आज का जापानी साहित्य

आज का जापानी साहित्य

पिछली लड़ाई के बाद जिस दिन जापानी सरकार ने आत्म-समर्पण किया उस दिन जापान के कम से कम तीन ऊँची उम्र के उपन्यासकार अवश्य जीवित थे। ये लोग हमारे हिंदी के अधिकतम उपन्यासकारों से अधिक ऊँची उम्र वाले हैं, मेरा मतलब काफू नगाई, हाकूचो मसूमूने और जुनीचीरो तानीजाकी से है।

काफू नगाई का जन्म 1879 में हुआ था। कहा जाता है कि इन्होंने ही सबसे पहले फ्रांसीसी साहित्य से लेकर प्रकृतिवाद और प्रतीकवाद जापानी साहित्य में प्रादुर्भूत किया। उसका बीज बोया। इन्होंने यूरोपीय साहित्यों का गहरा अध्ययन किया है और उससे बहुत प्रभावित भी हुए हैं। दूसरी तरफ हाकूचो मसूमूने जापानी साहित्य के प्रकृतिवादी आंदोलन में एक केंद्रीय विभूति रहे हैं हालाँकि इनका प्रेरणास्रोत विदेशी साहित्य शायद नहीं रहा। इनका जन्म भी उसी साल हुआ था जिस साल काफू नगाईका, जुनीचीरो तानीजाकी इन दोनों से लगभग सात साल छोटे हैं और उन पर अधिकतर बर्त्तानवी लेखक औस्कर वाइल्ड का बहुत प्रभाव रहा है और परिणाम स्वरूप उन्होंने पर्याप्त उद्दीप्तिमूलक उपन्यास लिखे हैं। वे बर्नार्ड शॉ की तरह वाइल्ड से प्रेरणा लेकर भी समाजवाद की ओर कभी नहीं मुड़ सके।

दूसरी लड़ाई के पहले तक ये तीनों लेखक बराबर लिखते रहते थे और इसी कारण इन्होंने अपने देश में काफी नाम भी कमाया। जब वे लोग युवा थे तो उनपर यूरोपीय साहित्य के प्रभाव भले बने रहे परंतु जैसे-जैसे उम्र में परिपक्वता आती गई वैसे-वैसे इनकी मौलिकता भी बढ़ती गई और जापानी जनता अनुवादों से ऊबकर इनकी कृतियों में कुछ नयापन का आनंद अनुभव करने लगी।

काफू नगाई ने जापान के पुराने परंपरागत नैतिक मूल्यों को ललकारा। अपने देश में बढ़ते हुए केंद्रीकरण और राज्य के अधिकारों और हस्तक्षेपों को भी धता बताया और आम आदमी के उच्छ्वासों और उसकी भावनाओं को उन्हें वर्गेतर रूप में ही सही साहित्य में प्रतिफलित किया। इनकी कृतियाँ सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक कुरीतियों के विरुद्ध रोष भरी शिकायत की तरह से हैं, न कि आम जनता के बढ़ते हुए वर्ग-संघर्ष की तरह।

हाकूचो मसूमूने नगाई से इस संबंध में एक कदम आगे रहे । उन्होंने रूस-जापान युद्ध के बाद जापान में जो पूँजीवादी अवसरवाद जोर पकड़ गया था, उसका तीव्र प्रतिवाद किया और इस तरह प्रगतिवादी आंदोलन में वे अधिक अच्छी तरह आ पाए। परंतु सर्वहारा की वर्ग-चेतना इनमें भी नहीं थी। अपनी कुंठा के ज्वार में ये संघर्ष की तरफ न बढ़कर कुछ अति-अर्वाचीन अध्यात्मवाद की तरफ और कुछ निहिलिज्म की तरफ बढ़ चले और शायद इसी ‘महान पलायन’ में ये हर नवीन धारा और साहित्यिक टेकनीक के सामयिक उपासक बन बैठे। यों कई जगह नवीनता की खोज की इस तीव्र उत्कंठा के कारण इन्होंने वैज्ञानिक तथ्यों की भी उपासना की है और वहाँ इनकी प्रतिभा का निखार अच्छा उतर पाया है।

जुनीचीरो तानाजाकी को इस सामाजिक ‘गर्द-गुबार’ से कोई अधिक मतलब नहीं रहा। उन्हें अपनी मध्यवित्त श्रेणी की औरतें ही अधिक अच्छी लगीं। वे उनकी ही मनोवैज्ञानिक खोज अपने उपन्यासों में करते रहे। कुछ फ्रायड का रंग भी चढ़ा परंतु बहुत गहरा नहीं। उनके नायक और नायिकाएँ जापान के मैजी सुधारों के पूर्व के व्यक्ति ही रहे हैं और हैं।

