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द्विज

प्रिय बेनीपुरी भैया,

प्रणाम। विज्ञप्तियों के साथ तुम्हारी चिट्ठी पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई, और उससे भी अधिक क्लेश हुआ। अपने अंतर के उसी क्लेश को अपने टूटे-फूटे शब्दों में पिरो कर, साथ वाले कागज में, तुम्हारे पास भेज रहा हूँ। उपयोग के योग्य समझो तो काम ले आओ। विज्ञप्तियाँ योग्य हाथों तक पहुँचा दूँगा।

मगर एक बात! तुम तो तूफान हो। जोर से उठते हो, हड़कम्प मचा देते हो और फिर कुछ दिनों के बाद शांत। मैं चाहता हूँ कि नई धाराबहाते हुए तुम शीतल समीर बन जाओ और उत्तम मानवता को जीवन और जागृति से भरी हुई बौद्धिक एवं नैतिक शीलता का संदेश देते हुए अपने को, न केवल नई धाराका प्रतीक, बल्कि खुद नई धारा ही बना दो और, इस रूप में तब तक अबाध गति से चलते रहो जब तक रक्त पीने की चाट में लगी हुई मानव जाति उस से मुँह मोड़ कर साहित्यामृत पीने को सदा के लिए निश्चय न कर बैठे। तुम मर कर भी युग-युग जिओ।

जानते हो, इस बार की बिमारी में मैं मरते मरते बचा हूँ। मगर अब सब ठीक है आशा है, तुम भी सब तरह से प्रसन्न हो।

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