स्त्री विमर्श एक सही सोच

स्त्री विमर्श एक सही सोच

अब सही समय है कि स्त्री विमर्श की ‘स्त्री मुक्ति अर्थात् देहयुक्त’ की इस अवधारणा की अन्त्येष्टि कर दी जानी चाहिए। पुस्तक मेले में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित तीन वरिष्ठ लेखिकाओं से मिलने और उनसे प्रश्न पूछे जाने का कार्यक्रम था। उम्मीद थी कि इस कार्यक्रम में स्त्री विमर्श के महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर बात होंगी। इन लेखिकाओं की आत्मकथाएँ पिछले दो दशकों में चर्चा का विषय रहीं तो भी चंद्रकिरण सोनरैक्सा की ‘पिंजरे की मैना’ 20वीं सदी की औरत की संपूर्णता में कही गई गाथा है। उसके संघर्ष की, सारी विपरीतताओं में, विसंगतियों में परास्त न होने की, उसके जीवट की सकारात्मक कहानी है। जो दूसरी आत्मकथाओं से अलग है। जिसमें स्त्री की समस्या सिर्फ ‘दैहिक’ नहीं बल्कि घर और समाज में पुरुष की सामंती सोच से मुक्ति की ओर निर्देश करती है।

इस समय समाज के बीच स्त्रियों की स्थिति और परिस्थितियाँ जैसे बदली हैं और बदल रही है उनमें ‘स्त्री दृष्टि’ और स्त्री सोच का परिदृश्य बदलना चाहिए था। नई पीढ़ी की युवतियाँ, शिक्षित, प्रशिक्षित और प्रोफेशनल हैं। जो डॉक्टर, इंजीनियर, मैनेजमेंट, बैंकिंग तथा कॉपरेट सेक्टर में काम करने वाली प्रोफेशनल हैं; जो ऊँचे पदों पर और ऊँची आय पर काम कर रही हैं, लेकिन जब शादी की बात आती हैं तो उनमें से दस प्रतिशत लड़कियों से नौकरी छुड़वा दी जाती है। फिर वे घर में एक साधारण पढ़ी या अनपढ़ औरत का ‘सुखी’ जीवन जीती हैं। बच्चा होने की स्थिति में 60 से 70 प्रतिशत प्रोफेशनल, विशेष रूप से जो मल्टीनेशनल के साथ हैं, नौकरी छोड़ देती है। कारण, हमारे यहाँ कामकाजी स्त्रियों की सुविधा के लिए, उनके बच्चों की देखभाल के लिए सरकारी या गैरसरकारी ‘बालकेंद्र’ कहीं नहीं है इनके लिए कभी आवाज नहीं उठी। जो कहीं सरकारी स्तर पर ऐसे ‘क्रैच हैं’ वे असुरक्षित और अपर्याप्त हैं। जहाँ बच्चों की देखभाल के लिए जो निष्ठा चाहिए वह पूरी तरह गायब है।

कहीं कहीं प्राइवेट तरीके से चलाए जा रहे बाल देखभाल केंद्र हैं पर कितने? दिल्ली की आबादी और क्षेत्रफल वाले सिंगापुर में हर ब्लॉक के नीचे बच्चों की देखभाल ‘क्रेच’ है जहाँ माँएँ डेढ़ माह तक के बच्चों को छोड़कर निश्चिंत काम पर चली जाती हैं। अमरीका की यूनिवर्सिटी में जहाँ बिनब्याही और युवा माँओं की भी उपस्थिति होती है। वहाँ यूनिवर्सिटी के साथ क्रैच हैं, जहाँ वे अपने बच्चों को निश्चिंत छोड़कर पढ़ाई पूरी करती हैं। काम के खुले घंटे एक और विकल्प है, जो औरतों के पक्ष में जाता है। दूसरे देशों में कामकाजी औरतों को ये सुविधाएँ उपलब्ध हैं। मैंने सिंगापुर में रात के समय दफ्तर में काम करते हुए औरतों को देखा है। पर इसके लिए स्त्रियों की सुरक्षा का प्रश्न है।

