आना फिर…!
सचकहीं कुछ भी नहीं थाबस हवा के पाँवपत्थर हो गए थेतड़पकर रह गए थे शब्दमन के हाशिये परकाँपते लब परछुटता-सा जा रहा था
सचकहीं कुछ भी नहीं थाबस हवा के पाँवपत्थर हो गए थेतड़पकर रह गए थे शब्दमन के हाशिये परकाँपते लब परछुटता-सा जा रहा था
वह जन्मेगा बार बार राजपथ की कंकरीली छाती चीर कचनार दूब की तरह!वह गाएगा क्योंकि गाना ही सभ्यता की
फूलों के परिधान पहन जब-जब सरहुल आता है माँदर, ढोल, नगाड़े बजते जंगल भी गाता है पाँवों में थिरकन, तन में सिहरन आँखों में ख्बाब!
मैं मौन हूँ, मैं खामोश हूँ, मैं चुप हूँ चराचर जगत डूबा गहन सन्नाटे में मैं अनंत शून्य हूँ आकाश समेटे धरा पर
अँधेरा कम नहीं होता हर सीटी खत्म करती है एक इंतज़ार धीरे-धीरे ऊँघने लगते हैंसभी सवाल निरूत्तर से!
लोग बन गए ठीक वैसा, जैसा वह चाहा पर उनकी परछाई बड़ी नहीं बनी, रही बौनी ही हंगामा फिर बरपा वह मुस्कुराया फिर हँसा ठठाके