कितना अतृप्त हूँ मैं
धरती, तुम माँगे, बिन माँगे मुझे वह सब कुछ देती हो जिसके बिना मैं चल नहीं सकता
धरती, तुम माँगे, बिन माँगे मुझे वह सब कुछ देती हो जिसके बिना मैं चल नहीं सकता
वे हमारे हाथ हैं उन्होंने उठाया है बोझा उन्होंने कलम और तलवार चलाई है उन्होंने हथौड़े से कूटा है लोहा तो पेंसिल भी छीली है उन्होंने काटे हैं पहाड़ तो तराशे हैं हीरे-मोती भी।
कठोर सच! मानव मानव बनने की होड़ में मानव छोड़ सब कुछ बना यथा नेता-अभिनेता, क्रेता-विक्रेता, कवि-लेखक, स्वामी-सेवक और बहुत कुछ........