स्त्रियों की सुरक्षा का प्रश्न अपने में एक बड़ा प्रश्न है। घर और बाहर दोनों जगहों पर उस पर हिंसा बढ़ रही है। स्त्रियों पर होने वाले अपराध बढ़ रहे हैं। न वे घरों में सुरक्षित हैं न ही बाहर। इस पर जितना महत्त्व दिया जाना चाहिए उतना नहीं दिया जा रहा। न पब्लिक बसों में, न प्राइवेट टैक्सी में, न सड़कों पर, कहीं भी वे सुरक्षित नहीं हैं। रोजमर्रा की घटनाएँ एक खबर की तरह होती है। लोग सुनते हैं, चिंता भी व्यक्त करते हैं पर होता कुछ नहीं। स्त्री सुरक्षा को एक अभियान की तरह चलाया जाना जरूरी है। सामाजिक जागृति के साथ, कड़े कानून का प्रावधान हो ताकि अपराधी को कड़ी सजा मिले। भ्रूण हत्या पर घरों में होनेवाली हिंसा पर रोक हो। अभी भी स्त्री की परंपरागत भूमिका ही घरों में मान्य होती है। कॉरपोरेट सेक्टर में काम करने वाली औरतों को भी कहा जाता है ‘घर में खाना तो घर की औरत ही बनाएगी’ इसलिए जिस डॉक्टर को 9 बजे ऑपरेशन के लिए अस्पताल पहुँचना है, वह भी सुबह पाँच बजे उठकर खाना बनाकर आती है। घर पर काम से लौटते ही औरतें सीधे रसोई में घुस जाती हैं। दुहरी तिहरी भूमिकाओं में ये औरतें ‘सूपरवीमन’ बनने का प्रयास करती हैं पर होती नहीं हैं। घर की सामंती सोच को बदलना जरूरी है। घर की व्यवस्था में, देखभाल में, रसोई के कामों में, सबकी हिस्सेदारी जरूरी है। इसलिए घर के लोगों को औरतों के प्रति संवेदनशील होना जरूरी है। उनका दमन, शोषण प्रताड़ना करके उन्हें गौरवान्वित करने के इस नाटक को बंद करना होगा। औरतों को इस सोच के विरुद्ध, आवाज उठानी होगी। साथ ही औरतों को बेटे और बेटी के भेद को भूलकर दोनों के साथ एक-सा व्यवहार और एक-सी सुविधा देनी होगी। घर के कामों में शुरू से लड़कों की भूमिका भी अनिवार्य रूप से होनी चाहिए। एक सुझाव था, स्कूलों में लड़कों की भूमिका भी अनिवार्य रूप से होनी चाहिए। एक सुझाव था, स्कूल में लड़कों के पाठ्यक्रम में खाना बनाना, घर का रख-रखाव भी ‘होमसाइंस’ में पढ़ाया जाना चाहिए।

असंगठित क्षेत्रों में और घरेलू उद्योगों में काम करनेवाली औरतें, नेशनल आय में 60 प्रतिशत का योगदान करती हैं। घर की आर्थिक व्यवस्था में उनका योगदान सौ प्रतिशत होता है, क्योंकि इस तबके के पुरुष दिहाड़ी पर मजदूरी या छोटे-छोटे काम करने वाले होते हैं। जिनकी न नौकरी निश्चित होती है और न उनकी आय। इस पर भी वे शराबी, आदि होते हैं, जो कमाते हैं, अपनी शराब पर खर्च कर देते हैं।

