आधी शताब्दी के विश्व-साहित्य की रूपरेखा

आधी शताब्दी के विश्व-साहित्य की रूपरेखा

बीसवीं सदी के इन पचास वर्षों का इतिहास शोषण, संघर्ष और क्रांति की कलम से लिखा गया है। फ्रांस की क्रांति में जनता ने जिस स्वर्णिम विहान का स्वप्न देखा था, वह चूर-चूर हो गया; वैज्ञानिक आविष्कारों ने तप्त मरु में जलती हुई मानवता को निर्झरिणी के जिस शीतल स्रोत की आशा दिलाई थी, वह साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के दुरुपयोग से मृगतृष्णा बन गई। महायुद्ध रूपी दो भीषण नरमेध इसी काल में संपन्न हुए जिन्होंने अमानुषिक बर्बरता में पिछले सारे कारनामों को मात कर दिया।

किंतु इसी काल में मार्क्स के साम्यवादी सिद्धांतों की आग से विश्व के एक कोने में क्रांति की मशाल जल उठी, जिससे समस्त दिशाएँ प्रोद्भासित हो उठीं और जिसने आधुनिक साहित्य पर गहरा प्रभाव डाला। इसी निविड़ अंधकार में शांति के अग्रदूत महात्मा गाँधी ने मानवता का जयघोष किया। इसी समय फ्रायड, हैवलोक और युंग जैसे अतलदर्शी मनोवैज्ञानिकों के यौन-सिद्धांतों से समाज और साहित्य में महान विस्फोट हुआ जिससे पुरानी मान्यताएँ सूखे पत्तों की तरह हवा में उड़ गईं।

इस काल का विश्व-साहित्य अनुपम है, इसमें नगपति हिमालय की ऊँचाई, असीम वसुंधरा का विस्तार और समुद्र की अतल गहराई है। यहाँ सर्व प्रथम समृद्ध और संपन्न अंग्रेजी साहित्य का सिंहावलोकन अपेक्षित है; क्योंकि इसने अपनी अपरिमेय सृजनात्मक शक्ति के द्वारा विश्व-साहित्य का नेतृत्व किया है।

यह संदेह और जिज्ञासा का उषाकाल था। बीसवीं सदी के प्रारंभ में महारानी विक्टोरिया इंगलैंड के सिंहासन पर अपने युग-साहित्यिकों के साथ आरूढ़ थी, रूडयार्ड किपलिंग अपनी कविता, उपन्यास और कहानी के द्वारा जर्जरित साम्राज्यवाद का चारण गीत गा रहे थे, जोर्जियन कवि अभी तक सौंदर्य, प्रेम और कल्पना की दुनिया में विचरण कर रहे थे। समस्त वातावरण शांत था पर भीतर ही भीतर प्रतिक्रिया की आग सुलग रही थी, जो थोड़ी ही देर में परिलक्षित होने लगी। पुरानी मान्यताओं और विश्वासों की दीवारें ढह गईं और चारों ओर से प्रश्नों की बौछार होने लगी–ईश्वर और सृष्टि के संबंध में, स्वर्ग और नरक के संबंध में, जीवन और मृत्यु के संबंध में…। जबर्दस्त व्यंग्य लेखक और महान नाटककार जाज बर्नार्ड शॉ इस काल के युगपुरुष थे। उन्होंने फेबियन समाजवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया और रूढ़िवाद की कटु आलोचना की। नार्वेजियन नाटककार इब्सन के समस्या-नाटकों से प्रभावित होकर शॉ ने नाटकों को ही अपने विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, जिससे युगों की निष्क्रियता के बाद अँग्रेजी रंगमंच का पुनरुत्थान हुआ। रेनांस के ईसा के जीवन का अनुवाद और हार्डी के उपन्यासों ने ईसाई धर्म के प्रति घोर अनास्था का भाव उत्पन्न कर दिया। फिर भी आशा और उमंग की लहरें प्रथम महायुद्ध के पहले विलीन न हो सकीं, आर्नल्ड बेनेट ने सफल और संपन्न पूँजीपतियों की आँखों में स्वप्निल मादकता उड़ेल दी और एच. जी. वेल्स ने वैज्ञानिक रोमांस के द्वारा नई दुनिया की झाँकी दिखलाई।

महासमर के उपरांत यूरोप के जीवन में एक निस्सार खोखलापन आ गया था, जीवन के प्रति विश्वास ही नष्ट हो गया था। उनके स्वरों में घोर निराशा थी। इस काल के साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है–इसका प्रयोग। युग की अति बौद्धिकता से कला में अनेक वाद प्रसूत हुए–अभिव्यंजनावाद, प्रतीकवाद सुर-रियलिज्म और प्रकृतवाद आदि। टी. एस. इलियट इस काल के प्रतिनिधि लेखक हैं, उनका ‘वेस्टलैंड’ नामक काव्य जर्जरीभूत और पतित सभ्यता का प्रतीक है।

