता है। फिर तो न जाने कितने विद्यालय खुले और शूद्रों तथा महिलाओं को पर्दा प्रथा से बाहर निकलकर विद्यालय जाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। हालाँकि इसके लिए सावित्री फुले को ब्राह्मणों के अनेक हथकंडों का सामना करना पड़ा, लेकिन वे अपने लक्ष्य पर अडिग रहीं। हाथ में मशाल लिए फुले दंपति खड़े हो गये…एक-एक कर लोग जुटते गए और कारवाँ बनता गया…जो ब्राह्मणों के पाखंड रूपी कुहासे की चादर को फाड़ते गए और राह पर उजास फैल गया। फिर अनाथालय भी खोला गया, जिसमें अवैध जन्में बच्चों, जो जंगल-झांड-झूर पर फेंक दिये जाते थे, का लालन-पालन प्रारंभ हुआ। यही नहीं, विधवा गर्भवती महिलाओं के प्रसव के लिए ‘बाल हत्या निषेध भवन’ की स्थापना की गयी।

‘सत्यमेव जयते’ के सिद्धांत को माननेवाले महात्मा फुले ने आजीवन सत्य का अनुसरण किया। उन्होंने पाखंडों से अपने समाज को बचाने के लिए ‘सार्वजनिक सत्यधर्म’ पुस्तक की रचना की। हालाँकि इस पुस्तक का प्रकाशन उनकी मृत्यु के पश्चात् हुआ, जिससे शूद्र समाज लाभान्वित होता आ रहा है। यहाँ यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि फुले दंपति को अपनी कोई संतान नहीं थी। हालाँकि उनकी संताने इतनी थीं कि कभी कोई अपनी संतान की चिंता ही नहीं रही। फिर घरवालों के दबाव में भी उन्होंने दूसरी शादी नहीं की और एक लड़का गोद ले लिया, जो ब्राह्मणी की कोख का जन्मा था, जिसका नाम यशवंत राव था, जो बाद में डॉक्टर बने और सपत्नीक लोक सेवा में लगे रहे।

समीक्ष्य उपन्यास से पता चलता है कि जोतिबा कवि भी थे और बहुत सारी रचनाएँ उन्होंने काव्य में की है। बाद में तो सावित्री बाई भी काव्य की रचना करने लगी थी। इसमें जगह-जगह मुहावरों का प्रयोग किया गया है, जो सटीक तो लगते ही हैं, रौनक बिखेरते हैं। यही नहीं आवश्यकतानुसार संस्कृत श्लोकों को भी उदाहरण के तौर पर लिखा गया है, जो सार्थक लगते हैं। एक और घटना की चर्चा आवश्यक है कि जोतीराव फुले को एक अभिनंदन समारोह में ‘भारत के बुकर टी वाशिंगटन’ की सम्मानोपाधि से विभूषित किया गया। राय बहादुर श्री बिट्ठलराव बंदेकर द्वारा आए आदि गणमान्य श्रेष्ठजनों के संबोधनोंपरांत जोतीराव गोविन्दराव फुले को ‘महात्मा’ की पदवी से 11 मई 1988 को अलंकृत किया गया और प्रशस्ति पत्र दिया गया। अज्ञान, अंधश्रद्धा, रूढ़िवादिता, झूठा धर्म, ब्राह्मणवाद, साहूकारवाद इन समस्त दुर्गुणों के विरुद्ध आवाज उठाने वाले और मानवता के लिए शूद्र और अतिशूद्रों को सामाजिक दास्ता से मुक्ति दिलानेवाले जोतीराव फुले तो महात्मा हैं ही। समीक्ष्य उपन्यास के लिए एक पंक्ति में कहना हो तो यह कहना उचित होगा कि अगर यह उपन्यास नहीं आता, तो महात्मा जोतीराव अधूरे रहते और समाज भी भारत की प्रथम शिक्षिका से रु-ब-रु नहीं हो पाता।


Image: 1998 Stamp Of India
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हृषीकेश पाठक द्वारा भी