ये औरतें बड़ी विषम परिस्थितियों में, लंबे समय तक फैक्ट्रियों में काम करती हैं। मजबूरी में अपने छोटे बच्चे भी अपने साथ ही ले जाती है। इनको वहाँ कोई सुविधा नहीं दी जाती। न समान वेतन, न डॉक्टरी सुविधा, न बच्चों के लिए कोई सुविधा। निर्माण कार्यों में लगी, रेडीमेड कपड़ों के उद्योग में काम कर रही बड़ी संख्या में औरतें, भेदभाव, कम मजदूरी, काम के लंबे घंटे, दमन शोषण के विरुद्ध वे आवाज़ काम करते हैं। इनके पक्ष में आवाज़ उठाई जानी चाहिए।

बलात्कार हिंसा का क्रूरतम रूप है। व्यक्ति की विकृत मनोवृत्ति के अतिरिक्त, परिवारों की आपसी रंजिश, जातियों में हुई लड़ाइयाँ, दंगों, युद्धों के भी विकृत नीतियों के कारण औरतों पर बलात्कार द्वारा बदला लिया जाता है। क्या कभी इस समस्या के इस व्यापक पहलुओं पर विचार हुआ है? भौतिकवादी जीवन शैली और चली आ रही वेश्याओं की स्थिति पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। एक पक्ष इसे कानून में मान्य ठहराने के पक्ष में है। उनका विचार है कि इसमें उनके कार्यक्षेत्र को नियमानुसार सीमित करना, उन्हें लाइसेंस देना, इसे अपराध न माना जाना और इसका निरपराधीकरण संभव होगा। इन्हें नागरिक अधिकार मिलेंगे ताकि ये अपनी ट्रेड यूनियन और अपनी कॉपरेटिव बना सकें।

इनके बच्चे स्कूलों में शिक्षा प्राप्त कर सकें। पर इस पर अभी तक सहमति नहीं बन पाई है। जिन औरतों को वेश्यालयों से मुक्त कराया गया उनकी कहीं दूसरी जगह काम की व्यवस्था नहीं की गई। उन्हें, जहरीली दवाइयों की फैक्ट्रियों में या शौचालयों में काम पर लगाया गया। जहाँ वे एक नरक से दूसरे नरक में अपने आप को महसूस करती हैं। समाज इनके प्रति संवेदनशील हो। आखिर उनके पास जाने वाला वर्ग तो सम्मानित और समाज का विशिष्ट वर्ग भी होता है। वास्तव में स्त्री विमर्श मानवाधिकारों का विमर्श है। मानवाधिकार एक जीवनबोध है, जो मानवीय मूल्यों पर आधारित है। जिसमें न्याय, समानता और सम्मान के साथ जीने का अधिकार है। स्त्रियों को समान शिक्षा का प्रावधान होने पर भी गाँवों से स्कूलों में लड़कियाँ पाँचवीं, आठवीं तक आते-आते तीस प्रतिशत या उससे भी कम रह जाती है। यहाँ भी प्रश्न उनकी सुरक्षा का है, स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय नहीं है। स्कूल में स्त्री अध्यापिकाएँ नहीं के बराबर हैं। साथ ही लड़की 13-14 वर्ष की हुई कि उस पर घर की जिम्मेदारी डाल दी जाती है। शिक्षा का उसके जीवन में कोई स्थान नहीं होता है। यह समस्या बहुआयामी और जटिल है। पर स्त्री विमर्श विचार करने पर इस पर गंभीर विचार करना, कोई उपाय ढूँढ़ना अनिवार्य है।

किसी भी लोकतांत्रिक समाज में, मानवाधिकारों की संस्कृति अनिवार्य है। यह एक सही जीवन परिपाटी और मार्ग-दर्शन है। यह स्वतंत्र, स्वायत्त, सम्मान से जीने का अधिकार है। अपने निर्णय ले सकने की क्षमता का आदर है। इसलिए आज का स्त्री विमर्श इन्हीं मुद्दों पर केंद्रित होना चाहिए। स्त्री शिक्षा के लिए, स्त्रियों पर हो रहे अपराधों के लिए, घरेलू हिंसा, भ्रूण हत्या इत्यादि के विरुद्ध आंदोलन होने चाहिए। यही स्त्री विमर्श आज प्रांसगिक हो सकता है।


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