ऋणजल धनजल : बावजूद जीवन
- 1 April, 2019
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ऋणजल धनजल : बावजूद जीवन
रेणु की रचनाएँ घुप्प अँधेरे में भी रोशनी की तलाश कर लेती हैं, मृत्यु उपत्यका में भी जीवन-राग को खोज लेती हैं, जब चारों तरफ कोई उम्मीद नजर नहीं आती उस विषम माहौल में भी मनुष्य की जिजीविषा को अतल गहराइयों से उम्मीद की नाजुक किरणें खोज ही लाती हैं। मानवता का पूरा इतिहास मनुष्य के इसी जिजीविषा का इतिहास है। विषम-से-विषम परिस्थितियों में भी अवसाद को चुनौती देते हुए जीवन को बचा लेना और जीवन की गति को आगे ले जाना ही मनुष्य की अदम्य जिजीविषा का परिचायक है। रेणु मूलतः मनुष्य जाति की विलक्षण देन जिजीविषा के रचनाकार हैं और रेणु यह जिजीविषा लाते हैं उत्सवधर्मिता से। सब कुछ के बावजूद मनुष्य जाति का उत्सवधर्मी मिजाज। ‘ऋणजल धनजल’ रिपोर्ताज में हम रेणु की इन विविधताओं को यहाँ से वहाँ तक देख सकते हैं।
बाढ़ एक समस्या है जिनसे कई अरसों से निजात पाने का असफल प्रयास किया जाता रहा है। सफलता के नाम पर आज भी गिने-चुने डैम और तटबंध दिखाकर बाढ़ से अब निजात पा ली गई है, जैसी बातें प्रायः चुनावी सभाओं के भाषणों के मुद्दे होते हैं। यह कहना कि बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है यह बहुत हद तक सही है। इसे झुठलाया नहीं जा सकता। पर यह भी नहीं कहा जा सकता है कि बाढ़ जैसी आपदाओं से बिल्कुल ही लड़ा नहीं जा सकता है। इस प्रकार के प्रकोप के लिए कुछ ख़ास जगह हैं जहाँ प्रत्येक वर्ष लोगों को दोहरी जिंदगी जीने पर मजबूर होना पड़ता है। आज भी घर बाँस के लट्ठे के सहारे टँग कर असाढ़, सावन, भादो का इंतज़ार करती है। जब मैं दोहरी जिंदगी जीने की बात कहता हूँ तो मेरा आशय साल में दो बार घर बनाने का है। यह महज एक समस्या ही नहीं वर्षों से लग जाने वाली आदत भी है। नेपाल से चलने वाली कोशी के आतंक को कौन भूल सकता है? लोगों ने भले ही इसे शोक नदी कहा है पर ‘रेणु’ द्वारा रचित साहित्य में इसे शोक नहीं ‘डायन कोशी’ कहा गया है। शोक कुछ दिनों का होता है जो आकर चला जाता है। डायन वह व्याधि है जो वर्षों अपना अड्डा जमाकर रखती है और चढ़ावे के नाम पर ले जाती है सैकड़ों दूध-मुँहा बच्चे से लेकर वृद्ध तक की जिंदगी। बथान भी, नंदनी जैसी गायें और बहादुर पालतू जानवरों से बिल्कुल खाली होता है। बच जाने वाले लोग दर-दर भटककर, हाथ फैलाकर जो कुछ अर्जित करते हैं वही उनके लिए आगे जीवन-जीने का साधन होता है। इसी बाढ़ की तरह सरकारें आती जाती रहती हैं। वोट लेना यहाँ की भोली-भाली जनता से बहुत ही आसान है। बाढ़ निवारण जैसी बातें वे अपने साथ जरूर लाते हैं। लोग कोशी के आतंक से भय खा जाते हैं। इन समस्याओं के निवारण इन नेताओं के भाषणों में न होता है और पार्टी की जीत पक्की। बाढ़ आई-गई, सरकारें आईं और चली गईं। बचा रह गया तो सिर्फ डायन का प्रकोप।