यह नहीं कि जापानी साहित्य के अन्य सृजक इनके अलावा नहीं हुए। उनकी संख्या काफी थी परंतु वे सबके सब दूसरी लड़ाई के अंदर ही परलोक सिधार गए। परंतु ये तीनों आज भी जीवित हैं। लड़ाई के जमाने में इन्हें सरकारी हुक्म के कारण लिखने से रोक दिया गया, क्योंकि इन्हें ‘अत्यधिक उदारवादी’ समझा गया था, अत्यधिक उग्र नहीं, वर्ना तो किसी कन्संट्रेशन कैंप की हवा खाते होते, ज्योंही लड़ाई समाप्त हुई, इन लोगों ने अपने पुराने उत्साह से फिर लिखना शुरू किया है।

जापान में इस साहित्यिक त्रिमूर्ति के बहुत से अनुयायी हुए, परंतु उनकी उम्र कम थी इसलिए ज्योंही युद्ध आया त्योंही उन्हें सेना में जाना पड़ा। उस प्रक्रिया में बहुत से तो लिखना ही भूल गए और कुछ अतिराष्ट्रीयतावादी समरवाद के ज्वार में बह गए, युद्ध के बाद अपना अतीत भूलकर इनमें से कुछ एकदम नए सिरे से लिखने लगे हैं। परंतु इस दूसरी किस्म के लेखकों ने लड़ाई के बाद से अधिकतर लिखना बंद ही कर दिया है। आजकल तो जापान में वे ही लेखक सामने आते हैं जो लड़ाई से पहले उदारवाद से लेकर साम्यवाद तक के मानने वालों में गिने जाते थे।

दूसरे युद्ध के बाद जापानी साहित्य की बहुत कुछ वैसी ही हालत रही जैसी कि पहली लड़ाई के बाद यूरोपीय साहित्य की। चारों ओर धुंध-सी छाई हुई नज़र आती है। लेखकों को रास्ता नहीं सूझ रहा है। परेशानी एक और यह है कि आज की दुनिया पहली लड़ाई के बाद की दुनिया नहीं रही है। भौतिक रूप से, सामाजिक और आर्थिक रूप से, राजनीतिक और मानसिक रूप से, इसलिए जापानी साहित्य में इस परिवर्तन के प्रतीकात्मक लक्षण दिखने लगे हैं, एक ओर नयी टेकनीक की खोज हो रही है जिसके सहारे आज ही संश्लिष्ट दुनिया का चित्र जापानी जनता के सामने पेश किया जाएगा। दूसरी तरफ फ्रायड को खुदा मानने वाले लेखक भी कसरत से खड़े हो रहे हैं, जो हर बात में सेक्स देखते हैं, फिर तीसरी शाखा उन लेखकों की है जो सब-के-सब नैतिक मूल्यों पर अपनी शंकाएँ प्रकट करने लगे हैं। वे फ्रांसीसी कवि वौडेलियर की तरह अपने को दर्शन के समुद्र में डुबा लेना चाहते हैं। परंतु ध्यान रहे उनका दर्शन भारतीय अध्यात्मवाद की उन शाखाओं के निकट नहीं है जो विश्व को सुखमय स्वर्ग बनाना चाहता हो, उनका दर्शन कुंठा और पलायनवाद का दर्शन है। इस कोटि के लेखकों में से अभी पिछले सालों में दो की मृत्यु हो गई है। एक ने तो खुदकुशी कर ली और दूसरा बीमारी से मरा। यह बीमारी उसे जीवन से निराश होने के कारण ही हुई थी।

यासूनारी कवाबाता (जन्म 1899) एक ऐसे उपन्यासकार हैं जो सदा रुमानी प्रेम की नाजुक मनोवैज्ञानिक खोज करते रहते हैं, इनकी संतति के बहुत से लेखक अब जापान में नहीं बचे हैं। पिछली लड़ाई के समय उनमें से अधिकतर या तो मर गए या अब साहित्यिक रूप से खामोश हो गए हैं ।