पुन: साहित्य की मान्यताएँ बदलीं, जिनमें परंपरा के प्रति उदासीन मनोवृत्ति थी–न तो प्रेम और न घृणा ही। उपन्यास, कविता, नाटक और कहानी के भावपक्ष और कलापक्ष में परिवर्तन का ज्वार आया। नई पीढ़ी के कवियों ने राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक–सभी विषयों को साहित्य का क्षेत्र बनाया, जिससे “कला कला के लिए” के सिद्धांत की इतिश्री हो गई। रोबर्ट ब्रिज और जॉन मेसफील्ड अभी तक सौंदर्य और प्रेम के पुराने संगीत आलाप रहे थे, पर किसी का ध्यान उनकी ओर न गया। इस समय के प्रमुख कलाकार थे–डब्ल्यू. एच. आउडन, ऐजरा पाउंड, स्टीफेन स्पेंडर, एलडूअस हक्सले, डी. एच. लारेंस और जेम्स ज्वायस। उपरोक्त कलाकारों में न तो विषय की एकता थी और न शैली की। एक ही भावना उन्हें एक सूत्र में बाँधती थी, वह यह कि उन्होंने परंपरागत नैतिकता को अस्वीकार किया। लारेंस की उदार यौन-भावना और ज्वायस की टेकनीक इसका ज्वलंत उदाहरण है!

यूरोप के अन्य देशों में साहित्य की समृद्ध परंपरा है, फिर भी नार्वे और फ्रांस ने अपने सृजनात्मक साहित्य के द्वारा विश्व-साहित्य पर गहरा प्रभाव डाला। नार्वेजियन नाटककार हेनरी इब्सन ने अपने समस्या नाटकों के द्वारा प्रकृतवाद (नेचरलिज्म) के सिद्धांत का प्रतिपादन किया जिसकी अमिट छाप विश्व के नाटकों पर अंकित है। इसके अतिरिक्त नार्वे को के. हेमसन और सिगफ्रिड अंडसेट जैसे उपन्यासकारों की जन्मभूमि होने का श्रेय है।

महायुद्धों का क्षेत्र होते हुए भी संस्कृति के केंद्र फ्रांस में साहित्य का अभूतपूर्व विकास हुआ, जिसके फलस्वरूप अनेक वाद यहाँ की भूमि से प्रस्फुटित हुए। फ्रांस का साहित्याकाश अनातोले फ्रांस और रोमाँ रोलाँ रूपी चंद्र और सूर्य के साथ अनेक जाज्वल्यमान नक्षत्रों से सुशोभित है। हाल में पचास वर्षीय उपन्यास-लेखक जीन पॉल सार्त्र ने अस्तित्ववाद (Existentialism) के प्रतिपादन के द्वारा साहित्य-जगत में हलचल मचा दी है।

हिटलर के प्रादुर्भाव के पूर्व जर्मनी ने अनेक क्षेत्रों में साहित्य का नेतृत्व किया। रिलाईक इस सदी के अग्रगण्य कवि थे, जिनकी मृत्यु युद्धभूमि में हुई।

जी. हौंपटन ने प्रकृतिवादी नाटकों की रचना की और स्टीफेन जार्ज ने ‘कला कला के लिए’ के सिद्धांत पर कविताएँ लिखीं। रेमार्क का ‘आल क्यायट ऑन द वेस्टर्न फ़्रोंट’ शायद महायुद्ध का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है। किंतु नात्सीवाद ने राजनीति के कुटिल, हिंसक चरणों से पनपती हुई सुकुमार लता को रौंद डाला। द्वितीय महायुद्ध में जर्मनी ने दुनिया पर घोर जुल्म ढाया और अंत में अपने तलवार के घाव से खुद मर गया।

आधुनिक इटली ने साहित्य-जगत् को बेनेडेंटो क्रोचे के रूप में अमर विभूति प्रदान की है, जिनके अभिव्यंजनावाद का झंडा दुनिया के कोने-कोने में एक बार लहरा उठा था! उपन्यासकार ग्राजिया डेलेडा और नाटककार एल. पीरांडेलो को नोबेल पुरस्कार विजेता होने का गौरव प्राप्त है। किंतु मुसोलिनी की फासिस्ट नीति ने कुला सुकुमारी का गला घोट दिया।

