सबसे अधिक सुंदर और पवित्र
सबसे अधिक सुंदर और सबसे अधिक पवित्र आखिर क्या हो सकता है इस संसार में?
सबसे अधिक सुंदर और सबसे अधिक पवित्र आखिर क्या हो सकता है इस संसार में?
मैं जहाँ होता हूँ पता नहीं चलता वहाँ कोई और है या नहीं जो मुझमें हैं गुमसुम हैं
यदि मैं पथ भूल जाऊँ या पथ को नहीं हो स्वीकार मेरा चलना वह बना ले अपने को अगम्य अथवा कर दे तुझे घोषित अपांक्तेय
कब-कहाँ होता है मेरा आना-जाना ये तो पूछ किसके-किसके है खयालों में ठिकाना ये तो पूछहम न जीते हैं न जीतेंगे कभी शायद मगर चाहता है क्यों कोई हमको हराना ये तो पूछ
जब हम अपनी हवस में ऊँचा और ऊँचा उठने के लिए हवा में घोल रहे होते हैं–- जहर तब वह दिन में नीलकंठ की तरह उसका विष चूस रहा होता है ताकि हम बचे रह सकें–- जहरीली हवाओं से
हाँ, कहा था तुमको– मेरा दर खुला है खुला ही रहेगा तुम्हारे लिए तब मालूम नहीं था कि सप्तपदी में एक ऐसा भी विधान है जिसमें पाणिग्रहण से पहले वर-वधू से अपने-अपने पूर्व संबंधों को स्वाहा– कर कहा जाता है– ‘शुद्ध होने को!!’