बात ‘ऋणजल धनजल’ की नहीं है। बात बाढ़ और उसके तांडव की भी नहीं हैं। बात पटना में आए बाढ़ और लोगों के अंदर की दहशत की भी नहीं है। बात यह है कि रेणु ने जिस बाढ़ को देखा, भोगा वह आज भी लगभग वैसी ही है। उस समय भी समाधान के नाम पर रिलीफ था और आज भी। बाढ़ में जानवरों की वेदना, भूख से तड़पते-चिल्लाते इनसान तथा रिलीफ बाँटते सरदारों के जत्था आज भी वैसा ही है जिन्होंने खुली छत पर भींगते हुए कई दिन गुजार रहे लोगों की ऐंठन को शांत किया था। ऐसे लोगों तक राहत सामाग्री को लेकर जाना लोगों की भूख को शांत करना सही मायने में राष्ट्रभक्ति से कम नहीं है। कवि, कलाकारों, पत्रकारों ने भी खुद को मानव बने रहने का परिचय दिया और लोगों को जद्दोजहद से बचाया। यह बात भी उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है। बात उस बक्से में पड़े दो बच्चे की भी नहीं है जिसे तंग आकर माँ ने अपने कलेजे को मजबूत कर पानी की तेज धारा में प्रवाहित कर दिया था। प्रकृति के ऐसे मंजर को बिहार ने कई बार देखा और भोगा है। यहाँ के लोग इसके आदी हैं। अगर बात है भी तो इतनी सी कि सत्ता और विपक्ष कहाँ है? उनकी भोली-भाली जनता कहाँ है? नौका विहार करने वाले सेठ कहाँ हैं? कैमरे से शौकिया तस्वीर लेने वाली महान आत्मा कहाँ हैं? बोट में तैरते युवक-युवती कहाँ हैं? ऐसे संपन्न लोग आज भी यहीं हैं। फिर सवाल उठता है कि आज कोशी के तांडव झेलने वाले लोग कहाँ हैं और कैसे हैं? किस हाल में है? इसकी तहकीकात जरूरी है।
‘ऋणजल धनजल’ जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इस रिपोर्ताज में जीवन की दो अलग-अलग भीषण समस्याओं का उल्लेख ‘रेणु’ ने किया है। 1967 में पटना शहर में आई बाढ़ का रेणु ने आँखों देखा हाल बयाँ किया है। जैसा कि रेणु ने खुद कहा है कि मैं बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में रहा जरूर हूँ पर कभी भोगा नहीं हूँ। रिलीफ बाँटने का काम मैंने जरूर किया है। इस रिपोर्ताज का प्रारंभ ‘धनजल’ से होता है। इसे भी रेणु ने अलग-अलग अध्यायों में बाँटकर अलग-अलग शीर्षक रखा है। यह अध्यायीकरण काफी रोचक है। अध्याय इस बात का प्रमाण भी देता है कि बाढ़ आने से पूर्व किस प्रकार का माहौल तैयार हो जाता है। प्रथम अध्याय का शीर्षक ‘कुत्ते की आवाज’ है। दूसरे अध्याय का शीर्षक है ‘जो बोले सो निहाल’ तीसरे अध्याय को उन्होंने ‘पंछी की लाश’ नाम दिया है, वहीं चौथे अध्याय का नाम ‘कलाकारों की रिलीफ पार्टी’ है। अंतिम अध्याय का शीर्षक है ‘मनुष्य बने रहो’।
बात 1967 की है जब पटना शहर बाढ़ से घिर गया था। यह पहली बार पढ़ने को मिला जब रेणु जी लिखते हैं कि बाढ़ के आने का संदेश सुनकर लोगों में काफी उत्साह है। लोग घर से निकलकर बाढ़ देखने और अपने आस-पड़ोस में पानी आ जाने का इंतज़ार कर रहे हैं। खुद लेखक रिक्शा पर बैठकर बाढ़ को देखने निकले हैं। शायद इस बार किसी शहरी बाढ़ को देख लेने की जिज्ञासा उनके मन में हो। बाढ़ जैसी विभीषिका का उल्लेख उन्होंने अपनी कई रचनाओं में किया है। पर उत्साह का ऐसा वर्णन पहली बार किया गया है। ‘ऋणजल धनजल’ का प्रारंभ ही वे उस दहशत से करते हैं जिसका स्वरूप वाकई बहुत भयावह है। रेणु जी इस रिपोर्ताज में कोशी क्षेत्र की बाढ़ का उल्लेख करते हैं जिसमें बाढ़ के चले जाने का दृश्य है, जिसे पढ़कर लोगों की आँखें कौंध जाती हैं। वह दृश्य सचमुच बहुत ही डरावना हैं। ‘कोशी, पनार, महानंदा और गंगा की बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह यहाँ आकर पनाह लेते हैं, ‘सावन भादो’ में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट धरती पर गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरों के हज़ारों-हज़ार झुंड-मुंड देखकर ही लोग बाढ़ की विभीषिका का अंदाजा लगाते हैं।’ यह बाढ़ का आतंक है जिसे रेणु ने रिलीफ बाँटकर महसूस किया है।