रूस तो इस सदी में युद्ध का प्रांगण ही रहा। जारशाही का दमन, अगस्त की सफल साम्यवादी क्रांति और नात्सीवाद के खूँखार शेर का आक्रमण–इस तरह रूस शोषण, संघर्ष और संग्राम से क्षत-विक्षत था; फिर भी वहाँ साहित्य की आशातीत उन्नति हुई। क्रांति के पूर्व चेकोव और गोर्की के पन्नों में शोषित जनता की तकलीफों का इतिहास संचित है; किंतु उनकी कला मानवता को जंजीरों में जकड़ा हुआ ही नहीं देखती, आजादी के लिए लड़ती, मरती और आजाद हुआ भी देखती है। इनसे भिन्न टालस्टाय अद्भुत कलाकार के रूप में हमारे सामने आते हैं, जिन्होंने जहाँ एक ओर रूसी जीवन की बेजोड़ तस्वीरें दी हैं, वहाँ दूसरी ओर देहात के जमींदार का वह चित्र प्रस्तुत किया है जो ईसामसीह के पीछे पागल बना घूमता है। क्रांति के बाद सोवियत साहित्य में परिवर्तन आया है। इस नई धारा में कलाकारों ने अतीत काल से चली आती हुई परंपरा के साथ वर्तमान का संबंध जोड़ने का प्रयास किया है। यही चेतना शोलोखोव के उपन्यासों ‘ऐंड क्वायट फ्लोज दी डान’ आदि, अलेक्सी टालस्टाय के उपन्यास ‘दी रोड टू कैलवरी’ और एरेन बुर्ग के उपन्यास ‘फाल आफ पेरिस’ में मुखर है। इस काल का सोवियत साहित्य इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि उद्देश्य-मूलक साहित्य भी श्रेष्ठ हो सकता है, अगर उसमें अनुभूति की गहराई और कला की परिष्कृति हो।

इसी सदी का आयरिश साहित्य जीवन और जागृति से स्पंदित हो रहा है जिसमें जे. एम. सिंगी, डब्ल्यू. बी. ईट्स और लेडी ग्रीगोरी प्रमुख हैं। डेनमार्क में जे. भी. जेनसीन और विख्यात सर्वहारा लेखक मार्टिन एंडरसन नीक्सो ने उपन्यास के द्वारा साहित्य के गौरव की अभिवृद्धि की है। सेल्मा लेगरलॉफ और ए. ए. कार्ल फेलड्ट ने स्वीडन की साहित्यिक परंपरा को अक्षुण्य रखा है तथा फिनलैंड निवासी एफ. ई. सिलानपा ने नोबेल-पुरस्कार-विजेता होकर संसार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। बेल्जियम के एम. मास्टरलिंक, चेक उपन्यासकार और नाटककार कापेक, आस्ट्रिया के बार और हंगरी ई. कोलनार भिन्न-भिन्न राष्ट्रों के प्रतिनिधि कलाकार हैं। यूरोप के अन्य राष्ट्रों का साहित्य नगण्य है।

वैभव और ऐश्वर्य से जगमग नई दुनिया के जाज्वल्यमान नक्षत्र अमेरिका की अपनी कोई साहित्यिक परंपरा नहीं है। बीसवीं सदी में वहाँ के साहित्य का सर्वोत्तम विकास हुआ है। यूजेन ओ नील के नेतृत्व में नाटकों का अभूतपूर्व विकास हुआ, किंतु हालीवुड की फिल्मों की जगमगाहट ने नाटककारों की आँखों में चकाचौंध पैदा कर दी है, जिससे नाटकों की उन्नति और विकास भविष्य के गर्भ में है। उपन्यास क्षेत्र में अमेरिका ने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है। पर्ल. एस. बक का ‘गुड अर्थ’ विश्व-साहित्य की अमर कृति है। इसके अतिरिक्त सिनक्लेयर लेवीस, अपटन सीनक्लेयर, डौस पैसोस और काल्डवेल ने भी विश्व का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। अमेरिका के नीग्रो में भी चेतना की नई लहर आई है और वे भी अपने साहित्य का विकास कर रहे हैं जिनमें पाल लारेंस डनवर प्रमुख हैं।

यह अत्यंत दु:ख की बात है कि साहित्य और कला की अखंड परंपरा के बावजूद भारत को छोड़कर एशिया के साहित्य का इस सदी में नाम मात्र का विकास हुआ है। साम्राज्यवादियों के चंगुल में फँसे रहने के कारण एशिया के अधिकांश राष्ट्रों ने अपनी संस्कृति विस्मृति के गर्त में डूबा दी और पश्चिमी सभ्यता का अंध अनुकरण किया। मध्य एशिया के समस्त राष्ट्रों में सिर्फ टर्की में साहित्य का थोड़ा विकास हुआ! सुदूर पूर्व के छोटे-छोटे राष्ट्र गुलामी की जंजीरों में जकड़े हुए अभी तक जीवन और मरण की लड़ाई लड़ रहे हैं। महान राष्ट्र चीन आजाद होते हुए भी गृह विद्रोह से जर्जर हो गया था। नवीन साम्यवादी चीन द्रुत गति से उन्नति के पथ पर अग्रसर हो रहा है, फिर भी अभी साहित्य नगण्य है।

