आर्थर केस्लर (कलाकार या प्रचारक)

आर्थर केस्लर (कलाकार या प्रचारक)

दुनिया भौगोलिक दृष्टि से छोटी हो गई है : उसका ओर-छोर कुछ घंटों में आदमी नाप सकता है। नहीं चाहने पर भी उसके हिस्से प्राण-तंतुओं से अनुस्यूत हो गए हैं : लंदन और न्यूयार्क में राजनीति करवट बदलती है तो दिल्ली में लोग आँखें मलने लगते हैं; वहाँ के गौरांग सेठ तार खींचना शुरू करते हैं तो कलकत्ता-बंबई के भूरे सेठ चहलकदमी करने लग जाते हैं। एक तीसरी तरह से भी संसार के दूरस्थ भाग एक दूसरे के समीपवर्ती बन गए हैं : हजारों मिल दूर पच्छिम में कोई ऐसी किताब छपती है, जिसकी ओर लोगों का ध्यान जाता है, तो मुझ जैसे हिंदी के साहित्यिक अपने शहरों की दुकानों के दरवाजे खटखटाने लगते हैं।

इस तीसरे क्षेत्र में आयात ही होता है, निर्यात नहीं। अभी हमारा सांस्कृतिक-साहित्यिक व्यापार-संतुलन प्राय: सर्वथा प्रतिकूल है। फिर भी इस क्षेत्र में स्वयं-पूर्णता का प्रश्न नहीं उठता, आत्म-विकास होने पर आयात बढ़ेगा ही, थोड़ा निर्यात भी होने लगे तो क्या कहने! कहने का मतलब, अगर लिखने के लिए पढ़ना जरूरी है तो, हिंदी के लेखकों को, अपने पुराने साहित्य के अतिरिक्त, पाश्चात्य साहित्य से खूब परिचय बढ़ाना ही पड़ेगा।

सौभाग्य से हिंदी भाषियों में इसके लिए पर्याप्त उत्सुकता है। लेकिन हमारे यहाँ अक्सर गलत किताबों के ही अनुवाद प्रस्तुत होते हैं और हम पढ़ते भी हैं ज्यादातर ऐसी ही किताबों को, लेखकों को। दोनों के उदाहरण देता हूँ। जहाँ सैकड़ों उत्कृष्ट पुस्तकें पड़ी हैं जिनका अनुवाद हो जाना चाहिए वहाँ ‘रेनबो’ का हिंदी संस्करण तैयार करना क्यों आवश्यक समझा गया? इसी प्रकार, जहाँ मुझे इतनी सारी अच्छी किताबें पढ़नी थीं, वहाँ मैंने केस्लर की पुस्तकों पर जो वक्त बर्बाद किया, वह क्या सिर्फ इसीलिए नहीं कि इन महाशय की चर्चा चल पड़ी थी?

लेकिन जरा ठहर कर, सोच कर कहें तो इन दोनों घटनाओं में कोई ऐसी खास बुराई नहीं दीख पड़ती। ‘रेनबो’ स्तालिन-पुरस्कार प्राप्त उपन्यास है; केस्लर ने अंग्रेजी के आलोचकों-पाठकों से प्रशंसा की थी। मैं दोनों के बारे में मन में खीझ रख सकता हूँ, किंतु इनमें कहीं थोड़ा तो ऐसा कुछ होगा ही जो अच्छा हो। जो थोड़ा अच्छा है, उससे परिचित होना भी बुरा तो नहीं!

केस्लर को आपने जरूर पढ़ा होगा। खतरा यह है कि आपने उसे पसंद किया होगा। एक तो उसकी काफी तारीफें हुई हैं, और दूसरे, वह झोंके के साथ पाठक पर हावी हो जाने का गुण जानता है। दूसरा गुण, जो कि असल में गुण ही है, हिंदी में खास तौर पर कारगर होता है। केस्लर ही नहीं, उनके जैसे दूसरे लेखकों के रोब में भी पाठक को क्यों नहीं आना चाहिए, वस्तुत: यही दिखाने के उद्देश्य से यह निबंध लिख रहा हूँ। जिन्होंने केस्लर को नहीं पढ़ा हो उन्हें भी, इस निबंध के बावजूद, उसे पढ़ना चाहिए और तभी उन्हें मेरी तरह, खीझ अनुभव करने का अधिकार होगा।

