प्रगति

Murnau view with railway and castle by Wassily Kandinsky- WikiArt

प्रगति

ट्रेनें चला करती थीं देरी से
लाइनें होती थीं सिंगल
जब तक एक गाड़ी
दूसरे स्टेशन पर पहुँच न जाती
दूसरी वहाँ से नहीं आ सकती थी
शाम वाली गाड़ी
रात बारह बजे पहुँचती थी
मेरे गाँव
कभी उतर आते थे कोई मेहमान
आधी नींद में
जलाने लगती थीं दीदी चूल्हा
तृप्त होते थे मेहमान
यात्रा की थकान भूल
मीठे सपनों में खो जाते थे!

पिता जी रहने लगे थे शहर में
चूल्हे जलने लगे थे कोयलों से
घर में आ गया था स्टोव
खाना बनाने को नौकर था बहाल
दोहरी हो गई थीं लाइनें
गाड़ियों की संख्या बढ़ गई थी
बसें भी चलने लगी थीं ज्यादा
समय से पहुँचने लगे थे मेहमान
माँ झल्ला जाती थीं
आने वालों पर
नौकर पर उतारने लगती थीं
गुस्सा अपना
आने वाला गटकता था खाना
और करवटें बदलते हुए
सोचता रहता था रातभर–
कल सुबह अपना सामान उठाकर
वह जा सकता है
अपने किस ग्रामीण के यहाँ?

हम रहने लगे हैं महानगर में
पहुँचने लगी है गैस
पाइप से हमारे घर
सिलिंडर के खाली होने का भी
कोई खतरा नहीं रहा!
उड़ने लगे हैं विमान हर पल
दौड़ने लगी हैं राजधानियाँ, शताब्दियाँ
पटरियों पर कुहरा न हो तो
पहुँच ही जाती हैं अमूमन समय पर।
आने वाले कर ही लेते हैं खाना-नाश्ता
ट्रेन पर, विमान पर
वापसी का टिकट रहता है उनकी जेब में
बस उन्होंने न करवाया हो बुक
होटल में कोई कमरा
तब क्या हो सकता है
हमारे घर का दृश्य?
पाठगण!
इसे बूझने के लिए
लाल बुझक्कड़ होना
कतई जरूरी नहीं!


Image: Murnau view with railway and castle
Image Source: WikiArt
Artist: Wassily Kandinsky
Image in Public Domain