बारिश में भींगता एक शायर
दहेज हमारे समाज के चेहरे पर बदनुमा दाग की तरह है। ‘दुल्हन ही दहेज है के नारे’ महज जुमले साबित हो रहे हैं।
दहेज हमारे समाज के चेहरे पर बदनुमा दाग की तरह है। ‘दुल्हन ही दहेज है के नारे’ महज जुमले साबित हो रहे हैं।
रामविलास शर्मा बहुमुखी प्रतिभा के लेखक थे, जिन्होंने भाषा विज्ञान, इतिहास, संस्कृति, साहित्यालोचन जैसे क्षेत्रों में विपुल लेखन कार्य किया। यह एक सौ से अधिक किताबों के लेखक थे (शायद इसीलिए उनकी रचनावली अभी तक प्रकाशित नहीं हो सकी है) और उनकी प्रत्येक किताब के लिए उन्हें पी-एच.डी. या डी.लिट्. की उपाधि दी जा सकती है। वह 1934 से 2000 तक (66 वर्ष) निरंतर गंभीर लेखन करते रहे तथा उन्होंने अनेक विषयों पर मौलिक चिंतन-लेखन किया जिन पर वाद-विवाद-संवाद लगातार होते रहे हैं।
पटना से करीब चालीस किलोमीटर दूर बिहटा थाना का अमहरा ग्राम स्वाधीनता आंदोलन के समय प्रायः सुर्खियों में रहता था। यह ग्राम सवर्ण बाहुल्य है। राजनीतिक तौर पर यहाँ के लोग समाजवादी विचारधारा से प्रभावित रहे हैं। देश की आबादी के लिए गाँव के प्रमुख लोग सर्वप्रकारेण समर्पित थे जिनमें रामजी सिंह, श्यामनंदन बाबा, रामनाथ शर्मा आदि अग्रगण्य थे।
डायरी के पन्ने पलटने शुरू किए, तो मेरे सामने दिल्ली-प्रवास (16 से 21 दिसंबर, 2013) के किस्से खुलने लगे। उन किस्सों में ऐसा उलझा, कि जिस मुद्दे पर लिखना चाहता था, वह धरा रह गया। अब सोचता हूँ कि इस बार डायरी के इन्हीं कुछ पन्नों को आपके सामने रखूँ। कई बार ऐसा होता है कि अत्यंत सामान्य-सी दिखने वाली चीजों में भी कुछ खास चीजें दिख जाती हैं।
सामाजिक संरचना के बनते-बिगड़ते स्वरूप के लिए जिम्मेदार कारकों तथा स्थितियों-परिस्थितियों की परख और पड़ताल आज के जो भी कथाकार सहज भाव से कर रहे हैं, उनमें शंभु पी. सिंह ने भी अपनी उपस्थिति ‘जनता दरबार’ के जरिए दर्ज की है। जन साधारण के जीवन पर आधारित कथा सृजन की समृद्ध परंपरा को विस्तार देने में शंभु पी. सिंह एक स्पष्ट दृष्टिबोध के साथ नजर आते हैं।
यह एक संयोग ही रहा होगा कि जिन दो अनूदित किताबों को एक साथ पढ़ा, उनके लेखक फोर्ड फाउंडेशन की अनुदान राशि को स्वीकारने-अस्वीकारने के विवाद को लेकर चर्चा में रहे, खासकर महाश्वेता देवी। इससे भारतीय मनीषा की एक विशेषता उजागर हुई है कि नोबेल पुरस्कार को सार्त्र यदि आलू की बोरी कहकर ठुकरा सकते हैं तो दलित-शोषित आदिवासियों की जिंदगी को अपनी कलम का आधार बनाने वाली कथाकार महाश्वेता देवी भी फोर्ड फाउंडेशन के अनुदान प्रस्ताव को उससे बेहतर कारण देकर ठुकरा सकती हैं : ‘जो धन मैंने उपार्जित नहीं किया, उस पर मेरा कोई अधिकार नहीं।