केस्लर ने पिछले विश्व-युद्ध के समय काफी लोकप्रियता प्राप्त की थी, विशेष रूप से अपने उपन्यास ‘डार्कनेस ऐट नून’ के कारण। चूँकि उन्होंने तात्कालिक महत्त्व के विषयों पर ही सामान्यत: लिखा है, इसलिए उनकी लोकप्रियता स्वाभाविक भी थी। उनकी तीक्ष्णता और साहित्यिक प्रतिभा भी निर्विवाद है। इनके अतिरिक्त केस्लर के अनुभव की विविधता भी उन्हें सहायता पहुँचाती है। केस्लर का जन्म हंगरी में हुआ था यद्यपि वे आज इग्लैंड में रह कर अंग्रेजी में लिखते हैं। उन्होंने इंजीनियरिंग के साथ-साथ मनोविज्ञान का अध्ययन किया था और इक्कीस साल के होने के पहले पैलेस्टाइन में खेती, मिस्त्र में पत्र-संपादन और अरब में भवन-निर्माण का काम किया था। इसके बाद भी उनके जीवन की विविधता समाप्त नहीं होती–वे कभी मध्य-पूर्व में अखबार-नवीसी करते थे तो कभी ध्रुव-यात्रा करने वाले संगठन के सदस्य बन बैठे और फिर 1931 में साम्यवादी दल में सम्मिलित हो गए, एक वर्ष रूस में रहे और 1936 में स्पेन के गृह-युद्ध में संवाददाता के रूप में गिरफ्तार होकर तीन महीने तक जेल में मृत्यु दंड की प्रतीक्षा करते रहे। कुछ दिनों के बाद उन्होंने साम्यवादी दल से त्याग-पत्र ही नहीं दिया बल्कि पेरिस के साम्यवाद-विरोधी पत्र का संपादन भी किया। वहीं जर्मनों ने उन्हें बंदी बनाया पर वे इंग्लैंड भाग गए और वहाँ सेना में भर्ती हो गए। आज वे चालीस से कुछ ही ऊपर हैं किंतु उनके अनुभवों की अनेकरूपता असाधारण है।

इसी के फलस्वरूप, उनके बारे में दावा किया जाता है; उनके शब्दों के पीछे एक दबाव रहता है, एक ऐसा दबाव जो अनुभव से ही प्रसृत हो सकता है। केस्लर की एक दूसरी विशेषता की भी अक्सर चर्चा की जाती है और वह है उनकी तीव्रता जिसके पीछे भी उनके अनुभव का ही दर्शन आलोचक करते हैं। ‘डार्कनेस ऐट नून’ की प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं–“रूबोशोव के पीछे कालकोठरी का दरवाजा धमाके के साथ बंद हो गया”; ‘थीव्स ऐट नाइट’ का आरंभ होता है–‘अगर आज मैं मर भी गया तो एक ट्रक पर से गिर कर तो जरूर नहीं।’ इन पंक्तियों की तीव्रता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता किंतु इन वर्णनों में जो धक्का और आनंदोपलब्धि है उससे साफ जाहिर है कि जो तीव्रता उत्पन्न होती है वह जान-बूझकर, कोशिश से पैदा की गई है। केस्लर जिन घटनाओं का वर्णन करते हैं उनमें तात्कालिकता और असाधारणता रहती है और स्पष्टता, आवृत्ति और संशय के कारण उनमें तीव्रता का भी विकास होता है। किंतु यह तीव्रता कुछ ऐसी निरवच्छिन्न होती है कि वह उपन्यास की घटना से प्रोद्भुत होती न मालूम देकर लेखक के किसी अभाव की पूर्ति करती-सी लगती है। लेखक जैसे हमें अपनी सफाई दे रहा हो, अपने भीतर की तीव्र भावनाओं का समाधान कर रहा हो। लेखक को इस बात का आवश्यकता से ज्यादा ख्याल बना रहता है कि वह पाठक पर क्या प्रभाव डाल रहा है। यह पाठक की भावनाओं के साथ जबर्दस्ती करना है और इस बात का द्योतक है कि लेखक अपने अनुभव के बल पर अपना अधिकार समझता है कि वह दूसरों की यंत्रणाओं का वर्णन करे। इसका परिणाम होता है कि केस्लर ‘डार्कनेस ऐट नून’ के प्रधान पात्र रूबोशोव में अपने को आरोपित कर देता है और इस औपन्यासिक पात्र में लेखक की तीव्रता आ जाती है। रूबोशोव अपने जीवन के अंतिम क्षणों में इस प्रकार विचार करते हुए चित्रित किया गया है–‘लेकिन वह प्रतिश्रुत देश कहाँ है? क्या मारी फिरने वाली इस मनुष्य-जाति के लिए सचमुच कहीं था भी ऐसा लक्ष्य? वह चाहता था कि वह बहुत देर हो जाने के पूर्व इस प्रश्न का उत्तर पा लेता।’ यह रूबोशोव नहीं बोल सकता, उसके बदले बोल रहा है लेखक का वह विश्वास जो रूबोशोब की मृत्यु में व्यापक सत्य पाना चाहता है।