योशियो तोयोशीमा (जन्म 1890) अधिकतर काल्पनिक कथाएँ लिखा करते हैं, जिनकी यथार्थता की संभावना भी नहीं दीख पड़ती है। परंतु कभी-कभी इन्हें आजकल की राजनीति में भी रुचि जान पड़ती है। हालाँकि इस कोटि के लेखकों को राजनीति में दिलचस्पी होती नहीं है। ये लोग व्यक्तिगत जीवन के मनोविज्ञान पर और सौंदर्यबोध पर बहुत अधिक जोर दिया करते हैं। ये लोग आदर्शवादी हैं, मानवतावादी हैं और साथ ही व्यक्तिवादी भी। इन्हीं में एक लेखक सानेयात्सु मुशाकोजी भी हैं। इन्होंने एक आदर्शवादी जीवन का चित्र खींचा है जो सहकारिता पर आधारित है। लगभग वैसा ही जैसा कि फ्रांसीसी लेखक जूल रोम्यां ने अपने उपन्यास ‘नया गाँव’ में खींचा है। इसी तरह से एक नायोया शिगा हैं। ये सदा अपने को मॉडल बनाकर जनता के सामने खुलेआम पेश करते हैं। कहा जाता है कि बहुत से नौ-जवान लेखक इनकी पूजा किया करते हैं, और इनके पदचिह्नों पर चलने की कोशिश करते हैं।

ऊपर जापानी साहित्य में प्रकृतिवादी आंदोलन का जिक्र आया है, इसमें भाग लेने वाले वे लेखक हैं जो अपने लेखन में अपनी बीती ही लिखना चाहते हैं, और उसके जरिए अपने अच्छे-बुरे कामों की आत्म-स्वीकृति जनता के सामने रखना चाहते हैं। आज के जापानी साहित्य में ऐसे आत्म-स्वीकृति वाले और आत्म-जीवनी वाले उपन्यास बहुत बड़ी संख्या में आते हैं। अलग अलग लोग इसके अलग अलग कारण बतलाया करते हैं। परंतु आम तरीके से यह समझा जाता है कि आज के जापानी जीवन में व्यक्ति और समाज के बीच एक बहुत बड़ी खाई खुद गई है। जापानी राजनीति आज नेतृत्व-विहीन है। आम आदमियों को सुखद और स्वर्णिम भविष्य की कोई आशा नहीं दीख पड़ती है। हालाँकि सामंतवाद की समाप्ति को जापान में सौ साल होने को आए तो भी इस अरसे में वह राजनीतिक शिक्षा जनता को नहीं मिली जो यूरोप या दक्षिणी-पूर्वी एशिया में लोगों को संकटमय कालों से गुज़रने के कारण मिल सकी। इसका परिणाम यह हुआ है कि आम लोग राजनीति के प्रति पर्याप्त उदासीन हैं और यह जानने की कोशिश ही नहीं करते कि राजनीतिक रूप से उनके चारों तरफ क्या हो रहा है। परंतु एक व्यक्ति के नाते हर जापानी का अपने जीवन का एक उद्देश्य होता है और वह उसके अनुसार अपना जीवन निर्वाह करने का यत्न करता है। इसलिए, जापानी लेखक आज व्यक्ति का जीवन तो मजे से देख परख सकता है। परंतु समाज का जीवन (राजनीति) देखने-परखने की उसकी क्षमताएँ विकसित नहीं हो पाई हैं। और अधिकतर उपन्यास सामाजिक वातावरण को चित्रित करने के स्थान पर व्यक्ति की आशा, आकांक्षा, लालसा-अभिलाषा दिखलाने के लिए लिखे जा रहे हैं।

पिछली लड़ाई की ओर खासकर परमाणुबम की भयानकता देखने के बाद जापान की अधिकांश जनता युद्ध से डरती है और पुन: शस्त्रीकरण के विरुद्ध है। वह अनुभव करती है कि आज वह युद्ध के अधिक निकट है बनिस्बत इसके कि जब जापान ने आत्म-समर्पण किया था। यह विचार उन्हें सतर्क संघर्ष की ओर न ले जाकर राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं से विमुख करता है, और जिसका सीधा अर्थ व्यक्तित्व की ओर खिंचाव होने में होता है। आत्म-स्वीकृति या आत्मचरित मूलक उपन्यासों में शिकायतें अधिक रहा करती हैं और आदर्शवाद कम–विपत्तियों की कथाएँ बीमारी, गरीबी, असफल प्रेम या पारिवारिक झगड़ों की दास्तानें भूले दिनों की मधुर यादें और उसके बाद आहें इत्यादि।

इस हालत की आलोचना करने के लिए खास-खास कोशिशें की जा रही हैं, और अब धीरे-धीरे शोषित जनता के चित्र भी, निरपेक्ष रूप से ही सही पर, सामने आने लगे हैं, तत्सुजो, शिकावा और फुमियो नीवा जैसे लेखकों ने अधिकतर अपने उपन्यासों में ऐसी समस्याओं को लिखा है और साथ ही युद्धोत्तर जापान में आम जनता के भावों, विचारों, जीवन और सामाजिक परिस्थितियों में जो परिवर्तन हुआ है उसका केवल हवाला ही नहीं लंबी-चौड़ी चर्चा और विश्लेषण रहता है।

