रूप की बेड़ी

मेरा यही रूप मेरी लिए बेड़ी बन चुकी है दीदी। मन तो करता है अपने चेहरे को जला दूँ। जहाँ जाती हूँ, वहीं ताना सुनना पड़ता है।

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घरौंदे

मैं उसे आश्वस्त करती हूँ कि मेरा लहजा तंज का होता है–समय की प्रतीक्षा करो सोफिया, फिर एक दिन तुम ही कहोगी–‘यह क्या हो गया इस शहर को यहाँ भाँति-भाँति के जीव रहने लगे हैं।’ ‘कब तक–समय तेजी से बीत रहा है। जब सब कुछ बदल जाएग तब–’ उसने आज भी उतनी ही उत्सुकता से पूछा था।

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अगनहिंडोला (उपन्यास अंश)

आने वाले मजलूमों में एक मारवाड़ से आया क्षत्रिय जय सिंह था। मारवाड़ इलाके में अकाल पड़ गया था। एक-एक काफिले बनाकर पूरब की ओर निकल आये थे, जय सिंह ने रोहतास में शरण पाई थी। उन्हें खेत मिला था फसलें उगाने को।

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स्वयंसिद्धा

जनवादी, समाजवादी, क्रांतिकारी कार्यकर्ता, तीन स्थानीय विद्यालयों के संस्थापक, महिला एवं बालोद्धार गैरसरकारी संस्था के अध्यक्ष - यानी कुल मिलाकर एक बहुआयामी सामाजिक व्यक्तित्व (नाम- सम्मान सिंह) सम्मान सिंह के…

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अनारो

यों तो नीलकंठ बाबू अपने गाँव की पूरी परिसंपत्ति बेचकर पक्के शहरी हो गये थे, पर गाँव के प्रति उनके मोहग्रस्त भावसूत्र टूटे नहीं थे। हम रोज प्रातःभ्रमण के बहाने…

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मंच

इधर लेखक की उद्विग्नता बढ़ती जा रही थी। कई रोज यूँ ही गुजर गए और वह कुछ लिख नहीं पा रहा था। जब भी लिखने बैठता राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याएँ उसे दबोचने लगतीं। वह चाहता भी था कुछ ऐसा ही लिखना, जिसमें तीनों समस्याएँ आ जाएँ। मगर कहानी का प्लाॅट?

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