‘डार्कनेस ऐट नून’ प्रधानत: उन अभियोगों की व्याख्या है जो स्तालिन के अनुयायियों द्वारा अपने ही साथियों पर लगाये गए थे और जिन्हें, किसी न किसी तरह प्रमाणित कर, अभी तक क्रांतिकारी कहे जाने वालों को मृत्यु-दंड दिया गया था। यह एक ऐसी घटना है जिसपर लिखते समय तटस्थता का निर्वाह बहुत ही कठिन है। इसलिए बहुत महत्त्वपूर्ण होने पर भी इस पर गल्प-लेखकों ने कलम नहीं चलाई थी। ऐसे विषय के साथ खतरा यह होता कि हम संघर्ष को अन्यायी और उसके शिकार, इन दो पक्षों में बाँट देते हैं। तब स्वभावत: हमारी सहानुभूति दूसरे पक्ष की ओर ढल जाती है और वैसी हालत में हम न्याय करने के अधिकारी नहीं रह जाते। जिस तरह ‘रेनबो’ साम्यवादी रूस की गुण-गाथा होने के कारण ही उच्च कला-कृति नहीं मान ली जा सकती इसी तरह ‘डार्कनेस ऐट नून’ साम्यवादियों के विरुद्ध होने के कारण ही श्रेष्ठ उपन्यास नहीं माना जा सकता। इन दोनों उपन्यासों में हम पाते हैं कि जो शत्रु मान लिया गया है उसमें मनुष्यत्व की कल्पना तक नहीं की जा सकती। फिर भी केस्लर के बारे में इतना स्वीकार किया जा सकता है कि उन्होंने निर्वैयक्तिकता के साथ लिखना शुरू तो किया होगा पर शीघ्र ही वे पक्ष ग्रहण कर लेते हैं।

जिस निर्वैयक्तिकता का अभाव ‘डार्कनेस ऐट नून’ में इतना खटकता है उसका निर्वाह कोनराड के ‘अंडर वेस्टर्न आइज़’ नामक उपन्यास में पूर्ण मात्रा में हुआ है, जिसका विषय भी बहुत कुछ पहले उपन्यास के समान ही है। कोनराड में निर्वैयक्तिकता ही नहीं है; दया भी है! वे अपने ऊपर नियंत्रण रखते हैं, अपने को अपने पात्रों में आरोपित नहीं करते। ‘अंडर वेस्टर्न आइज़’ का प्रधान पात्र, भाषाओं का अध्यापक, किसी दृष्टि से कोनराड नहीं कहा जा सकता। स्वयं कोनराड ने कहा है–‘इसके पूर्व मुझे कभी ऐसी तटस्थता के लिए प्रयास नहीं करना पड़ा था’–सभी प्रकार की रुचि, इच्छा, विश्वास से तटस्थ रहने का प्रयास! ‘अंडर वेस्टर्न आइज़’ प्रकाशित होने पर अंग्रेजी भाषी जनता में विफल हो गया था और उसकी विफलता का कारण था यह निर्वैयक्तिकता, यही तटस्थता! इसके विपरीत केस्लर को जो लोकप्रियता प्राप्त हुई वह तात्कालिक महत्त्व को ध्यान में रखने के पत्रकारोचित गुण के फलस्वरूप।