जल प्रलय के दौरान सबसे बड़ी दुर्गति उन जानवरों की होती है जो पूर्ण रूप से पालतू नहीं होते हैं। पालतू जानवरों के लिए कुछ-न-कुछ व्यवस्था जरूर की जाती है। आज जब पटना शहर में बाढ़ का पानी पहुँचने वाला है, चारों ओर बाढ़ की चर्चा हो रही है। लोग बाढ़ से निपटने के लिए सामग्री इकट्ठा कर रहे हैं, उत्साह और मातम के बीच ‘रेणु जी’ ने भी ईंधन, आलू, मोमबत्ती, दियासलाई से लेकर सिगरेट तक की व्यवस्था कर ली है। लेखक इस बात से आशंकित हैं कि बाढ़ समाप्त होने से पहले रसोई गैस न समाप्त हो जाय। यह सोचना किसी भी चेतनशील मानव के लिए जरूरी है, ख़ासकर कोशी के कलरव को देखने वालों के लिए यह आम बात है। रेणु जी मानव से भी कहीं ज्यादा मनवेतर प्राणी को लेकर चिंतित हैं। उनकी यह चिंता जायज भी है। कई मायने में यह लेखक की संवेदना और उनके प्रति सरोकार को दिखाता है। बाढ़ का आतंक सबसे ज्यादा कुत्ते जैसे जानवरों को सहना पड़ता है। यह उनके लिए मौत का तांडव बनकर आता है। आज जब यह जानवर सामूहिक रूप से रुदन कर रहा है तब यह अनुमान लगाया जा सकता है कि न सिर्फ बाढ़ आएगी बल्कि इनकी जीवन-लीला भी समाप्त होने वाली है। गँजेरी-भँगेरी का समूह सोट मारकर मस्त हैं। उन्हें इस बात का बिल्कुल भी फिक्र नहीं है कि दुनिया रहे या न रहे। उनकी अपनी दुनिया है जो रोज ही बनती है। इस संकट की घड़ी में भी कुत्ते को रपट कर तो चुप करा दिया जाता है पर उसके आंतरिक कलह को नहीं। पटना शहर के लोग बाढ़ को जरूर देख लेना चाहते थे पर उन्हें यह अंदाजा भी नहीं था कि बाढ़ अपना कहर इस प्रकार से ढाएगी। रेणु जी ने अर्द्धनिर्मित भवन में शरण लेने वाले फुटपाथी का उल्लेख जिस प्रकार से किया है वह कहीं से भी पटना के जैसा नहीं दिखाई पड़ता है। सैकड़ों शरणार्थी जिनके घर घर न होकर झुग्गी-झोपड़ी होते हैं। रोजगार के रूप में रिक्शे होते हैं, जो आज चल नहीं सकता है। प्रत्येक दिन की कमाई ही रोटी का साधन होता है। बचाने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं होता है। गाँजे की लत ने न सिर्फ उन्हें बर्बाद किया है बल्कि उनके बच्चों को भी स्कूलों से दूर कर दिया है। उनके दुधमुँहे बच्चों ने इस भीषण घड़ी में दूध और आहार के लिए तड़पना शुरू कर दिया है।
इन दिनों जब यह कहा जाता है कि मनुष्य ने अपनी संवेदना गिरवी रख दी है, एक दूसरों की मदद के लिए बढ़ने वाले हाथ गिने-चुने बच गए हैं। आज यह और भी अधिक देखने को मिलता है पर रेणु ने अपने समय में ऐसे लोगों को भी देखा था, जो संकट की घड़ी में भी एक दूसरे का काम न आकर बदले की आग में जलने लगते हैं। दूसरे को कष्ट में देखकर खुश होते हैं, ‘जब दानापुर डूब रहा था तो पटनियाँ बाबू लोग उलटकर देखने भी नहीं गए अब बूझो!’ संकट में एक दूसरे का सहारा न बनकर प्रतिरोध का यह स्वर बहुत ही खतरनाक है। इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता है कि ‘रेणु’ को पढ़ते हुए मानस पटल पर वही कोशी का क्षेत्र और उस क्षेत्र में जीवन वसर करने वाले लोगों का विकराल जीवन आँखों के सामने कौंध जाता है। ‘ऋणजल धनजल’ में वे पटना में आए बाढ़ के बहाने कोशी क्षेत्रीय बाढ़ को भी इंगित करते जान पड़ते हैं। पटना के लोग आतुर हैं बाढ़ देखने को। नौका विहार की तैयारी भी गाजे-बाजे के साथ जल क्रीड़ा के लिए किए जा रहे हैं। उनके लिए यह एक उत्सव है। एक वर्ग पटना में रहते हुए भी बाढ़ से हताहत है। वे पटना के लोग नहीं बल्कि बाहर से आकर पटना में जीवन-बसर करने वाले लोग हैं।
