आंद्रे ज़ीद
- 1 April, 1950
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- 1 April, 1950
आंद्रे ज़ीद
प्रचलित कहावत है ‘आदमी सामने रखता है, भगवान अस्वीकार करता है। ज़ीद ने इसे उलट दिया है। ज़ीद के अनुसार आदमी, कलाकार के रूप में, भगवान की सृष्टि में से वह चीज चुन लेता है जिसे वह कला में परिवर्तित करेगा।
मार्सेल प्रू, आंद्रे ज़ीद और जेम्स ज्वायस उपन्यास-कला में युगांतर उपस्थित कर देने वाले लेखक हैं। साधारणत: आज का मौलिक प्रयोग दो दिनों के बाद सुपरिचित परिपाटी बनकर रह जाता है। ये उपन्यासकार, इसके विपरीत, अपने समय से कदम, दो कदम नहीं, लग्गियों आगे थे; आज का उपन्यासकार भी उनके बराबर नहीं आ पाया है। आज भी उनकी मौलिकता परिपाटी नहीं बनी है, न उनके प्रयोग पिटी-पिटाई लीक।
इन तीनों उपन्यासकारों में पहले दो फ्रांस के हैं और तीसरा इंग्लैंड का। कलागत प्रयोगों के संबंध में फ्रांस जितना ही ग्रहणशील और सहिष्णु है इंग्लैंड उतना ही संकीर्ण और अपरिवर्तनवादी। इसका एक प्रमाण तो यही है कि इंग्लैंड का और अंग्रेजी में लिखने वाला, जेम्स ज्वायस पेरिस में रह कर लिखता था और वहीं अपनी रचनाएँ प्रकाशित करता था।
पर प्रू और ज़ीद फ्रांस के लिए भी समय से बहुत आगे थे। ज़ीद अपने उपन्यास Les Faux-monnayeurs को अपनी सर्वोत्कृष्ट रचना मानता है, पर फ्रेंच में भी यह सहज ग्राह्य न हो सका। यदि पुस्तक को पाठक ग्रहण न कर सकें तो शायद वे पुस्तक-लेखन की विस्तृत कहानी को पसंद करें! इसलिए ज़ीद ने Le Journal des faux-monnayeurs की रचना की।
इस दृष्टि से यह पुस्तक भी असफल ही रही। ज़ीद की असफलता पर एक आलोचक का यह मनोरंजन कथन बहुत दूर तक ठीक है। एक बार एक फ्रेंच सेनापति ने अपने अधीनस्थ सैनिक को शत्रु की व्यूह-रचना दिखा कर पूछा–‘क्या तुमने कोई युद्ध देखा है?’ ‘नहीं’–सैनिक ने कहा। इस पर सेनापति ने कहा–‘तो कल तुम देखोगे युद्ध में हारा कैसे जाता है।’ दूसरे दिन सेनापति के द्वारा संचालित सेना हार गई। ज़ीद भी अपनी दूसरी पुस्तक में प्रमाणित करता है कि हारा कैसे जाता है। पर यह भी निर्विवाद है कि ज़ीद उसी तरह एक महान लेखक है जिस तरह सेनापति महान सैनिक था।
उपर्युक्त उपन्यास के कई वर्ष पूर्व ज़ीद ने Les Caves du Vatican लिखा था। इस पर बिना गंभीरता के साथ विचार किया जा सकता तो इसे एक महान औपन्यासिक कृति माना जा सकता था। किंतु यह संभव नहीं था क्योंकि उपन्यास का एक नैतिक उद्देश्य था, या यों कहें, एक अनैतिक सिद्धांत था–अस्तित्व का अभाव कितना सुंदर है, बिना समझे-बूझे कोई काम करना कितना अच्छा है! यह उपन्यास Les Faux–monnayeurs का पूर्वाभास था और इसका संदेश था–मिथ्यावादी बनो, यही सबसे बड़ा काम है! अगर चाहते हो तो अपराध भी कर सकते हो–लेकिन अपने अपराध के लिए कोई कारण मत ढूँढ़ो!
Les caves के पूर्व के उपन्यास Les Nourritures terrestres में ज़ीद की शैली का विकास नहीं हुआ था पर विचार और भाव में मानवीयता थी। Las Caves में भाव ऊटपटांग हैं पर शैली सर्वथा परिष्कृत हो गई है।
इस उपन्यास के बाद ज़ीद ने जो आत्मचरितात्मक रचना, Si le grain ne meurt, प्रस्तुत की। वह शैली की दृष्टि से बहुत महत्त्पूर्ण है। इस पुस्तक में ज़ीद की कला स्पष्टता के साथ घोषित होती है और उसका प्रभाव अमोघ सिद्ध होता है।
तब यह लेखक ऐसी दो यात्रा-पुस्तकें लिखता है जिनकी उम्मीद उससे नहीं की जा सकती थी। अपनी अफ्रीका की यात्रा के बाद उसने अपने संस्मरण और प्रतिक्रियाएँ Voyage au Congo और Ratour du Tehad में लिपिबद्ध किए। इन मनोरंजक यात्रा पुस्तकों को पढ़कर यह कहना कठिन हो जाता है कि वे ज़ीद की लिखी हो सकती हैं। वही लेखक जो अकारण किए गए किसी कार्य–अपराध और मिथ्या-भाषण तक को–वांछनीय समझता और सिद्ध करता था, हब्शियों की दुर्दशा देख व्याकुल हो जाता है और मगर और गैंडे के साथ आत्मीयता का अनुभव करता है। डेनिस सौरेट ज़ीद पर लिखे गए अपने एक निबंध में विनोद के साथ प्रश्न करते हैं–‘वह अफ्रीका से लौटा ही क्यों? उसे तो सदा के लिए कांगो नदी पर बस जाना चाहिए था’!