केस्लर ‘डार्कनेस ऐट नून’ के प्रतिनायक, ग्लेटकिन को एक दानव के रूप में चित्रित करते हैं। वह आधुनिक रूस का प्रतिनिधि और प्रतीक बन जाता है। इसके प्रतिकूल कोनराड स्वयं ही कहते हैं–‘मेरे उपन्यास में किसी का दानव के रूप में प्रदर्शन नहीं किया गया है।’ केस्लर ने ग्लेटकिन या जेल के डॉक्टर का जिस काले रंग में वर्णन किया है, और बार-बार किया है, वह तीव्र होने पर भी राजनीति से ही अनुप्राणित है और लगता है जैसे लेखक चाहता है कि रूबोशोव कारागार का अध्यक्ष होता और ग्लेटकिन उसका बंदी! कोनराड के उपन्यास में जो जीवन-दर्शन, अनुभव की व्यापकता, भावना की लय प्राप्त होती है उसका केस्लर की पुस्तक में सर्वथा अभाव ही है। ये कुल मिल कर हमारे मन में कोनराड की साधना, उद्देश्य, योग्यता एवं विवेक के प्रति आस्था उत्पन्न कर देते हैं जबकि ‘डार्कनेस ऐट नून’ में हमें ऐसे आधार नहीं मिलते! इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि रूबोशोव और ग्लेटकिन के रूप में जो दो विकल्प हमारे सामने रखे जाते हैं उनमें कोई भी तो वांछनीय नहीं है। हालांकि पहले के संबंध में केस्लर ने स्पष्ट ही अपना पक्षपात दिखाया है। केस्लर में जेल के वातावरण के वर्णन के लिए जो कमजोरी है वह भी स्वस्थ रुचि का द्योतक नहीं कही जा सकती–वे उसमें ऐसा रस लेते हैं जो कुरुचिपूर्ण तक कहा जा सकता है।

रूबोशोव के लिए केस्लर की जो सहानुभूति है वह स्पष्ट है किंतु उसके स्वभाव-चित्रण को लेखक विश्वासोत्पादक नहीं बना सकता है। उसके पूर्वग्रहों को हम ठीक-ठीक समझ नहीं पाते। वह अंतर्राष्ट्रीय क्रांति का हामी है और उस वर्तमान रूसी राष्ट्रीयता का विरोधी जिसके समर्थक हैं ग्लेटकिन जैसे लोग। यह दो मान्यताओं का संघर्ष है जिनके प्रतीक, जान बूझ कर, विभिन्न पात्रों के रूप में, प्रस्तुत कर दिए गए हैं। पात्र केवल प्रतीक हैं अत: समूची पुस्तक में प्रयास और अवास्तविकता की छाया उपस्थित रहती है, जैसे जो कुछ महत्त्वपूर्ण है उसकी तो उपेक्षा की जा रही है और गौण बातों को प्रधानता दी जा रही है।

उदाहरण के लिए समष्टि के संबंध में रूबोशोव से जो कुछ कहलाया गया है उसी को ले लिया जाए। रूबोशोव समष्टि ‘हम’, के बारे में ग्लेटकिन के सामने एक लंबा-चौड़ा वक्तव्य दे डालता है जिसके अंत में वह कहता है–“तुमने उस समष्टि को, ‘हम’ को, मार डाला, नष्ट कर दिया।” अपने वक्तव्य के अंत में रूबोशोव उस कठपुतली के समान हो जाता है जिसे पर्दे में छिपकर उपन्यासकार नचा रहा है। केस्लर रूबोशोव के इस सीमा तक पक्षपाती है कि वे उसके साथ ईसामसीह का वातावरण संयुक्त कर देते हैं। पर वे यह भूल ही जाते हैं कि जहाँ तक राजनीतिक आन्वीक्षिकी का प्रश्न है ग्लेटकिन बहुधा उपेक्षाकृत अधिक विश्वास्य मालूम देने लगता है और वह भी लेखक के सभी प्रयास पक्षपात के बावजूद। केस्लर ने घटनाओं को जितना सरल बना दिया है उतनी वे हैं नहीं, और उनसे जो भावुकता उन्होंने निचोड़ी है वह तो बिल्कुल सस्ती और पूर्वापेक्षित है।

‘डार्कनेस ऐट नून’ की दुर्बलता केस्लर के निबंध-संग्रह ‘दि योगी ऐंड दि कमिसार’ में एकदम स्पष्ट हो जाती है। जिस रागात्मक प्रांजलता का अभाव, अपन्यास में, एक बहुत विवेकशील पाठक को ही खटकता है वह लेखक के निबंधों में प्रत्यक्ष हो जाता है। केस्लर का सार तीव्र अंत:दर्शन सतह पर ही रह जाने वाले ऐसे भावों में सिमट जाता है–(क्रांति के) पहले कुछ वर्षों में सोवियत कल्पना और रूसी वास्तविकता बहुत दूर तक घुली-मिली हुई थी। यह रूस का वीर-काल था जिसमें वीरता की कहानियों का जन्म होता है। तब धुआँ के पीछे सच्ची आग भी थी। रूबोशोव इसी आदर्श का प्रतीक है जिसे लेखक मानता है, और चाहता है कि दूसरे मानें।