‘रेणु जी’ लिखते हैं कि ‘1967 में जब पुनपुन का पानी राजेन्द्र नगर में घुस आया था, नाव पर कुछ सजे-धजे युवक और युवतियों की एक टोली–टोली किसी फिल्म में देखे हुए कश्मीर का आनन्द घर बैठे लेने के लिए निकली थी। नाव पर स्टोव जल रहा था। केतली चढ़ी हुई थी, बिस्कुट के डिब्बे खुले हुए थे, एक लड़की प्याली में चम्मच डालकर एक अनोखी अदा से नेसकैफे के पाउडर को मथ रही थी–एस्प्रेसो बना रही थी। शायद दूसरी लड़की बड़े ही मनोयोग से कोई सचित्र और रंगीन पत्रिका पढ़ रही थी। एक युवक दोनों पाँवों को फैलाकर बाँस की लग्गी से नाव खे रहा था। दूसरा युवक पत्रिका पढ़ने वाली लड़की के सामने अपने घुटने पर कोहनी टेककर कोई मनमोहक डायलॉग बोल रहा था। पूरे वॉल्युम में बजते हुए ट्रांजिस्टर पर गाना आ रहा था–‘हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का, हो जी, हो जी।’
यह मनोरंजन की दुनिया उस दुनिया (खुली छत पर शरण लेने वाली) से बिलकुल भिन्न है। बाढ़ किसी के लिए मनोरंजन का साधन बनता है तो वहीं किसी के लिए अभिशाप। इन दोनों ही स्थितियों का उल्लेख हमें इस रिपोर्ताज में मिलता है। नाव के अभाव में जहाँ कई परिवार तबाह हो जाते हैं वहीं कुछ लोगों के लिए नाव मनोरंजन का साधन बन जाता है। ‘रेणु’ ने ‘पक्षी की लाश’ शीर्षक रिपोर्ताज में जिस ग्रामगीत का उल्लेख किया है वह सचमुच हृदय विदारक है। ‘सावन भादो’ में नव विवाहिता मायके लौट आती है। यह परंपरा आज भी ग्रामीण-जीवन में जीवित है। इस परंपरा का संबंध बाढ़ से ही है। समय से मायके लौट जाना बहुत जरूरी होता है। असमय लौटने पर कई प्रकार की आशंका बनी रहती है। नदी-नाले में जब जल-स्तर बढ़ने लगता है तब नदी पार करना काफी दुष्कर हो जाता है। नीचे जिस गीत का उल्लेख किया जा रहा है उसमें एक भाई अपनी बहन को ससुराल से लेकर मायके जाने के लिए कोशी कछार पर खड़ा है। नाव का इंतज़ार करके थक सा गया है। हारकर वे कुश, खर और केले का थम से पार उतरने के लिए एक कामचलाऊ नाव तैयार करता है। पर यह उपाय बहुत कारगर नहीं होता है, परिणामस्वरूप बहन को अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ता है–
‘कटि गेल कासी-कुशी छितरी गेलै थम्हवा
खुली गेलै मूँज केर डोरिया–रे सुन सखिया
बिचहि नदिया में आइले हिलोरवा
छूटि गेलै भैया केर बहियाँ–रे सुन सखिया
डूबी गेलै भैया केर बेड़वा-रे सुन सखिया!’
डूबती हुई बहन अपने माँ, बाप को यह संदेश देते हुए कहती है कि किसी बेटी को सावन भादो के समय नैहर बुलाने में कभी देरी नहीं करें। अगर देरी हो जाय तो जामुन पेड़ कटवाकर नाव बनाकर ही बेटी को लेने आए। नहीं तो न आए। यह एक त्रासदी है नाव के अभाव में कोशी के कोख में समाती हुई बेटियों की। जो आज भी देखने-सुनने को मिल ही जाती है। यहाँ दो भिन्न स्थितियाँ हैं, एक नाव पर साजो-सामान लेकर नौका विहार में लगे हैं वहीं दूसरी ओर नाव के अभाव में अपना जीवन स्वाहा करते हुए आम लोग हैं। रेणु ने जिस अनुभव और राग से बाढ़ के आँखों देखा हाल बयाँ किया है वह शायद ही किसी लेखक के लिए संभव हो पाता। ‘समग्र मानवीय दृष्टि’ नामक आलेख में निर्मल वर्मा लिखते हैं कि ‘रेणु ने बहुत निकट से मनुष्य की पीड़ा, मजबूरी और गरीबी को देखा था, इसलिए वह उसके साथ कोई सैद्धांतिक खिलवाड़ नहीं कर पाते थे। साहित्य में वह ऐसी उम्र में आए थे जब अनेक लेखक बहुत सी किताबें लिख चुके होते हैं। वह अपने साथ अनुभवों की पूरी संपदा लेकर आए थे।’ निर्मल वर्मा का कथन बिल्कुल सही जान पड़ता है।