ज़ीद रूस भी गया था। रूस के संबंध में उसने कोई पुस्तक नहीं लिखी पर दो परस्पर–विरोधी वक्तव्य दिए थे जिनको लेकर फ्रांस में काफी विवाद चला था। सौरेट ने अपने पूर्वोल्लिखित निबंध में व्यंग किया है–‘हम मान लें ये वक्तव्य ज़ीद के ‘अकारण कार्य’ (actes gratuit) थे–एक साम्यवाद के पक्ष में, दूसरा विपक्ष में’!
ज़ीद की सभी रचनाओं का विषय उसका अपना व्यक्तित्व है। यह व्यक्तित्व विशृंखल है पर उसी को सबका व्यक्तित्व बना कर हमारे सामने रखा जाता है। लेकिन यह बिलकुल अयुक्तिसंगत भी तो नहीं। इस प्रकार चिंतित व्यक्तित्व में सभी ढंग का पाठक अपने व्यक्तित्व के ऐसे खंडों का दर्शन करता है जिन्हें उसने कुचल डाला था और भूल जाना चाहा था।
ज़ीद युवावस्था की आभ्यंतर अराजकता को आवश्यकता से अधिक महत्त्व देता है। सच होते हुए भी मानव चरित्र का यह एक ऐसा पहलू है जो स्थाई नहीं होता। यौवन में जिस प्रकार हमारे सामने कई प्रकार के व्यवसाय सामने आते हैं और उनमें से हम एक अपने लिए चुन लेते हैं उसी प्रकार हम अपनी प्रवृतियों में से भी उस एक को चुन लेते हैं जिसे हम विकसित करना चाहते हैं। हम हर महीने अपना पेशा नहीं बदलते; इसी तरह हम अपना भीतरी पेशा, आंतरिक प्रवृत्ति भी रोज-रोज नहीं बदलते रहते। अपवाद हो सकते हैं पर साधारणत: यही होता है। वय प्राप्त होते-होते हम निश्चय करते हैं कि हम अपनी कुछ प्रवृत्तियों पर, उदाहरण के लिए अपराध करने की प्रवृत्ति पर, नियंत्रण रखेंगे और साधारणत: रखते भी हैं। ज़ीद उन प्रवृत्तियों की संभावनाओं का उद्घाटन करते हैं जिन्हें हम अस्वीकार कर चुके होते हैं। अपने यात्रा-विवरणों में ज़ीद स्वयं ऐसा ही कुछ करता पाया जाता है। उसने ‘बौद्धिक अनैतिकता’ को अपना आदर्श बनाया था पर हब्शियों की दुर्दशा से वह इस तरह चिंतित हो जाता है जैसे सत्रह साल की उम्र में हो सकता था और रूस के बारे में वह ऐसा अनुभव करता है जैसा बीस साल की उम्र में कर सकता था!
ज़ीद का साहित्यिक सिद्धांत उसके एक निबंध में यों सूत्रबद्ध है–‘भगवान् सामने रखता है। आदमी अस्वीकार करता है।’ प्रचलित कहावत है ‘आदमी सामने रखता है, भगवान् अस्वीकार करता है।’ ज़ीद ने इसे उलट दिया है। ज़ीद के अनुसार आदमी कलाकार के रूप में, भगवान् की सृष्टि में से वह चीज चुन लेता है जिसे वह कला में परिवर्तित करेगा।
लेकिन विचारों की मौलिकता और विचित्रता के लिए ही ज़ीद का वह महत्त्व नहीं जिसका दावा उसके लिए किया जाता है। उसे आधुनिक काल का सर्वश्रेष्ठ फ्रेंच लेखक माना गया है। इस कथन का आधार बहुत दूर तक उसकी शैली है। उसकी शैली की सरलता, स्निग्धता और गंभीर शक्ति उसे फ्रांस के महान लेखकों का समकक्ष बना देती है। ज़ीद के शैली और उसके विचार एक दूसरे के अनुरूप नहीं। ज़ीद का यह कृतित्व है कि उसने इनका सफलतापूर्वक संयोग कराया है।
Image Courtesy: LOKATMA Folk Art Boutique
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