इन सब में एक बात बहुत साफ तरीके से सामने आती है। आज के जापान में लेखकों के लिए केवल लेखन के पेशे को लेकर जीवन-निर्वाह करना बहुत कठिन है। बहुत से ऐसे उपन्यासकार हैं जो चटपटी चीजें लिखते हैं और जिनकी किताबें खूब बिकती हैं। वे कोई उच्च कोटि के उपन्यास लिखने में सर्वथा असमर्थ हैं। वे ऐसा कुछ लिखना भी नहीं चाहते हैं। यों एक-आध ऐसे भी हैं जो एक ऊँचे किस्म का उपन्यास लिखते हैं और जब खाने-पीने की तकलीफ हो जाती है तो फिर कलम रगड़ एक ‘लोकप्रिय’ कृति प्रस्तुत कर देते हैं। परंतु ऐसे लेखकों की ओर बुद्धिजीवी तबका कुछ अधिक ध्यान नहीं देता है।

ऊपर जिन जापानी लेखकों का जिक्र आया है वे युद्ध पूर्व ही एक लेखक की हैसियत से अपना नाम कर चुके थे और फिर लड़ाई के बाद से लिखने लगे हैं। इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि पिछले युद्ध ने नए लेखकों को जन्म ही नहीं दिया। दर्जनों नए लेखक जापानी साहित्य में सामने आए हैं। अधिकतर युद्ध की घटनाओं और परिस्थितियों को अपनी पृष्ठभूमि बनाकर या मानकर लिखने लगे हैं इनमें से शोहाई ऊका नामक लेखक ने इधर काफी नाम कमाया है। इनके उपन्यासों में एक अजीब-सी चमक हुआ करती है, ऐसा कहा जाता है।

युद्ध के बाद से जापानी साहित्य में एक बिल्कुल नई धारा महिला लेखिकाओं के साहित्यिक मैदान में आने के कारण चल पड़ी है। युद्ध से पहले ये कहीं इक्की-दुक्की देखने को मिला करती थीं। परंतु आज ऐसी बात नहीं है। फुमिको हयाशी एक नामी जापानी कवयित्री युद्ध के बाद ही हुई और प्रसिद्ध महिला कम्यूनिस्ट लेखिका युरिको मियामोतो की कलम का लोहा तो उनके विरोधी भी सदा मानते रहे। उन्होंने अपने जवानी के अनुभवों के आधार पर कई उपन्यास लिखे जो जापान में बहुत अधिक पढ़े गए और आलोचित हुए, परंतु आज दोनों की मृत्यु हो चुकी है।

इतना तो कहना ही होगा कि जापानी साहित्य ने युद्ध के बाद से काफी प्रगति की है। बहुत सी अपनी पुरानी जमीन वापिस ली है। फिर भी युद्ध के घाव इसको गहरे लगे हैं और युवक लेखकों के लिए जीवन-यापन आसान नहीं रहा है। आज की जापानी मानसिक परिस्थिति बहुत ही अधिक असंतुलित और परिणाम स्वरूप बहुत ही अधिक अस्थिर है, हालाँकि जापानी काव्य का इतिहास बहुत पुराना है तो भी आज की जापानी कविता में गति-अवरोध उपस्थित हो गया है। वह तालाब की गंदगी की तरह हो गई है। परंतु रंगमंच की हालत उतनी बुरी नहीं है। काबुकी की पुरानी कला आज भी काफी बड़ी भीड़ अपनी ओर खींच ही लेती है। आज का रंगमंच जापान में युद्ध-पूर्व के रंगमंच तक किसी तरह से पहुँच ही गया है, एक नई धारा यह है कि सद्य: अतीत की ऐतिहासिक घटनाओं को उपन्यासों में चित्रित और रंगमंच पर अभिनीत किया जाए। इसका एक उदाहरण एक उपन्यास है जिसमें 26, फरवरी 1936 की फौजी राजबंदी के चित्र खींचने की कोशिश की गई है, परंतु ऐसी कृतियों को रस-प्रभाव के विचार से साहित्य और इतिहास के बीच में ही रखना पड़ेगा।

सामान्यतया यह देखा गया है कि आज के जापान में अधिकांश लेखक जनवाद के अच्छे समर्थक हैं। वे अपने विचार और अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की रक्षा के प्रति आज पहले से कहीं अधिक सजग हैं। और जहाँ कहीं इस स्वतंत्रता पर चोट तो क्या आँच भी आने का खतरा रहता है वहाँ संघर्ष के लिए तैयार रहते हैं ।


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Artist: Vasily Vereshchagin
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