छलावा
मन के हर दु:ख-दर्द को भीतर-ही-भीतर मोड़ती है औरतें एक छलावा ओढ़ती है औरतें
मन के हर दु:ख-दर्द को भीतर-ही-भीतर मोड़ती है औरतें एक छलावा ओढ़ती है औरतें
बह सकूँ वादियों में निस्सिम सी मैं बाँसुरी का राग हूँ मैं मन की वो आवाज़ हूँ सुबह की पाक
मेरे नाविक चलो वहाँ अब जहाँ नहीं हो कोई अपना, पर रुकना उस तट पर ही तुम जहाँ खड़ा हो मरुभूमि में
संपूर्ण समर्पण सा वज्र के लिए दधीचि होना मर्मान्तक पीड़ा सा दधीचि का वज्र होना... चलती हैं दोनों क्रियाएँ जन्म भर...! नियति बस हँसती है नियन्ता वो नहीं निर्भर करता…
हक़ीक़त में कमज़ोर तुम थे मैं नहीं, तुम समझ ना पाए कभी झूठ के फूस पर सुलगता ये अंगार काफ़ी है मेरे जीने के लिए
पके भोजन तक थी सपनों की दौड़ कबीलों में बसा आदमी प्रकृति के भयानक रूपों से डरता था मगर देश से प्यार करता था