रेणु ने इस रिपोर्ताज में अलग-अलग मानवों के भिन्न-भिन्न समस्याओं का उल्लेख किया है। बाढ़ ने जब पटना के अलग-अलग इलाकों में अपना कहर ढाना शुरू किया तो देखते-ही-देखते जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया। पटना के आकाशवाणी से प्रसारित किए जाने वाले समाचार से लोगों का संपर्क टूट गया। नीचे के कई हिस्से जलमग्न हो गए। कहीं-कहीं पहली मंजिल तक पानी भर गया। घर के लोग घर में ही कैदी बनकर रह गए। कोशी क्षेत्र के रेणु ने जिस प्रकार से इस बाढ़ का उल्लेख किया है उससे यह लगता है कि वाकई बाढ़ बहुत भयावह रही होगी। पानी के बहाव के साथ मृत पशुओं में गाय, भैंस, सूअर और कुत्ते देखे जा सकते थे। कुत्ते ने बाढ़ से लड़ते हुए अपनी जान दे दी है, अर्थात बचाव के सभी दरवाजे उनके लिए बंद हो गए थे तभी उसने मौत को स्वीकार किया। ‘रेणु’ लिखते हैं, ‘दोनों ओर से तेज धार गुजर रही है। पानी चक्राकार नाच रहा है, अर्थात दोनों ओर गड्ढे गहरे हो रहे हैं। विवश कुत्तों का सामूहिक रुदन, बहते हुए सूअर के बच्चों की चिचियाहट, कोलाहल कलरव, कोहराम।’
प्रकृति का ऐसा मंजर पटना शहर ने इससे पहले कभी नहीं देखा था। लोग रात-दिन सो नहीं पा रहे थे। उन्हें भय है कि आसमान में जो काले-काले बादल मँडरा रहे हैं, वह आज कहीं पटना के लोगों की जीवन-लीला को ही समाप्त न कर दे। अब जब शहर पूरी तरह से क्षत-विक्षत हो गया है, ऐसे में दिल्ली ने भी अब इनकी सुधि ली है। राहत और बचाव कार्य किए जा रहे हैं। राहत के नाम पर मिलने वाली सामग्री में जहाँ कुछ लोग विदेशी ब्रेड न मिलने से खफा हैं वहीं किसी के हिस्से सूखी रोटी भी नसीब नहीं। चारों ओर बंदरबाट मची हुई है। जिसे फौरन राहत की जरूरत है उन तक राहत नहीं पहुँच पा रही है। जिसे बिल्कुल जरूरत नहीं वह राहत की सामाग्री पाकर भी नाखुश है और सरकार को गलिया रहे हैं। मानव के इसी दानवीय रूप को देखकर रेणु ने इस अध्याय का शीर्षक रखा ‘मानव बने रहो।’ यह शीर्षक बहुत कुछ बयाँ करता है। राजधानी होने के नाते बचाव कार्य तेजी से किया जा रहा है। सरदारों ने हमेशा की तरह आज भी सबसे पहले आगे आकर लोगों तक खाद्य सामग्री पहुँचाना शुरू कर दिया है। इन्होंने बिहार के 2008 तथा 2017 के ऐसे हालात में मानव बनकर लोगों की सेवा की है। हाल ही में केरल में आए आपदा में भी ये लोगों का मसीहा बने। पटना के इस बाढ़ में कवि, कलाकारों द्वारा किए गए कार्यों का भी उल्लेख रेणु जी ने किया है। यह विचारणीय है कि पटना जैसी जगहों पर जब बाढ़ राहत देर से पहुँचा करती है तो दूरस्थ क्षेत्र का क्या होता होगा? यह अनुमान ही लगाया जा सकता है। यह कम दुखद नहीं है जब बाढ़ में बहते लोग सर्प के साथ एक ही पेड़ पर शरण ले रहे होते हैं। यह दृश्य कल्पना से भी परे है। प्रायः यह कहा जा सकता है कि बिहार के आधे हिस्से को बाढ़ ने भी बेकार बनाया है। बाढ़ के बाद मुआवज़े के तौर पर सरकारों द्वारा दी जाने वाली रियायत घपलेबाजी से खाली नहीं होती है। आम जिंदगी जहाँ इस लाभ से वंचित रहती है वहीं संपन्न लोगों के घर लाभ का बहुत बड़ा हिस्सा दस्तक देता है।