1944 में केस्लर ने अपने एक पुराने और अप्रकाशित नाटक ‘ट्विलाइट बार’ को प्रकाशित किया। इसमें उन्होंने एक ऐसे कल्पित द्वीप का वर्णन किया है जिसके निवासियों के बीच एक ग्रह के यात्री आते हैं और उन्हें धमकी देकर खुशियाँ मनाने के लिए बाध्य करते हैं। किंतु इनके लौटते ही द्वीप के निवासी फिर से अपने दु:ख में निमग्न हो जाते हैं–“जब उन्हें धमका कर प्रसन्न रखने वाले आगंतुक नहीं रह गए तो उन्होंने सोचा, चलो अब तो खतरा टल गया है, हम पुन: दुखी बन जाएँ : और एक आराम की साँस लेकर वे अपनी तकलीफों में फिर रम गए।…इसी तरह के तो हम इंसान हैं–हर अभागा अपनी बदकिस्मती में आनंद उठता है!’ ‘प्रतीक’ में प्रकाशित केस्लर (केस्टलर?) पर अपने एक लेख में श्रीमती मुरियल वसी ने आलोच्य लेखक के दुख-सुख संबंधी दृष्टिकोण की जो चर्चा की है उसका आधार मुख्यत: यह नाटक ही है, यद्यपि विदुषी लेखिका ने इसका उल्लेख नहीं किया है। मनुष्य के संबंध में ऐसी धारणा व्यक्त कर लेखक ने स्वयं अपनी ही अस्वस्थ मनोवृत्ति का परिचय दिया है, जिसकी प्रसंगवश ऊपर भी थोड़ी चर्चा की भी जा चुकी है।

केस्लर ने अपनी आधुनिकतम पुस्तक ‘थीव्स इन दि नाइट’ में अपनी तीव्रताओं का विश्लेषण करने का प्रयत्न किया है। इस इतिवृत्ति में–‘थीव्स इन दि नाइट’ उपन्यास नहीं है–एक ऐसी आत्मीयता और मानवीय अनुभव की छाप है कि वह सजीव तो बन गई है किंतु जिसके प्रचारात्मक उद्देश्य को भी भुलाया नहीं जा सकता। इस बार विषय है पैलेस्टाइन संबंधी अरब-यहूदी संघर्ष। इस पुस्तक में भी अरब जाति को दानव-रूप में चित्रित करने के लिए लेखक मुख्तार नामक पात्र का निर्माण करता है। मुख्तार का कुछ उसी प्रकार चित्रण किया गया है जिस प्रकार ‘डार्कनेस ऐट नून’ में जेल के डाक्टर का–कुरूप, भोंडा, घृणोत्पादक, दानव का प्रतीक! इस पुस्तक में केस्लर अपनी अंतर्राष्ट्रीयता ताक पर रख देते हैं और यहूदियों का पक्ष लेकर अरबों के विरुद्ध विष-वमन करते हैं और इस तरह उनकी वास्तविक संकीर्णता उद्घाटित हो जाती है। दानवीय चरित्रों का सृजन कर तो लेखक–जैसे स्वीकार कर लेता है कि वह मानवीय परिस्थितियाँ प्रस्तुत नहीं कर सकता।

केस्लर प्रतिभा संपन्न सफल प्रचारक हैं और उनके कुछ अनुभवों में तीव्रता भी है किंतु उनमें उस निर्लिप्तता और निर्वैयक्तिकता का अभाव है जिसके बिना कला-कृति में उत्कर्ष असंभव है। वे यंत्रणा भोग चुकने वाले मनुष्य के स्वर में बोलकर अहंभाव का ही प्रदर्शन करते हैं!…

हिंदी का उपन्यास-लेखक केस्लर की कृतियों से इतना भर तो सीख ही सकता है कि किस प्रकार संभावनाओं से पूर्ण रचनाएँ भी कठोर आत्म नियंत्रण की अनुपस्थिति में कला कृति के बदले प्रचार मात्र बन जाती हैं।


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