अपार औद्योगिक उन्नति के फलस्वरूप जापान ने अपनी परंपरा को तिलांजलि देकर अंग्रेजी स्वच्छंदवाद और रूसी यथार्थवाद का समन्वय अपने साहित्य में किया। कविता की जो स्वाभाविक और स्वच्छंद धारा चंचल गति से बल खाती हुई कवयित्री इचियो और कवि तो सोन के काव्य में प्रवाहित हो रही थी, वह फासिस्ट शासन रूपी मरुभूमि में विलीन हो गई।

इस शताब्दी में अन्य शताब्दियों की तरह भारत ने अपनी सभ्यता और संस्कृति की चिरंतन परंपरा को अक्षुण्य रखते हुए एशिया का नेतृत्व किया! विदेशियों ने सिर्फ इसके शरीर पर अधिकार किया था, उसकी उन्मुक्त आत्मा अभी भी ज्ञान-विज्ञान, दर्शन और साहित्य में विश्व को चुनौती दे रही थी। कवि गुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने भारत की इसी पुनीत भूमि में जन्म लिया था, जिन्होंने पूर्व और पश्चिम को अपने अमर स्वरों में बाँध लिया, जिससे वसुधा का कण-कण स्वर्ग के सौंदर्य से जगमगा उठा! इस काल का भारतीय साहित्य विस्तृत, विविध और सतरंगी है–हिंदी, बंगला, गुजराती, मराठी, उर्दू, तमिल, तेलगु, मलयालम और कनाड़ी में अगाध रस भरा पड़ा है।

इस सदी में आधुनिक हिंदी साहित्य का अभूतपूर्व विकास हुआ, जिसके फलस्वरूप हिंदी राष्ट्रभाषा के गौरवान्वित पद पर आसीन हुई। उसी काल में जहाँ एक ओर छायावाद की स्निग्ध अंचल-छाया में प्रेम, कल्पना और सौंदर्य के नंदन कानन से मुरली की मादक तान झंकृत होती है, वहीं दूसरी ओर हमें प्रगतिवाद में दुनिया की कराहें और फुफकारें सुन पड़ती हैं, जिसमें यथार्थ पोर-पोर और रग-रग में तिलमिला रहा है। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, नरेंद्र, आदि नामों का स्मरण करते ही इस युग की इंद्रधनुषी और बहुमुखी कविता का आभास मिल जाता है। उपन्यास और कहानी का तो यह स्वर्णयुग ही है। इसी काल में उपन्यास-सम्राट प्रेमचंद का प्रादुर्भाव हुआ जिनका ‘गोदान’ विश्व-साहित्य की अमर निधि और यथार्थवाद की अन्यतम रचना है। भगवतीचरण वर्मा की ‘चित्रलेखा’ अनातोले फ्रांस के ‘थायस’ के टक्कर की है, अज्ञेय का ‘शेखर एक जीवनी’ जेम्स ज्वायस के ‘यूलीसिस’ की याद दिलाती है और यशपाल के ‘देशद्रोही’ में युद्ध-जनित संघर्षमय परिस्थितियों का सफल चित्रण है। नाटकों में भी आशातीत सफलता मिली। प्रसाद के काव्यात्मक नाटकों के पश्चात श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र ने समस्या नाटकों की रचना की। आधुनिक नाटककारों में बेनीपुरी जी अग्रगण्य हैं, उनकी ‘अंबपाली’ में अभिनयात्मक और काव्यात्मकता का अपूर्व संयोग है।
अन्य भारतीय साहित्य में बंगला के नजरुल इस्लाम और शरतचंद्र, उर्दू के इकबाल, गुजराती के श्री के. एम. मुंशी और तमिल के सुब्रमण्यम भारती अपनी-अपनी अमर कृतियों के द्वारा चिरस्मरणीय रहेंगे।

भारतीय साहित्य नवीन साहित्यादर्शन के अनुसंधान के लिए निरंतर प्रयत्नशील है। नई सांस्कृतिक चेतना अपनी अभिव्यंजना का उपयुक्त माध्यम ढूँढ़ रही है, उसमें स्वर्णिम भविष्य की लाली है।


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प्रो. जयनारायण द्वारा भी