रेणु ने रिपोर्ताज विधा को एक नई ऊँचाई प्रदान की। रेणु पहले लेखक हैं जो पीठ पर वायरलेस, एक हाथ में बंदूक तो दूसरी हाथ में कलम लेकर रिपोर्ताज लिख रहे थे। ‘नेपाली क्रांति-कथा’ सिर्फ नेपाल मुक्ति आंदोलन की गाथा मात्र नहीं है बल्कि यह ‘नेपाली क्रांति-कथा’ बहुत हद तक रेणु की कथा को बड़ी संजिदगी से कहती है। नेपाल में समाजवाद की स्थापना हो, नेपाल-भारत मैत्री संबंध सुदृढ़ हो इसी मोह ने रेणु को एक क्रांतिकारी योद्धा बना दिया था। ऐसे ही कई और रिपोर्ताज हैं, जो मानवीय संघर्ष का आँखोंदेखा हाल बयाँ करता है। आंचलिक साहित्यकार जब भारत-आस्ट्रेलिया के बीच क्रिकेट मैच तथा चीन-भारत के युद्ध पर रिपोर्ताज लिखता है तो यह उनके व्यापक दृष्टि को भी रेखांकित करता है। रेणु का रिपोर्ताज सहानुभूति का साहित्य नहीं है यह बहुत हद तक स्वानुभूति का साहित्य है। ‘ऋणजल धनजल’ में वे लिखते हैं कि ‘दस वर्ष की उम्र से मैं पिछले साल तक स्काउट बॉय, स्वयंसेवक, राजनीतिक, कार्यकर्ता अथवा रिलीफ वर्कर की हैसियत से बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों में काम करता रहा हूँ।’ रेणु का यह मानवीय सरोकार एक मिसाल है आज के लेखक और कलाकार वर्गों के लिए। इन वर्गों में आज संवेदना की कमी दिखाई पड़ने लगी है।
‘ऋणजल धनजल’ के अलावा भी उन्होंने कई रिपोर्ताज ऐसे लिखे हैं जो आज भी समाज को आईना दिखाते हैं। कहानी और उपन्यास में भी उसी मानवीय जीवन का चित्रण है जो रिपोर्ताज में है। ‘हड्डियों का पुल’ और ‘विदापद नाच’ आज भी लोगों को भयभीत करता है। ‘विदापद नाच’ के बिकटा जैसे पात्र का प्रतिरोध चेतनशील मनुष्य के लिए एक प्रकार से प्रतिकार है। जब वे कहते हैं कि ‘मुझे पीटकर बेकार समय बर्बाद किया जा रहा है। जमींदार के जूते खाते-खाते मेरी पीठ की चमड़ी मोटी हो गई है।’ आज जब दलित साहित्य स्वानुभूति और सहानुभूति के बीच उलझकर दिग्भ्रमित हो रहा है ऐसे में रेणु द्वारा ‘विदापद नाच’ में कही गई सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता है। ‘धनजल’ में रेणु ने पटना में आए बाढ़ का जिस प्रकार से उल्लेख किया है वह आज की पीढ़ी को भी दहशत में डाल देता है। यह रिपोर्ताज तब तक प्रासंगिक बना रहेगा जब तक यह समस्या कायम रहेगी। बाढ़ आने पर खिलते-मुस्कुराते कुछ चेहरे होंगे।
भात खाए कई दिन हुए, बात 1966 की है। दक्षिण बिहार की कोखजली धरती का दर्शन करने ‘दिनमान’ के संपादक और यायावरी मित्र ‘अज्ञेय’ के साथ न चाहते हुए भी रेणु को जाना पड़ा। न चाहते हुए इसलिए कि रेणु उस समय अल्सर जैसे रोग से परेशान थे और न चाहते हुए भी जाना पड़ा। यह बहुत कम देखने को मिलता है जब एक ओर बिहार भारत के नक्शे में दाहर अर्थात पानी से घिरे रहने वाली जगहों के लिए सुमार हो और दूसरी तरफ सुखार का ऐसा मंजर जो लोगों को नर-कंकाल में तब्दील कर दे! यह दृश्य अंदर से झकझोर कर रख देता है। रेणु की रचनाओं में बाढ़ का उल्लेख जगह-जगह मिलता है। पर सुखाड़ का ऐसा हृदय विदारक वर्णन बहुत कम देखने को मिलता है। वे जहाँ एक ओर 1966 के प्रकृति के बे-रूखेपन को दिखाता है वहीं दूसरी ओर सत्ताधारी लोगों की काली करतूत और खोखलापन को भी दर्शाता है। इस अकाल के कई खलनायक हैं जो अलग-अलग ढंग से लोगों का शोषण करते हैं। राजनेता चिंतित है कि चुनाव में अब बहुत कम समय बचा है। लोगों को सुखाड़ जैसी समस्या से भटकाकर सांत्वना का निवाला खिलाकर चुनाव तक जीवित रखा जाए। यह उनके लिए भोली-भाली जनता है, जो हमेशा ही उनके लिए ‘यूज एंड थ्रो’ के काम आती है। जमींदार का क्या कहना वो सत्यनारायण की पूजा में मस्त हैं। उनके यहाँ बनने वाले पकवान से निकलने वाली खुशबू भूखे पेट सोने वालों के लिए आतंक जैसा है।
जिस प्रकार से चारों ओर अकाल जैसा मातम पसरा है और लोग इस समस्या को देखकर भी चुप्पी साधे हैं। उसे देखकर रेणु भयभीत हो जाते हैं। वे भी यह मान लेने को तैयार हैं कि यह कोई समस्या है ही नहीं। हमेशा से एक गंभीर लेखक बने रहने वाले रेणु का अंदाज बदल जाता है। वे व्यंग्यात्मक लहजे में कहते हैं–‘कौन कहता है सूखा पड़ा है? सरकार? सोशलिस्ट (प्रजा संयुक्त)? कम्युनिस्ट? काँग्रेसी? कौन बोलता है? कोई मिनिस्टर? कोई जनता का सेवक? ऑल फ्रॉड।’ वाकई सब फ्रॉड हैं। भोली-भाली जनता ने जनप्रतिनिधि को जनसेवक न समझकर राजा मान लिया है। राजधानी इन समस्याओं से बेफिक्र है। उनके यहाँ दिवाली शान से मानाई जा रही है। पटाखों की गूँज सुखाड़ जैसी समस्या को खारिज करती जान पड़ती है।
संवेदनशील कवियों और लेखकों की टोली इस मंजर को देखने कैमरे के साथ निकल पड़ते हैं। बोधगया से शुरू कर नवादा की ओर जाते हुए उन्हें कई ऐसे दृश्य देखने को मिले जो भयभीत कर देने वाले थे। घास काढ़ने वाली औरतों की दशा, ऊसर खेत में हल के साथ पर्वत तोड़ परिश्रम करते किसान…सब में निराशा का भाव था। रेपुरा सिरहा का एक किसान जब यायावरी मित्रों से प्रश्न करते हुए पूछता है, ‘क्या देखने आए हो? यह सूखा?… ऐसा कभी नहीं हुआ लेकिन हमलोग लड़ रहे हैं। थोड़ा सा पानी पड़ा है। और बाकी कूप-कुआँ से जहाँ तक हो सके आदमी जान रहते तो हिम्मत नहीं हारेगा। अब भगवान की मर्जी। अच्छा तो परनाम।’ प्रकृति के साथ लड़ने का अदम्य साहस शायद किसान ही कर सकता है। आज भी इनकी लड़ाई जारी है आज भी इनके गले फाँसी के फंदे होते हैं। तब तो प्रकृति की मार थी आज प्रकृति और सत्ता दोनों की। आगे जिस गाँव की समस्या और भुखमरी का उल्लेख रेणु जी ने किया है वह आज भी मानवता को तार-तार कर देता है। केदारनाथ अग्रवाल की वह कविता आँखों के सामने कौंध जाती है जब वे कहते हैं कि–
‘बाप बेटा बेचता है, भूख से बेहाल होकर
धर्म धीरज प्राण खोकर हो रही अनरीति बर्बर
सारा राष्ट्र देखता है
बाप बेटा बेचता है।’
रेणु जी गाँव का हाल-चाल एक बूढ़ी औरत से लेते हैं। वह पूछते हैं कि ‘पक्के क कुछ नअ हउ–त ई बचवा सब की खइतउ? की गे-तोर की नाम हौ? बोल ना, लजावे है काहे? ई लड़का केक्कर है?…बीमार है?…भुक्खल है, खाए बिना एकर एइसन दसा…ओ…।’ गाँव की हालत बहुत बदतर है। जो पहले ऐसा नहीं था। सेठ-साहूकार खुश हैं। उन्हें इसका बहुत बड़ा फर्क नहीं पड़ रहा है। किसान हड्डी गलाकर और चाम जलाकर अन्न तो उगाता है पर अकाल के समय उनके हिस्से में खेसारी खाने को ही लिखा है, वह भी अब नदारद। वहीं मालिक के घर सत्यनारायण कथा में पूड़ी, बुँदिया और जलेबी की धूम मची है। उस समय पैदा हुए बच्चे आज भी अकालू, सुखासी जैसे नाम से संबोधित हैं। भूख और पेट की ऐठन को न सह पाने के बाद मरते-तड़पते बच्चों के लिए चोरी करना कोई गुनाह करना नहीं लगता है। पर जमींदारों का ऐसा आतंक है कि वह चोरी भी नहीं कर सकता है। उनके आतंक का हाल बयाँ करते हुए एक महिला कहती है–‘चोरी में पकड़ा देगा। डकैती में फँसा देगा। जेहल में देगा…जेहल में देगा, त उहे दे दो। जेलवा में खाए के त मिलतई? …हरू हरू गरीब के देखेवाला को-य न-हीं…।’ यह दोहरी मार है जिसे मूकवधिर लोगों की टोली चुपचाप सहन कर रही है। बोलने के एवज में मिलता है जेल जाने की धमकी। अब इन नि:सहाय लोगों को जेल भी अच्छा लगने लगा है। मरुआ जैसे अनाज और करमी के साग को चबा-चबाकर खाने पर इनके आँत पर भी पेचिश ने हमला बोल दिया है। संवेदनशील लेखकों के लिए यह सब देखना असहनीय है। फिर से आने की बात तो करता है पर आने की हिम्मत नहीं जूटा पाता।
सरकार इन समस्याओं को लेकर कितना गंभीर है यह इन लेखकों के निरीक्षण से पता चलता है। सबको बचाने की कोशिश तो की जा रही है पर वे मरने से रोक नहीं पा रहे हैं। लाल कार्ड के बारे में पूछने पर गाँव वालों की मीठी हँसी बहुत कुछ कह जाती है। अगर कहीं मिला भी है तो दुकान में अनाज नहीं। इस सुखाड़ में रेणु ने गोरखधंधे का भी उल्लेख किया है जो चौंकाने वाला है। नेपाल और बंगाल में तस्करी कर चावल बेचे जा रहे हैं और जिनके हिस्से का चावल है वह भूख से तड़प रहा है। तत्कालीन सत्ता की ऐसी लापरवाही घोर निंदनीय है। सरकारी तंत्र इस अकाल को गायब कर देना चाहते हैं पर मानवीय जठरानल को शांत नहीं कर सकता है। अकाल की बातें कहने पर भी पाबंदी है। एक ओर जहाँ लोग पानी के अभाव में जिंदगी और मौत से लड़ रहे होते हैं, वहीं बाहर से आए हुए अधिकारी (जिन्हें सुखाड़ का सर्वेक्षण करना है) के लिए चिकेन, व्हिस्की और स्कॉच की कमी असहनीय है।
अकाल के इस चपेट में कई लोगों की जानें गईं। पता नहीं ये सब सरकार के रजिस्टर में दर्ज है या नहीं। रेणु इस रिपोर्ताज में लिखते हैं कि ‘24 जुलाई 1966 को सुखाड़ी महतो ने भूख-प्यास से डाल्टनगंज में दम तोड़कर भुखमरी की घोषणा कर दी। 26 जुलाई को सुखदयाली भुईयाँ। 27 को जितन भुईयाँ!… मन्नू माँझी की औरत। एक अज्ञात व्यक्ति…एक औरत…एक बच्चा।’ यह सब आजाद भारत में होता रहा और राजधानी (पटना) बाबू लोगों के लिए चिकेन और व्हिस्की के कम होने की समस्या झेल रही होती है। इस दारुण दशा में लोग जिंदा मात्र हैं। यायावरी मित्रों को यह अंदेशा भी है कि जब हम यहाँ दुबारा आएँगे तो हो सकता है कि यहाँ कोई न हो। जो बच भी गया वह शायद ही होगा, क्योंकि कुपोषण उन्हें असमय ही बूढ़ा बना देगा। रेणु जी लिखते हैं कि ‘कही एक चुटकी चावल है न गेहूँ। लू की लपट में सारे प्रदेश की हरियाली झुलस रही है। भूख की ज्वाला में लाखों लोग जल रहे हैं। जिन घरों को धान-चावल का भंडार कहा जाता था उस गाँव में कई सप्ताह से चूल्हे नहीं सुलग रहे हैं। कच्चे आम, कटहल, जंगली कंद और करमी का साग भी अब मयस्सर नहीं। भूखों की बिलबिलाती टोलियाँ कस्बों और शहरों की ओर बढ़ रही है।’ हमदर्दी जताना वर्तमान खाद्य मंत्री के लिए आसान है पर हमदर्दी से पेट की ज्वाला नहीं मिटती है।
‘दिनमान’ साप्ताहिक में यह रिपोर्ताज धारावाहिक रूप में लोगों के बीच आता है। रेणु की यह अद्भुत कृति गवाह है पटना की बाढ़ और दक्षिण बिहार के सुखाड़ का, वहीं दूसरी ओर सत्ता में बैठे लोगों की मनःस्थिति और उनके काले करतूत का भी। वे मनुष्य बने रहने पर बल देते हैं। वर्तमान में जिस प्रकार से गाँव और शहर के बीच एक अंतर दिख रहा है उस ओर भी रेणु की यह रचना संकेत करती है।
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Artist: Vasily Perov
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